शायरी संग्रह भाग 2 ।।

August 2, 2020 in शेर-ओ-शायरी

हमने वहीं लिखा, जो हमने देखा, समझा, जाना, हमपे बीता ।।

शायर विकास कुमार

1. खामोश थे, खामोश हैं और खामोश ही रहेंगे तेरी जहां में । करतुते तो तु करती मेरी जहां में, हम तो हरवक्त खामोश रहते हैं तेरी जहां में ।।

 विकास कुमार

2. अब कैसा सिला है वफा का, अब तो वो भी थक गई बेवफाई से । हम खामोश हैं, और वो शान्त ।।

 विकास कुमार

3. मेरी सोच हैं तु, मेरी विचार है तु, मेरी शेर है तु, मेरी शायरी हैं तु, मेरी कलम उठाने की वजह है तु । हर चीज है जहां में तु मेरे लिए ।।

 विकास कुमार

4. नादान थे हम, समझदार थे तुम । इसलिए तो बेवफा निकले तुम और तन्हा रहे हम ।।

 विकास कुमार

5. किसी की जरूरत हो सकती हो तुम । मेरी तो बस ख्याब हो तुम । ख्याब थी, ख्याब है, और ख्याब ही रहेगी ।।

 विकास कुमार

6. कुछ था, कुछ है और कुछ होंगे, अपनी जिन्दगी के अधुरे सपने । तु गैर के बाहों में सोयेगी, हम गहराइयों में डूब जायेंगे ।।

 विकास कुमार

7. बिखड़ी जुल्फें देखकर यूँ ऐसा लगा कि अपनी जिन्दगी में बहार आने वाला है । कमबख्त़ दिल को क्या मालूम था? उन्हें तो बिखड़ाकर जुल्फें चलने की अदा है ।।

 विकास कुमार

8. ये कीबोर्ड तो नहीं, ये जिन्दगी की राहें है । इसमें स्पीड नहीं, बारिकियाँ जरूरी है ।।

 विकास कुमार

9. मोह रूलाती, मुहब्बत रूलाती और कुछ बेनाम रिश्ते भी रूलाती । कमबख़्त बेनाम जिन्दगी भी खुब रूलाती ।।

 विकास कुमार

10. उसकी हर एक बेवफाई की सलीका से वाकिफ़ थे हम । फिर भी कमबख्त ये दिल! उनसे मुहब्बत कर बैठा ।।

 विकास कुमार

11. वो मनाये और मैं रूठूँ, वो सिलसिला ना दे प्रभु! अब सदा-सदा के लिए खामोश कर दे प्रभु!

 विकास कुमार

12. ये जुल्फ नहीं, ये तो घनघोर घटा है बादल की । कभी बरसे तो सावन के महीनों में ।।

 विकास कुमार

13. हम उनको चाहे, वो किसी और को चाहे । कमबख्त ये मुहब्बत है या उलझी पहेली । कभी मरके जिये तो, कभी जी के मरे ।।

 विकास कुमार

14. जहां की दौलत है जहां के पास, पर वो नहीं है, जहां के पास, जो हैं मेरे पास ।।

 विकास कुमार

15. कभी ख्याबों में तेरी जुल्फें तले सोये थे हम । जहांवालों ने आग लगा दी तेरी जुल्फ में । रूठ़ गई तु, सोये रह गये हम ।।

 विकास कुमार

16. बेरंग थी जिन्दगी रंग लायी थी तुम । कुछ साथ क्या छूटा? खो गये तुम, बिखड़ गये हम ।।

 विकास कुमार

17. बेमतलब थी अपनी मुहब्बत, कमबख्त दिल हरवक्त मतलब ढ़ूढती । खोये-खोये थे तुम, बिखड़े-बिछड़े थे हम ।।

 विकास कुमार

18. रूख ये वक्त का, कुछ तो साथ दिया । हम शायर बने तेरी शायरी का ।।
 विकास कुमार

19. आती है मन में अभी-भी वो छवि । तेरा मुस्कुराना और खामोश रहना मेरा ।।
 विकास कुमार

20. जहां के नियम है, जहां में । वो बदले गये जहां के साथ ।।
 विकास कुमार

21. क्या हाल था? क्या हाल है? क्या हाल होगा? दोस्त ने दुश्मनी निभाई, दुश्मन ने दोस्ती निभाई । अब सिला है कैसा वफा का वेवफा भी वफा निभाई।
 विकास कुमार

22. कुछ हद तक तेरी वेबफाई सही थी । अब वेबफाई भी तंग आ चुकी है तुझसे।

 विकास कुमार

23. सवाल करें तो जवाब मिले, उनके आशिकों से । कमबख्त तेरी औकात क्या थी?

 विकास कुमार

24. सबाल करें तो जवाब मिले, उनकी खामोशी का । वो हँस के बोले, अदा तो मेरी व्यवहार है जीने की ।।

 विकास कुमार

25. थकती हैं मस्तिष्क आती है नींद, पर सोने का नहीं । ताजा होकर, फिर से पढ़ने, लिखने व कुछ नया सोचने का ।।

 विकास कुमार

26. मुझे क्या मालुम था? मेरे शेर मुझे ही पलटवार करेगा । कमबख्त ये दिल का मामला है, कभी अश्क बहने नहीं दिया ।।

 विकास कुमार

27. कभी देखकर मुस्कुराना, और सखियों (गैरों) से बात करना, उनकी आदत बन चुकी थी । अब वो दौर है, कमबख्त नजर तक नहीं मिलती ।।

 विकास कुमार

28. तेरी हँसी को मुहब्बत समझे, वो नादान आशिक थे हम । हमारी आशियाना में आग लगायी, वो अहं लड़की थी तुम ।।

 विकास कुमार

29. रूठ़ी मुहब्बत शेर नहीं लिखती, उनकी खामोशियाँ गुमनाम बाजार में बिकती है ।।

 विकास कुमार

30. कभी नैनों से झर-झर झरते थे नीर, अब ना मुहब्बत रही ना लगाव ।।

 विकास कुमार

31. कभी ख्याबों में जीते थे, अब वास्तविक में मरते है । उनके लिए जो कभी मेरे लिए कभी ख्याब में जीते थे, और कड़कड़ाती तेज धूप में कमाते हैं।।

 विकास कुमार

32. मगरमच्छ के आँसु तो अब बहते नहीं, अब प्रीत के आँसु क्या बहाऊँ।।

 विकास कुमार

33. अब दिन कटती है, चैन से । रात आती है नींद । वेपनाह थी तेरी मुहब्बत, और बेवफा थे हम ।।

 विकास कुमार

34. उलझे-उलझे सुलझ गये हम । यार ने यारी दिखाई संभल गये हम ।।

 विकास कुमार

35. लैला तो हम तुझे कह नहीं सकते, हीर तो तू हैं नही, सोहनी वाली तेरी आदत नहीं, जुलिएट की परछाई तुझमें कहीं देखती नहीं, बता संगदिल क्या नाम दूँ तुझे ।।

 विकास कुमार

36. पत्थर बना था दिल मेरा, मोम बनाय था तुमने । अब रूठ़ी हो तुम, मनाते है हम ।।

 विकास कुमार

37. हर दर्द की दवा हैं जहां में , कोई हँस के पीये तो कोई रो के ।।

 विकास कुमार

38. मुस्कुराहट खामोशी की बात बयां करती ।।

 विकास कुमार

39. खामोशियाँ इजहार की पहली पहल होती । जो समझते सो प्यार करते। कुछ दिल, कुछ दिमाग व कुछ जज़बात से खेलते ।।

 विकास कुमार

40. बेवफाई की सजा और यारों की दगाबाजी इंसान को बहुत समझदार बना देता है । एक दिल मुहब्बत नहीं करता, और दूसरी विश्वास नहीं करता यारों पर ।।

 विकास कुमार

41. दिल तोड़ना ही था, तो दिल लगाना ही क्यूँ? कहीं जाना ही था, तो फिर सुनसान बेरंग नगरी में अपनी जुल्फों की बहार व रंग की होली आया ही क्यूँ? कमबख्त! ये तेरी मुहब्बत है या दिल उजाड़ने की आदत । कभी हँस के रोये तो कभी रो के हँसे । तेरी बेवफाई का आलम भी कुछ ऐसा था । तुझे गैर की बाहों में सोना ही था. तो फिर अपनी बाहों का सहारा दिया ही क्यूँ?

 विकास कुमार

42. जाओ नई सिरे से अपनी नयी जिन्दगी जीना । गैरों को भूलाकर, अपनों को याद करना, याद ये भी करना गैर दिल में और अपना दिमाग में बसते हैं । हर एक कदम सोच-समझकर उठाना । खेलने के खिलौने है जहां में हजार । किसी की जिन्दगी बनकर, किसी के जिन्दगी से मत खेलना । टूट जाते हैं, अक्सर वो रिश्ते, जिनकी बुनियाद शक की जमीं पर ठहरी होती, क्योंकि मुहब्बत साख की जमीं पर थमी होती । खास क्या लिखूँ मेरी जान! मेरी बुत! मेरी प्रेरणा!– जहां की खुशियाँ झुके तेरी कदम में , हर एक वला तेरी नसीब की लगे हमें।।

 विकास कुमार

43. खेलने के लिये खिलौने हैं जहां में हजार । फिर ये कमबख्त! दिल ही क्यूँ जहां के लिये ।।

 विकास कुमार

44. टूट जाते हैं, अक्सर वो रिश्ते जिनकी बुनियाद शक की जमीं पे ठहरी होती , क्योंकि मुहब्बत साख की जमीं पे थमी होती ।।

 विकास कुमार

45. जहां भी टिप्पणियाँ करती, तुम अच्छी शेर लिखते हो । उन्हें क्या मालूम है? यह शेर है या हृदय की वेदना ।।

 विकास कुमार

46. लाख मौके मिले थे तेरे जिस्म से खेलने के लिये । कमबख्त! दिल ने मुहब्बत की लाख रखी । हमें क्या मालूम था! तुझे हमसफर की जरूरत थी, जो तुझे गैरों में नसीब हुई ।।

 विकास कुमार

47. वो गैर की दुनिया में कल भी खुश थी, आज भी खुश है । ना जाने! भावी काल उनके चेहरे पे मायूसी क्यूँ झलकाती? मेरे रब! मेरी महबूब, मेरी प्रेरणा, मेरी बुत को, फिर से उसके वह दिन लौटा दे । उसकी लबों की वो खुशियाँ लौटा दे । चाहे मेरी दुनिया की सारी खुशियाँ छीनले मुझसे । उन्हें हर खुशी दे ! मेरे रब!

 विकास कुमार

48. गैर होकर भी अपने की तरह चाहा था तुम्हें । सारी दुनिया को छोड़, सिर्फ़ तुमको गले लगाया था हमने । कमबख्त! ये वक्त बेवफा है या अपनी मुकद्दर । ।

 विकास कुमार

49. खुद का शेर , अब खुद से पढ़ा नहीं जाता । अपना हाल ही अब अपने से देखा नहीं जाता । उनसे मुलाकात हो तो पुछुँ ? -क्या हाल है अपनी? कैसी शेर है आपकी?

