यदि तेज की तलाश हो तो अपने वीर्य को गंदी जगहों पे निवेश करने के बजाय उसे एक सही दिशा दें तो आप ब्रह्मचारी कहलाने के योग्य होंगे ।। जय श्री राम ।।

August 24, 2020 in Other

संतरूपी कविजन आप हमारी खामियाँ को पढ़कर हमे खूब कोसे खूब परेशान करे, अच्छी बात है लेकिन कोई व्यक्ति इस संसार में किसी भाषा का पूर्ण ज्ञाता नहीं होता । वैसे आज कवियों की भरमार लगी है दुनिया में, लेकिन कवि का काम लिखकर कुछ कमाना और सांसारिक झूठी ऐश्वर्य प्राप्त करता नहीे होता, बल्कि शिक्षक और कवि समाज का दर्पण होता है । वैसे गर्व की बात है कि हमारे देश में संतकवि कबीर, तुलसी, कालि, रहीम और मीराबाई जैसी महान विभूति हुये ।
।। सादर प्रणाम ।।
हमे माफ करते रहियेगा । यही आप कविजन से हमे आशा ।।
।। खूब परेशान कीजिये, कमेंट में बकलोली जैसी महान शब्द लिखिये और कमजोर व्यक्ति को आत्महत्या के पथ पे पहुँचायेगी ।।

कमाल है कवि आज के ।।

August 8, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

कमाल है कवि आज के ।
पंडित है शब्द साधक खुद को कहते है ।
दूसरों को शब्दों से पीड़ा पहुँचाते है ।
खूद को ग्यानी, सर्वश्रेष्ठ कवि कहते है ।
कमाल है कवि आज के ।।1।।

हम क्या है?
हमारी औकात क्या हिन्दी के आगे ।
खूद को हम युवा कहते दूसरों की ना निंदा करते ।
यही हमारी लेखनी का वरदान है ।
यही हिन्दी का ग्यान है ।।2।।

माता के आगे बालक सदा छोटा ही सुहाता है ।
बड़़ा होकर क्या करेगा खुद को बर्बाद करेगा क्या ?
संस्कृत हो या हिन्दी, उर्दू हो या फारसी ।
सब माता ममता के आगे फीका है ।
जिसे भाषा पे अहंकार है,
वह हिन्दी का संतान कहाँ ?
कवि विकास कुमार

गाँव मातृ-पिता समाज से बना ।।

August 6, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

होत धन के तीन चरणः-
दान प्रथम अतिउत्तम है ।
द्वितीय भोग स्वयं बचाव है ।
विनाश तृतीय चरण है ।
होत धन के तीन चरण ।।
यदि धन का व्यय मौलिक आवश्यकता पर हो,तो यह मार्ग अतिउत्तम है ।
और यदि धन का मालिक भोग-विलास में रमा हो,तो यह राह अति निंदनीय है ।
ये नहीं कर सकते धन का दान, क्योंकि ये है स्वभाव है दुराचार ।
इसी तरह होते है, दुर्जनों के धन का नाश और ये व्यर्थ ही रोते है दिन और रात ।
होत धन के तीन चरण ।।
धन-धन करते-फिरते हैं, धन के लोभी आज ।
ऐसे-तैसे धन संचय करते है, आज धन के काले संचयदार ।
जब भर जाते है, इनके काले कोठे तब करते है, ये धन का सर्वनाश ।
और व्यर्थ ही गँवाते है ऐसे लोग धन के पीछे दिन और रात ।
होत धन के तीन चरण ।।
हो सदुपयोग धन का तो मिलते है, जहां में इनके सत्फल ।
दुरुपयोग किया है धन का तो मिलते है, जहां में इनके बुरे फल ।
कर्म-कर्म पे लिखा है, हर कर्म के फल ।
सोच-समझ के हर कदम उठाना मानव!
क्योंकि हर फल के पीछे होंगे तेरे अच्छे-बुरे कर्म ।
होते धन के तीन चरण ।।
ऐ! सोच जरा मानव तुम!
मानव होके दानवता के पथ पे आगे भागता क्यूँ!
बदल उन स्वभावों को, छोड़ निजी स्वार्थों को ।
दे दान दीन-दुःखियों को, और सुफल कर अपने मानव-जन्म को ।
होत धन के तीन चरण ।।
धन-धन करता-फिरता है, मानव क्यूँ तु हरपल?
धन नहीं जायेंगे तेरे संग, इसीलिए दान कर तु धन ।
और यहीं जायेंगे तेरे संग, क्योंकि यहीं है मानव का सत्कर्म ।
होते धन के तीन चरण ।।
दान कर–2 मानव तु दान कर, व्यर्थ मत गँवा अपने धन को ।
भूल निज स्वारथ को, भूल भौतिक आवश्यकता को ।
भूल जा उन सारी बेमतलब के खर्चें को, और कम करे अपनी जेब खर्चें को ।
दान कर–2 मानव तु दान कर, व्यर्थ मत गँवा अपने धन को ।
होत धन के तीन चरण ।।
 विकास कुमार

प्रभु जी मेरो उध्दार तो करो

August 6, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

प्रभु जी मेरो उध्दार तो करो
जन्म-जन्म की पापीनी मैं
मेरा निस्तार तो करो ।
प्रभु जी मेरो उध्दार तो करो ।।
अहल्या तो तुमने तारा,
ग्यान दियो तुमने तारा को ।
मंदोदरी है भक्त तिहारा । ।
प्रभु जी मेरो निस्तार तो करो ।।
मोक्षदायक है प्रभु नाम तेरो ।
गणिका अजामिल भी तर गयो,
सुमिरन कियो तोरो नाम तो ।।
प्रभु मेरो उद्धार तो करो ।।
जन्म-जन्म की पापिनी हूँ मैं,
प्रभु जी अब दरश तो दिखाओ ।
प्रभु जी मेरो निस्तार तो करो ।।
कवि– विकास कुमार

– मैंने व्यर्थ ही जिन्दगी गँवायो रे!

August 6, 2020 in गीत

मैंने व्यर्थ ही जिन्दगी गँवायो रे!
कभी राम नाम लिया तो नहीं ।
मैंने व्यर्थ ही जिन्दगी गँवायो रे!
नर तन लेकर इस जहां में
आया नारायण को पाने को ।
भोग-विलास में रमा रहा ।
याद न आया कभी नारायण को ।।
मैंने व्यर्थ ही जिन्दगी गँवायो रे!
कभी राम नाम लिया तो नहीं ।
मिथ रिश्ते-नातें में मैं यूँही बँधा ही रहा ।
कभी साँचा रिश्ता याद आया ही नहीं ।।
मैंने व्यर्थ ही जिन्दगी गँवायो रे!

कभी राम नाम लिया तो नहीं ।।
मोह-माया के इस जन-जाल में
मैं यूँही जकड़ा ही रहा ।
कभी राम नाम सुमिरा तो नहीं ।।
मैंने व्यर्थ ही जिन्दगी गँवायो रे!
कभी राम नाम लिया तो नहीं ।।
आस-निरास के बंधन में यूँही बँधा ही रहा ।
कभी श्रद्धा और विश्वास में रमा तो नहीं ।
शिव-पार्वती को सुमिरन कभी किया तो नहीं ।
मैंने व्यर्थ ही जिन्दगी गँवायो रे!
कभी राम नाम लिया तो नहीं ।।
 विकास कुमार

कपड़े बदले, वेश बदला, बदला घर-संसारा ।

August 6, 2020 in गीत

कपड़े बदले, वेश बदला, बदला घर-संसारा ।
माया-मोह में फँसा रहा तु नर पर बदल सका न अपना व्यवहार ।
रे! क्या-क्या बदला तु इंसान-2
तन को धोया नित-नित दिन तु, पर मन को धोया कभी नहीं
अगर एक बार जो मन धो लो हो जाये तन तेरा शुद्ध ।
रे! क्या-क्या बदला तु इंसान-2
मन शुद्ध है तो तन शुध्द है, आहार शुध्द तो विचार शुद्ध है ।
जल शुद्ध है तो वाणी शुद्ध है, संगत शुद्ध तो रंगत शुध्द है ।
रे! क्या-क्या बदला तु इंसान-2
आया तु सफेद चादर ओढ़ के और मैल किया तु इस जन-जाल में ।
रोवत-रोवत अब क्यूँ मरते है, अब भी क्यूँ न राम सुमिरन करत है ।
रे! क्या-क्या बदला तु इंसान-2
माया में तो तु फँसा रहा है, एक बार भी तु नहीं राम जपा है ।
जब जानता है राम नाम है जगत में मोक्ष अधारा तो क्यूँ नहीं जपा अभागा !
रे! क्या-क्या बदला तु इंसान-2
 विकास कुमार

आजा-2 मेरे राम दुलारा ।।

August 6, 2020 in गीत

कौसल्या का आँख का तारा, दशरथ राम दुलारा ।
कैकयी सुमित्रा का है तु सबसे प्यारा
आजा-2 मेरे राम दुलारा ।।
उर में तेरा भरत का वासा,
संग में रहते लक्ष्मण न्यारा ।
शत्रुघ्न है तेरा सबसे प्यारा ।
आजा-2 मेरे राम दुलारा ।।
हनुमान है तेरा भक्तों में निराला,
और जपत रहत राम-नाम का माला ।।
आजा-2 मेरे राम दुलारा ।।
शक्ति है तेरी सीता मईया ।
भक्ति है तेरी सबरी मईया ।।
आजा-2 मेरे राम दुलारा ।।
प्रेम निश्चल है भक्ततत केवट का ।
मित्र है तेरा भक्त विभीषण ।।
आजा-2 मेरे राम दुलारा ।।
 विकास कुमार

कुछ तो शर्म करो, लाज रखो निज राष्ट्र की

August 6, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

कुछ तो शर्म करो, लाज रखो निज राष्ट्र की
कुछ तो शर्म करो, लाज रखो निज राष्ट्र की
मर्यादा राम की इस भू पे सीता की इस पवित्र जमीं पे
कुछ तो सम्मान करो निज भू की ।
कुछ तो शर्म करो, लाज रखो निज राष्ट्र की ।।
तेरे मात-पिता-भाई-बहन को पाला है, इस भू ने।
अपनी छाती चीर-चीर के दिया है, तुझे अन्न-जल, मान व सम्मान रे!
भूखे रह जाते तु, प्यासे मर जाते अगर भू-माता की कृपा ना होती ।
कुछ तो शर्म करो, लाज रखो निज राष्ट्र की ।।
तेरी हर एक खुशी के खातिर किया है माता ने खुद को निराशा रे!
तु खुश रहें जहां में यही तो हैं मा का आशा रे!
आशा-निराशा के बंधन में भी तुझे माता ने संभाला है ।
कुछ तो शर्म करो, लाज रखो निज राष्ट्र की ।।
आज भी रोती अपनी प्रारब्ध पे ये माता, दुर्जनों ने किया है आँचल इसका मैला
अगर तुझे निज मातु सम्मान है तो करो अपनी संस्कृति-धर्म व भू की बचाव रे!
अगर तु नहीं किया तो तु मातु सुत बेकार है ।
कुछ तो शर्म करो, लाज रखो निज राष्ट्र की ।।
 विकास कुमार

एक शानदार टिप्पणी करने को जी चाहता है ।

August 6, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

एक शानदार टिप्पणी करने को जी चाहता है ।
आपकी बातों को जिन्दगी में उतारने को जी चाहता है ।
कमबख्त! जिन्दगी किस रूख पे आकर खड़ी है । उसे लौटाने को जी चाहता है ।
किसी की हँसी को मुहब्बत समझा, उसकी परिणाम भुगतने को जी चाहता ।
वह गैर की दुनिया में खुश, हमें भी खुश रहने को जी चाहता है ।
तोड़ के सारे बंधन अब नयी, जिन्दगी जीने को जी चाहता ।
उसे कैसे कहूँ तेरे साथ बिताये ? हर एक लम्हा भुलाने को जी चाहता है ।
तेरे साथ सोचे, अब वो सारे सपने दिल-ही-दिल में दफनाने को जी चहाहता ङै ।
तेरे साथ किये हर वह कसमे-वादें तुझे लौटाने को जी चाहता है ।
तेरे साथ बिताये हर एक लम्हा भुलाने को जी चाहता है ।
तुझे भुलाने को कमबख्त! दिल अब मजबुर नहीं करता ।
तुझे यह मन याद करके हृदय की वेदना को भड़कना चाहता ।
हर वक्त तेरे यादों से मुक्त होने को अब जी चाहता है ।
कमबख्त! अब ये दिल यह मानने को तैयार नहीं होता ।।
 विकास कुमार

