‘हर अश्क सोख लेता है…………….

October 2, 2016 in शेर-ओ-शायरी

‘हर अश्क सोख लेता है वो आंख से मेरे,
रोने भी नहीं देता मुझे,  दर्द का सहरा…।’
………………………………………..सतीश कसेरा

‘इक दिल के टूट जाने से…….

September 30, 2016 in शेर-ओ-शायरी

‘इक दिल के टूट जाने से क्या—क्या नहीं टूटा,
पायल तो रही पांवों में, घुंघरु नहीं रहे………..’
………………………………………………….सतीश कसेरा

आग क्यूं उठती नहीं है………

August 11, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

आग क्यूं उठती नहीं है……..

वो तो बैठे हैं किलों में,
घुट रहे हो तुम बिलों में
आग क्यूं उठती नहीं है,
आपके मुर्दा दिलों में!

जो थे रक्षक, वे ही भक्षक
आप केवल मात्र दर्शक!
हाथ पर बस हाथ रक्खे
क्यूं बने बैठे हो बेबस!
अब तो उट्ठो ऐसे जैसे
धरती कांपे जलजलों में
आग क्यूं उठती नहीं है…….!

देश सेवा के ये धन्धे
उजले कपड़ों में दरिंदे,
भेड़ियों से नौचते हैं
भ्रष्ट नेता और कारिंदे,
क्यूं नहीं तुम शेर बनते,
रहना है गर जंगलों में,
आग क्यूं उठती नहीं है…….!

बरसों से मिमिया रहे हो
कसमसाए जा रहे हो,
वेदना को घोट अंदर
कैसे जीये जा रहे हो,
क्यूं नहीं अब चींखते हो,
रूंध चुके अपने गलों से
आग क्यूं उठती नहीं है…….!

चल कि रणभूमि सजे फिर
ज्ञान गीता का बहे फिर,
उठ खड़ें हो सारे अर्जुन,
भ्रष्टाचारी सब हिले फिर,
मुक्त हो पावन धरा ये,
जालिमों से, कातिलों से
आग क्यूं उठती नहीं है…….!
……………सतीश कसेरा

‘मुफ्त फूलों के साथ………

May 27, 2016 in शेर-ओ-शायरी

‘मुफ्त फूलों के साथ बिकती है,
खुश्बूओं में वजन नहीं होता।’
………………..सतीश कसेरा

‘यहां नहीं तो कहीं ओर ….

May 27, 2016 in शेर-ओ-शायरी

‘यहां नहीं तो कहीं ओर जल रहा होगा,
किसी सूरज के मुकद्दर में, कोई शाम नहीं…।’
……………..सतीश कसेरा

घने अंधेरे भी बेहद जरुरी होते हैं….

November 26, 2015 in ग़ज़ल

घने अंधेरे भी बेहद जरुरी होते हैं…..

घने अंधेरे भी बेहद जरुरी होते हैं
बहुत से काम उजाले में नहीं होते हैं।

उडऩा चाहेंगे जो पत्ते, वे झड़ ही जायेंगे
वे आंधियों के तो मोहताज नहीं होते हैं।

कूदती-फांदती लड़की को सीढिय़ां तरसें
छत पे जब कपड़े नहीं सूख रहे होते हैं।

डूबती कश्तियों को देख कर भी हंस देंगे
बच्चे कागज से यूं ही खेल रहे होते हैं।

हादसा, जैसे सड़क पर कोई तमाशा हो
लोग बस रुक के जरा देख रहे होते हैं।

उसके जलने की सी उम्मीद लिये आंखों में
बच्चे चूल्हे के आसपास पड़े रहते हैं।

ऐसे आकर के नहीं घौंसला बना लेते
परिन्दे उड़ते में घर देख रहे होते हैं।

वो अपने जिस्म से हर रात निकल जाती है
जानवर लाश को बस नौच रहे होते हैं।
 …सतीश कसेरा

गमछे रखकर के अपने कन्धों पर….