 विकास कुमार

50. नये लोग, नयी शहर, नयी जहां मुबारक हो तुम्हें । जहां की सारी खुशियाँ नसीब हो तुम्हें ।।

 विकास कुमार

51. तेरे साथ बिताये हर एक लम्हा को अपनी शेर में ढ़ालेंगे हम । तेरी बेवफाई की किस्से जहां को सुनायेंगे हम ।।

 विकास कुमार

52. तेरे साथ बिताये हर एक लम्हा को अपनी शेर में ढ़ालेंगे हम । तेरी बेवफाई की किस्से दिल-ही दिल में दफनायेंगे हम ।।

 विकास कुमार

53. जिन्दगी गुजरेंगी अब अगम जी के गीतों के साथ । क्योंकि बेवफाई की हर एक लब्ज़ बयां करती अगम जी अपनी आवाज के साथ ।।

 विकास कुमार

54. ख्याब टूटी, दुनिया लूटी, बची है कुछ आसें । गैरों ने अपना कहा, और अपनों ने गैर । कमबख्त! दिल को क्या मालूम था? जिसे चाहा वो ही बेवफा निकला ।।

 विकास कुमार

55. दिल में ही दफनेंगे अब वो सपने जो कभी साथ हमने देखे थे । साथ वो वक्त का मेहरबां, कभी हमने एकसाथ देखे थे ।।

 विकास कुमार

56. मेरे सामने ही वह अपनी नयी जिन्दगी की तैयारियाँ शुरू करने लगी थी. वफा होकर बेवफाई की तरह गैर की जिन्दगी में जाना शुरू कर चुकी थी. अपना होकर भी गैरों की तरह बर्ताव करने लगी थी. निभाई की वफा की हर वह लम्हा, अपना बनकर. अब छोड़कर जा रही, गैर कहकर. पूछें जो! उनसे सवाल तो वो बोले मेरा जान क्या है तेरा हाल?

 विकास कुमार

57. वो लाख कोशिश की थी इज़हार करवाने की । कमबख्त़ दिल ने खामोशी साधी थी । हमें क्या मालूम था? दिल की ये नादानी, हृदय की वेदना कहलायेंगी ।।

 विकास कुमार

58. लाख कोशिशों के बावजूद भी तुझे भूलाया नहीं जाता । कमबख्त़! ये दिल का मामला है, दिल-ही-दिल में दफनाया नहीं नहीं जाता । किसे कहें अपनी दिल की दास्तां, दिल-ही-दिल में रखा नहीं जाता । तेरे साथ बिताये हर वह लम्हा याद किये बेगैर रहा नहीं जाता ।।

 विकास कुमार

59. वो रहने वाली महलों में, मैं लड़का फुटपाथ का । उसकी हर एक अदा पे मरना । यही मेरा जज्बात था ।।

 विकास कुमार

60. जहां के सारे-के-सारे बच्चें को लायेंगे हम तेरे मुहल्ले में और मिलकर खेलेंगे होली तेरे संगे में ।।

 विकास कुमार

61. जहां की सारी-की-सारी रंगों को लायेंगे हम अपनी टोली में और मिलकर खेलेंगे होली तेरे संगे में ।।

 विकास कुमार

62. जहां की सारी-की-सारी रंगों को बाँटंगे हम अपनी नन्हीं-नन्ही बच्चों की टोली में, और पुरी तैयारी के साथ आयेंगे हम तेरे मुहल्ले में, और खेलेंगे होली तेरे संगे में ।।

 विकास कुमार

63. वो होली का दिन. वो रंगों का मौसम. वो बच्चों की टोली. वो फागुन का महीना, उपर से वो तेरा मुस्कुराना याद है कुछ!

 विकास कुमार

64. वह होली का दिन. वह रंगों का मौसम. वह बच्चों की टोली. वह फागुन का महीना. वह बसंत-बहार का मौसम ,उपर से वह तेरा मुस्कुराना याद है कुछ!

 विकास कुमार

65. मुहब्बत की नशा, प्यार की खामोशी, चाहत की रंग, लगाव का दर्द, इश्क का दुःख, स्नेह का आदर, प्रेम का समर्पण पवित्र होता है ।।

 विकास कुमार

66. तेरा वह बेवफा होकर भी वफा निभाना याद है हमें । तेरा वह गैर होकर भी अपना बनाना याद है हमें । तेरा वह दुनिया में खोकर भी हमें पहचानना याद है हमें । तेरा वह हमारी हर एक नादानी पे मुस्कुराना याद है हमें । तेरा वह मेरा देखकर औ सखियों से बात करना याद है हमें । तेरा वह मेरा देखकर गैरों से बात करना और हमें तड़पाना याह है हमें । फिर वह समय का झोंका और हमारी मुहब्बत को रोका याद है हमें । फिर वह तेरा हमसे दूर होना याद है हमें । फिर वह तेरा नयी जिन्दगी जीना और मेरी जिन्दगी मायूस करना याद है हमें । फिर वह तेरा मेरा देखना और मेरा तेरा देखना याद है हमें । फिर वह तुझे अपनी दुनिया में खोना याह है हमें । फिर वह तेरा शुक्रिया अदा करना और मेरा यू.पी.एस.सी. क्लीयर करना याद है हमें । फिर वह तेरी दुनिया में पुनः आना और तेरा बार-बार शुक्रिया अदा करना याद है हमें । फिर वह तेरा मेरा बधाई देना और नयी जिन्दगी जीने की सलाह देना याद है हमें । फिर वह तेरा बार-बार मुस्कुराना और हमें देखना याद है हमें । फिर वह तेरा बार-बार शुक्रिया अदा करना और हमें समाज-सेवा में लगना याद हैं हमें । फिर वह हमें मौत की गोद में सोना और तेरा मेरा अधुरा कार्य पुरा करना याद है हमें- 3

 … विकास कुमार

67. वह फागुन का महीना वह रंगों का मौसम । उपर से तेरा इतराना और मेरा रूठ जाना वह फागुन का महीना…. फिर वह तेरा रंगों में डूबना और हमें दिखलाना । वह फागुन का महीना…. फिर वह तेरा हँसना और हमें भी हँसाना । वह फागुन का महीना …. फिर वह तेरा रूठ जाना और बार-बार देखना । वह फागुन का महीना …. फिर वह तेरा रूठकर आना और हमें बार-बार मनाना । वह फागुन का महीना ….. फिर वह तेरे साथ हमें भी रगों में डूबना और तुझे भी डुबोना । वह फागुन का मौसम … फिर वह साथ-साथ कसम-वादे करना और तेरा हमें बार-बार देखना । वह फागुन का महीना …. फिर वह आँधियों को आना और हमदोनों को सावधान करना । वह फागुन का महीना … फिर वह समय का झोंका और हमदोनों को रोका । वह फागुन का महीना…. फिर वह साथ-साथ बिताये लम्हों का याद करना । वह फागुन का महीना…. फिर वह सभी सपनें को दिल-ही-दिल में दफनाना । वह फागुन का महीना …. फिर वह तेरा नयी जिन्दगी जीना और दिल-ही-दिल में रोना । वह फागुन का महीना …. फिर वह बार-बार समय को कोंसना और अपनी पुरानी बात को दुहराना । वह फागुन का महीना … फिर वह चुपके से जाना और खामोशियाँ साध लेना । वह फागुन का महीना …. वह रंगों का मौसम ।। …

 विकास कुमार

68. एक शानदार टिप्पणी करने को जी चाहता । आपकी बातों को जिन्दगी में उतारने को जी चाहता । कमबख्त जिन्दगी किस रुख पे खड़ी है । उसे लौटाने को जी चाहता । किसी की हँसी को मुहब्बत समझा । उसकी परिणाम भुगतने को जी चाहता । वह गैर की दुनिया में खुश । हमें भी खुश रहने को जी चाहता । तोड़ के सारे बंधन अब नयी जिन्दगी जीने को जी चाहता । उसे कैसे कैसे कहुँ तेरे साथ बिताये हर एक लम्हा भुलाने को जी चाहता । तेरे साथ सोचे अब वो सारे सपने दिल-ही-दिल में दफनाने को जी चाहता । तेरे साथ किये हर वह कसम-वादे तुझे लौटाने को जी चाहता । तेरे साथ बिताये हुये एक लम्हा भुलाने को जी चाहता । तुझे भुलाने को कमबख्त दिल अब मजबुर नहीं करता । तुझे यह मन याद करके हृदय की वेदना की को भड़काना चाहता । हर वक्त तेरे यादों सु मुक्त होने को जी चाहता ।…

 विकास कुमार

69. ऐसी रंग में खोयेंगे अबकी बार होली में । जहां की सारी-की-सारी कोशिशें नाकाम होगी हमें बेरंग करने में । जहां को ढ़ालेंगे हम अपनी रंगों में । वो लाख कोशिश करेगी हमें बेरंग करने की । फिर भी वो नाकाम रहेगी हमें असफल करने में ।

 विकास कुमार

70. मुहब्बत की दुनिया में जुबां कुछ बयां नहीं करती, नहीं तो मुहब्बत की बदनामी होती है ।

 विकास कुमार

71. कौन कहता है? रोना दुःख को दुर कर देता है । कभी मुहब्बत करके देखो । कमबख्त सीधे हृदय में वेदना होती है ।।

 विकास कुमार

72. माना झुठी थी अपनी मुहब्बत. तेरी अदायें के काय़ल हो गये हम. अब रोते हैं हम. क्योंकि खोये हो तुम ..

 विकास कुमार

73. पहली बार किसी युवती को हृदय की वेदना प्रकट करते हुये देखा है ।।

 विकास कुमार

74. दूसरों की नापसंद की चिन्ता करना अपकी असफलता की पहली व आखिरी चरण है ।।

 विकास कुमार

75. पैसे की भूखे लोग कभी-भी महान कार्य नहीं कर सकते हैं ।।

 विकास कुमार

76. उँची उक्तियाँ, उँची सोच व उँजी आवाज में महान तथ्यों की व्याख्या अर्थात बोलने से कोई महान नहीं बन जाता है । अगर बन जाता तो आज सभी फिल्म जगत के सभी दिग्गज अभिनेता महापुरूष होते होते । लेकिन ऐसा है नहीं ।।

 विकास कुमार

77. कितनी भी बेशकीमती बहुमूल्य भौतिक रत्न आपकी खुशी से ज्यादा मायने नहीं रखती । परमान्द की प्राप्ति तो अन्न-जल से ही होता है ।।

 विकास कुमार

78. डॉली तो उठती है जहां में सबकी , कोई हँसके चढें तो कोई रो के ।।

 विकास कुमार

79. वो जो तेरा बाहर राह ताकना और मायूस हो जाना, याद है कुछ !
फिर वो संध्या का बेला, और सुरज का डुबना याद है कुछ !
फिर वो चाँदनी रात, और तारों का चमकना याद है कुछ !
फिर वह सुरज की आस, और ख्याबों में सो जाना याद है कुछ !
फिर वह सुरज का उगना, और चिड़ियों का चहचहाना याद है कुछ !
फिर वह नयी जिन्दगी की शुरूआत, और नये लोगों से मुलाकात याद है कुछ !
याद है कुछ मेरी जां तुझे ।
फिर वह अपना होकर गैरों से बात करना और हमें तड़पाना याद है कुछ !
फिर वह गैरों से दिल को लगाना, और मेरा दिल तोड़ना याद है कुछ !
फिर वह गैरों को दिल में बसाना, और हमें दिल से निकालना याद है कुछ !
फिर वह गैरों को अपनी जुल्फों की छाँव में सुलाना, और हमें रातभर जगाना याद है कुछ !
फिर वह बाहों का सहारा गैरों को देना, और हमें बेसहारा करना याद है कुछ !
फिर वह तेरा बेवफा की तरह हँसना, और हमें रूलाना याद है कुछ !
फिर वह तेरा चुपके से शादी करना, और मेरा संन्यासी बनाना याद है कुछ !
फिर वह तेरा पिया के साथ रति (संभोग) और उन्हें पितृऋण से मुक्त करवाना,
और हमें शायर, लेखक, दार्शनिक व बनाना याद है कुछ !