वह रहने वाली महलों में, मैं लड़का फुटपाथ का ।

August 6, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

वह रहने वाली महलों में, मैं लड़का फुटपाथ का ।
उसकी हर एक अदा पे मरना यही मेरा जज्बात था ।
वह रखने वाली टच मोबाईल, मैं लड़का कीपैड वाला ।
उसकी हर एक अदा पे मरना यही मेरा जज्बात था ।
वह पहनने वाली सांडिल है, मैं लड़का नंगे पाँव वाला ।
उसकी हर एक अदा पे मरना यही मेरा जज्बात था ।
वह लड़की नयी ख्याल की, मैं लड़का पुराने ख्याल का ।
उसकी हर एक अदा पे मरना यही मेरा जज्बात था ।
उसके पाँव पायल शोभे, मेरे पाँव सुने है ।
उसकी हर एक अदा पे मरना यही मेरा जज्बात था ।
उसके हाथ कंगन शोभे, मेरे हाथ सुने है ।
उसकी हर एक अदा पे मरना यही मेरा जज्बात था ।
उसके गले हार शोभे, मेरे गले सुने है ।
उसकी हर एक अदा पे मरना यही मेरा जज्बात था ।
उसकी होंठ लिपस्टिक लगी,मेरे होंठ टूटी ।
उसकी हर एक अदा पे मरना यही मेरा जज्बात था ।
उसकी चाल हिरणी जैसी, मेरा चाल धीमा है ।

उसकी हर एक अदा पे मरना यही मेरा जज्बात था ।
उसकी जुल्फें काली है , मेरे जुल्फ भूरे है ।
उसकी हर एक अदा पे मरना यही मेरा जज्बात था ।
वह साँवली रंग की लड़की है, मैं लड़का भूरे रंग का ।
उसकी हर एक अदा पे मरना यही मेरा जज्बात था ।
वह लड़की रईसजादी, मैं लड़का मुफ़लिसी का मारा हूँ ।
उसकी हर एक अदा पे मरना यही मेरा जज्बात था ।
 विकास कुमार

ठहरो-ठहरो इनको रोको, ये तो बहसी-दरिन्दें हैं ।

August 6, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

ठहरो-ठहरो इनको रोको, ये तो बहसी-दरिन्दें हैं ।
अगर इसे अभी छोड़ डालोगे. तो आगे इसका परिणाम बुरा भुगतोगे ।।
ठहरो-ठहरो इनको रोको, ये तो बहसी-दरिन्दें हैं ।
बहसी-दरिन्दें को बख्सना देश हित में ठीक नहीं,
ये तो सजा के हकदारी है. इन्हें देश हित में सजा देना ठीक हैं ।।
ठहरो-ठहरो इनको रोको, ये तो बहसी-दरिन्दें हैं ।
लूट लेते हैं ये किसी के बहु-बेटियों के आबरू को और
उन्हें जिन्दा दफना देते है, ये है इसकी दरिन्दगी का नजारा रे!
ठहरो-ठहरो इनको रोको, ये तो बहसी-दरिन्दें हैं ।
नजारा तो और भी देखने को मिलते है, सत्य के दरबार में,
वहाँ दुष्कर्म ग्रसित युवती से पूछा जाता है, दिखाओ अपना सबूत रे!
ठहरो-ठहरो इनको रोको, ये तो बहसी-दरिन्दें हैं ।
भरी अदालत में वह दुष्कर्म ग्रसित युवती दिखा ना पाती अपना सबूत रे!
और दिल-ही-दिल में टूट जाती है, व न इन्साफ मिलने पे वो करती है आत्महत्या रे!
ठहरो-ठहरो इनको रोको, ये तो बहसी-दरिन्दें हैं ।
इस तरह बच जाते है बहसी-दरिन्दें और फिर करते बलात्कार रे!
क्या इन्साफ है सत्य के दरबार में
जो बचा न सकती दुष्कर्म ग्रसित युवती को

ठहरो-ठहरो इनको रोको, ये तो बहसी-दरिन्दें हैं ।
 विकास कुमार

पत्थर को पूजते-पूजते थक गये हम कई वर्षों से ।

August 6, 2020 in गीत

पत्थर को पूजते-पूजते थक गये हम कई वर्षों से ।
पर क्या खाक मिला हमें, तुझसे ओ बेवफा मुहब्बत करने से ।।
पत्थर को पूजते-पूजते थक गये हम कई वर्षों से ।
उनको मुहब्बत मिले जहां मे, जो तेरे हुश्न गुलाम हो ।।
हम तो सिर्फ दिल-ही-दिल में चाहें, क्योंकि तु न बदनाम हो ।
पत्थर को पूजते-पूजते थक गये हम कई वर्षों से ।।
तु मेहरबां जो मुझसे होते, बदनसीब हम न होते ।
कट जाती यूँही जिन्दगानी खुशियों से, हम दुःखी ना होते ।।
पत्थर को पूजते-पूजते थक गये हम कई वर्षों से ।
अब ये वक्त का रूख कुछ नया अंदाज दिखाया ।।
गैर को अपना बनाके तुने अपनी अंदाज दिखाया ।
पत्थर को पूजते-पूजते थक गये हम कई वर्षों से । ।
अब टूट गये हम खूद से ही, तुझसे क्या फिर जुड़े हम ।
पर क्या खाक मिला हमे, तुझसे ओ बेवफा मुहब्बत करने से ।।
पत्थर को पूजते-पूजते थक गये हम कई वर्षों से ।
 विकास कुमार

रिश्तों के बाजार में अब तो नाते बिकते हैं ।

August 6, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

रिश्तों के बाजार में अब तो नाते बिकते हैं ।
मात-पिता को छोड़ अब वह सुत प्यारा,
अब तो सास श्वसुर के पास रहते हैं ।
रिश्तों के बाजार में अब तो नाते बिकते हैं ।
इधर-पिता माता अन्न-जल को तरसे,
उधर वह सास-श्वसुर को मालपुआ खिलाते है ।
इधर मात-पिता झोपड़ी में बसर करते,
उधर ससुराल में वह भवन बनाते है ।
रिश्तों के बाजार में अब तो नाते बिकते हैं ।
इधर भाई मूर्ख वरदराज पडें है,
उधर साले साहब को कालिदास बनाते है ।
इधऱ भाई दाने-दाने को तरसे,
उधर वह साले-साहब को रेस्टूरेण्ट में भोजन कराते है ।
रिश्तों के बाजार में अब तो नाते बिकते हैं ।
धर बहन युवती पड़ी है,
उधऱ साली-साहिबा की मंडप सजाते है ।
इधऱ बहन की आबरू लूटी जा रही है,
उधर वह साली-साहिबा की इज्जत के ठेके ले रखे है।
रिश्तों के बाजार में अब तो नाते बिकते हैं ।
इधऱ इनकी मुफलिसी पे जहां हँसे,
उधऱ वह अपनी रईसी जहां को दिखाते है ।
इधऱ इनकी मुफलिसी मौन है,
उधर वह अपनी रईसी में गुम है ।
रिश्तों के बाजार में अब तो नाते बिकते हैं ।
इधऱ मात-पिता, भाई-बहन.
अपनी किस्मत पे रोते,
और उधर वह निज सास-श्वसुर,
साले-साली साहिबा में गुम है ।
रिश्तों के बाजार में अब तो नाते बिकते हैं ।
इधर मात-पिता निज बहु को तरसे,
उधर वह निज मात-पिता में गुम है ।
इधर भाई-बहन स्व भाभी को तरसे,
इधर वह निज भाई-बहन सखियों में गुम है ।
रिश्तों के बाजार में अब तो नाते बिकते हैं
इधर ननद भाभी को तरसे,
उधर वह अपनी सखियों में गुम है।
इधर ननद निज मात-पिता की सेवा करती,
उधर बहु निज मात-पिता में गुम है ।
रिश्तों के बाजार में अब तो नाते बिकते हैं ।
शर्म भी इनसे शर्म हो चुकी है ।
लज्जा तो इन्हें आती नहीं, ये निर्लज्ज कहलाते हैं ।
रिश्तों के बाजार में अब तो नाते बिकते हैं ।
इधर-उधर की बातों को अब क्या कहें हम लोगों से ।
यह तो दहेज का दुष्परिणाम है ।
यहीं तो जहां का विधान है ।
रिश्तों के बाजार में अब तो नाते बिकते हैं ।
न दहेज की माँग होती,
न रूठती दुल्हन घर की ।
न नैहर रहती सदा के लिए ।
न मा-बाप दुल्हन को तरसती,
और न भाई-बहन भाभी को तरसते ।
रिश्तों के बाजार में अब तो नाते बिकते हैं ।
अन्ततः यही कहना हैः-
दहेज के सम्बन्ध में
दहेज घातक होता सभी के लिए ,
क्योंकि इसके कारण मर जाती युवतियाँ अविवाहित ।
शर्म करो मानव-3 समझों रिश्तों की अहमियत को,
कुछ तो कद्र करो, जहां में रिश्तों की ।
रिश्तों के बाजार में अब तो नाते बिकते हैं ।

 विकास कुमार

अपनी अदा देखाकर हुश्न के बाजार में मेरा भाव लगाया तुमने।

August 6, 2020 in गीत

अपनी अदा देखाकर हुश्न के बाजार में मेरा भाव लगाया तुमने।
मिल गया कोई रईसजादा तो इस मुफलिस गरीब को ठुकराया तुमने।।
मेरी मुफलिसी का औकात दिखाया तुमने ।
रईसों के महफिल में मेरा मजाक उड़ाया तुमने ।।
मेरी मुफलिसी का औकात दिखाया तुमने ।
पत्थऱ समझके ठुकराया तुमने।
खिलौना समझके खेला तुमने।।
मेरी मुफलिसी का औकात दिखाया तुमने।
वफा के हर मोड़ पर बेवफाई निभाई तुमने।
अपनी निगाहों का सहारा देकर,
गैरों को निगाहों में बसाया तुमने ।।
मेरी मुफलिसी का औकात दिखाया तुमने ।
कभी जुल्फें तले सुलाया तुमने ।
मीठी-मीठी गीत गुनगुनाया तुमने ।।
मेरी मुफलिसी का औकात दिखाया तुमने ।
अब वो दौर ह, गैरों को बाहों का सहारा बनाया तुमने ।
और अपनी रईसी का रौब दिखाया तुमने ।।
मेरी मुफलिसी का औकात दिखाया तुमने
 विकास कुमार

नये लोग, नयी शहर, नयी जहां मुबारक हो तुम्हें ।

August 6, 2020 in गीत

नये लोग, नयी शहर, नयी जहां मुबारक हो तुम्हें ।
जहां की सारी खुशियाँ झुके तेरे कदम,ये दुआ है मेरे ।।
नये लोग, नयी शहर, नयी जहां मुबारक हो तुम्हें ।।1।।

लगे तेरे नसीब की हर एक बला हमें, मााँगु रब से यही दुआ मैं ।
न आये तेरे नसीब में वो घडी कभी, जो तुझे मेरी जरूरत पडे ।।
नये लोग, नयी शहर, नयी जहां मुबारक हो तुम्हें ।।2।।

जिये जहाँ में तु जहां के साथ मुस्कुरा के सदा ।
न छूटे तेरे लबों की हँसी वो कभी ।।
नये लोग, नयी शहर, नयी जहां मुबारक हो तुम्हें ।।3।।

तु जहाँ रहें, जहाँ की वादियाँ साथ दे तुम्हें ।
ना पडे तेरे नसीब मौसम का वो आाँच कभी ।।
नये लोग, नयी शहर, नयी जहाां मुबारक हो तुम्हें ।।4।।

ना आये तुझे वो कभी मेरा याद ।
तु अपनी जहां में आबाद रहें ।।
नये लोग, नयी शहर, नयी जहां मुबारक हो तुम्हें ।।5।।

अब क्या पेश करूँ तुझे मैं, जहां की सारी खुशियाँ नसीब हो तुम्हें ।
तेरी किसम्त की हर एक बला नसीब हो हमें ।।
नये लोग, नयी शहर, नयी जहां मुबारक हो तुम्हें ।।6।।
 विकास कुमार