October 24, 2015 in ग़ज़ल

गमछे रखकर के अपने कन्धों पर….
गमछे रखकर के अपने कन्धों पर
बच्चे निकले हैं अपने धन्धों पर।

हर जगह पैसे की खातिर है गिरें
क्या तरस खाएं ऐसे अन्धों पर।

सारा दिन नेतागिरी खूब करी
और घर चलता रहा चन्दों पर।

अपना ईमान तक उतार आये
शर्म आती है ऐसे नंगों पर।

जितने अच्छे थे वो बुरे निकले
कैसे उंगली उठाएं गन्दों पर।

जिन्दगी कटती रही, छिलती रही
अपनी मजबूरियों के रन्दों पर।
……..सतीश कसेरा

काटी है रात तुमने भी ले-ले के करवटें…….

August 16, 2015 in ग़ज़ल

काटी है रात तुमने भी ले-ले के करवटें

देखो बता रही हैं, चादर की सलवटें।

उधड़ेगी किसी रोज सिलाई ये देखना

यूं इस तरहं जो लेकर अंगडाईयां उट्ठे।

पहले ही हो रही है, बड़ी जोर की बारिश

अब आप लगे भीगी जुल्फों को झटकनें।

तस्वीर मेरी सीने पे रखकर न सोइये

हर सांस मेरी नींद भी लगती है उचटने।

एकटक न देख लेना कहीं डूबता सूरज

मुमकिन है रात भर फिर वो शाम न ढले।

……….सतीश कसेरा

आंगन तो खुला रहने दो………………….

August 16, 2015 in ग़ज़ल

झगड़ों में घर के, घर को शर्मसार मत करो

आंगन तो खुला रहने दो, दीवार मत करो।

मारे शर्म के आंख उठा भी सकूं न मैं

अहसानों का इतना भी कर्जदार मत करो।

हर ओर चल रही हैं, नफरत की आंधियां

और आप कह रहे हो कि प्यार मत करो।

लफ्जों की जगह खून गिरे आपके मुंह से

अपनी जबां को इतनी भी तलवार मत करो।

हंसती हुई आंखों मेें छलक आये न आंसू

हर शख्स पे इतना भी तो एतबार मत करो।

—————–सतीश कसेरा

पसीना भी हर इक मजदूर का………….

August 16, 2015 in ग़ज़ल

कभी दीवार गिरती है, कभी छप्पर टपकता है

कि आंधी और तूफां को भी मेरा घर खटकता है।

चमकते शहर ऐसे ही नहीं मन को लुभाते हैं

पसीना भी हर इक मजदूर का इसमें चमकता है।

गए परदेस रोटी को तो घर सब हो गए सूने

कहीं बिंदियां चमकती है न अब कंगन खनकता है।

यूं ही होते नहीं है रास्ते आसान मंजिल के

सड़क बनती है तो मजदूर का तलवा सुलगता है।

ये अपने घर लिये फिरते हैं सब अपने ही कांधों पर

नहीं मालूम बसकर फिर कहां जाकर उजड़ता है।

—————-सतीश कसेरा

तूं मेरा आधार है…………..

August 16, 2015 in हिन्दी-उर्दू कविता

है कठिन जीवन बहुत,

चहुं और हाहाकार है

बोझ घर का सर पे है,

हर चीज की दरकार है।

बहन शादी को है तरसे,

भाई तक बेकार है

मात—पिता चुप हैं दोनों,

थक चुके लाचार हैं।

मैं अकेला लड रहा हूं,

तीर ना तलवार है

खट रहा हूं, बंट रहा हूं,

घुट रहा घर—बार है।

हौंसला देता है मुझको,

एक तेरा प्यार है

तूं जमीं, तूं आस्मां,बस,

तूं मेरा आधार है।

——-सतीश कसेरा

मेरे दर्द को तो नहीं छुआ……..