 विकास कुमार

80. बदलते थे, बदलते हैं, और बदलते रहेंगे जहां में लोग हजार । पर जो वक्त का रूख बदल दें, वहीं कहलायें लाखों में महान ।।

 विकास कुमार

81. गैरों से बात करते-करते वो थक गई थी मेरे बारे में । आखिरकार वो रोकर चली गई मेरी जिन्दगी से ।।

 विकास कुमार

82. उसकी खामोशी देखकर, हमें ऐसा लगा किः- जैसा टूटा दिल मेरा और दर्द उसे हुआ ।।

 विकास कुमार

83. तेरे जाने के खबर से ही हृदय में वेदना सी झलकती है । होंठ मुस्कुराकर हँसती, और हृदय में वेदना सी होती है ।।

 विकास कुमार

84. तोड़ के दिल मेरा, वह किसी नये दिल के तलाश में चला । आज फिर कोई नादान आशिक हमारी तरह उसकी हँसी को मुहब्बत समझा ।।

 विकास कुमार

85. तोड़ के दिल वह मेरा किसी नये दिल के तलाश में चला । आज फिर कोई नादान आशिक हमारी तरह उसकी मुहब्बत के जाल में फँसा ।।

 विकास कुमार

86. सभी बात एक तथ्य पर आकर खत्म हो जाती है. किः- यहाँ हम जीने आये थे, और मरके चले गये ।।

 विकास कुमार

87. सभी बात एक तथ्य पर आकर खत्म हो जाती हैं किः- यहँ हम मरने आये थे, और जी के चले गये ।।

 विकास कुमार

88. दिल-ही-दिल में दफन गई वो सपनें जो कभी हमने साथ देखे थे । तेरा क्या था? तुझे तो किसी और को नयी जिन्दगी बनाया था ।।

 विकास कुमार

89. तेरे साथ बिताये हर एक लम्हा को अपनी शेर में ढ़ालने को जी चाहता है । तेरी बेवफाई के किस्से को जहां को सुनाने को जी चाहता है ।।

 विकास कुमार

90. उसे तो दिल से खेलने की आदत बन चुकी थी । कमबख्त! दिल को क्या मालुम था? वह पहले भी किसी के दिल से खेल चुका था ।।

 विकास कुमार

91. गैर होकर भी उसने मुझे अपना बनाया था । अब हाल है, कैसा बेवफा का, अपना होकर भी गैर बनाया है ।।

 विकास कुमार

92. उसे तो गैरों का सहारा पहले ही मिल चुका था । फिर, यह नादान दिल उनसे मुहब्बत क्यूँ कर बैठ चुका था?

 विकास कुमार

93. मिलते हैं जहां में खिलौने खेलने के लिए हजार । फिर यह लोगों का शौक क्यूँ बनाया तोड़ने को दिल हजार ।।

 विकास कुमार

94. खिलौने कम पड़ गये थे क्या? तुझे खिलौने के लिए जहां मे, जो तुझे इस कमबख्त मुफलिस गरीब का दिल ही सुझा । मिलते हैं जहां में खेलने के लिए खिलौने हजार, फिर यह कमबख्त मुफलिस गरीब का दिल ही क्यूँ तोड़ा ।।

 विकास कुमार

95. तेरी रईसी ने मेरी मुफलिसी का अच्छा मजाक उड़ाया है । गैर के बाहों का सहारा बनके, तुने अपनी रईसी का औकात दिखाया है ।।

 विकास कुमार

96. खिलौना समझके तोड़ा था दिल उसने मेरा । अब जा रही है कहीं गैर कहकर अपना ।।

 विकास कुमार

97. तोड़ के दिल मेरा वह पुराना दोस्त चला । एक बेवफा हरजाई के कारण वर्षों का गहार रिश्ता तोड़ा था ।।

 विकास कुमार

98. टूट के दिल मेरा पत्थर-सा बना था । आज फिर किसी की याद इस दिल में जगा ।।
 विकास कुमार

99. हुश्न के बाजार में उसे आबरू लूटाने की आदत सी हो गई थी । हमें क्या मालूम था? उसे खूद का ही पहचान नहीं था ।।
 विकास कुमार

100. कमबख्त क्या नजारा अंजुमन में एक दिल तोड़ के एक दिल जोड़ने जा रहा कोई ।।

 विकास कुमार

101. कमबख्त क्या सलीका है बेवफाओं की जाने की इक जिन्दगी बर्बाद करके एक जिन्दगी जीने जा रही है ।।

 विकास कुमार

102. कभी मुलाकात अगर हो मुहब्बत के खूदा से पूँछू मैं उनसे कमबख्त इस मुफलिसों को पत्थर क्यूँ बनाया?

 विकास कुमार

103. अपनी अदा दिखाके हुश्न के बाजार में मेरा भाव लगाया तुमने । मिल गया कोई रईसजादा तो इस मुफलिस गरीब को ठुकराया तुमने ।।

 विकास कुमार

104. मुहब्बत की जहां में मुफलिसों की आशियाना की मैय्यत उठती है । रईसजादी मुफलिसों के दिल से जी-भर के खेलती है और जब भर जाते हैं दिल तो रईसजादा से दिल जोड़ती जहां में ।।

 विकास कुमार

105. बदुआ तो हम गैरों को भी नहीं देते, तुझे क्या खाक देगें? दुआ ही दुआ लगें, ये दुआ है तुम्हें ।।

 विकास कुमार

पहली बार किसी युवती को हृदय की वेदना प्रकट करती हुये देखा है । इससे प्रतीत होता है किः- हर युवती बेवफा नहीं होती है ।।
जमाने के रंग बदलते थे, बदलते हैं, और बदलते रहेंगे । लेकिन कुछ लोग अपनी सादगी, भाषा व संस्कृति को कभी नहीं बदलते । ऐसे ही लोग जहां में महान आत्मा के रूप में उभरते है ।।
 विकास कुमार

नाम विकास कुमार
पिता भोला कमति
माता फुलकुमारी देवी
घर मोहनपुर
डाक-घर बरैठा
पंचायत बसघट्टा
थाना कटरा
जिला मुजफ्फपुर
राज्य बिहार
देश भारत
सम्पर्क सूत्र — 8340411428/9771607504

जय श्री राम

इतना अच्छा नहीं हुँ, जितना कि दुनिया कहती है ।

August 2, 2020 in ग़ज़ल

गज़ल ।।

इतना अच्छा नहीं हुँ, जितना कि दुनिया कहती है ।
मैं कैसा हुँ, ये सिर्फ मैं जानता हूँ ।।1।।

खूद के सवालों के कठघड़े में, मैं हरवक्त खड़ा रहता हूँ ।
दूसरों के नजरों में जो अच्छा बनूँ तो क्या ।
अपनी नजरों में गिरा रहता हूँ ।।2।।

लाख दुनिया करनामे दिखाये तो क्या ।
इस भौतिक जग में बेच आत्मा को ।
वही शख्स हूँ मै, जो कभी भूल नहीं पाता ।
क्षणिक आनंद को, मैं वही गलत विचारों का मारा, हरि का खिलौना हूँ ।।3।।

हरि ने तो भेजा है, देकर निर्मल काया ।
पर इस बंदे ने लगाया चुनरी में दाग है ।।4।।

बन्दे के इस करतूत से ईश्वर नाराज है ।
लेकिन ईश्वर समदर्शी है, पर न्याय के संग है ।।5।।

मैं क्या करूँ, ये समझ नहीं पाता हूँ ।
झूठी नगरी, क्षणिक देहिक आनंद में खोया रहता है ।।6।।

सदा ही धिक्कारती है जो आत्मा,
तो मैं खूद को आकाश से ऊपर से भी ऊपर से गिरा समझता हूँ ।।7।।
इतना अच्छा नहीं हूँ, जितना कि दुनिया कहती है ।।
कवि विकास कुमार

करता जा अथक परिश्रम

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

करता जा अथक परिश्रम क्रोध को पी पी के।
मन को न विचलित होने दे नर ।
सदा तु करता जा सत्कर्म ।
परिस्थितियों का क्या है ?
आना-जाना लगा रहता है ।।1।।

नर के आगे सारे स्थिति पानी के बुल्ले है ।
आज जो दुख की घड़ी सामने दीवार बन खड़ी है ।
कल उन्हीं राहों पे उमंग के दीये जलाने है ।
मन के हारे हार, मन के जीते जीते ।
कबीर जी की वाणी है, नरों के लिए अमृत समान है ।।2।।

तु क्यूँ डरता समय से समय तेरे प्रतिकुल नहीं ।
समय हर नर के लिए अनुकुल है ।
पर समय के अनुकुल हर नर नहीं ।
जो नर समय के अनुकूल है, वहीं नर जग में सफल है ।
समय सबके संग है, पर समय संग कोई विरला है ।।3।।
कवि विकास कुमार

मन का रूख सदा रहता इन्द्रियों के तृप्ति में ।

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मन का रूख सदा रहता इन्द्रियों के तृप्ति में ।
पर जो नर मन को सात्विक रूख दे दे ।
वही कहलाते जग में वीर्यवान, ज्ञानवान है ।
ऐसे ही नर जग में युगपुरूष कहलाते है।
जो अपनी शक्ति को एक सही दिशा देते है ।।1।।

भोगी, लोभी, कामी पुरूष होते मन के अधीन है ।
इसलिए वो करते चोरी, डकैती और बहुत घिनौने कर्म है ।
उसके लिए नहीं कोई धर्म, संप्रदाय, नैतिक उसूल है ।
वो सदा चलते रहते है कुराहों पे, उनकी जिन्दगी यूँही लूट जाती है ।
जैसे कि मानव तन पाकर कोई योगी ने ईश्वर को नहीं पहचाना है ।।2।।

मन चंचल है या शान्त , ये बात हर नर जानता है ।
लेकिन मन के मालिक होता योगी, भोगी होता मन के गुलाम है ।
ग्लानि प्रकृति की देन, हर नर को इसकी अनुभूति होती है ।
लेकिन भोगी इस देन को समझकर भूलता जाता है ।
पर भोगी प्रकृति के देन को स्वीकृति से गले लगाता है,
और परमानंद में खो जाता है ।।3।।
कवि विकास कुमार

ब्रह्मचर्य है तो जिन्दगी है । अन्यथा जिन्दगी असफलता की सीढ़ी है ।

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

ब्रह्मचर्य है तो जिन्दगी है ।
अन्यथा जिन्दगी असफलता की सीढ़ी है ।
वीर्य पे टिका मानव का संसार है ।
अगर नर वीर्यहीन है, तो उसका जिन्दगी बेकार है ।।1।।

आज के दौर में भौतिक परिवेश में युवाओं का हो रहा सर्वनाश है ।
कौन इसका जिम्मेदार है, कौन इसका दोषी है ?
कोई क्यूँ नहीं कुछ बोलता है, सब मौन क्यूँ साधे है ?
सरकार इसका जिम्मेदार है, क्योंकि व्यवस्था आज हमारा भौतिकी है ? ।।2।।

पहले तो होते थे हमारे देश में दयानंद सरस्वती, विवेकानंद जैसे संत ।
भगतसिंह, चन्द्रशेखर, बिस्मिल, बोस जैसे महान क्रांतिकारी हमारा शान है ।
लेकिन अब युवा हमारे कहाँ है, इनकी रूख किस ओर है ?
ये आज क्या देते है देश को, ये क्या बनते है, ये हमारे प्रत्यक्ष है ? ।।3।।

हमारी कविता की एक पंक्ति है-
ब्रह्मचर्य के अभाव में हो रहा युवाओं का पतन है ।
अब कौन-सी शिक्षा देती व्यवस्था कि बलात्कार कर रहे है लोग ?
कौन बताये सरकार को आपकी नीति जनता के लिए घातक है ।
आपकी व्यवस्था युवाओं के लिए सर्वनाश का कारण है ।।4।।
कवि विकास कुमार

परिस्थितियों का क्या है ?