अर्थ जगत का सार नही, प्रेम जगत का सार है ।

August 6, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

अर्थ जगत का सार नही, प्रेम जगत का सार है ।
प्रेम से ही टिकी हुई, धरती, गगन, भुवन है ।।
अर्थ जगत का सार नही, प्रेम जगत का सार है ।
अर्थ के कारण रिश्ते बनते अब
और अर्थ के कारण रिश्ते टूटते अब ।
पर अर्थ जगत का सार नही, प्रेम जगत का सार है ।
अब क्या ख्याल जगत का है ।
लोग सिर्फ धन के पीछे भागते है ।
और प्रेम से मुँह मोड़ते है ।
पर अर्थ जगत का सार नही, प्रेम जगत का सार है ।
दुर्जन के पास जो धन है,
वो ऐय्यास में लूटाते है ।
सज्जन के पास तो प्रेम है,
वो प्रेम ही जगत में लूटाते है । ।
पर अर्थ जगत का सार नही, प्रेम जगत का सार है ।
अर्थ-अर्थ करते-करते अब लोग पूर्ण सांसारिक बन जाते है ।
और वह आध्यात्मिकता से मुँह मोड़ते है ।
पर अर्थ जगत का सार नही, प्रेम जगत का सार है ।।
हमने सत्संगों से सीखा हैः-
अगर धर्म अनुकूल अर्थ कमाये जो नर वही नर जग में महान है ।
और जो नर प्रतिकुल धर्म के अर्थ कमाये वह नर अधम समान है ।
पर अर्थ जगत का सार नही, प्रेम जगत का सार है ।।
अर्थ के कारण धृतराष्ट्र कराये अपने वंश का सर्वनाश रे!
और उसके वंश में न रहा कोई सज्जन पुरूष महान रे!
पर अर्थ जगत का सार नहीं, प्रेम जगत का सार है ।।
प्रेम के कारण जगत में भरत भाई कहलाये महान रे!
और मीरा प्रभु दीवानी रे!
पर अर्थ जगत का सार नही, प्रेम जगत का सार है ।।
कालि, सुर, कबीर, तुलसी व रहीम प्रेम के कारण ही कविश्रेष्ठ कहलाये जग में महान रे! और लिख गये प्रेम-ग्रन्थ हजार रे!
पर अर्थ जगत का सार नही, प्रेम जगत का सार है ।।
शबरी, जटायु थे प्रभु राम के अनन्य प्रेमी रे!
और छोड़ गये जगत में अपने प्रेम के महान पहचान रे!
पर अर्थ जगत का सार नही, प्रेम जगत का सार है ।।
गणिका, अजामिल भी तर गई प्रभु राम के नाम के प्रेम के कारण रें।
और सीखला गये हमें प्रेम के नये पहचान रे
पर अर्थ जगत का सार नही, प्रेम जगत का सार है ।।
प्रेम से ही टिकी हुई, धरती, गगन भुवन है ।
अर्थ जगत का सार नहीं, प्रेम जगत का सार है ।।
 विकास कुमार

ख्याब टूटी, दुनिया लूटी, बिखड़े सभी सहारे ।

August 6, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

ख्याब टूटी, दुनिया लूटी, बिखड़े सभी सहारे ।
अपनों ने गैर कहा, और गैरों ने अपने । ।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी, बची है कुछ आसें ।।1।।

टूटे के बिखड़ जाते, सभी मतलब के रिश्ते ।
मतलब से ही याद करते जहां में, लोग अपने हो या पराये ।।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी, बची है कुछ आसें ।।2।।

अब ना कोई किसी का मात-पिता, भाई-बहन, पत्नी-पुत्र व कोई रिश्ते ।
आशा के बंधन में बँधे रहते है, ये एक-दूसरे के संगे ।।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी, बची है कुछ आसें ।।3।।

अब खेल जगत का कैसा है, लोग दिलों से खेलते है ।
और भर जाते है, जब मन तो गैरों से दिल को जोड़ते है ।।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी, बची है कुछ आसें ।।4।।

अब लोग सिर्फ धन के पीछे भागते है,
और इसके कारण बुरे कर्म करते है,
और वह पाप का हकदार बनते है ।।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी, बची है कुछ आसें ।।5।।

अब क्या कहें हम लोगों से, इनको क्या समझायें हम ।
ये तो पत्थर के मूरत है, ये कभी नहीं समझते हैं ।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी बची है कुछ आसें ।।6।।

तुलसीदास जी कहते है,
इस जहां में सुर-नर-मुनि सब स्वारथ के कारण प्रीति रखते है,
और मतलब से ही रिश्ते निभाते है, व बेमतलब ही भूल जाते हैं ।।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी, बची है कुछ आसें ।।7।।

अब हम ना बढ़ायेंगे इन लोगों से नजकीदियाँ,
ये तो दुरियाँ के हकदारी है ।
इनसे बचके रहने में ही, हमारी भलाई है ।।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी, बची है कुछ आसें ।।8।।

अब हम ना करेंगे इन लोगों से प्रीति,
ये तो स्वारथ के भिखारी है ।।
इनसे बचके रहने में ही हमारी भलाई है ।।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी, बची है कुछ आसें ।।9।।

अब क्या बताये रिश्तों की सच्चाई,
ये तो अपने को भी नहीं बख्ते है,
तो गैरों को क्या छोड़ेंगे ।।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी, बची है कुछ आसें ।।10।।

अब खेल दिलों का होता है,
खिलौने अब बिकते नही ।
और अब वह खिलौने वाले अपनी किस्मत पे रोते है ।।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी, बची है कुछ आसें ।।11।।

अब तोड़के सभी रिश्ते-नाते को लोगों दिलों से खेलते है ।
और अपनी रईसी की रौब मुफलिसों को दिखाते है ।।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी, बची है कुछ आसें ।।12।।

ख्याब टूटी, दुनिया लूटी, बिखड़े सभी सहारे।
अपनों ने गैर कहा, और गौरों ने अपने ।।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी बची है कुछ आसें ।।13।।

अब क्या कहें हम लोगों से, इनको क्या समझायें हम ।
ये तो पत्थर के मूरत है, ये कभी नही समझते है ।।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी बची है कुछ आसें ।।14।।

ख्याब टूटी, दुनिया लूटी, बिखड़े सभी सहारे ।। 15 ।।
 विकास कुमार

स्वेच्छाकृत प्रदान की गई वस्तु नहीं कहलाते दहेज रे!

August 6, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

स्वेच्छाकृत प्रदान की गई वस्तु नहीं कहलाते दहेज रे!
माँग की गई वस्तु ही तो कहलाते है दहेज रे!
स्वेच्छाकृत प्रदान की गई वस्तु नहीं कहलाते दहेज रे!
मात-पिता के द्वारा दी गई वस्तु कहलाते है वरदान रे! और
माँग की गई वस्तु ही तो कहलाते है अभिशाप रे !
स्वेच्छाकृत प्रदान की गई वस्तु नहीं कहलाते दहेज रे!
अमीर हो या गरीब हो दहेज दोनों के लिए घातक रे! क्योंकि
इसके कारण मरती युवतियाँ अविवाहित रे!
स्वेच्छाकृत प्रदान की गई वस्तु नहीं कहलाते दहेज रे!
हमने जहां से सुना है युवा होते देश के शान रे!
पर कैसे मान ले हम ? ये तो लूटते है युवतियों के आन रे!
स्वेच्छाकृत प्रदान की गई वस्तु नहीं कहलाते दहेज रे!
 विकास कुमार

भारत के युवा जो एक दिन भगत,आजाद बनना चाहते थे ।

August 6, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

भारत के युवा जो एक दिन भगत,आजाद बनना चाहते थे ।
आज वो युवा कौन-से देश की शोभा बढ़ा रही है ।
वो वीरांगनी झाँसी जिस पे हमे गर्व होता था ।
आज वो वीरांगनी प्रदेशों से मेल खा रही है ।।1।।

शिक्षित होने का अर्थ आज के बुद्धजीवियों ने खूब लगाया है ।
निज राष्ट्र को धिक्कार कर प्रदेशों में अपना घर बनाया है ।
दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद जी भी तो थे विद्वान ।
अरे! भाई जब वो लोग अपने देश को नहीं भूले आखिर दम तक ।
तो तुम क्यूँ भूले, बेशकिमती प्रतिभापलायन के हार पहनके ।।2।।

देश, देश होता है , माँ, माँ होती है ।
कोई पूर्ण नहीं होता जहां मे ।
हरेक में कोई न कोई खामियाँ होती है ।
मगर जिसने खामियाँ को ढूँढ़कर भारत को स्वर्णयुग बनाया है ।
वही नर जग में महान कहलाया है ।।3।।

तुम में कुछ करने की लालशा नहीं निज देश के वास्ते ।
आखिर तुमने दिखा ही दी तम, रज के गुण ।
सीख लेते जरा आजाद, बोस से कुछ स्वदेश के धर्म ।
तब मिला जाता भारत को अनेकों बोस, आजाद ।।4।।
कवि विकास कुमार

परतंत्रता की बेड़ियाँ जो थी, वो हमारे महान क्रान्तकारी तोड़ गये ।

August 6, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

परतंत्रता की बेड़ियाँ जो थी, वो हमारे महान क्रान्तकारी तोड़ गये ।
स्वतंत्रता की नीब को जो खाक़ में मिलाना चाहता था, वो खूद ही जमीं में सिमट गये ।
बाकी जो हिन्द को अधीन करना चाहता था, उसको हमारे धरतीपुत्रों ने सुला दिया ।
भारत की जमीं है यारों बंजर हो फिर भी सुपुत उगाती है, भारत का हर एक लाल मिट्टी को माता समझता है ।।1।।

उस देश को मत कभी कमजोर समझना, जिस देश में हर एक युवा खूद को भगत सिंह कहते है ।
हर एक बुजुर्ग वीर कुँवर की गाथा गाते है, हर एक बाला वीर वीरागंनी झाँसी होती है ।
उस देश के मजदूर तो क्या उनके परिस्थियाँ भी उनको मजबुत बनाता है ।
पाषण को पुज-पुजके जिस देश के नर पत्थर को देवता बनाता है, वह देश भारत कहलाता है ।।2।।

टुटते नहीं यहाँ कभी इंसानियत रिश्ते, हर रोज दीनों को देने वाले सोने-चाँदी देते है ।
यहाँ के भिखारी भी खूद को सौभाग्यशाली समझते है, जो भारत देश में रहते है ।
भारत की पहचान ये नहीं कि आज ये नग्नता फैलाकर विकास चाहे और देशों की तरह ।
ये तो सदियों से अखण्ड, विश्वगुरू महान ऋषि-मुनियों का देश है, चाणक्य, कबीर इनके फूल है ।।3।।

खिलते है इनके बगियाँ में फूल मगर मजाल है किसी का तोड़ तो इसे, यही बात प्रकृति की शान होती है ।
पुष्ष की अलिभाषा पूछकर ही माली, फूलों को वीरपुत्रों के राह पे बिछाते है ।
मिट्टी के टुकड़ा-टुकड़ा धरतीपुत्रों को सहनशीलता का पाठ पढ़ाती है ।
धन्य है वह देश हमारा, जिसमें मीरा,कबीर, नानाक की वाणी गुंजती है ।।4।।

स्वतंत्रता की जश्न मनाऊँ

August 6, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

स्वतंत्रता की जश्न मनाऊँ
या परतंत्रता की दास्तां सुनाउँ मैं ।
मैं भारत की धरती हूँ ।
क्या-क्या बताऊँ मैं?

कुछ लोग जहां मे हमारी पूजन करते है,
तो कुछ जहां में हमारी खण्ड को अपमानित करते है ।
सहती आई हूँ मैं सदियों से ।
मौन ही रहती हूँ सदा मै ।
लेकिन मेरे पुत्रों ने मेरी लाज बचायी है ।
कोई राम बनके, कोई कृष्ण, कोई बोस, आजाद तो कोई सिंह बनके ।
मेरी मिट्टी को मस्तक पे लगाया है ।
स्वतंत्र की जश्न मनाऊँ
या परतंत्रता की दास्तां सुनाऊँ मैं ।।
कवि विकास कुमार

लगाव नहीं जिस देश के युवाओं को राजनीति व अर्थशास्त्र के क्षेत्र में ।

August 5, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

लगाव नहीं जिस देश के युवाओं को राजनीति व अर्थशास्त्र के क्षेत्र में ।
वो कैसे जानेंगे हम किस व्यवस्था में जी रहे हैं और कैसी स्थिति है हमारी देश की?
वो कैसे बदलेंगे कुव्यवस्था को और कैसे सुधार लावेंगे वो अपनी निज राष्ट्र में?
जब उनको मालूम ही नहीं निज देश की क्या राजव्यवस्था और कैसी अर्थव्यवस्था है?
वो खाक!-3 बदलेंगे अपने देश को?
जब आज शिक्षा-व्यवस्था में विधुरनीति,
चाणक्यसूत्र, चाणक्यनीति व कौटिल्य अर्थशास्त्र का कोई स्थान ही नही,
तब कैसे शुध्द ग्यान प्राप्त होगा?
आज के युवाओं के राजनीति व अर्थशास्त्र के क्षेत्र में
वो खाक!-3 बदलेंगे अपने देश को ।।
नयी शिक्षा-व्यवस्तथा युवाओं को सिर्फ भौतिकवादिता ही तो सिखला रही है ।
इन्हें त्याग-बलिदान, क्षमा-दया की शिक्षा देती कहाँ कोई ।
जो बन सके कोई युवा आज भगत सिंह व चन्द्रशेखर आजाद ।
जब-तक न होगा शिक्षा-व्यवस्था में बदलाव ।
तब-तक नहीं बन पायेगा कोई युवा वीर सपुत व बलवान ।
कुराजनीतिज्ञ और कुअर्थशास्त्री के कारण भारत भूत में चार उपलब्धियाँ गँवाई है ।
इन्हें देश की चार महान उपलब्धियाँ इनके नैनों को खनकती थी ।
और इसलिए इन्होंने भारत देश महान समृद्ध शक्तिशाली, धनी, विश्वगुरू,
सोने की चिड़ियाँ, अखण्डरूप व सभी देशों में महान भारत जैसे महान देश को
आज इन्होंने निर्बल-असहाय, गरीब, दीन-दुःखी ,
खण्डित-खण्डित व मूर्खों का राष्ट्र बनाया है ।।

धन्य! धन्य! है महिमा आपकी देश के राजनीतिज्ञ और अर्थशास्त्री महोदय जी ।।
आपने तो देश को हिमालय के शिखर पे पहुँचाया है ।
कुसुम-पुष्प चढाऊँ, नीर अर्ध्य दूँ आपको या मेवा चढाऊँ आपको ।
कभी हम कवि बनके हर देश में पढ़ जाते थे ।
आज हम दिनकर बनके भी अपने देश को उजाला नहीं दे पाते है ।
क्या यहीं आपकी नीति और यहीं आपकी व्यवस्था?