August 16, 2015 in हिन्दी-उर्दू कविता

अच्छा हुआ या बुरा हुआ

सब पहले ही से है तय हुआ।

कोई दूर से रहा ताकता

कोई पास हो के भी न हुआ।

मेरे दिल पे हाथ तो रख दिया

मेरे दर्द को तो नहीं छुआ।

मेरी बात वो समझा नहीं

जो कहा था मैने बिन कहा।

मुझे अब भी उसकी तलाश है

जो मुझमें है कहीं गुम हुआ।

———सतीश कसेरा

अब बियाबान मेंं जी लगता है……..

August 16, 2015 in ग़ज़ल

यहां कोई न भला लगता है

अब बियाबान मेंं जी लगता है।

आ के शमशान में है ढ़ेर हुआ

वो उम्र भर का चला लगता है।

तुम भी ले आये क्या नकाब नई

आज चेहरा तो बदला लगता है।

आप ऐसे न छुआ कीजे मुझे

मेरे अंदर से कुछ चटकता है।

गरीबी जब से है जवान हुई

घर का दरवाजा बंद रहता है।

छोडिय़े, उसको कहां ढूंढेंगे

जो कहीं आस्मां में रहता है।

………सतीश कसेरा

कोई तो दे दो वजह जीने की…..

August 16, 2015 in ग़ज़ल

कोई तो दे दो वजह जीने की

वरना मत पूछो वजह पीने की।

दर्द अब आ गया है सहना तो

क्या जरुरत है जख्म सीने की।

मेरी खता नहीं तो कैसी सजा

बात कुछ तो करो करीने की।

कोई कह दे कि याद करते हैं

आग बुझ जाये कुछ तो सीने की।

न गले लग के अब मिले हमसे

न फिर आई महक पसीने की।

———सतीश कसेरा

 

दोस्त, दुश्मन तमाम रखता हूं……

August 15, 2015 in ग़ज़ल

दोस्त, दुश्मन तमाम रखता हूं

मैं हथेली पे जान रखता हूं।

शाम तक जाम क्यूं उदास रहे

मैं तो अपनी ही शाम रखता हूं।

कफन खरीद के है रखा हुआ

आखिरी इन्तजाम रखता हूं।

जब भी चाहे उजाड़ देना मुझे

मैं जरा सा सामान रखता हूं।

मैं किसी काम का नहीं क्यूंकि

काम से अपने काम रखता हूं।

मुझे तो इसलिये बदनाम किया

मैं शहर में जो नाम रखता हूं।

……….सतीश कसेरा

थकी सोई हुई लहरों को चलकर थपथपाते हैं————————

August 15, 2015 in ग़ज़ल

थकी सोई हुई लहरों को चलकर थपथपाते हैं

समंदर में चलो मिलकर नया तूफान लाते हैं।

न आये पांव में छाले तो मंजिल का मजा कैसा
सफर को और थोड़ा सा जरा मुश्किल बनाते हैं।

अंधेरे में बहुत डरती है घर आती हुई लड़की
अभी सूरज को रुकने का इशारा करके आते हैं।

गया हो घोंसले से जो परिन्दा फिर नहीं लौटे
कभी जाकर के देखो पेड़ वो आंसू बहाते हैं।

हमें मालूम है कागज की कश्ती डूब जायेगी
मगर ये देखते हैं इससे कितनी दूर जाते हैं।

उन्हें मालूम है सबका यही अंजाम होना है

खिलौने तोड़कर बच्चे तभी तो खिलखिलाते हैं।

————————————————–सतीश कसेरा

सच जो लिक्खा, तो———————

August 15, 2015 in शेर-ओ-शायरी

‘सच जो लिक्खा, तो ये मुमकिन है

कि फंस जाओ तुम,

मुकरना चाहो, तो हर बात

जुबानी  करना।’

………सतीश कसेरा

कुछ न था हाथ की लकीरों में……..