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

परिस्थितियों का क्या है ?
आज खुब हँसाया है तो कल रूलायेगा भी ।
आज हँसके जो दिन गुजारे है, व कल रोके भी गुजारना है ।
मगर योगी हरपल हँसके गुजारते जिन्दगी है ।
लेकिन भोगी रो-रो के दिन काटते है ।।1।।

योगी-भोगी दोनों ही होता माया के अधीन है ।
ईश्वर प्रताप योगी मायापति को जानता है ।
लेकिन भोगी भौतिक सुखों में ईश्वर को खोता है ।
दोनों ही ईश्वर सम्मुख पुत्र समान है ।
लेकिन ईश्वर दरश कोई विरला योगी ही पाता है ।।2।।

परिस्थियों का क्या है ?
बिषम परिस्थियों में भी योगी कर्मयोगी कहलाता है ।
लेकिन सम परिस्थिति में भी भोगी अवसर को गँवाता है ।
दोनों के पास एक ही समय होता है ।
लेकिन दोनों के मंजिल अलग-अलग होता है ।।3।।
कवि विकास कुमार

कैसे-कैसे लोग जहां में रहते है ?

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

कैसे-कैसे लोग जहां में रहते है ?
कुछ दूसरों के भला के लिए जान गँवा देते है ।
कुछ अपने लिए दूसरों की जिन्दगी मिटा देते है ।
अजब रंग है मनुष्य के रक्त का वो लाल है ।।1।।

देख गैरों के उन्नति को लोग आज जलते है ।
दीपक की तरह जो जल न सके ।
वो दूसरों के प्रकाश से मुँह मोड़ते है ।
क्या हो गया है आज मानव को ? ।।2।।

जो मानव एक दिन सत्य के राही थे ।
वह नर जो सर्वदा संतों के संगति में था ।
आज वह इतना क्यूँ दरिन्दगी दिखाता है।
वह खूद से आज क्यूँ नहीं बात करता है ।।3।।
कवि विकास कुमार

मेरे अल्फाज अब कहाँ रहें, ये तो तेरी मुहब्बत की जहागीर हुई ।

August 2, 2020 in गीत

मेरे अल्फाज अब कहाँ रहें, ये तो तेरी मुहब्बत की जहागीर हुई ।
ये तो तेरे हुश्न-शबाब में खोया है, तेरी मुहब्बत में ये कुछ कहता है ।
ये मेरे अल्फाज़ रहे अब कहाँ, ये तो तेरी हुश्न की जहागीर हुई ।
तेरे दर्द को समझे तेरे हँसने पे ही कुछ कहें ये तो तेरी जहागीर हुई ।।1।।

मेरे अश्क अब बहते कहाँ ये तो सागर की लहरों में गुम हुई ।
ऊँची तरंगे, लहर-तुफानी, चक्रवात-बवंडर सी बनी जिन्दगानी हमारी ।
तुझसे मुहब्बत क्या हुई सारी दुनिया यूँ मुझसे नजर चुराने लगी ।
मेरे अल्फाज़ तेरी मुहब्बत की जहागीर हुई ।।2।।

अल्फाज़ बयां करते है सबकी ये अपनी-अपनी बात है ।
मगर ये दिल मेरा कोई अल्फाज नहीं तेरी मुहब्बत में ये तो सिर्फ तुझे चाहा है ।
कभी दिन में सुरज जो दिखते थे आज वो क्यूँ मातम में खोया है ?
मेरे अल्फाज़ तेरी मुहब्बत की अब तो जहागीर हुई ।।3।।
कवि विकास कुमार

बीच भवर मैं तुने छोड़ा साथ हमारा ।

August 2, 2020 in गीत

बीच भवर मैं तुने छोड़ा साथ हमारा ।
कभी याद आया कभी दिल को दुखाया ।
ओ जाना-2 कहाँ खोया-खोया जरा तो बताना ।
बीच भवर मैं तुने छोड़ा साथ हमारा ।।1।।

वफा की रंगी दुनिया में रंगा था हमारा घर-आँगन ।
अब सावन की झुला भी तेरे बिन लगे है सुना-सुना ।
अब तो जा झलक दिखा जा कहाँ है खोया-खोया ।
बीच भवर मैं तुने छोड़ा साथ हमारा ।। 2। ।

न मैं माँगु तुझसे अब कोई वो कसमें पुराना ।
तुम तो मुझे भुल चुकी पर मैं क्यूँ मजनूँ मारा-फिरता ।
सदा तेरे ख्यालों में, मैं क्यूँ खोया रहता ।
बीच भवर मैं तुने छोड़ा साथ हमारा ।।3।।
कवि विकास कुमार

तेरी वेवफाई थी बहुत ही निराली ।

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

तेरी वेवफाई थी बहुत ही निराली ।
तु जाते-जाते यूँ किसी को चाहा ।
मगर वो बंदा हुआ न किसी का ।
तेरी वेवफाई थी बहुत ही निराली ।।1।।

सख्श था वो बहुत भोला-भाला ।
तेरी मुहब्बत में आहें भरता था ।
तेरा नाम ले ले के दिन काटता था रात रोता था ।
तेरी वेवफाई थी बहुत ही निराली ।।2।।

मगर संगदिल तुम छोड़ा उसका ऐसे वक्त साथ छोड़ा ।
कि अब वो बेचारा रह न किसी का ।
तोड़ना न दिल किसी का ऐ दोस्त, यार मेरा ।
तेरी वेवफाई थी बहुत ही निराली।।3।।
कवि विकास कुमार

अपनी प्रोन्नति नहीं कर सकते तो, क्या दूसरे की उन्नति से जलोगे क्या?

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

अपनी प्रोन्नति नहीं कर सकते तो, क्या दूसरे की उन्नति से जलोगे क्या?
अपनी संस्कृति को गँवा चुके हो, और खुद को भारतीयता कहने का ठोंग रचते हो?
खुद सशक्त, धनवान, समृद्ध-शक्तिशाली बन सकते नहीं और दुसरों के धन से जलते हो ।
खुद का जीडीपी गिरा चुके हो, और दुसरों के सामान को धिक्कारते हो ।।1।।

वाह क्या नीति अपना रहे हो मेरे सरकार जनता को क्यूँ धोखा दे रहे हो ?
परदेश की सामान यदि राष्ट्र में सत्याचार फैलाया तो उन्हें क्यूँ धिक्कार रहे हो ?
भोली जनता के आँखों में क्यूँ गरदा झोंक रहे हो ? कुछ तो रहम करो देश के वास्ते ।
राम के आदर्श पे चलने वाले सरकार क्यूँ भ्रष्टाचार फैला रहे हो ? ।।2।।

कुछ नहीं होगा परदेशों के सामान को प्रतिबंधित करने से ।
अगर प्रतिबंधित लगाना चाहते हो नग्नचलचित्र पे लगाओ।
अपनी संस्कृति को बचाओ देश में स्वराज्य लाओ ।
अगर देना ही चाहते हो देश को तो वीर जवान दो ।।3।।
कवि विकास कुमार

लड़का नहीं होता

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

लड़का नहीं होता किसी घर का कुपुत्र माहौल बनाता उसे संत-असंत ।
मात-पिता का गुण भी होता पुत्र के रक्तों में इसलिए लड़का अकेला दोषी नहीं होता ।
कौन कहता है लड़का आज आवारा है, वो हसीनियों के गलियों में भटकता है ।
आज भी लड़का बनता कवि, दार्शनिक, लेखक, समाज-सुधारक है ।।2।।

देश की उन्नति में वीरों के श्रेणी में इन लड़कों का भी नाम आता है ।
जो अपनी जवानी देश की सरहद पे मातृभूमि की सुरक्षा के लिए लुटा देता है ।
गर्व है अभिमान है हमें देश के इन पुत्रों पे जो अपनी जिन्दगी देश के नाम कर देता है ।
नमन बार-बार तुम्हें शत् बार नमन, देश के वीरों-जवान तुम्हें ।।3।।
कवि विकास कुमार

मैं जानता नहीं हूँ

August 2, 2020 in गीत

मैं जानता नहीं हूँ, तु कौन है तु मेरा ?
किसी राह पे मिली मंजिल है या तुम कोई किनारा ।
मगर दिल इतना मेरा अब टूटा किसी पे एख्तियार रहा ना मेरा ।
ये सदियों से किसी राह पे भटका मन है,
ये माने कैसे कोई मेरा भी आज हमसफर है ?
मैं जानता नहीं हूँ, तु कौन है तु मेरा ।।1।।

जग में भीड़ बहुत है, पर तन्हा सब नर है ।
प्रेमी प्रेमवियोग में रम है, दुखियाँ दुःखों से तंग है ।
सुख भी कहाँ रहती नरों के संग सबदिन है ।
आज सुख का मेला तो कल फिर दुःख यार बना है मेरा ।
मैं कैसे कह दूँ तु मंजिल है या तुम कोई किनारा ।
मैं जानता नहीं हूँ, तु कौन है तु मेरा ।।2।।

सबके संग वफा होती है कुछदिन,
फिर लोग तन्हा रह जाते है सबदिन ।
कैसे किसी राह पे मिलते नर बिछड़ते है ।
सब-के-सब एक दिन अपनी मंजिल में खो जाते है ।
किसे किसी की याद रही ये बात वक्त बताता है ?
मैं जानता नहीं हूँ, तु कौन है तु मेरा ।।3।।
कवि विकास कुमार
17:43 30/06/2020

ये जिन्दगी के रंग है

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

ये जिन्दगी के रंग है, कभी खुशी तो गम है ।
आज जिसे अपना कहते ना थके ।
कल वो किसी का मेहमान है ।
मौत तो सबको आनी है, फिर क्यूँ जिन्दगी से मोह है?
ये जिन्दगी के रंग है, कभी खुशी तो गम है ।।1।।

सुख-दुःख, हार-जीत, लाभ-हानि, मान-अपमान ।
जिन्दगी के दो पहलु है, कभी हार है तो कभी जीत है ।
कभी आशा है तो कभी निराशा द्वार खड़ी है ।
आज जिन्दगी से मोह, कल मौत को गले लगाना है ।
ये जिन्दगी के रंग है, कभी खुशी तो गम है ।।2।।

आज किसी घर बालक का जन्म हुआ ।
शोर-शबारा डोलक-डमरूँ बजे उनके घर है ।
कल पंछी उड़ने है उनके दर से आसमां में धुँआ उड़ने है ।
मौत को किसने मात दिया है, ईश्वर की शक्ति अपरम्पार है?
ये जिन्दगी के रंग है, कभी खुशी तो गम है ।।3।।