जो देश को बर्बाद कर दिये निज-अपने स्वार्थ में ।।
लगाव नहीं जिस देश के युवाओं को राजनीति व अर्थशास्त्र के क्षेत्र में ।।
 विकास कुमार

जिस नर को अपनी धरा पे अपनी भोग की वस्तु उपलब्ध न हो ।।

August 5, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

जिस नर को अपनी धरा पे अपनी भोग की वस्तु उपलब्ध न हो ।।
वह नर नहीं वह तो निज धरा की बोझ है ।
अगर उन्हें निज धरणी से प्यार नहीं ।
तो क्या उन्हें पर महि से प्यार होगी?
जिस नर को अपनी धरा से प्यार नहीं,
वह नर नहीं वह तो नररूप सम पशु समान है ।
ऐसे ही जन कहलाते जग में मातृपुत्र कलंक है ।
जो अपनी मातृभूमि की लाज न रख सकी,
वह क्या पर मातृभूमि की सम्मान करेगी क्या?
जो नर अपनी मातृभूमि की गरिमा को न बचा सकी,
उसे खंडित-खंडित देख हँसी,
इसका जीता-जागता सबूत हम भारतवासी है ।
हम चार उपलब्धियाँ कैसे गँवा चुकी।।
कभी हम विश्वगुरू थे, सोने की चिड़ियाँ थी हमारी देश,
अखण्ड रूप था हमारा, सभी देशों में महान थे हम ।।
अब क्या बनके रह गये हम? क्या बताये आपसे हम?
ढ़ोंगीगुरू है हम, धनहीन, निर्बल-असहाय, दीन-दुःखी है हम,
खण्डित-खण्डित हो चुके है हम व मूर्खों का देश बन चुके हैं हम ।।

हम उस देश के वासी है ।।

August 5, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

हम भारत के वासी है, संस्कृति हमारी पहचान है ।
सारी जहां में फैली हुई, हमारी मान-सम्मान है ।
सादगी है हमारी सबसे निराली, अजब न्यारी है संस्कृति हमारी ।
प्रशंसक है सारी दुनिया हमारी, यही भारतभूमि की कहानी है हमारी ।।1।।

हमारी संस्कृति है सबसे पुरानी, सनातन धर्म है हमारी ।
हिन्द, हिन्दु, हिन्दुस्तां पहचान है हमारी ।
धरती से जुड़ाव से हमारा. धरती माता है हमारी ।
हम अन्न उगाते है, इसलिए किसानी पहचान है हमारी ।।2।।

धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र, मोक्षशास्त्र प्राचीन ग्रन्थ है हमारी ।
वेदव्यास, चाणक्य, वात्स्यायन प्राचीन रचनाकार है हमारे ।
सारी जहां में फैली है, वेदों की प्रकाश हमारी ।
सृष्टि के कण-कण में गूँजे, वो अलौकिक ध्वनि है हमारी ।।3।।

सती अनुसूईया, सावित्री, सति मईया व जानकी की पवित्र धरती है हमारी ।
तारा,मन्दोदरी, अहल्या, कुन्ती, द्रौपदी पंचकन्या की पवित्र महि है हमारी ।
गणिका, अजामिल, अहल्या भी तर गई वो दुखहरनी, क्लेशकारिणी धरणी है हमारी ।।
नारियों को जिस धरा पे सम्मान हो, वो धरा है हमारी ।।4।।

कालि, सूर, कबीर, तुलसी रहीम आदि कवि समाज सुधारक हुये वो धरती है हमारी
इनके कृतियों से चमचमाती जगत है हमारी, इनके रचना है जग में सबसे न्यारी ।
सीखते है जहां इनसे प्रेम, प्रेम के पुजारी, और प्रेममग्न होते है यहीं है हमारी महि की निशानी ।
दुनिया में सबसे बड़ा ग्रन्थालय है हमारा कवियों की पावन है धरा है हमारी ।।5।।

प्रहलाद, ध्रुव, मीरा आदि हरिभक्त हुये वो धरती है हमारी ।
प्रहलाद को देव नरसिंह मिले, ध्रुव को मिला गगन में सर्वोत्तम स्थान ।
मीरा को प्रभु कृष्ण मिले, वो भक्तमयी धरती है हमारी ।
सदियों से जिस धरा पे रामनाम का गुणगान हो, वो धरा है हमारी ।
सीयराम मय सारी दुनिया है, यही सादगी है हमारी ।
हम भारत के वासी है, संस्कृति हमारी पहचान है ।।6।।

राम, कृष्ण, महावीर, बुध्द हुये, वो ईश्वरीय धरती है हमारी ।
रामचरित अनुकरणीय, कृष्ण बंदनीय, शान्ति प्रतीक है बुध्द व जितेन्द्रिय है महावीर ।
हर नर से हम सत्गुण सीखे, दुर्गुणों से रहें हम कोशों दूर ।
रामचरित का हम अपनाते यहीं हमारी शान है ।।7।।

हरिश्चन्द्र, वासुदेव, कर्ण आदि महापुरूष हुये ।
वो महापुरूषों की पतितपावनी धरती है हमारी ।
बिक गये अपने सत्-स्वभाव के कारण ये महापुरूष ।
यही पुरातन सच्चाई है हमारी ।।8।।

कलिकाल में भी हुये हैः-
वेदों के प्रचार-प्रसार-प्रचारक महर्षि दयानंद सरस्वती व आध्यात्मिक गुरु विवेकानंद है ।
इनके महान कार्यों से, भारत और भी महान है ।
सारी जहां में फैली इनके सत्-विचार है ।
और सीखते जहां इनसे नेकीपन और सत्-विचार है ।
हम भारत के वासी है, संस्कृति हमारी पहचान है ।।9।।

लूटी संस्कृति डूबी सभ्यता खो गये हम पर संस्कृति में ।
निज संस्कृति भूले, निज भाषा भूले, निज-निज करते-करते निज-स्व-अपना सर्वस्व हम भूले
अब कैसे कहें हम,
हम भारत के वासी है, संस्कृति हमारी पहचान है ।।10।।

गँवा दिये हमने अपनी मान-मर्यादा को ,
भूले गये हम सावित्री, सति अनुसूईया व मा जानकी को ।
राम को भूले, कृष्ण को भूले और भूल गये हम सत्-पुरूषों के सत्-विचारों को ।
और अब चल सत्मार्ग छोड़ कुमार्गों पे ।।
अब कैसे कहें हम,
हम भारत के वासी है, संस्कृति हमारी पहचान है ।।11।।
 विकास कुमार

रोती धरती चिखता अम्बर, सारा जहां है सोता-सा ।

August 5, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

रोती धरती चिखता अम्बर, सारा जहां है सोता-सा ।
आज भी धरती रोती अपने पुत्रों के इच्छाओं पे ।
मारुत भी आज दुषित हो चुका है, मानव के व्यवहारों से ।
मानव अब मानव बनने को तैयार नहीं, अब तो यह दानव पथ पे अग्रसर है ।।1।।

शुद्धता खो चुकी है जल मानव जैसे दानवों के व्यवहारों से ।
मानव आज अपनी मानवता से गिर चुकी है, अब वह दानव बनने पे अड़े है ।
प्रकृति को विनाश करने में नर का प्रथम हाथ है ।
जो नर नारायण की सम्पदा को न बचा सके, उसका मानव-जन्म बेकार है ।।2।।

मिट्टी, जल, अग्नि, अम्बर, हवा से बना यह तन का अधम शरीर है ।
और यदि नर इसे ही बर्बाद करने पे अड़े है, तो क्या यह उसूल उचित है?
जो मानव अपनी प्राकृति न बचा सकें उसका नर धिक्कार कहना है ।
रोती धरती चिखता अम्बर, सारा जहां है सोता-सा ।।3।।
विकास कुमार

ये कैसी है रीति ये कैसी है नीति?

August 4, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

ये कैसी है रीति ये कैसी है नीति? निज राष्ट्र की जनता भूख से हैं मरती ।
ये अन्न स्वयं उगाती फिर भी ये अन्न को क्यूँ तरसती?
ये कर भी देती राष्ट्र को फिर भी ये राष्ट्र शसक्त क्यूँ नहीं बनती?
ये कैसी है रीति ये कैसी है नीति? निज राष्ट्र की दुर्दशा अब मुझसे देखी नहीं जाती ।।1।।

चारों तरफ भ्रष्टाचार-ही-भ्रष्टाचार अब देखने को मिलती ।
शांति कहाँ खो गई निज राष्ट्र की अब पता ही नहीं चलती ।
जाति-मज़हब-धर्म के नाम पे हर दिन लड़ते आज भारतवासी ।
अंग्रेजों की एक नीति हैं सबसे पुरानी, फूट डालो और राज करो ।
यहीं हो चुकी है, आज हमारी राजनीति ।।2।।

जब-तक पालन करेंगे हम विदेशी नीति, तब-तक उत्थान नहीं होगा हमारी स्वदेशी ।
स्वतंत्र होने के बाद भी हम अपने राष्ट्र में बिट्रीस व्यवस्था अपनाते ।
हम अपनी सुव्यवस्था व सादगी को भूलाके गैरों की कुव्यवस्था को क्यूँ अपनाते?
जिस देश ने अपनी संस्कृति गँवाई,समझो वह देश अपना सर्वस्व लुटाई।
ये कैसी है रीति ये कैसी है नीति, निज राष्ट्र की दुर्दशा अब मुझसे देखी नहीं जाती ।।3।।

समझो भारतवासी तुम एक दिन मिट जाओगे,जरा-सी भूल के कारण तुम गैरों में खो जाओगे ।
अपनी संस्कृति को अपमान करोगे, पर संस्कृति में खुश रहोगे तुम ।
एक जरा-सी भूल के कारण निज राष्ट्र की सारी मर्यादा को को तुम क्षण-भर में गँवाओगे ।।4।।

समझो भारतवासी तुम, कुछ तो ख्याल रखो निज धरती की ।
पूर्ण नहीं अपना सकते अगर तो आध अपनाओ अपनी संस्कृति को ।
अगर आध में भी कठिनाई है तो तनिक (कुछ) अपनाओ अपनी संस्कृति को ।
अगर तनिक (कुछ) में भी दुविधा है तो डूब मरो परदेशों में ।।5।।
कवि विकास कुमार

हम दीन-दुःखी, निर्बल, असहाय, प्रभु! माया के अधीन है ।।

August 4, 2020 in गीत

हम दीन-दुखी, निर्बल, असहाय, प्रभु माया के अधीन है ।
प्रभु तुम दीनदयाल, दीनानाथ, दुखभंजन आदि प्रभु तेरो नाम है ।
हम माया के दासी, लोभी, भिखारी, दुर्जन, दुष्ट, विकारी प्रभु पापी है ।
प्रभु तुम माया के स्वामी, दाता-विधाता, निर्गुण,निर्विकार, सनातन पुरूष महान हो ।।1।।

हम इन्द्रियों के दासी, भोगी-विलासी, कामी, आताताई,अग्यानी, दुष्ट मानव है।
प्रभु तुम जितेन्द्रिय,गुणों के स्वामी,बुद्धिमान, सकल जगत के स्वामी हो।
हम अहंकारी, इर्ष्यालु, लाभ-हानि, मान-अपमान में फँसे प्रभु तेरो सेवक है ।
उद्धार करो प्रभु, निस्तार करो प्रभु हम तेरो माया के अधीन है ।।2।।

हम भक्षक, मन के चंचल, धरा पे पाप फैलाने वाला प्रभु अधम-नीच है ।
प्रभु तुम रक्षक, मन के स्थिर, धरा पे धर्म फैलाने वाला सज्जन पुरूष महान हो ।
हम पृथ्वीसुत प्रभु तुम प्रथ्वीपति प्रभु ,इस नाते प्रभु हम तेरो बालक है ।
सारे जहां के पिता प्रभु तुम, निज पुत्रों को कल्याण करो प्रभु!।।3।।

हे रामचन्द्र! गणिका के उध्दारक,अहल्या के प्रभु तुम निस्तारक ।
हम कलियुग के प्राणी, काम,क्रोध,मद, व्यसन में फँसे प्रभु तेरो दास है ।
दासों के प्रति प्रभु तेरो करतब बड़़े महान है ।
उध्दार करो प्रभु! निस्तार करो प्रभु! हम तेरो माया के अधीन है ।।4।।
जय श्री राम ।।
कवि विकास कुमार ।।01:34 10/06/2020 जया श्री राम ।।

कौन-सी नीतियों पे हमारी देश चल रही है?