August 14, 2015 in ग़ज़ल

कुछ न था हाथ की लकीरों में

वरना होते न क्या अमीरों में।

भरे जहान में भी कुछ न मिला

हैं खाली हाथ हम फकीरों से।

आपके प्यार से तो लगता है

बंधे हो जैसे कुछ जंजीरों से।

किसके जाने से जान जाती है

कौन रहता है वो शरीरों में।

कोई भटका हुआ ही आएगा

हम हैं तन्हा खड़े जजीरों सेे।

———सतीश कसेरा

खुशी तलाश की, तो मिल ही गई……

August 14, 2015 in ग़ज़ल

खुशी तलाश की, तो मिल ही गई

दर्द के नीचे दब गई थी कहीं।

छेड़ बैठे वो अपना ही किस्सा

बीच में बात मेरी, रह ही गई।

एक दीवार सी थी दोनों में

गिराने बैठे, तो फिर गिर भी गई।

मुद्दतों बाद वो घर आये मेरे

चलो अपनी दुआ भी, सुन ली गई।

सारी यादों की खूब कस कर के

गठरी बांधी थी,मगर खुल ही गई।

कश्ती तूफां से निकल ही आई

किसी तरह भी चली, चल ही गई।

………..सतीश कसेरा

वो नदी सी थी, मैं किनारा सा….

August 14, 2015 in ग़ज़ल

वो नदी सी थी, मैं किनारा सा

कुछ ऐसा ही मिलन, हमारा था।

खुद में बस डूबते, उतरते रहे

न समन्दर था, न किनारा था।

उसने शायद, सुना नहीं होगा

मैने शायद, उसे पुकारा था।

कसूर ये नहीं कि किसका था

सवाल ये है, क्या तुम्हारा था।

बिना देखे, गुजर गए दोनों

मुड़ के फिर देखना गवारा था।

———सतीश कसेरा

उसे मालूम था मुझको————-

August 12, 2015 in शेर-ओ-शायरी

‘उसे मालूम था मुझको

जरुरत है बहुत उसकी,

इसी खातिर मेरी नाराजगी में भी,

वो घर आता रहा।’

…..सतीश कसेरा

बाद मुद्दत के मिला तो—–

August 12, 2015 in शेर-ओ-शायरी

‘बाद मुद्दत के मिला तो लिपट—लिपट के ​मिला, रोज मिलने से तो ये मिलना बडा अच्छा लगा।’ …..सतीश कसेरा

‘मैं दूर तक भी आ गया……….^

August 11, 2015 in शेर-ओ-शायरी

‘मैं दूर तक भी आ गया, पर वो वहीं पे खडा रहा

ये उसको कैसे था पता, मैं मुड के देखूंगा जरुर।’

……….सतीश कसेरा

इतना लंबा तो नहीं होता है चिट्ठी का सफर…………

August 11, 2015 in ग़ज़ल

हरे-भरे से थे रस्ते पहाड़ होने लगे
नदी क्या सूखी, इलाके उजाड़ होने लगे।
कौन से देवता को खुश करें कि बारिश हो
रोज चौपाल में ये ही सवाल होने लगे।
लकीरे खिंचने लगी रिश्तों में तलवारों से
जमीं के टुकड़ों को लेकर बवाल होने लगे।
इतना लंबा तो नहीं होता है चिट्ठी का सफर
कि आते-आते महीने से साल होने लगे।
कमर के साथ लचकती थी और छलकती थी
प्यासी उस गगरी में मकड़ी के जाल होने लगे।
नाम तक लेता नहीं है कभी उतरने का
कर्ज के पंजों में अब जिस्म हाड़ होने लगे।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~–सतीश कसेरा

सोचता हूं अभी पाजेब बजी है उसकी………..

August 11, 2015 in ग़ज़ल

सोचता हूं अभी पाजेब बजी है उसकी………..