द्वन्दों के चक्रव्यूह में नर यूँ बसा है ।
जैसे कामी काम के वश है, लोभी लोभ के भागी है।
करूणा, दया, ममता सब द्वन्दों के आगे शर्मसार है ।
मानव माया के आगे हारे है, ईश्वर सर्वशक्तिमान है ।
ये जिन्दगी के रंग है, कभी खुशी तो गम है ।।4।।
कवि विकस कुमार 21:54 29/06/2020

ब्रह्मचर्य है तो जिन्दगी है

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

ब्रह्मचर्य है तो जिन्दगी है,अन्यथा जिन्दगी दुःखों का जड़ है ।
अगर जिन्दगी मौत है तो हाँ मुझे मौत से लड़ना मंजुर है ।
मौत तो आती वीरों का जिन्दगी में एक बार है ।
लेकिन कायर तो सबदिन मरते क्षण-क्षण कई बार है ।
ब्रह्मचर्य है तो जिन्दगी है, अन्यथा जिन्दगी दुःखों का जड़ है ।।1।।

भौतिक पुरूष धन-दौलत, ऐश्वर्य, शोहरत के लिए ।
दिन-रात मानव जीवन यूँ पिशाच की तरह बिताते है ।
जैसे कि वो मानव होके दानव वंश के नृप हो।
मानव अब ब्रह्मचर्य समझने को तैयार नहीं ।
ब्रह्मचर्य है तो जिन्दगी है, अन्यथा जिन्दगी दुःखों का जड़ है ।।2।।

ब्रह्मचर्य कोई सांसारिक उपलब्धि, कोई ख्याति कोई शोहरत नहीं ।
यह नहीं कोई झूठी ऐश्वर्य और नाहीं ये सांसारिक क्षणिक आनंद है ।
ये तो परमशान्ति, महाव्रत, परमात्मा से मिलन का परम साधन है ।
ऋषि-मुनियों की जप का साधन है, योगियों का परम बल है ।
ब्रह्मचर्य है तो जिन्दगी है, अन्यथा जिन्दगी दुःखों का जड़ है ।।3।।

सच में जिन्दगी दुःखों का जड़ है, लेकिन भोगी इसके संग है ।
ब्रह्मचर्य के प्रताप से योगी परम सुखों के संग है, लेकिन भोगी इससे कहीं दूर है ।
सच बात है दुनिया वालों जरा सुनो तुम गैर कान खोल के कोई नहीं तेरे संग है।
ब्रह्मचर्य महाव्रत के फल ही तेरे संग है, अन्यथा सारी दुनिया दुःखों का जड़ृ है ।
ब्रह्मचर्य है तो जिन्दगी है, अन्यथा जिन्दगी दुःखों का जड़ है ।।4।।
कवि विकास कुमार 17:21 29/06/2020

सुख है तो दुःख है

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

सुख है तो दुःख है, जिन्दगी के दो पल है ।
नर को निराशा से क्या घबराया?
आशा की घड़िया किसके संग सब दिन है?
आज मातम की घड़ी कल फिर खुशियों का दिन है ।
सुख है तो दुःख है , जिन्दगी के दो पल है ।।1।।

आज जो रिश्ते बने, कल को वह टूटने है ।
फिर किस बात का रोना, किस बात का गम है ।
आज जो इमारत खड़ी, कल वो ढ़हने है ।
फिर क्यूँ नये-पुराने सपनों का गम है?
सुख है तो दुःख है, जिन्दगी के दो पल है ।।2।।

निभाते है कुछ लोग रिश्ते जैसे कि वो शाश्वत हो ।
यूँही लोग भूल जाते है रिश्ते जैसे कि वो स्वार्थ के भागी हो ।
जहां के इस रिश्ते में टुटते-बिखड़ते, जुटते नर है ।
फिर क्यूँ चलती राह पे जिन्दगी के किस्से सुनाना है?
सुख है तो दुःख है, जिन्दगी के दो पल है ।।3।।

आज जन्म हुआ तो कल को जाना है ।
मौत को स्वीकृति से गले लगाना है ।
फिर क्यूँ जिन्दगी से मोह, मौत से डर है?
इससे भी पहले तो बहुत गये बहुते मरे है ।
सुख है तो दुःख है, जिन्दगी के दो पल है ।।4।।

।। कवि ।। विकास कुमार

कल के सहारे आज को मत गँवाओ नर

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

कल के सहारे आज को मत गँवाओ नर ।
कल को क्या होना, ये किसने जाना है ?
आज अपना कल किस का है किसने देखा है ?
पल भर की जिन्दगी किसने जीभर के जिया है ।
कल के सहारे आज को मत गँवाओ नर ।।1 ।।

आज जिन्दगी कल मौत है ।
आज आश है तो कल क्या है तुमने देखा है ।
आज समय है कल विनाश की घड़ी ।
क्षण-क्षण बदलती है समय कल क्या है पहचाना है ।
कल के सहारे आज को मत गँवाओ नर ।।2।।

समय की वेग कोई जान नहीं पाता है ।
काल के प्रहार कोई सह नहीं पाता है ।
वक्त की धारा बदलती है पल-पल ।
ये जिन्दगी कल के भरोसे जी नहीं जाती है।
कल के सहारे आज को मत गँवाओ नर ।।3।।
कवि विकास कुमार

घर की जिम्मेदारियाँ होती (पिता)

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

घर की जिम्मेदारियों होती जिनके कंधो पे ।
मान-मर्यादा के सीमा का पालन करे ।
वो धीर पुरूष-मर्द कठिन कार्य करे ।
परिवार चलाये जो अपने मेहनत के पसीने से ।
अर्द्धंगिनी को जो सीता-सावित्री माने ।
अपने मेहनत के पसीने से जो धरा पे स्वर्ग बसाये
वह मर्द-पुरूष पिता कहलाते है ।।1।

जो अपनी संतान के लिए कड़ी धूप में तपते है ।
शरद् में अपनी कोट अपने संतान को देते है ।
फाल्गुन के रंगों में रंग नहीं होते क्या पिता के ?
वो मिष्ठान्न वो पुआ बनते है पिता के पसीनों से ।
ऐसे ही नर जग मे पिता कहलाते है ।
जो अपने संतान के लिए कड़ी धूप में तपते है ।।2।।

रात के निंद और दिन के चैन जो गँवाते है ।
सुनते है सदा अपने मालिक के खड़ी-खोटी ।
फिर भी वो सदा मुस्कुराते हुये जिन्दगी को जीते है ।
उन्हें गम नहीं होता मान-अपमान का,
वो गीता के अध्यायों पे जिन्दगी जीते है ।
कर्म ही महान है, इसीलिए वो सदा कार्य करते है ।।3।।
.– कवि विकास कुमार ।।

बड़ी होती है जब (दहेज-प्रथा)

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

बड़ी होती है जब किसी पिता की पुत्री ।
वर ढूँढने जब वो निकलते है सज्जनों की बस्ती ।
सौभाग्य वश सज्जन भगवान राम के सेवक होते है ।
इसलिए पिता प्रसन्नता से कन्यादान करते है ।
धन्य होती उनकी भाग्य जिनके वर दहेज की माँग न करते ।
स्वीकृति से ही तो मिल जाती है सारा-जहां ।
फिर ये दुनिया क्यूँ पिता को दहेज के लिए प्रताड़ित करती ।
कन्यादान जो करते है वो क्या वर को कुछ नहीं देते है ।
अंधी दुनिया सारी अंधे है दहेज के भूखे नर ।
जो लोभवश पुत्र पालते है वो पुत्र को मंडी में भाव लगाते है ।
नर्मदा, सावित्री के जग में कन्या का उपहास होता है ।
विवाह-भवन में तुक्ष लोभ के कारण कन्या का सिन्दूर मांग हवा उडा़ लेती है ।
देखती है जहां ये नजारा फिर भी ये लोग दहेज को वरदान समझते है ।
दहेज को परिभाषित करना तुक्ष नरों का काम नहीं ।
ये तो संत-योगियों का रहस्य है जिस कोई विरला ही जानता है ।
कवि विकास कुमार

तेरे संग मैंने ख्याब जो देखे

August 2, 2020 in गीत

तेरे संग मैंने ख्याब जो देखे वो ख्याब नहीं जिन्दगी है मेरी ।
ख्याब के सहारे कटते नहीं दिन, रात भी है बोझिल दिन भी है सुना ।
भूले है सपने, फूटी किस्मत, टूटे है रिश्ते, बिखड़े सहारे ।
तेरे……. ।।1।।
आ देख जरा तुम इन वादियों को, लगते है रिश्ते अपने सदियों पुराने ।
मगर तुम न जाने मुश्किल हमारी, राहें कठिन है, चलना तेरे संग है ।
तेरे संग ही जिन्दगी, मौत से डर नहीं, रहनुमा तेरा प्यार है ।
तेरे संग… ।।2।।
तेरे प्यार का पुजारी हूँ मैं, राधा की कृष्ण हुँ मैं, मीरा की मुरलीमोहन हुँ मैं ।
वफा निभाई हमने कई बेवफाओं संग कहीं तुम धोखा न देना मेरे यार ।
बदलते मौसम की तरह तुम भी बदल न जाना मेरे यार ।।
तेरे संग … ।।3।।
उन रिश्तों को उन कसमों उन वादियों अब कौन भुले?
जिये जो हमने संग तेरे वो वापस कैसे आये हम?
वफा थी सच्ची कोमल दिल तेरा सह न सका मुकद्दर हमारी ।।
तेरे संग … ।।4।।
कवि विकास कुमार

लोगों की परिस्तिय़ाँ अब कुछ ऐसे होने लगी है

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

लोगों की परिस्थितियाँ अब कुछ ऐसी होने लगी है ।
लोग भौतिकवादिता की ओर अब बढ़ने लगे है।
चारों तरफ हा-हाकार मची है जनसंख्या नियंत्रण का।
फिर भी लोग इन्द्रियों के दास बनने लगे है ।।1।।

खाने को भोजन, पहनने को वस्त्र, रहने को घर अब उपलब्ध होते नहीं।
खेत में बनते अब मानवों के भौतिक साधन, कच्चे पेड़ों को काट रहे हैं आज मानव।
जब खेत में बने मानवीय भौतिक साधन, तब कैसे मौलिक आवश्यकता पूरी हो मनुज का।
मनुज अब पुरातन संस्कृति से गिरने लगे है, लोग अब भौतिक वस्तुओं के पीछे भागने लगे है।।2।।

जब होने लगे प्रकृति का ह्रास तब प्रकृति ही संभाले अपने बुरा हाल।
मानव को अपनी मानवीयता सिखलाये याद कराये उन्हें सनातन धर्म पुरातन व्यवहार।
जब लोग करने लगे प्रकृति का देख-भाल, तब प्रकृति भी देने लगे उन्हें वृक्ष-छाया फलेदार।
जब तब करेंगे हम प्रकृति से प्यार, तब तक प्रकृति नहीं हमें देंगे कोई आपदा-संकट-काल ।।3।।
कवि विकास कुमार

देख धरा की स्थिति

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

देख धरा की स्थिति अब मानव का दिल खिल उठता है।
उसे खण्डित-खण्डित करके अपनी जिज्ञासा पूरा करता है।
धरनी की दुःख सुनता अब कौन, धरती पूजा अब होता कहाँ?
अपनी अज्ञात मा को अब पहचानता कौन?
कृष्ण ने मिट्टी खाके मृदा का मान बढ़ाया ।
अपनी माता का स्थान सबसे ऊँचा बताया ।।1।।