August 4, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

कौन-सी नीतियों पे हमारी देश चल रही है?
कौन-से व्यवस्था में हम जी रहे हैं?
हर-जगह शोषण-ही-शोषण दिखाई दे रही है?
आमजनता का बुरा हाल है इस देश में,
और सरकार अपने ही नीति पे देश चला रही हैं ।।1।।

किसी देश का उत्थान होता उच्च राजनीतिज्ञ के उच्च विचारों से,
और अर्थव्यवस्था सुधरती महान अर्थशास्त्री राष्ट्रप्रेमी के महान अर्थनीति से,
ये दो नर अगर देश का शुभचिंतक न हो देश का विकास संभव न हो ।।2।।

अगर देश का राजनीतिज्ञ राष्ट्रप्रेमी हो,
तो वह अपने देश को समृध्द-शक्तिशाली व बलवान बनाता है ।
वह हर संकट से अपने देश को बचाता है, सुनीति से चलाते है वह अपने देश को ।
वह पुरानी व्यवस्थाओं को गहराई से अध्ययन-चिंतन-मनन करते है,
तथा वह पुरानी व्यवस्था को अपने तरीके से नये परिवेश में लाते है ।
ऐसे राजनीतिज्ञ सुयोग्य, कुशल, बुद्धिमान कहलाते है,
जो अपनी पुरानी व्यवस्थाओं को अध्ययन करके अपने पूरखों की मान रखते है।।3।।

अर्थशास्त्री हो अगर निज देश में वह कौटिल्य के समान है,
चाणक्यनीति, चाणक्यसूत्र, कौटिल्य अर्थशास्त्र का ज्ञाता है ।
कौटिल्य अर्थशास्त्र में उसे देश का भला दिखता है ।
ऐसे अर्थशास्त्री जग में है महान, जो पढ़े कौटिल्य अर्थशास्त्र दिन व रात ।।4 ।।
कवि विकास कुमार

चिख-चिल्लाकर ही देशभक्ति दिखाई जा सकती है क्या?

August 4, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

चिख-चिल्लाकर ही देशभक्ति दिखाई जा सकती है क्या?
जो मौन है कुछ बोलते नही, क्या वह देशभक्त नहीं है क्या है?
जो चीखते है हम भगत है, वह भगत सिंह को जानते है क्या?
कवि वीररस के हो या श्रृंगार-रस के सबके उर में होते निजी स्वार्थ ।
पर जो कलम के जोर से हटा दे देश से कुव्यवस्था और स्थापित करवा दें
सच्चे वीर हिन्दुस्तानी क्रान्तिकारियों के तरह देश में सुव्यवस्था ।
वह है सच्चे हिन्दुस्तानी, वीरसिपाही भगत सिंह जैसे वीर सपुत कवि सच में महान ।।1।।

भक्त कबीर जैसे समाज-सुधारक है, ऐसे ही कवि विश्व का दर्पण व समाज का आईना है ।
ऐसे ही राष्ट्र का धरोहर व समस्त जनों को मार्गदर्शक है ।
कबीर की वाणी गागर में सागर है, पढें जो इनकी उक्ति और नहीं होवे
अगर वह सज्जन तो वह व्यक्ति दुर्जनों का संगति का मारा है ।।2।।

वर्तमान समय में खूब बातें हो रही है प्रजाहित के लिए ।
पर प्रजा को ही क्यूँ शोषित किया जा रहा है प्रजा कल्याण के लिए ।
सुनो सिंहासनपति तुम, देश की जनता तुम्हारे सुत समान है ।
अगर तुम इस ठुकराओ, धिक्कारोगे, रूलाओगे तो तुम्हारी धरा भी तुम्हें धिक्कारेंगी ।
ऐ! जरा राजा तुम सकल धरा के तुम पूर्ण स्वामी हो ।
तुम्हारी धरा भी तुमसे मुख मोड़ेगी, अरे! मूढ! राजा इससे बड़ी शर्म की बात और क्या होगी?
चीख-चिल्लाकर ही देशभक्ति दिखाई जा सकती है क्या ?
कवि विकास कुमार

देश दुर्दशा वर्णन ।।

August 4, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

निज राष्ट्र की दुर्दशा अब कोई क्यूँ कहता नहीं? भारतेन्दु हरिश्चन्द्रजी कह गये भारत दुर्दशा,
अब कोई कवि महाराज जी ऐसी कविता क्यूँ लिखते नहीं?
अंग्रेजों ने हमारी मान-सम्मान व सारी मर्यादा को मिट्टी में मिला दी ।
देश की सारी-की-सारी सुव्यवस्था को कुव्यवस्था में तब्दील कर दी ।
यह क्रूर निर्दयी हिंसक पशु अत्याचारी, यह दुष्ट स्वभाव मानव कलंगी ।
इस बात से हैं हम सब वाकिफ़, फिर भी आज हम क्यूँ अपनाते इनकी कुनीति?
अब तो छोड़ो भारतवासी कुनीति स्वदेशी अपनाकर कल्याण करो निज राष्ट्र की ।
निज भाषा में ही उत्थान होती राष्ट्र की ये बात है ग्यान-विग्यान की ।
कुछ तो समझो निज राष्ट्र की स्थिति और कल्याण करो निज धरा की ।
भारत हो कुछ तो भारतीयता का लाज रखो सम्मान करो निज धरा की ।
निज राष्ट्र में रहतो हो परराष्ट्र के वस्त्र पहनते, भाषा बोलते व खाते चीज परदेशों की ।
तो कैसे बढेंगी निज राष्ट्र की सकल घरेलु उत्पाद जो अपनी वस्तु को ही धिक्कारते हो ।
कुछ तो समझो परराष्ट्र की राजनीति जो तुम्हें अपने सामानों के प्रति आकर्षित करती है ।
तेरे पास भी तो हैं तो काबिलीयत कुछ ऐसा करके दिखाओ तुम ।।
हर वह वस्तु बनाओ तुम जो तेरे देशवासी को भाता है ।
इस तरह कल्याण होगा निज राष्ट्र की और होगी राष्ट्र की उन्नति ।
निज राष्ट्र की मिट्टी का सम्मान करो यहीं तुम्हें भायेगा, परराष्ट्र की चकाचौंध में तेरी आँखें नहीं चौंधयायेंगी ।
अगर तुम्हें निज राष्ट्र से प्रेम होगा तो तुम्हें निज राष्ट्र को उच्च शिखर पर पहुँचाओं ।
ऐसा करोगे तुम तुम्हारे कीर्ति जहां तेरे बाद जाने दुहरायेगी ।।
निज राष्ट्र की दुर्दशा अब कोई क्यूँ कहता नहीं ।।

।। दुषित व्यवस्था व वेतन की माँग ।।

August 4, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

।। दुषित व्यवस्था व वेतन की माँग ।।

अब किसी मुद्दे पर प्रेम से बात से होती कहाँ?
जो समाधान जनहित के लिए निकले किसी समस्या का ।
अब तो संसद में सिर्फ बहस ही छिड़ी रहती है ।
कुछ लोग बहुत अच्छे बोलते जनकल्याण के लिए,
उन्हें चुप करा दिया जाता, अपने स्वार्थ कल्याण के लिए ।
वेतन-व्यवस्था की बात, कभी छिड़ती नहीं क्या संसद में?
आमजनता की मौलिक-आवश्यकता तक पुरी नहीं होती इस देश में,
और सिंहासनपति भौतिक-दुनिया जीते ।
अजब निराले है राजा आप मेरे, हम दीन-दुःखी प्रजा आपके हैं ।
अब आप ही बताइये सरकार मेरे, आपकी कौन-सी व्यवस्था सुव्यवस्थित ढ़ंग से चलती है ।
आपका वेतन लाख है, और आपकी जनता की वेतन मिट्टी के भाव है ।
आप एक माह में एक लाख का खर्च करते खूदपे ,
और आपकी जनता एक माह में तीस बार मरते आपके नजर के सामने ।
क्या यहीं आपकी राष्ट्र-व्यवस्था है ?क्या यहीं आपकी राष्ट्र की वेतन-व्यवस्था है ?
क्या यहीं आपका सदाचार है ? क्या यहीं आपके राजनीतिज्ञ और अर्थशास्त्री का नीति है ?
बदलो-बदलो देश की कुव्यवस्था को बदलो-बदलो देश की वेतन-व्यवस्था को ।
अगर नहीं बदल सकते देश की कुव्यवस्था को तो भूल जाओ कि अब कभी हम समृध्द बनेंगे ।।
— विकास कुमार

आइनस्टाईन जी कहते हैः-

August 4, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

आइनस्टाईन जी कहते हैः-
हम सबसे एक जैसा बात करते हैं, चाहे वह कुड़ा उठाने वाला बालक हो
या चाहे वह किसी विश्वाविद्यालय का आचर्य हो
कुल लोग जहां में मजदुर को हीन समझते हैं,इन्हें दलित वर्ग की श्रेणी देते है ।
इन्हें गलत-गलत कह-कहके ,इनके मनोबल को ठेस पहुँचाते हैं ।
इनके काम को काम नहीं, मजबुरी का नाम देते है ।
सच बात है तेरी दुनियावालों, लोग मजबुरी में ही मजदुरी करते है ।
इसका मतलब कदापि ये नहीं किः-इनके पास कोई काबिलियत नहीं ।
ये देश को भोल-भाले जनता होते है, सोच के निर्मल बुद्धि वाले होते है ।
मिट्टी में खेले बड़े हुये रहते है, धरती को माता पिता आसमान को समझने वाले होते है ।
धरती से सोना उगाने वाला यही किसान-मजदुर हुआ करते है ।
ये देश के वीर सपुत होते हैः- राष्ट्रद्रोही नहीं कहलाते हैं ये ।
अपनी भोग-विलास के लिए ये, विदेशों में नहीं बस जाते है ये ।
ये शिक्षित नहीं होते, पर शिक्षित होने का पूर्ण अर्थ समझते है ।
ये उन लोगों में नहीं होते जो पढ़-लिखकर प्रतिभापलायन शब्द को
गले में बेशकिमति हार की तरह पहनते हैं ।
ये उच्च-आदर्श के होते है, इन्हें अपनी मातृभूमि से प्यार होता है ।
ये जिस धरा पे रहते है, उस धरा की सम्मान करते हैं ये ।

होते हम खूद ही दुःखों का जनक और मिथ्यारोपन लगाते गैरों पर ।

August 4, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

होते हम खूद ही दुःखों का जनक और मिथ्यारोपन लगाते गैरों पर ।
अपने व्यवहार प्रतिकूल संबंध बनाते, ये नहीं देख पाते हम ।
इसलिए तो जगह-जगह पे ठोकर खाते-फिरते हैं हम ।
निज स्वभाव भूलाके पर स्वभाव से सामंजयस स्थापित करने की कोशिश करते हम ।
अपनी निज स्वभाव भूलके पर स्वभाव से संबंध स्थापित करने में तुले रहते हैं हम
इसीलिए तो जग में दुःखों को जन्म देने वाले प्रथम व्यक्ति कहे जाते हैं हम ।
प्रसन्नता खूद पे निर्भर करती है,लेकिन हम पर व्यक्ति से प्रसन्नता पाने की कोशिश करते हैं
इसलिए तो जगत में ठोकर खाते-फिरते हैं हम ।।
हम अपने व्यवहार-स्वभाव से प्रसन्न क्यूँ नहीं होते ?
जो गैरों के व्यवहार-स्वभाव से प्रसन्न होने की आशा लगाये रहते हैं हम ।
आत्मनिर्भरता, आत्मसम्मान, आत्मसमर्पण, आत्मप्रोत्साहित
जैसे महान शब्दों को दुरूपयोग करते हम ।
अनमोल-सी जिन्दगी में मोल के कारण बिक जाते है हम ।
अपना सर्वस्व अस्तित्व लूटाके व्यर्थ में रोते हैं हम ।
जो नर हमारी भाव को न समझें,उसे ईश्वर की तरह क्यूँ याद करते हम ?
आत्मसम्मान गँवाके सकरात्मक ऊर्जा को भी गँवाते हम ।
आत्मसम्मान गँवाके नकरात्मक ऊर्जा को अपने अंदर क्यूँ भरते हम ?
जिन्दगी को जिन्दगी नहीं, जहनूम बनाते हम ।
होते हम खूद ही दुःखों का जनक और मिथ्यारोपन लगाते गैरों पर ।
— विकास कुमार