दूर अपने से उसे होने नहीं देता हूं

मैं ख्यालों में उसके साथ-साथ रहता हूं।

मैने दीवार पे टांगें हुए हैं फ्रेम कई

उसको मैं सोच के तस्वीर लगा लेता हूं।

खोल देता हूं कई बार खिड़कियां सारी

किसी झोंके में हवा के उसे पा लेता हूं।

कमरे में आती हुई धूप की चुटकी लेकर

उसकी तस्वीर पे बिंदिया सी सजा देता हूं।

सोचता हूं अभी पाजेब बजी है उसकी

फिर कई चाबियां जमीं पे गिरा देता हूं।

तार पर उड़ता हुआ उसका ही आंचल होगा

मैं सभी भीगी सी यादों को सूखा देता हूं।

~~~~~~~~~~~~~~~~~~–सतीश कसेरा

फिर किताबों की याद आने लगी…..

August 10, 2015 in ग़ज़ल

जिन्दगी जब जरा घबराने लगी

फिर किताबों की याद आने लगी।

कितना जागा हुआ था रातों का

अब किताबें मुझे सुलाने लगी।

उसकी तस्वीर अचानक निकली

तो वो किताब मुस्कराने लगी।

धूल का रिश्ता था किताबों से

जब उड़ाई, वहीं मंडराने लगी।

फूल सूखा हुआ मिला लेकिन

उसी खुश्बू की महक आने लगी

कुछ किताबें थी जिंदगी जैसी

जरा सा खोला तो कराहने लगी।

थूक से पन्ने कुछ ही पलटे थे

जुबां लफ्जों को गुनगुनाने लगी।

मैली जिल्दों सी जिंदगी अपनी

फटे पन्नों सी याद आने लगी।

———सतीश कसेरा

 

फूल……, किताब,……. अलमारी…….

August 10, 2015 in हिन्दी-उर्दू कविता

फूल……, किताब,……. अलमारी…….
तुमने जो फूल 
मुझे दिया था
उसे मैने एक
किताब में रख दिया था
और किताब
अलमारी में रख कर
लगा दिया था ताला।
अब उस ताले की
चाबी खो गई मुझसे
तुम्हारी तरह…।
क्या कंरु
समझ नहीं पा रही¡
ताला तोड़ा गया
तो अलमारी में
जोर की थरथराहट होगी
हो सकता है इससे
सूख चुके फूल की
पत्तियां चटक जाएं
और किताब खोलते ही
सारी पत्तियां बिखर जायें।
नहीं……जब तक तुम
नया फूल लेकर नहीं आते
मैं अलमारी……..बंद रखूंगी।
~~~~~~~~~~~~~सतीश कसेरा