हम मानव हर कर्म करते इस धरा पे ।
कभी नतमस्तक होते क्या इस धरा पे?
दुर्जन पाप का रक्त बहाये, सज्जन पुण्य का फूल खिलाके।
एक मा दो पुत्र है, एक धरा को मिट्टी समझें, एक धरा को सीता समझें।।
मिट्टी से उगाते किसान खेत में वह हरपेट की दवा है।
देश के भ्रष्टाचारियों के चंगुल में सड़ रहें है जो वो हर मानवों की दवा है।।2।।

धरा की तो और भी स्थिति खराब है, लोग इसे भौतिवादिता में व्यवहार कर रही है।
फसल के लिए जमीं पर्याप्त उपलब्ध होती नहीं और कुछ लोग आलिशन भवन बनाते है।
कवि को आलिशन भवन से कोई आपत्ति नहीं, लेकिन देश में जो भूखमरी फैले उसका हम दोषी नहीं।
कृषि-प्रधान हमारा देश है, किसान हमारे अन्नदाता है, और उनकी मेहनत हमारी सफलता का श्रेय है ।
धरनी की स्थिति कौन सुने अब धरतीपुत्र अब बने कौन?
युवाओं की मति को मारी है हमारी नई शिक्षा-व्यवस्था है, तो कैसे माने वो मिट्टी हमारी माता है ।।3।।

सबका सुनो गौर से सुनो

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

सबका सुनो, गैर से सुनो अपनी निन्दा तुम ।
ये जो निन्दा करते लोग, ये तेरे दुश्मन नहीं ।
ये तो तेरे जिन्दगी के सूर्यताप है ।
जिनके उगने से प्रकाशमय होता सारा संसार है।।1।।

निन्दा करना निन्दक व्यक्तियों का कार्य है ।
अपनी निन्दा पे कभी परदा मत रखना नर तु ।
सोच-समझके हर कदम उठाना, यहीं तेरा सौभाग्य है ।
जगह-जगह पे अगर भी कठिनाई दिखे,
तो भी राहें बदलना पर मंजिल मत बदलना तुम ।
मान-हानि का भय भूलाके अपनी आदर्शों पे चलते रहना तुम ।।2।।

स्तुति-निन्दा के पीछे मत भागना नर तुम।
निन्दा से सीखन तुम स्तुति से सावधान रहना तुम ।
होते नहीं जग में सब नर एकसमान है।
सबसे हिलमिल रहना यहीं तेरा कर्म है।
अच्छाई-बुराई के चक्रव्यूह में मत फँसना तुम ।।3।।

होते नहीं हर नर पूर्ण है।
सबमें कुछ-न-कुछ थोड़ी-बस-कुछ गुण कम है ।
अच्छाई ग्रहण करना तुम हर नर से ।
बुराईयों से कोशों दूर रहना तुम ।
सबका सुनो, गैर से सुनों, अपनी निन्दा तुम ।।
कवि विकास कुमार बिहारी ।।

जब लोग करे तुम्हारी निन्दा

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

जब लोग करे तुम्हारी निन्दा,सुनके क्रोध को तुम करो संयम ।
यह है तेरे अन्दर उच्च विचार, इसी से होगा तेरा कल्याण ।

जो तेरे दोष-अवगुण को बताता, ऐसे नर से मत खफा होना यार ।
ऐसे नर को रखना अपने पास, जो मुक्त करते हैं तेरे इलाज ।
ऐसा कहते हैं कबीरदास, इसीलिए तुम करो ऐसे लोगों से प्यार ।

स्तुति-निन्दा के पीछे मत भागो तुम, अपने काम को निरन्तर करो तुम ।
दरिद्रता से मत घबराओ तुम, एक दिन अवश्य चमकेंगे तेरे प्रारब्ध के सूर्य ।
ऐसा कहते हैं विवेकानन्द, सुनो साधो-सन्त ।

मान-अपमान के चक्रव्यूह में मत फँस तुम, अकेले नहीं चल सकते तो संतों के संग चलो तुम ।
अपना आखिरी लक्ष्य को पहचानो तुम, मातृभूमि पर सर्वस्व लूटा तुम ।
कवि विकास कुमार बिहारी ।।

वेद पुराणों की बात है निराली

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

वेद-पुराणों की बात है निराली ।
राष्ट्रसेवा है सबसे सर्वोपरी ।
जब तक राष्ट्र में एक भी प्रजा भूखा हो,
तब-तक हक नहीं भोजन करने को राजा का ।
यह है उच्च आदर्श राजा का, ऐसे राजा महान है जग में ।
ऐसे भी राजा हुये हमारे देश में, जो राजधर्म के लिये बिक गये प्रजा हाथ है ।
धन्य था वो राज जिनके राजा राम थे, जिनके राजकाल में दण्ड केवल संन्यासियों के अधीन था ।
रामा राम थे प्रजादुखभंजन, वो थे दीन-दुःखी के स्वामी और दुष्टों-दुर्जनों का संहारक ।।

पर आज वर्तमान परिवेश में क्या-क्या होता?
राजा प्रजादुखभंजन नहीं हैं, यह तो भोग-विलास में संलिप्त है ।
इनकी इन्द्रिय शान्त नहीं है, यह तो इन्द्रियों के गुलाम है ।
जो राजा प्रजा की दुःख को न समझें,
वह राजा नहीं वह तो बाल-शिशु व गणिका समान है ।
राजा वहीं जो समझें प्रजादुख को भंजन करे राष्ट्र करें निज-अपने राष्ट्र को ।
राजा है वहीं योग्य जो समझे प्रजा को सुत समान है ।
ऐसे ही राजा कहलाते जगत में दिव्यस्वरूप महान है ।
अन्यथा सब-के-सब पत्थर के मूरत गूँगा समान है ।
जो सुने नहीं प्रजादुख को वह राजा नहीं वह तो गूँगा से भी बदत्तर है ।।
कवि विकास कुमार बिहारी ।।

भुलाके सादगी हमने

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

भूलाके सादगी हमने अपनी अस्तित्व ही मिटायी है ।
ब्रह्मचर्य को जिन्दगी का हिस्सा न बनाके अपनी सारी शक्तियाँ यूँही गँवाई है ।
किया है दुरूपयोग नरतन का हमने ऐसे ही व्यर्थ में जिन्दगी जी है हमने ।
भूलाके सादगी हमने अपनी अस्तित्व ही मिटायी है ।।

अनमोल-सी रत्न को हमने चंचल मन पे नचाया है ।
रत्न को रत्न नहीं हमने मिट्टी समझे गँवाया है उसे ।
सारी-की-सारी सादगी भूलाके हमने ।
बेकार-सी सादगी अपनाई है ।।

ब्रह्मचर्च को समझ लेते जरा हम ।
जिन्दगी खुशनुमा बन जाती हमारी ।
आज हम माथे नहीं पिटते ।
गैर अगर अपनी संस्कृति अपना लेते ।।

अपनी संस्कृति है सबसे न्यारा, इसी में है उध्दार हमारा ।
कर लो नर अपनी संस्कृति से प्यार, इसी में है तेरा कल्याण ।।
मत भटकते तुम इधर-उधर की संस्कृति में , इस से होगा तेरा उपहास ।
बचाओ निज राष्ट्र की मर्यादा को तुम, अपनी संस्कृति को धन्यवाद करो तुम ।
निज राष्ट्र में हो या परराष्ट्र में अपनी संस्कृति को उर में जिन्दा रखो तुम ।।
कवि विकास कुमार

बाबुल की दुआ है साथ तेरे, आशीष है मां का पास तेरे ।

August 2, 2020 in गीत

बाबुल की दुआ है साथ तेरे, आशीष है मां का पास तेरे ।
दुनिया की न लगे बला तुझे , ईश्वर की रहमत साथ तेरे ।।
जा-जा री बहना प्रातःबेला है संग तेरे -2

छाँव-छाँव में बीते जिन्दगी तेरी, चुँभे न काँटे तेरे किस्मत ।
हर दुखःतकलीफ हर ले ईश्वर तेरी, ईश्वर की साया है साथ तेरे ।।
जा-जा री बहना गरीबी न झाँके तेरे दर पे कभी-2

तु दीन-दुःखी के स्वामिनि बने, तेरे दर पे लगे संतों की जमघट ।
तेरे घर में सदा हो रामकथा , तु मीरा प्रभु दीवानी हो ।।
जा-जी री बहना तेरी धाम इस धरा पे स्वर्ग समान हो ।।

मुझसे ये हाल दिल का (गीत)

August 2, 2020 in गीत

मुझसे ये हाल दिल का कहीं कहा नहीं जाता है ।
पास तुम होते मगर तुमको ये बताया नहीं जाता है ।
जानता हूँ कि तुझे प्यार है मुझसे बेपनाहं सनम ।
ये तुमसे भी बयां नहीं किया जाता है ।।

तपड़ते है ये दिल तुझसे बिछु़ड़के ।
रात कटती है तारे गिन-गिन के ।
सुबह होती है नई आश लेके ।
तेरे बैगैर जिये न जिन्दगी यहीं ख्याल रहता है ।।

दुनिया में एक तेरे सिवा कुछ भाता नहीं ।
जहां की सारी खुशियाँ तेरे बेगैर अधुरी-सी लगती है ।
हर सपने पूरे हो मेरी यही दुआ रब से माँगते हैं ।
मुझसे ये हाल दिल का कहीं कहा नहीं जाता है ।।
गीतकार विकास कुमार बिहारी ।।

जो आत्मनिर्भर है

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

1

जो आत्मनिर्भर है, उन्हें आत्मसम्मान की शिक्षा दे रही हैं क्यूँ हमारी सरकार?
मजदुर अपने बलबूते पर ही जिन्दगी जीते, ये जाने ले हमारी सरकार ।
ये किसी के आगे भीख नहीं माँगते, जिन्दगी बसर करते हैं ये मेहनत-मजदूरी करके।
इन्हें चापलूसी, दग़ाबजी, देशनिंदा, देशद्रोह भाता नहीं ।
ये देश के किसान-जवान के सगे-भाई ही होते।
जो निज राष्ट्र की गरिमा का ख्याल अपने उर में ।।

2

करते हैं ये ऐसे मजदूरी जैसे लड़े सैनिक रण में ।
रमते हैं ये ऐसे कर्म में जैसे लेखक रमें अपनी लेख में ।
जाते हैं ये ऐसे काम पे जैसे किसान जायें अपनी खेत में ।
ये काम को काम नहीं पूजा समझे करते ।
करते हैं ये काम पूरी मेहनत लगन से
पाते हैं वेतन ये अपने आधे काम के,
आधे काम के वेतन लूटे लेते देश के कुव्यवस्था,
आधे वेतन से ये घर चलाते व कर देते ये राष्ट्र को,
फिर भी सिंहासनपति को पेट नहीं भरते ।

3

सुनो सिंहासन वालो तुम देश के जवान-किसान-मजदूर के प्रति तेरा कुछ सम्मान नहीं ।
इन्हें विचलित देखकर आत्मनिर्भरता, आत्मगरिमा, आत्मसम्मान की शिक्षा सिखलाते हो ।
क्या ये पहले तुमपे आश्रित थे, नहीं, कभी-नहीं, ये स्वयं कमाते व परिवार चलाते हैं ।
ये अपनी निज स्वारथ पूर्ण करने के लिए करों के पैसों को घोटला नहीं करते हैं ।
कुछ तो शर्म करो, लाज रखो निज धरा की, मजदूरों की इस पावन महि पे कुछ तो सम्मान करो निज महि की ।।