तेरे दर्द ने हमें इस तरह बेगाना किया ।

August 4, 2020 in ग़ज़ल

तेरे दर्द ने हमें इस तरह बेगाना किया ।
तुझे भूलाके हमने खूद को याद किया ।।

अपनी पहचान भूलाके हमने साथ प्यार का सपना देखा ।
कमबख्त! तुने मुफलिस समझे मेरा प्रेम-प्रस्ताव अस्वीकार किया ।।

खेले तुमने मेरे जज्बात से झू़ठी मुहब्बत किया तुमने ।
रंगीन-सी जिन्दगी में आखिर तुमने अपनी बेवफाई की रंग घोली ।।

सीधे-सीदे जिन्दगी जी रहें थे हम, खूद में मस्त रहते थे हम ।।
तुझसे मुलाकात क्या हुई? कमबख्त! तुने ऐसे-ही जिन्दगी लूट ली मेरी ।।

बेवफा, संगदिल, बेरहम-बेह्या हम किसी को बद्दुआ नहीं देते, तो तुझे क्या खाक! देंगे?
दुआ ही दुआ लगें यहीं दुआ है तुम्हें ।।

तु जीले अपनी जिन्दगी खूद के उसूलों से गम नहीं इसका मुझे ।
तु गैर की जहां में आबाद रहें, यहीं दुआ हैं तुम्हें ।।

जहां न कह सके तुझे ओ! बेवफा तु वफा की दुनिया में सलामत रहें ।
न लगे जहां की कोई बुरी नजर तुझे, ईश्वर तुझे हर बला से बचायें रखें ।।

तु जिये अपनी जिन्दगी अपनी जहां में अपने लोगों के साथ ।
गम नहीं इसका मुझे, तू जहाँ रहें अपने लोगों के साथ मस्त रहें ।।
— विकास कुमार

मा समान नहीं जग में कोई ।।

August 4, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मा समान नहीं जग में कोई ।।
मा समान नहीं जग में कोई, पिता सम नहीं कोई महान ।
भाई जैसा न कोई साथी है, बहन जैसा न किसी का प्यार ।
आध अंग की स्वामिनी होती पत्नी व पुत्र होते पिता के शान ।
यहीं है आदर्श परिवार की शान, यहीं है इनका जीता-जागता संसार ।।1।।

सत्य माता पिता ग्यान है, धर्म भाई बहन दया है ।
शान्ति पत्नी पुत्र क्षमा है व साधु है मेहमान स्वरूप ।
इनके न होते कोई नर मित्र और नाही शत्रु ।
ये हैं सत्पुरूषों की पहचान,यहीं है इनका साँचा परिवार ।।2।।

सत्पुरूषों के राह पे जो नर चले वह नर है जग में महान ।
ऐसे ही नर देते जगत में दिव्य-ग्यान ।
इनके दिव्य-ग्यान से विभूषित है सारा-संसार
और कल्याण पाते है जगत-जहां ।।3।।
भौतिक व्यक्ति के पदचिह्नों पे चलना है बेकरा ।
और यदि इनमें भी कोई अच्छाई दिखें तो ग्रहण करना है हमें स्वीकार । ।
हर नर में नारायण बसते । अतः हम करते है सन्त-असन्त को प्रणाम ।
क्योंकि इसी में है हम सबका कल्याण ।।4।।
कवि विकास कुमार

तुम कर लो लाख कोशिशे हिन्द को बर्बाद करने की ।

August 4, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

तुम कर लो लाख कोशिशे हिन्द को बर्बाद करने की ।
चाहे कोई भी भयंकर कुटनीति अपनाओ तुम ।
हो सके तो तुम अपनी सारी शक्ति लगा दो ।
मगर हो नहीं सकता सदा असत्य का राज ।।1।।

भला कुछ दिन तो जरूर असत्य की ज्वाला दहकती है गरीबों पे ।
मगर मेरे दोस्त सत्य की धधकती आग को कौन बुझाता है ।
जो बुझाता वह मिट्टी में मिल जाता है, खूद को पहचान नहीं पाता है।
तुम कर लो लाख कोशिशे हिन्द को बर्बाद करने की ।। 2।।

अगर लगता तुम्हें हम अशिक्षित है, हमारी संस्कृति पुरानी है।
तो आकर एक बार देख लो तुम, हमारी संस्कृति ही विश्वस्तर पे छायी है ।
मगर कुछ लोगों ने हिन्द की सभ्यता को बर्बाद की, वो भला हिन्द का होता है ।
वो तो हिन्द के लाल नहीं, इस धरा के पुत्र नहीं, वह तो मक्कार, देशद्रोही है ।।3।।

हिन्द को हिन्दुस्तान नहीं कहे तो क्या कहें हम ।
हम वैसे लोग जो धरा को मिट्टी नहीं मा समझते है ।
उनके छाया में ही जिन्दगी बसर करते है ।
आन, मान, शान सब छोड़कर हम हिन्दुस्तान को भजते है ।।4।।

कुछ लोग तो देश के लिए अपना सर्वस्व लूटा देते है ।
कुछ तो आजीवन ब्रह्मचारी बनके देश की सेवा करते है ।
कवियों की महिमा हमारे देश में महान है ।
कोई कबीर, कालि, तुलसीदास तो कोई रहीम महान है ।।5।।

कवि विकास कुमार

क्या लिखूँ जो दुनिया को भाये ।

August 4, 2020 in ग़ज़ल

गजल ।।

क्या लिखूँ जो दुनिया को भाये ।
मैं नहीं तो क्या कोई तो भाये जहां को ।।1।।

जहां को अगर लगते है शख्स वो प्यारे ।
तो मैं क्यूँ महफिल में सरेआम बदनाम हुँ ।।2।।

बदनाम मैं नहीं तो क्या वो आम आदमी है ।
जो जिस्म के बाजार में मेहनत के रोटि खाते है ।।3।।

जिनके ऊँची शान है, उनके बोल के भी कुछ दाम है ।
मगर जहां में फकीर के शान, सब मोल के महान ।।4।।

यूँही लोग आज कुछ लिख देते है ।
लोग बेवजह झंझट मोल लेते है ।।5।।

वो वक्त आज नहीं जो लेख को पढ़ते कोई ।
आज लोग सिर्फ पसंद टिप्पणियाँ पे ध्यान देते है ।।6।।

मगर मेरे दोस्त कवि शायर लेखक पसंद टिप्पणियाँ से कोशो दूर होते है ।
उनके विचार सूर्य के सूर्य के रौशनी तो क्या हर घरों में आबाद करती है ।।7।।।

जहां को अगर लगते है शख्स वो प्यारे ।
तो मैं क्यूँ महफिल में सरेआम बदनाम हुँ ।।8।।

कवि विकास कुमार

अंधियारा उजियारा का क्या संबंध है ?

August 4, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

अंधियारा उजियारा का क्या संबंध है ?
जैसे जिन्दगी में कभी दुःखों का पहाड़ है ।
तो कभी पवित्र आँगन में बहार है ।
जैसे सावन में मेघ के जल धरा के लिए अमृतसमान है ।
वैसे ही जिन्दगी कभी अंधियारों का घर है ।
तो कभी उजियारा नर के संग है ।
नर के प्रारब्ध हरि के माया से भिन्न है ।
जो नर जैसे कर्म करत वैसे ही पल पायत है ।
नर के आगे सारे मान-हानि के प्रश्न है।
पर कुछ मान के संग तो कुछ अपमान के साथी है।
किसका क्या है जहां में ?
ये अंधेरा का वक्त बताता है ।
उजाला सवेरा सदा किसके संग है ।
दुख-सुख तो जिन्दगी के दो पल है ।
जहाँ जिन्दगी के मौज है, वहीं थोड़ी तो किनारा है ।
इंसान का भ्रम कुछ ऐसा है ?
मानो उसके लिए सारा जहां भौतिक रत्न स्थायी है ।
कुछ पल की तो देरी, उसके बाद सभी चीजों का पहचानना है ।
अंधियारा उजियारा में क्या संबंध है ।
जैसे जिन्दगी कभी दुःखों का पहाड़ है,
तो कभी पवित्र आँगन में बहार है ।
कवि विकास कुमार

सबके के सब मिट्टी के मोल है ।

August 3, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

सबके के सब मिट्टी के मोल है ।
पैसा, धन-दौलत किसके संग है ।
आज जो सड़क का भिखारी है ।
कल वह अपनी मुकद्दर का दाता है ।।1।।

किसका क्या है जहां में ये किसने जाना है ।
जिसने जाना, उसने तब से जिन्दगी संभाला है ।
और के भरोसे जिन्दगी किसने कब-तक जिया है ।
और तो केवल कुछ दिन के मेहमान है, अपना हाथ करतार है ।।2।।

कब-तक जिओगे जिन्दगी घुट-घुट के ।
यूँही कब-तक बर्बाद करोगे समय की इस धारा को ।
बहता चला गया जो हवा लौट नहीं आता है ।
यूँही हाथ मलता रह जाओगे कुछ नहीं पाओगे ।।3।।

पैसा, धन-दौलत सब-के-सब यूँही रह जायेंगे ।
तेरे तन को आखिर कफन से ही लिपटा जायेगा ।
मिट्टी, हवा, आग, आकाश, नीर में तु मिल जायेगा ।
यूँही तेरा सबकुछ भौतिक रत्न तेरे काम नहीं आयेंगे ।।4।।
कवि विकास कुमार

स्वतंत्रता की नीब को मिट्टी खा रही है ।

August 3, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

स्वतंत्रता की नीब को मिट्टी खा रही है ।
सरकार को देख आज जनता काँप रही है ।
जो एक दिन तपस्वी राजा राम की माँग कर रहे थे ।
आज वो जनता रावण को कैसे सिंहासनपति बना चुके है ।
स्वतंत्रता की नीब को मिट्टी खा रही है ।।1।।

आजाद, बोस, तिलक, सिंह की कुर्बानियाँ ।
अब हम उस महान स्वतंत्रता सेनानियों का जन्मदिवस मना रहे है ।
शर्म की तो बात ये है, हम उनके साथ खड़ा होके अपनी धरा को अपमानित कर रहे है ।
जो लोग मिट्टी को माता समझते थे, पिता राजा को ।
आज वो लोग किस धरा पे रह रहे है ।
स्वतंत्रता की नीब को मिट्टी खा रही है ।।2।।

और भी दास्तां छिपे है अतीत के धुल उन पन्नों पे ।
किसी ने पुरातन संस्कार मिटायी तो किसी ने खूद को खोया ।
किसी ने दास्तां स्वीकार की तो किसी ने स्वतंत्र होके मरना चाहा ।
सिंह ने आखिरी दम तक युवाओं का विवेकानंद बना ।
आजाद ने तो खूद को अन्तिम प्रणाम किया और मानव जीवन सफल किया ।
बाबा तिलक ने अपनी वाणी में गीता का वाचन किया और खुद को मातृभुमि में लूटा में दिया ।।3।।
— कवि — विकास कुमार

माँझी के नाव चलता बीच मँझधार में ।

August 3, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

माँझी के नाव चलता बीच मँझधार में ।
उसे कोई विपरित धारा का प्रवाह रोकता नहीं ।
क्योंकि वह हर परिस्थिति में नाव को खेवा है ।
उसे सिर्फ मंजिल दिखता है, राह उसे बुलाता है ।।1।।

राह-राह के हर कठिन परिस्थिति में उसने खूद को संभाला है ।
उसे विषम लहरे-तरंगे, ज्वाला क्या बुझाये, जो अपनी होश से चलता है ।
वह अपनी एक नई राह बनाता है, जिसे पाकर वह अपनी मंजिल तक पहुँचाता है ।
माँझी को लहरों से क्या लेना, उसे तो सिर्फ अपनी मंजिल सुझता है ।।2।।

ऐसे ही नहीं मिलते किसी को सफलता का वह महान श्रेय है ।
किसी ने रात जाग के सोया है, तो किसी ने दिन गँवाकर रात बिताया है ।
वह नर जो तन को मौषम के ढ़ाँचा में ढ़ाला है ।
वही नर सच में सफलता को कदम में झुकाया है ।।3।।

हार जीत की तो बात अलग है ।
सारी दुनिया पहले हार के ही जीते है ।
वीर नहीं पर पुरूषों के कंधों पे जीते है ।
वह अपनी दिशा को एक राह देता है ।।4।।
कवि विकास कुमार

वासना क्या है , ये जानना आज बड़ा सवाल बन चुका है ।

August 3, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

वासना की गंदी हवा बह रही है ।
चारों-तरफ अत्याचार फैल रही है ।
त्राहि-त्राहि करते संत आज जगत में ।
दुर्जनों की गर्जना धरा को दबा रही है ।
सज्जनों की चिख अंबर तक जा रही है ।
वासना की गंदी हवा बह रही है ।।1।।