उनके लब कांप गए, मेरी आंख भर आई……

August 10, 2015 in ग़ज़ल

मिले थे फिर से तो, पर बात न होने पाई

उनके लब कांप गए, मेरी आंख भर आई।

बुझ गए थे सभी चिराग मगर इक न बुझा

तो हवा जा के आंधियों को साथ ले आई।

जंहा से दूर निकल आये थे, वहीं पहुंचे

मेरे सफर में हर इक बार उसकी राह आई।

अपने हालात पे खुद रोये और खुद ही हंसे

हमीं तमाशा थे और हम ही थे तमाशाई।

मेरे हर दर्द से वाकिफ है आस्मां कितना

हम न रोये थे तो बरसात भी नहीं आई।

जिंदगी भर उनकी हर याद संभाले रक्खी

उम्र भर इस तरह हम उनके रहे कर्जाई।

~~~~~~~~सतीश कसेरा

ख्वाब मत बुन बावरी…………!

August 9, 2015 in हिन्दी-उर्दू कविता

रिश्ते के स्वेटर के

प्यार की सलाई से

ख्वाब मत बुन बावरी!

शुरु में बड़ी आसान लगेगी

लेकिन दिल तक आते-आते

कभी टूटेगी ऊन

पडऩे लगेंगी गांठे

टकरायेंगी सलाईयां

कभी गलत होंगे फंदे

समझ नहीं पाओगी

कहां पर गलत हुई?

खींचतान कर गले तक पहुंचोगी

तो कई सलाई और आ जायेंगी

सारे फंदे खींच जायेंगे

सलाईयां आपस में टकरायेंगी

तुम बेबस होकर देखोगी

कि इसी बीच

कोई जाता हुआ लम्हा

रिश्ते के स्वेटर की ऊन का

एक सिरा खींच कर ले जायेगा

और ख्वाबों की बुनाई

सर्र….से खुलती चली जायेगी

रह जायेगा बस

यादों का एक उलझा हुआ गुच्छा।

जिसका भी उलझा

आज तक न सुलझा।

———————सतीश कसेरा

कौन न छला गया……….

August 9, 2015 in हिन्दी-उर्दू कविता

किस लिये रो रही हो

नूर अपना खो रही हो

एक ऐसे के लिये जो

छोड़कर चला गया……….

वो था धोखा

पा के मौका

आके तेरे दिल में जो

आग सी लगा गया……….

प्यार कैसा प्रीत कैसी

बन गई है रीत ऐसी

देख इसको, देख उसको

कौन न छला गया……….

————–सतीश कसेरा

वरना कौन अपनी नाव देता है………………

August 9, 2015 in ग़ज़ल

पत्ता-पत्ता हिसाब लेता है

तब कहीं पेड़ छांव देता है।

भीड़ में शहर की न खो जाना
ये दुआ सबका गांव देता है।

हम भी तो डूबने ही निकले थे
वरना कौन अपनी नाव देता है।

किसी उंगली में जख्म देकर ही
कोई कांटा गुलाब देता है।

जहां बिकेगा बेच देंगे ईमां
कौन मुहमांगा भाव देता है।

जान देने का हौंसला हो अगर
फिर समंदर भी राह देता है।

जिंदगी दे के ले के आया हूं
कौन यूं ही शराब देता है।

प्यार खिलता है बाद में जाकर
पहले तो गहरा घाव देता है।
~~~~~~~~~~~~~~–सतीश कसेरा

कौन सा दर्द सुनाया जाए……….

August 9, 2015 in ग़ज़ल

कौन सा दर्द सुनाया जाए……….

नींद को ढूंढ के लाया जाए

चलो कुछ देर तो सोया जाए।

जल गई इंतजार में आंखें

अब जरा अश्क बहाया जाए।

आ के फिर बैठ गईं हैं यादें

कौन सा दर्द सुनाया जाए।

हमने जाना है दर्द जलने का

इन चरागों को बुझाया जाए।

रात को टूटेंगे कितने तारे

ये जमीं को भी बताया जाए।

अपनी तकदीर में रोना है अगर

सबको हंस-हंस के बताया जाए।

~~~~~~~~~~~सतीश कसेरा

ऐसे महसूस हम इक दूसरे को करते रहे………

August 9, 2015 in ग़ज़ल

वो जमीं आसमां भी दूर रह के मिलते रहे

हम अपने फासिलों में रहके बस तड़पते रहे।

हमारे बीच खामोशी की नदी बहती रही

हम किनारों की तरह वैसे साथ चलते रहे।

जरा सा जिक्र ही छेड़ा था उनके वादों का

वो सर झुका के बेबसी से हाथ मलते रहे।

लबों तक आ के बर्फ हो गई कितनी बातें

लफ्ज अंगारे से बनकर जुबां पे जलते रहे।

हवा हम दोनों के जिस्मों की छुअन लाती रही

ऐसे महसूस हम इक दूसरे को करते रहे।

उदास नजरों से उठकर चले गए वो तो

उनके कदमों के निशां देर तक सिसकते रहे।

~~~~~~~~~~~~~~~~~सतीश कसेरा

दूर से कब वो समझ आता है……..