4

अगर तुम भौतिक दुनिया जीना छोड़ दोगे, तो ये लोग मौलिक दुनिया जी लेंगे ।
मगर तुम कर नहीं सकते ये काम, क्योंकि तुम हो चुके हो रज, तम के गुलाम ।
सत् को अपनाना तेरे वश के बात नहीं, तुम तपस्वी राजा राम बन सकते नहीं ।
तुम तो रजोगुण प्रधान राजा धृतराष्ट्र समान हो ।
जो राज-वैभव के लिए मिट दिये अपने पूर्ण साम्राज्य है ।

5

दया-धर्म, क्षमा, त्याग ये सब तुम्हें आता नहीं ।
करते हो तुम निज राष्ट्र की दुर्दशा ये मुझसे देखा जाता नहीं ।
सत्य-अहिंसा की पाठ पढ़ाते हो तुम निशदिन,
पर भ्रष्टाचार इस राष्ट्र से अब जाता नहीं ।
सारी व्यवस्था को तुम अंग्रेजियत बना चुके हो ।
तुम्हें स्वदेशी क्यूँ भाता नहीं ।

6

परराष्ट्र से मित्रता करते हो तुम, निज राष्ट्र के उत्थान के वास्ते ।
पर परराष्ट्र तुम्हें कुछ देता नही, वह उल्टा तुम्हारे देश के युवाओं की जिन्दगी से खेलता ये तुम्हें कहीं क्यूँ दिखता नहीं?
जो देश कभी स्वामी विवेकानन्द व भगत सिंह जैसे वीर सपुत व महान विभूति देते थे ।
आज वो देश भ्रष्टाचार की किचड़ में फँसी है , इन्हें कोई देश के लाल निकालता नहीं ।।
कैसे मिटायेंगे ये देश की भ्रष्टाचार को इन्हें समर्पण की भावना क्यूँ आता नहीं ?
ये आज सत के बंधन में बंधित नहीं ।
ये तो आज तम, रज में आत्मविभोर है।
इन्हें निज राष्ट्र से कुछ लेना-देना नहीं ।
ये तो भोग-विलास में संलिप्त है ।

7

सुनो देशवासी चयन करो ऐसे राजा तुम ।
जिसे तुम मात-पिता कह सको, और वह तुम्हें पुत्र का प्यार दे सकें ।
कठिन-विषम परिस्थिति में भी जो साथ ना छोड़े वहीं तुम्हारे राजा है ।
जो दीन-दुःखी के रक्षक वो देशद्रोह के भक्षकारक हो, वहीं तुम्हारे सरकार है ।
चुनो ऐसे राजा को तुम जो तुम्हें दे सके पुत्र का प्यार है ।
जो राष्ट्रहित में अपना सर्वस्व लूटा दे, वही तुम्हारे प्रजापालक है ।।
दीनदयाल, दीनानाथ, दयालु है, वही तुम्हारे राजा है ।
अन्यथा सबके-के-सब तुम्हारे दुःखों का कारण है ।।

8

सोचो देशवासी तुम, क्या तुम पाँच साल के लिये रजो गुण प्रधान पुरूष को सरकार बनाओगे ।
सुनो देश के जनता तुम, इतने भोले-भाले मत बनो तुम ।
श्रीमद्भगवद्गीता पढ़े तुम, सत्वगुण प्रधान पुरूष को सरकार बनाओ तुम ।
जो तुम्हें दे सके मौलिक अधिकार, ऐसे नर को सिंहासन पे बैठाओ तुम ।
जो राजहित में जान लूट दे, ऐसे नर को नारायण बनाओ तुम ।।

9.
मत फँसो तुम भ्रष्टाचार के बेड़ियों में ।
अपनी मत को मत गँवाओं तुम भ्रष्टाचारियों के चंगुल में ।
दो उन्हें अपनी मत जो दे सके राष्ट्र को एक नई पहल ।
अपनी निज स्वार्थ भूलाके कुछ तो नया कदम उठाओ जनता इस राष्ट्र में ।
तेरे ही कदम से होंगे देश में एक नई क्रान्ति जो देंगे तुम्हें पूर्ण स्वक्रान्ति ।
चलते रहोगे तुम निरन्तर आखिर मिलेंगे तुम्हें मंजिल ।

10

मत घबराओ बाधा विघ्नों से तुम, मत डरो तुम बहसी-दरिन्दों से ।
ऐसी शासन लाओ तुम जो तुम्हें दे सकें हरदम चैन की निंद है ।
आत्मनिर्भर की शिक्षा जो सरकार तुम्हें देती, उन्हें आत्मसम्मान की शिक्षा सिखलाओ तुम ।
एक जरा सी भूल के कारण तुम फिर से रजोगुण प्रधान पुरूष को सिंहासन पर मत बैठाओ तुम ।
उठाओ देश के जनता तुम कुछ ऐसा कदम जो दे सकें तुम्हें एक सुव्यवस्था राज ।

11.

हरवक्त तुम देशहित में रमें हो यहीं तुम्हारी देश के लिए सर्वश्रेष्ठ बलिदान है ।
जहां-जहां तुम अन्याय दिखें वहां न्यायधीश को लाओ तुम ।
सत्य के दरबार में हरवक्त पहरा दो तुम ।
यहीं तुम्हारी उच्चतम भविष्य है ।
देश हित के लिए तुम भी कभी अपना सर्वस्व लूटाके देखो ।
मिलती है कैसी खुशी ये पहचान करो तुम ।।

12.
देशहित में जवान किसान ही भागीदार है , ये बात मत भुलो तुम ।
देश के बच्चा-बच्चा को तुम जवान किसान के भविष्य से परिचित कराओ तुम ।
एक देश की बचाव करता तो एक देश को पालता है । यहीं है जवान-किसान का प्रारब्ध है ।
मजदूर हो तुम अपनी हक के लिए लड़ो तुम, पूछो देश के सिंहासनपतियों से,
तुम्हारी वेतन लाख से उपर है, और हमारी वेतन क्यूँ मिट्टी के भाव है ?
तुम भौतिक दुनिया जीते हो और हमारी मौलिक दुनिया रोती है ।
क्या यहीं देश की अर्थव्यवस्था व वेतन व्यवस्था है ।
जो एक को ऐय्यास की जिन्दगी देती है,
और एक को दिन-रात रूलाती है ।
कवि विकास कुमार बिहारी ।।

हर समस्या का समाधान है

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

है समाधान सभी समस्याओं का,
भीरू-डरपोक नहीं चलाते राजव्यवस्था को ।
वो लूटते जग को और शोषण करते आमजनता पर ।
कर को खर्च करते हैं, वो निज-अपने स्वार्थ में
और आमजनता को प्रताड़ित करते वो निज-अपने शासन-काल में ।
राष्ट्रहित उन्हें भाता नहीं, वो इन्द्रिय-विलास में संलिप्त रहते हैं ।
वो राष्ट्रविकास नहीं कर सकते, वो अपने विकास में तत्पर अड़े रहते हैं ।

वो राज नहीं, वो व्यवस्था नहीं जिनके राजा राम तपस्वी नहीं ।
यह तो शासन है हिरण्यकश्यप का, इसमें भक्त प्रहलाद को कोई स्थान नहीं ।
पांडव हार गये घर की लाज, कौरव चले शकुनि की चाल ।
धृतराष्ट्र के राजदरबार में लूटती है नारी का लाज,
और बचा नहीं पाते वीर धनूर्धर अर्जुनसात महारथी महान ।
थक गई मदद माँगते-माँगते, चिखती रही न्याय के लिए ।
पर कु मौन के सिवाय, थक-हार गई जहां से,
ध्यानमग्न हो गई वो बीच दरबार में कृष्ण के प्रति ।
दुस्साहस थक गया, कृष्ण की महिमा देख अचम्भित रह गया संसार ।
इस कलिकाल में भी हरदिन लुटती नारी की मान है ।
अपहरण होते बच्चे व नवजात-शिशु को कहना पड़ता अलविदा ए-संसार ।।
कवि विकास कुमार

अंधकार धना है कठिन घड़ी

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

अंधकार घना है कठिन घड़ी ।
हिम्मत रखिए मिलेंगे मंजिल ।
दूर-दूर तक जब कोई राह न सूझे ।
तो भी हिम्मत हारना हमें ना है मंजूर ।

हिम्मत-संघर्षों से एक नई राह बनायेंगे ।
राह-राह के कदम-कदम पे एक नई उम्मीद जगायेंगे ।
युवाओं के रक्त में एक नई स्वदेशी क्रान्ति लायेंगे ।
मातृभूमि पे सर्वस्व लूटाने वो स्वयं ही लायेंगे ।

देशर के भ्रष्टाचार को वो क्षणभर में मिटायेंगे ।
भ्रष्टाचारियों को खदेडेंगे वो सत्य के दरबार में,
अगर आज उन्हें इंसाफ ना मिली,
तो कल वो नाइन्साफ विरूध्द-जूलूस निकालेंगे,
और कृष्ण के तरह गीता जहां को सुनायेंगे,
व महाभारत-संग्राम इस कलिकाल में फिर से लायेंगे ।।

सारे रिश्ते-नाते के बंधन से मुक्त होके,
वो राष्ट्रहित में अपनी जीवन बितायेंगे ।
राष्ट्रप्रेम के कारण वो राम धनुर्धुर कहलायेंगे ।
सत्य-अहिन्सा के पथ पे चलके
वो भारत को एक नया स्वर्णयुग फिर से देंगे ।।
— विकास कुमार

छोड़ों व्यर्थ की बात (गीत)

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

छोड़ो व्यर्थ की बाते अब हम राम का नाम लेते है ।
सारी दुनिया को भूलाके अब हम राम को याद करते है ।
छोड़ों व्यर्थ की बाते अब हम राम का गुणगान करते है।
जिनके गुणगान से मिलती सभी कष्टों का निवारण होता है ।।1।।

करता है जो नर प्रभु-वंदना, प्रभु उसका चित्त-शान्त करते है ।
जब भी विपदा पड़े सेवकों पे प्रभु सेवक के पास होते है ।
दीनों के नाथ दीनानाथ सबकी झोली भरते है ।
जो नर आये प्रभुधाम प्रभु उसका जन्म-उध्दार (घर-द्वार) करते है ।।2।।

सबकी सुनते प्रभु दुखड़ा उसे शाश्वत सुख प्रदान करते है ।
जिन्दगी जीने के नयी ढंग प्रभु सेवक को सीखलाते है ।
भौतिक जिन्दगी से मुख मोड़ने को प्रभु शिक्षा देते है ।
करते है जो नर प्रभु आराधना प्रभु उसका भवसागर पार करते है ।।3।।

जो नर करते दीनों पे दया, खिलाते भुखे को और देते नंगे को वस्त्र ।
ऐसे नर को प्रभु सर्वाधिक प्यार करते है, और प्रभु माया उसे विचलित नहीं करती है ।
कर जो नर दीन-दुःखी पे अत्याचार, सताये नारियों, सज्जनों व महात्मों को ।
प्रभु ऐसे दुर्जन-दुष्ट-आताताई नर को संहार करते है।।
और जगत में सत्यमेव-जयते का नारा देते है ।।4।।
कवि विकास कुमार

तेरे दर पे आाया माता मैं (गीत)