अब चारों तरफ भ्रष्टाचारियों अपना घर बना रही है ।
पग-पग मिलते है आज सज्जनों का रक्त ।
दुर्जनों आज सज्जनों के रक्त का पिपासु बन रहे हैं ।
कौन-कौन बने हैं आज दुर्जन ये पहचानना कठिन है ।
बड़े की तो बात अलग है, आज नन्हें मुन्ने बालक भी शौतान बने रहे हैं
वासना की गंदी हवा बह रही है, बालक भी आज मात-पिता को सता रहें है ।।2।।

वासना क्या है , ये जानना आज बड़ा सवाल बन चुका है ।
आदत भी आज लत का स्वरूप लेने लगा है ।
मानव आज वासना की गंदी किचड़ में फँसा है ।
कौन बचाये इसे ये तो खूद को पहचानने से इंकार कर चुके है ।
अब रास्ता भी इनका साथ छोड़ने लगा है ।
वासना की गंदी हवा बह रही है ।।3।।
कवि विकास कुमार

निर्मल मन को भाते हर लोग है ।

August 3, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

निर्मल मन को भाते हर लोग है ।
चाहे वो नर गोरा हो या काला ।
इन्हें रंग भेद आता नहीं ।
इसलिए ऐसे लोग जहां में संत कहलाते है ।।1।।

संतों की महिमा इस धरा पे धरती समान है ।
जैसे धरा नर के हर अपराध क्षमा करती ।
वैसे ही संतजन दुर्जनों को नेकी के सदा राह दिखाते ।
निर्मल मन को भाते हर लोग है ।।2।।

मैला मन है जिसका उसके श्वेत तन से क्या लेना ।
जो नर मन के सच्चे नहीं, उसके तन से क्या भला ।
कर लो नर मन को निर्मल, तो काले तन भी पावन है ।
निर्मल मन से हरि मिलता तो क्यूँ ना करे निर्मल मन ।।3।।
कवि विकास कुमार

मत बर्बाद कर ए मेरे दोस्त नर तन

August 3, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मत बर्बाद कर ए मेरे दोस्त नर तन
बड़े ही जतन से मिले है ये मानुष-जन्म।
कर ले दान-धर्म, दीन-दुःखी की सेवा कर ।
व्यर्थ मत गँवा जिन्दगी, कुछ तो ऐसे करम करें ।
जिसे सुफल हो तेरा मानव-जन्म ।।1।।

क्यूँ कब तक खूद को अंधियारा के गलियों में भटकायेगा ।
खूद को पहचान मेरे दोस्त, समय को मत कोस दोस्त ।
खूद को पहचान कर, खूद को संभाल दोस्त ।
ऐसे में ही ना बीत जाए जिन्दगी तेरी ।
इसलिए समय के साथ चल मेरे दोस्त ।।2।।

नर है तो नर को पहचान मेरे दोस्त ।
सज्जन ना मिले तो दुर्जनों को भी गले लगा दोस्त ।
खूद को इस ढ़ांचा में ढ़ाल दोस्त ।
कि जहां भी सलाम करे तुझे एक दिन मेरे दोस्त ।।
मत बर्बाद कर ए मेरे दोस्त नर तन ।।3।।
कवि विकास कुमार

दुर्जनों को सुख मिलता है सज्जनों को चिढ़ाके ।

August 3, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

दुर्जनों को सुख मिलता है सज्जनों को चिढ़ाके ।
ये उसके अपने प्राकृत स्वभाव है, बदलते नहीं बदलते है ।
इन्हें परनिंदा, दुसरों की पीड़ा से आनंद मिलता है ।
यह दुर्जनों का अपना स्वभाव है, इसलिए यह दुर्जन के वंशज है ।।1।।

सज्जनों को दुखावस्था देखकर इसे परमानंद की अनुभूति होती है ।
यह सर्वदा गलत विचारों में विचरता है, इसे कोई संत नहीं भाता है ।
यह असंतों का संगी , दुराचारियों का साथी है ।
लोभी, भोगी, कामी इनके रिश्तेदार है ।।2।।

इसके साथ हमेशा खड़ा रहता लाखों आताताई पुरूष है ।
क्योंकि इसके पास अधर्म के पैसे, गरीबों के अन्न है ।
इसके आत्मा भी इससे दुखी है ।
क्योंकि ये हमेशा सज्जनों को सताता है ।
दुर्जनों को सुख मिलता है, सज्जनों को चिढ़ाके ।।3।।
कवि विकास कुमार

देहिक सुख के कारण मनुष्य आंतरिक शक्ति खोते है ।

August 3, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

देहिक सुख के कारण मनुष्य आंतरिक शक्ति खोते है ।
ब्रह्मचर्य व्रत को खंडित-खंडित करके अपनी जिज्ञासा पूरी करता है ।
और भी और भी सुख के कारण सारी शक्तियाँ गँवाता है ।
जो नर हरा सकते है सिंह को, आज वो हार की माला स्वीकारते है ।।1।।

भौतिक सुख के कारण मन सदा विचरता रहता इन्द्रियों के जाल में ।
उसका क्या है, उसका तो मालिक ही भोगी है, इसलिए वह मन स्वतंत्र विचरता है ।
योगी का मन तो सदा रहता प्रभु के पद्चिन्ह्नों में , पर भोगी खोया रहता निंदो में ।
दोनों एक ही मिट्टी के मूरत है, पर दोनो के स्वभाव आकाश-पाताल के दूरी है ।।2 ।।

देह सुख नहीं परम सुख कहलाते है ।
ये तो क्षणभंगुर शक्ति ह्यास का चित्कार है ।
जो नर करूँ शक्ति का दुरूपयोग ।
उसका न होता कभी भविष्य उज्जवल, प्रकाशमय ।।3।।
कवि विकास कुमार

करो परिश्रम कठिनाई से

August 3, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

जहां की भीड़ में मतलबी लोगों के संग में ।
बहुत कुछ सीखने को मिलता है, वो है जिन्दगी ।
पर जिन्दगी के भी कुछ रंग है ।
बेरंग है जिन्दगी हमारी ।
ये कहती आज दुनिया किसी की ।।1।।
आज जो चढ़ के बोले रहे है लोग ।
कल वो भी रोते थे अपनी मुकद्दर पे ।
प्रारब्ध के भी खेल निराले है ।
जो कभी नंगे पाँव जमीं को चुमते थे ।
आज को धरा को मिट्टी समझता है ।।2 ।।
इन्सां का क्या है ?
कुछ मिल गया तो हँसता है,
कुछ खो गया तो बहुत रोता है ।
कुछ लोग जहां में ऐसे भी होते है ।
जिन्हें परवाह नहीं खोने पाने का ।
सिर्फ वहीं लोग तन्हा में रहना पसंद करते है ।।3।।
हमें भौतिक पुरूष से कुछ लेना नहीं ।
क्योंकि जिन्हें परवाह नहीं मातृभूमि की ।
वो क्या खाक़ देंगे राष्ट्र को ।
जो अपनी मर्यादा को सड़क पे निलाम करते है ।
उससे क्या आशा है हमारी ।
ये जानती दुनिया हमारी ।।4।।
कवि विकास कुमार

मैं आखिरी मुहब्बत का दस्तक दे रहा हूँ

August 3, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैं आखिरी मुहब्बत का दस्तक दे रहा हूँ ।
और वो गैर की बाहों में सोई जा रही है ।
मैं वफा की डोर में बंधा हूँ ।
और अब वह वेवफा की रश्में निभा रही है ।।1।।
मैं आखिरी मुहब्बत का …… …….. …. … (1)

इजहारे मुहब्बत की वो दिन बस ख्वाब बन रही है ।
टूट के रिश्ते अब समंदर की गहराई माप रही है ।
वेवफा नहीं है अगर वो तो क्या मेरे साथ वो वफा निभा रही है ।
तोड़ के रिश्ते अब वो गैर की शहनाई बजा रही है ।।2।।
मैं आखिरी मुहब्बत का …. …. …. (2)

सोचता हूँ कि मैं इतना क्यूँ वेवफा से वफा कर रहा हूँ ।
मुकद्दर को भूल अपनी तेरे संग जिन्दगी जी रहा हूँ ।
तेरा क्या है ओ वेवफा, तु तो है हरजाई हर किसी का ।
मैं अपनी किस्मत पे पत्थर मार रहा हूँ ।।3।।
मैं आखिरी का दस्तक … .. (3)
कवि विकास कुमार

शायरी संग्रह भाग 3

August 2, 2020 in शेर-ओ-शायरी

मेरे इलाही मेरे रक़ीब को सलामत रखना। वो भी रोयेंगे मेरे मह़सर में।।1।।
 विकास कुमार कमति

मेर रक़ीब मेरे माशुक को गुल दे दो। वो समझेंगे हमराह शव-ए-विशाल है।।2।।
 विकास

मेरे इलाही मेरे माशुक को मेरे रक़ीब से मिला।
मैं चाहता, उनके चेहरे पर तब़सूम हो।।3।।
 विकास कुमार

किसी वज्म़ में मेरे रक़ीब ने मेरा कलाम सुनाया। सुनके अश्क भरे आये, मेरे महब़ुब की।।4।।
 विकास कुमार

मेरे मर्ग पर रोयेंगे मेरे रकीब भी। देखेंगे मेरे नवाज भी।।5।।
 विकास कुमार

मेरे रक़ीब रहीम-ओ- करीम ले।
वो हिमायत करेंगे जहां की।।6।।
 विकास कुमार

सुराग-ए-जिन्दगी कुछ यूँ हुआ।
नवाजिश आज बातिल बना।।7।।
 विकास कुमार

मेरे रब हमें ताकत-ए-परवाज दें की। मैं रकीब के लिए नूरी बनूँ।।8।।
 विकास कुमार

किसी अंजुमन में सुराग-ए-जिन्दगी का चला। किसी फक़ीर ने रहीम-ओ-करीम का नाम लिया।।9।।
 विकास कुमार

मेरे रहीम हमें वो इबादत दें कि।
मैं तेरे घर से तेरी जीऩत चुरा लूँ।।10।।
 विकास कुमार

मेरे इलाही, मेरे खुद़ा ! हमें वो इबादत दे। मैं खूद में देखूँ तेरी जीऩत देखूँ।।11।।
विकास कुमार

मेरे नवाजीश मैं तेरा इबादत करता। हमें सुराग-ए-जिन्दगी बता।।12।।
 विकास कुमार

किसी अंजुमन में अब अपनी वस्ल न होगी। लव-ए-दार हूँ, जरा जीनत़ दिखा मेरी जां।।13।।
 विकास कुमार

थक गया मय पी-पी कर।
फैक-मस्ती में लुप्त-ए-बहार अच्छा नहीं।।14।।
 विकास कुमार

तेरे बगैर अंजुमन में लुप्त-ए-बहार अच्छा नहीं। तेरे बगैर शव-ए-विसाल, लव-ए-दार है।।15।।
 विकास कुमार कमती।।

आजकल तेरे दीदार होते नहीं, लगता है, तेरी आँखें बेवफा हो गई।16।।
 विकास कुमार

तेरे वज्म़ में हम भी आयेंगे, तू तौहिन करना मेरी मुफ़लिसी की।।17।।
 विकास कुमार

हमराह दुआ करेंगे, अपने ईलाही से, हमें गमे-ए-जहां दे। और अपने बंदे को फुर्शत-ए-गुनाह दें।।18।।
 विकास कुमार

मेरे रक़ीब कहते मेरी माशुक ने तो तुझे रुसव़ा कर दिया। मेरे यार कहते है, तेरी जान ने तो तुझे फुर्शत-ए-गुनाह दी।।19।।
 विकास कुमार

मेरे माशुक मेरी मुफ़लिसी की तौहीन करना। मैं चाहता, तेरे रक़ीब अपने आँगन में दो गुल देंखे।।20।।
 विकास कुमार

हमें शर्म नहीं रुसवाई की, तू और तौहीन कर मेरी मुफ़लिसी की ।।21।।
 विकास कुमार

कभी आया करो, मेरी जां, हम मुफ़लिसों के घर, हम पानी नहीं, प्रीत के अश्रु पीलाते हैं।।22।।
 विकास कुमार

शायरी संग्रह भाग 1

August 2, 2020 in शेर-ओ-शायरी

मुहब्बत हो गयी है गम से,
खुशियाँ अच्छी नहीं लगती।
पहले दुश्मन मुहब्बत करते थे,
अब दोस्त नफरत करते हैं।।1।।
 विकास कुमार कमति..
बदलते वक्त के साथ,
उसकी आँखें भी बदल गयी।
पहले मुहब्बत भरी निगाहों से देखती थी,
अब शक भरी निगाहों से।।2।।
 विकास कमार कमति..
सुना था लड़की बेवफा होती,
मौलिकता गुण होती,
उनके रगों में बेवफाई की।
आज पता चला,
मर्दों की मंडी में भी बेवफाई बिकती।। 3।।
 विकास कुमार कमति..