August 8, 2015 in ग़ज़ल

कुछ तो होता जरुर नाता है

ऐसे कोई नहीं मिल जाता है।

उसी के सामने दिल को खोलें

जिसे कुछ हाल पढऩा आता है।

फिर कोई भीड़ ही नहीं लगती

भीड़ में जब वो नजर आता है।

किसको रख लें, किसे गिरा दें वो

ये तो नजरों को खूब आता है।

साथ चलती रहे दुनिया सारी

साथ कोई एक ही निभाता है।

उसके दिल में उतर के देखेंगे

दूर से कब वो समझ आता है।

साथ उनका तो बस बहाना था

रास्ता तो हमें भी आता है।

………….सतीश कसेरा

कहीं बेघर ने इक छत का सहारा कर लिया होता…….

August 8, 2015 in ग़ज़ल

कहीं बेघर ने इक छत का सहारा कर लिया होता

तो फिर हर हाल में उसने गुजारा कर लिया होता।

मुसाफिर का सफर थोड़ा जरा आसान हो जाता

अगर रस्तों ने मंजिल का इशारा कर दिया होता

किनारे पर ही आकर के अगर हर बार डूबेगी

तो तूफां में ही कश्ती ने किनारा कर लिया होता।

अभी बाकी तुम्हारी दास्तां थी, क्या पता उनको

वो रुक करके चले जाते, इशारा कर दिया होता।

तेरी रंगीन दुनियां देखने को वो भी तरसे हैं

जो आंसू सूख पाते तो नजारा कर लिया होता।

वो पहली चोट भारी न पड़ी होती अगर दिल पर

तो हमने इश्क भी यारो दोबारा कर लिया होता।

………….सतीश कसेरा

 

चांद पे चरखा चलाती रही……..

August 7, 2015 in ग़ज़ल

चांद पे चरखा चलाती रही……..

खुदा की दुनिया है, इसमें तो क्या कमी होगी

हमारी आंख ही में ठहरी कुछ नमी होगी।

जितना जीने के लिये चाहिये वो सब कुछ है

नहीं लगता है कि ऐसी कहीं जमीं होगी।

फिर से कोई सुना के हो सके तो बहला दे

वो सब कहानियां बचपन में जो सुनी होंगी।

चांद पे चरखा चलाती रही बुढिया कब से

इतना काता है तो कुछ चीज भी बुनी होगी।

आईना बन के चमकती है आस्मां के लिये

वो बर्फ आज भी पहाड़ पर जमी होगी।

………………सतीश कसेरा

 

कि दिल का हाल चेहरे से कुछ ब्यां न हो…

August 3, 2015 in ग़ज़ल

वो जब गली से गुजरें तो, कोई वहां न हो

घर के सिवाय मेरे कोई, घर खुला न हो।

बेहतर है कि दीवारों से, कुछ दूर ही मिलें

दीवारों के भी कान कहीं दरम्यां न हों।

मुमकिन है मिल रहीं हों, हाथों की लकीरें

पर बीच में तो कोई बुरा, ग्रह पड़ा न हो।

अब ये भी अदाकारियां, देता है इश्क ही

कि दिल का हाल चेहरे से कुछ ब्यां न हो।

ये डर भी साथ हो कि मोहब्बत की राह में

खाई तो पार कर लें, आगे कुआं न हो।

कितने ही दर्द इश्क के आंखों से बहेंगे

बस दिल जले तो ऐसे जले कि धुंआ न हो।

…………..सतीश कसेरा

कोई खिड़की नहीं, झरोखा नहीं….

August 3, 2015 in ग़ज़ल

उसने जब उठते हुए रोका नहीं

मैने भी चलते हुए सोचा नहीं।

सामने सबके गले लग के मिले

कभी तन्हाई में तो पूछा नहीं।

इतना हंसना, ये मुस्कराना तेरा

कहीं जमाने से तो धोखा नहीं।

कैसे आऊं बता तेरे दिल में

कोई खिड़की नहीं, झरोखा नहीं।

नींद आ जाए, अश्क बहते रहें

वैसे इस तरह कोई सोता नहीं।

आप हीं बदलें खुद अपना चेहरा

आईने में तो हुनर होता नहीं।

…….सतीश कसेरा

दिल का धुंआ भी तो देखा जाये….

July 31, 2015 in ग़ज़ल

 

कोई तो रंग मिलाया जाये

दिल का धुंआ भी तो देखा जाये।

बेबसी ये कि रोक भी न सको

और कोई पास से चला जाये।

जहां सेे भूले थे घर का रस्ता

फिर उसी मोड़ पे जाया जाये।

आईने और कितने बदलोगे

अक्स अपना कभी बदला जाये।

जिदंगी की किताब देखें जरा

कोई तो लफ्ज समझ में आये।

वक्त की तरह मिला हूं उनसे

क्या पता लौटकर न हम आये।

…………सतीश कसेरा

कौन किस्मत से भला जीता है……

July 31, 2015 in ग़ज़ल

कौन किस्मत से भला जीता है……….

ये उसके खेल का तरीका है

कौन किस्मत से भला जीता है।

पहुंच न पाते कभी मंजिल तक

रास्तों को भी साथ खींचा है।

सुबह दिल खूब लहलहायेगा

रात भर अश्क से जो सींचा है।

कोई दुआ या बद्दुआ तो नहीं

कौन करता ये मेरा पीछा है।

सुबह उठ जाये वो ऐसे-कैसे

रात भर बैठ कर तो पीता है।

लकीरें हाथ की न गिर जाएं

कस के मुट्ठी को जरा भींचा है।

………………सतीश कसेरा

 

खुदा का घर है आसमान, वो रहे रोशन——————-

July 5, 2015 in ग़ज़ल

खुदा का घर है आसमान, वो रहे रोशन——————-

पता करो कि कहां, किसने जाल फैलाया
सुबह गया था परिन्दा वो घर नहीं आया।

रोशनी में ही चलेगा वो साथ—साथ मेरे
कितना डरता है अंधेरों से ये मेरा साया।

मेरी आहट को सुनके बंद रही जब खिडकी
बडी खामोशी से मैं उसकी गली छोड आया।

धूप में जलते हुए उससे ही देखा न गया
पेड मेरे लिये कुछ नीचे तलक झुक आया।

मुझे पता था कि तूफान यूं न मानेगा
मैं अपनी कश्ती डूबो करके घर चला आया।

खुदा का घर है आसमान, वो रहे रोशन
कि डूबा जैसे ही सूरज, तो चांद उग आया।
.———————————————सतीश कसेरा

मैं सूरज को किसी दिन……………….

July 4, 2015 in ग़ज़ल

मोहब्बत करके पछताने की खुद को यूं सजा दूंगा
तुम्हें यादों में रक्खूंगा मगर दिल से भूला दूंगा।

रहो बेफ्रिक तूफानों तुम्हारा दम भी रखना है
किनारा आने से पहले मैं कश्ती को डूबा दूंगा।

ऐ लंबी और अकेली रातों इतना मत सताओ तुम
मैं सूरज को किसी दिन वक्त से पहले उगा दूंगा।

यूं ही घुट—घुट के रोने की मुझे आदत नहीं यारो
किसी दिन टूट कर बरसूंगा, सब आंसू बहा दूंगा।

कहानी कहने में भी हुनर की होेती जरुरत है
यूं अपना गम सुनाउंगा कि तुम सबको हंसा दूंगा।

जहर मत घोलना नफरत का, तुमको आग से मतलब
मुझे पहले बता देना,मैं अपना घर जला दूंगा।
…………………सतीश कसेरा

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