संजोते गये ख्या़बों की गठरियाँ,
इक दिन ऐसी बरसात आयी की।
उसकी डॉली निकली,
और मेरी बारात, फर्क़ सिर्फ़ ये था कि वो।
रो रही थी, और मैं हँस रहा था,
क्योंकि वो जिन्दगी जीने जा रही थी।
और मैं जिन्दगी जी चुका था।।4।।
 विकास कुमार कमति..

मेरी इतनी औकात नहीं,
कि मैं तेरे जुल्फें तले सो सकूँ।
मेरे लिए मुहब्बत भरी निगाहें ही सही।।5।।
 विकास कुमार कमति…

मेरी मुहब्बत कोई जिस्मानी संबंध नहीं,
जो क्षणभर में लुप्त हो जायें।
मेरी मुहब्बत तो इच्छा है,
जो तेरे साथ ही जायेगी।।6।।
 विकास कुमार कमति…

बहुतेरे को स्त्री ने बदल दी,
कोई कालि बने, तो कोई तुलसी।
अब मेरी बारी है, जरा हमें भी बदल दें।।7।।
 विकास कुमार कमति…

जानता हूँ मैं, मुहब्बत करती हैं, मुझसे तू।
तु कहने में शर्माती, मैं बोलने में लजाता।।8।।
 विकास कुमार कमति…

तेरी अदायें देखकर,
मुहब्बत हो गई तुमसे।
तेरा व्यवहार देखकर,
रोना आ गया खूद पे।।9।।
 विकास कुमार कमति…

तेरी बेवफाई ने शायर,
बना दिया मुझको।
ऐ! दिले गुलजार,
जरा वफा तो दिखा,
इंसान बनने को जी चाहता।10।।
 विकास कुमार कमति..

आग उधर भी लगी है, आग इधर भी लगी है।
उधर सहनशक्ति ज्यादा,
इधर बर्दाश्त करने का क्षमता कम।।11।।
 विकास कुमार कमति..
साख की जमीं पर थमीं थी,
अपनी मुहब्बत की मंजिल।
जरा शक क्या हुआ ?
खाक! में मिला दी।।12।।
 विकास कुमार कमति..
तेरी हुस्न की तारीफ़, क्या करूँ? जानम!,
नजर थमती नहीं तेरे बदन पे।
जरा नजरें तो मिला,
आँखों में समाने को जी चाहता।।13।।
 विकास कुमार कमति..

थक गया हूँ, संसारिक ग्यान अर्जित करते-करते।
अब आध्यात्मिकता में रूझान अच्छा लगता।।14।।

 विकास कुमार कमति..

वक्त हर समस्या का समाधान होता है।
वक्त के साथ चलना चाहिये।।15।।
 विकास कुमार कमति..

मेरी प्रेरणा है तु, जरा रूख़ से नाकाब़ हटा।
दुआ माँगता हूँ, रब से जीने के वास्ते।।16।।
 विकास कुमार कमति..

रूठ़ गई जिन्दगी, तेरा इन्तजार करके।
खो गई कहाँ तू, वफा करके।।17।।

 विकास कुमार कमति..

क्यूँ सितम कर रही हो,
इन बेवस-बेजुवान हवाओं पे।
कसूर तो मेरा था, जो बाँधा था,
जुल्फें तेरे कहने पर हमने।।18।।

 विकास कुमार कमति..

रूठ गई जिन्दगी, तेरे जाने के बाद।
कमबक्त! मौत भी नहीं आती,
तेरे आने के बाद।।19।।

 विकास कुमार कमति..

जी ली अपनी जिन्दगी,
तुने किसी के जिन्दगी बर्बाद करके।
जरा बता संगदिल! कैसी दिललग्गी रही।।20।।
 विकास कुमार कमति..

मुक्त कर दो, इन बेवस हवाओं को।
सितम ढ़ाने के लिए, मैं हूँ ना,
हम पे ढ़ा लेना।।21।।

 विकास कुमार कमति..

ना दौलत की कमी , न शोहरत की कमी,
ना एैश्वर्य की कमी।
एक कमी थी, तेरी वो खत्म हो गई,
तेरे जाने के बाद।।22।।
 विकास कुमार कमति..

कुछ दर्द तेरे जाने के बाद रहा,
कुछ दर्द तेरे आने के बाद रहा।
बीच का सिलसिला, यूँहीं बेकार रहा।।23।।
 विकास कुमार कमति..

रूठ़ कर कहाँ चली मेरी जानम,
जरा वक्त तो दे संभलने का।
साथ-साथ बेवफाई निभायेंगे।।24।।
 विकास कुमार कमति..

तेरी बेवफाई ने इक नया मोड़ दी।
तु किसी और के साथ,
और कोई और मेरे साथ चलीं।।25।।

 विकास कुमार कमति..

रोता नहीं हूँ अब मैं,
मेरे अश्क अब बहते नहीं।
जब तुने जिन्दगी जी ली,
किसी के साथ घर बसाकर।
तो हमने भी वफा निभा दी,
किसी और के साथ।।26।।

 विकास कुमार कमति..

बिखड़ाकर जुल्फें न चला कीजिए जानम!।
हम आशिको! को ऐसे न तड़पाया कीजिए जानम! ।।27।।
 विकास कुमार कमति..

मत कर ग़ुरुर अपने हुस्न पर मेरी जां।
ढ़ालता सभी का ये, बस इन्तेजारे वक्त का!।।28।।

 विकास कुमार कमति..

वो वक्त भी क्या थी तेरे जानम,
लाखों दिवाने मरते थे तुझपे।
अब मैं मरता हूँ तेरे वास्ते! मुहब्बत के आस्थे।।29।।
 विकास कुमार कमति..

तेरे जुल्फें को गुत्थें कभी,
काश! हमारे पास बैठते।
मँझधार में ना डूबते कभी,
काश! तुम्हारे सहारे मिलते।।30।।
 विकास कुमार कमति..

तेरी बेवफाई के किस्से,
गैरों से सुनते, तो खंजर सा लगता दिल पे।
ना जाने! कौन सी वो मनहूस घड़ी थी,
जो दिल तुझपे लगी।।31।।
 विकास कुमार कमति..

बेरहम! इतना तो रहम करता,
अपने लिये ना सही।
किसी और के लिए, तो छोड़ता।।32।।

 विकास कुमार कमति..

तू वफा नहीं बेवफा है,
तू रहमदिल नहीं, बेरहम है।
तु, तु नहीं,मैं में गुम- गुम है।।33।।

 विकास कुमार कमति..

छोड़ दी सारी दुनिया मैंने तेरे खातिर।
तु छोड़ ना सकी, किसी को मेरे खातिर।।34।।

 विकास कुमार कमति.
हमने वफा तुझसे की, तुमने किसी और से की।
और उसने तिहि और से की। सच तो है– वफा कोई किसी से की ही नहीं।।35।।
 विकास कुमार कमति..

सारा जहां सोता, तू भी सोती बेवफा बनकर। हम तेरे विरह में रात में रोते, और दिन में सोते।।36।।
 विकास कुमार कमति।।

कुछ वक्त जो तेरे साथ गुजारे, वो वक्त नहीं तेरे हँसने और मुस्कुराने के दिन थे। कहाँ चली मेरी जां, विरह के आग में झोंक के, जाते-जा हवा तो देती जा।।37।।
 विकास कुमार कमति।।

साथ-साथ ही अपनी डॉली उठेंगी, फर्क़ सिर्फ ये होगा। तेरे पिया तेरी घुंघट उठायेंगे, और मेरे पिया मेरे कफन।।38।।
 विकास कुमार कमति।।

तेरे याद में लिखें हमने सैकड़ों शेर।
ये शेर नही,अपनी मुहब्बत की दास्तां है।।39।।
 विकास कुमार कमति।।

मेरे खूदा मेरे महबूब को सलामत करना। अगर गम हो, उन्हें तो दर्द हमें देना।।40।।
 विकास कुमार

मेरी जां रूठ़ी हो, तुमझे क्या ? क्या आप नहीं जानते, क्रोध स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह है। मेरे दोस्त, मेरे भाई !, क्यूँ खफा हो ? मुस्कुराकर जिओ ना!।।41।।

 विकास कुमार

जरा पूछ ए मेरे दोस्त इनसे, इन्हें मुफ़लिसी से इतनी मुहब्बत क्यूँ। इन्हें खेलने के लिए मुफ़लिस और झेलने के लिए रईस चाहिए, क्या यही इनकी मुहब्बत है?।।42।।
 विकास कुमार कमति।।

तुझे देखूं को दिल को शकुन सा मिलता। तुझे ना देखूं तो मायूसी सी छाई रहती।।43।।
 विकास कुमार

यह सच हैं कि आप जिससे मुहब्बत करते हो। वो भी आपको चाहता है, पर वो बोल नहीं सकता और आप कह नहीं कहते।।44।।
 विकास कुमार

तु ऐसी ही करतुतें दिखाती रहो, अपनी संस्कारों की,और मैं लिखता रहुँ मानवोंहित के बारे में।।45।।
 विकास कुमार

मानता हूँ,वक्त सभी जख़्मों का मरहम है। ये वक्त ही है। जो बेनाम रिश्ते बनाते है। कुछ दिल में बसते है,कुछ दिमाग में।।46।।
 विकास कुमार

यह मन का लगाव भी कुछ अजीब सा होता है।
जिसको लगी उसकी जुबां चली जाती है।।47।।
 विकास कुमार

यह मन का लगाव भी कुछ अजीब सा होता।
जिसको लगा वो जुबां रहते बेजुबां हो जाते।।48।।
 विकास कुमार

वो राती में सोती,हम दिन में सोते।
वो रात में भोग करती,हम दिन में योग करते।।49।।
 विकास कुमार

प्यार दो व्यक्तियों के बीच का वह सम्बन्ध है। जिन्हें सिर्फ महसूस किया जा सकता है।।50।।
 विकास कुमार

प्यार को परिभाषित करना,प्यार को अपमानित करने के समान है,क्योंकि समय और परिस्थिति के अनुकूल इनके अलग-अलग प्रकार हो सकते है।।51।।
 विकास कुमार

प्यार करने वाले एक नदी के दो राही है। जो कभी नहीं मिलते है। प्यार एक एहसास का नाम है। यह ईश्वरीय देन है। यह सेवा का दूसरा नाम है।।52।।
 विकास कुमार

कुछ दोस्त जो हमें प्रोत्साहित करते है। वो दोस्त नहीं,हमारी दिल की धड़कन व आत्मविभोर की कल्पना है। कुछ लोग जो चुप रहते हैं। वो हमारी सोच व चिंतन की विषय है। मेरी महबूब की हरकतें,मेरी लेख है,और उनकी वेबफाई मेरी कलम उठाने की वजह।।53 ।।
 विकास कुमार

जो मुहब्बत करते,सो इजहार नहीं करते। जो इजहार करते सो,मुहब्बत नहीं करते।।54।।
 विकास कुमार

इजहार दो प्रेमियों के बीच का सबसे सन्देहजनक शब्द है।।55।।
 विकास कुमार

हमने कुछ ऐसी भी प्रेमिकाओं के देखा हैः- जो अपने प्रेमी के खतों को अखबारों में छपवाना पसंद करती है।।56।।
 विकास कुमार

वो दुहाई देती रही अपनी सभ्यता का। मैं देखता रहा उनकी संस्कारों को।।57।।
 विकास कुमार

तु अच्छी नहीं,बुरी है,क्योंकि तेरे अन्दर आत्मा नहीं,प्रेतात्मा का वास है। अतः तु अहंकार की दुनिया में खोई हुई एक बहुत ही सुन्दर खुबसूरत,हसीं,जवां बूत के स्वरूप में मेरे समझ खडी है। बता संगदिल क्या नाम दू तुझे।।58।।
 विकास कुमार

तेरी महफ़िल में कुछ ऐसे भी तेरे यार-आशिक होंगे। जो तेरे दिलो-दिमागो,हुश्नो-शरीरों,आत्मा-रूहों व तेरी आबरू को भी लूटेंगे। तू बेह्या की तरह सबकी मनोकामना पूर्ण करेगी। हमने देखा है। तुझे जवान होते हुये भी. तू करतुते करती बच्चों वाली. दुहाई देती है. अपनी ऊँची आदर्शों सभ्यता-संस्कृति व भाषा की. और करतुतें करती विदेशों वाली।।59।।
 विकास कुमार

तेरे साथ जो हुआ वो तेरे ही नादानी की सजा थी. अब उसके साथ जो होगा. वह उसके वेवफाई की सजा होगी. क्योंकि वह अच्छी थी. इसलिए उसके साथ बुरा हुआ. और मैं बुरा था. इसलिए मेरे साथ अच्छा हुआ।।60।।
 विकास कुमार

जय श्री सीताराम ।।

नाम विकास कुमार
पिता भोल कमति
माता फूलकुमारी देवी
घर मोहनपुर
राज्य बिहार
जय श्री सीताराम ।।

New Report

Close