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

तेरे दर पे आया माता मैं, मेरी झोली भर दे ।
अपनी दया की वृष्टि से मेरी मईया मेरी मुरादे पुरी कर दे।
बड़ी आश लगाये आये मा मुझे आशावान बना दे।
तेरे दर पे आाया माता मैं, मेरी झोली भर दे ।।1।।
तेरे दर पे आता निर्धन, धनवान, दीन-दुखी सब माता ।
सबकी सुनती माता तुम, सबके मुरादे पुरी करती है ।
मेरी भी सुन ले विनती माता मैं तुझे नमन बारम्बार करता है।
दुनिया की तुम हरती दुख मेरे भी दुख का निवारण कर दे ।।2।।
सब है तेरे पुत्र मईया, हम भी तेरे लाल है ।
एक नजर मा इधर देख ले, हम भी तेरे दास है।
दासों की तुम स्वामिनि माता, दासों पे तेरी कृपा अपरम्पार है।
एक झलक की ज्योति से माता हमें भाग्यवान बना दें।।3।।
तेरे दर पे आया माता मैं, मेरी झोली भर दे।
अपनी दया की वृष्टि से मेरी मईया मेरी मुरादे पुरी कर दे।।

है ब्रह्मचर्य व्रत सभी व्रतों में महान

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

है ब्रह्मचर्य व्रत सभी व्रतों में महान ।
यह है शक्ति का आधार व गति का मूलाधार ।
इससे होता नर शारीरिक व मानसिक विकास ।
अतः तुम कर लो बंदे ब्रह्मचर्य व्रत महान ।

जैसे भोगी इन्द्रियवश मानव-जीवन गँवाता है,
और नारायण से मुख मोड़ता है ।
ऐसे-ही-जन जग में बार-बार जन्म लेता है,
और ईश्वर साक्षात्कार को तरसता है ।

ब्रह्म का आचरण ब्रह्मचर्य सीखलाता हमें ।
इन्द्रिय निग्रह की विधा सीखलाती ब्रह्मचर्य ।
समस्त कामनाओं का परित्याग है ब्रह्मचर्य ।
महाव्रत में सर्वश्रेष्ठ स्थान है ब्रह्मचर्य का ।

वीर्यसंचय का अथाह सागर व्रत है ब्रह्मचर्य ।
जैसे गगन में सर्वोत्तम स्थान है ध्रूव का,
वैसे ही जग में ब्रह्मचर्य सूर्य समान है ।
करे जो नर नित्य-निष्ठा से ब्रह्मचर्य व्रत ।
वैसे ही नर देते है जगत में दिव्यतथ्य ।।
कवि विकास कुमार

हम उन बच्चों के साथी है

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

हम उन बच्चों के साथी है ,जिनके पास न कोई साधन है।
उनके पिता आत्मनिर्भर है, वो सरकारी की भ्रष्टाचारियों के चंगुल में फंसे है।
वो लाख कमाते है, फिर भी अपनें बच्चें को अच्छी तालिम क्यूँ नहीं दे पाते है।
कर में चली आधी वेतन, आधी वेतन महंगाई खा जाती है।
अब खाक़ बचा क्या उनके पास, ये बात हमारी सरकार जानती है क्या?।।1।।

लाखों की तदाद में सरकारी विद्यालय होने के बाबजूद भी।
आम जनता गैर सरकारी विद्यालय में अपने बच्चे को पढ़ना क्यूँ पसंद करते है?
है बहुत सारी सरकारी अस्पताल खोले गये है अपने देश में और उसमें है चिकित्सक बड़े महान।
लेकिन आमजनता सरकारी अस्पताल में जाने से क्यूँ डरते है?
या तो हमारी देश की जनता की मस्तिष्क खराब है या हमारी देश की व्यवस्था कोई काम की नहीं है।।2।।

अब क्या बताये हम देश की प्रशासनिक-व्यवस्था के बारे में?
यहाँ के पुलिस-दरोगा आमजनता को गालियाँ देते है ।
अगर कोई नागरिक अन्याय विरूध्द जूलुस निकालते है।
तो हमारी देश की व्यवस्था आमजनता पे लाठियाँ बरसाती है।
धन्य है हमारी देश की व्यवस्था रक्षक ही भक्षक का काम करती है ।।3।।

यह देश था, धर्मज्ञों, नीतिज्ञों व आचर्य कौटिल्य महान का।
लेकिन यहां के राजा बना दिया सोने की चिड़िया को दरिद्रों का देश है ।
इतिहास दुहराता या वर्तमान कहूँ मैं ये सोच के मैं रोता ।
रात-दिन यहीं सुनता मैं सरकारी की भाषण लगती है सदियों पुरानी ।
कहते है राजा अब रामराज्य लायेंगे लेकिन शिक्षा-व्यवस्था को कभी नहीं सुधारयेंगे ।।4।।
कवि विकास कुमार

जिस देश को कभी ।।

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

जिस देश को कभी सोने की चिड़िया कहीं जाती थी ।
जिसकी धरा कभी सोने-ही-सोने उगलती थी ।
उस देश की जनता आज भूख से क्यूँ मरती है?
निर्वस्त्र क्यूँ रहती उस देश के जनता आज?

विश्वगुरू था जो कभी देश हमारा
अखण्ड रूप था जिस देश का
आज वह देश खंडित-खंडित क्यूँ होता जा रहा है?
बच्चे क्यूँ अनपढ़ होते जा रहें है, उस देश के आज ?

जिसका देश का सकल घरेलु उत्पाद कभी आकाश चुम रहा था ।
जिस देश में कभी परदेश के बच्चे उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए आया करते थे ।
उस देश के बच्चे आज विदेशों में पढ़ना क्यूँ पसंद करते है?
अत्याधिक सामान विदेशों की क्यूँ उपयोग करती है वो देश?

जिस देश के राजा कभी अपने प्रजा को सुत समान समझती थी ।
प्रजा उन्हें मातृत्व का रूप प्रदान करती थी ।
आज उसी देश के राजा अपने प्रजा के साथ क्या बर्ताव करती ?
प्रजा सरकार पे कंकड़-पत्थर क्यूँ फैंकते आज?
कवि विकास कुमार

अति साहसी, मायादेवी है जिनके व्यवहार ।।

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

अति साहसी, मायादेवी, मूर्ख, लोभी जिनके व्यवहार।
अपवित्र, निर्दयी, अवगुणों से भरा जिनका तन।
छल-कपट से जो बाज न आये, यह है दुष्ट-निर्दयी स्त्री का गुण।
पर सब नारी नहीं होत, इन अवगुणों के अधीन।
युग-युग हर युग में जन्म लिये है, ये है नारी समाज का आदर्श है।
जिनके नाम हैः- सतरूपा, अनुसूईया, सावित्री, अहल्या, सीता,
मन्दोदरी,तारा, कुन्ती, द्रौपदी व झाँसी की रानी महान।
इन्हीं नाम में आता है पंचकन्याओं का नाम ।
जिनके नाम लेने से मिट जाते है नर का सभी अभिमान।
जो नर जपे उर में (से) पंचकन्याओं का नाम।
वो शीघ्र पा जाते है इन्द्रियों पे अधिकार ।
जो नर समझें नारियों को अपनी मा-बहन।
वो नहीं फँसते कभी इन्द्रियों के वश।।
पंचकन्याओं में आता अहल्या, मन्दोदरी, तारा, सीता, कुन्ती व द्रौपदी का नाम ।
जिनके नाम है सभी नारियों में सबसे महान ।।
कवि विकास कुमार ।।

करो परिश्रम कठिनाई से

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

करो परिश्रम कठिनाई से, तुम जब तक पास तुम्हारे तन है ।
लहरों से तुम हार मत मानो, ये बात सीखो तुम मँक्षियारा से ।
जब मँक्षियारा नाव चलाता, विचलित नहीं होता वह विपरित धाराओं से ।
लाख सुनामी चक्रवात बबंडर से टकराकर वह लक्षय को भेद जाता है ।
गगन की जयघोष की नारा से उसकी आँखें नम जाता है ।

निरन्तर, कठिनाई, परिश्रम में ही छिपा भविष्य तेरे बंदे है ।
परिश्रम, कठिनाई, निरन्तरता से कभी मुँह मत मोड़ना बंदे ,
यहीं तो तेरे भाग्य-विधाता है ।
करे परिश्रम कठिनाई से जो नर वही तो पाते अपना भविष्य-लक्ष्य है ।
कर्महीन, विषयरम, इन्द्रियनिर्लिप्त मनुष्य ऐसे ही जग में जीवन गँवाते है ।
और अर्थ-अभाव दर-दर मारे फिरते है ।

तन है चोला मिट्टी का, वस्त्र तेरे कोई शान नहीं ।
मिट्टी में मिट्टी मिल जायेंगे , वस्त्र तेरे उतार लिये जायेंगे ।
कर लो सदुपयोग नर तन का, यहीं तो काम आवेंगे ।
जो नर मिट्टी को मिट्टी समझे, कड़ी -धुप में अन्न उगाते (बीज बोते) ।
वहीं नर फसल काटते छाँव में ।।
ऐसे ही नर कहलाते जगत में दिव्यस्वरूप महान है ।
करो परिश्रम कठिनाइ से जब तक पास तुम्हारे तन है ।।

परिश्रम, कठिनाई, असफलता, निरंतरता सफलता के हैं चार स्तम्भ ।
इन चारों स्तम्भों से गुजारना ही सफलता के हैं प्रथम उद्देश्य है ।
निरन्तरता नर को गुणों को निखारता, परिश्रम किसी कर्म के योग्य बनाता ।
असफलता सफलता की पहली सीढ़ी होती व जीवन की कठिनाई हैं सफलता की गगनचुंबी ।
करो परिश्रम कठिनाई से जब-तक पास तुम्हारे तन है ।।
लहरों से तुम हार मत मानो ये बात सीखो तुम मँझियारा ।।
कवि विकास कुमार

हम उस देश के वासी है ।।

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

हम उस देश के वासी है, जिस देश के घरेलु सकल उत्पाद कभी आकाश चुम रही थी ।
हम उस देश के वासी है, जिस देश की महानता का परचम कभी सारी विश्व में फैली थी ।
हम उस देश के वासी है , जिस देश में कभी स्वच्छ निर्मल गंगा बहती थी ।
हम उस देश के वासी है, जिस देश में कभी हिंसक नामक पशु समान कोई मानव न हुई थी ।
हम उस देश के वासी है, जिस देश के ग्रन्थों का अनुवाद परराष्ट्रों(दूसरे देश) के सभी भाषाओं में हुई है ।
हम उस देश के वासी है, जिस देश की धर्मव्यवस्था सभी धर्मों में सर्वोपरी है ।।
हम उस देश के वासी है, जिस देश की शिक्षा-व्यवस्था एक आर्दश चरित्र की निर्माण करती थी ।
हम उस देश के वासी है, जिस देश की अर्थ-व्यवस्था कभी आमजनता पे शोषण नहीं करती थी ।
हम उस देश के वासी है, जिस देश की कर-व्यवस्था कभी आयकर नाम की कोई कर नहीं लेती थी ।
हम उस देश के वासी है, जिस देश की काम-व्यवस्था सिर्फ संतानोप्ति के लिए ही सीमित थी ।
हम उस देश के वासी है, जिस देश की मोक्ष-व्यवस्था जादू-टोना पे न कभी निर्भर थी ।
आज देश की स्थिति क्या है, ये बात मुझसे नहीं कही जाती है ?
हमने मान-मर्यादा, सभ्यता-संस्कृति, भाषा, आहार, पोशाक, व्यवस्था, व अपनी सारी-की-सारी पहचान गँवायी है ।
अब किस आधार पे कहें हम उस देश के वासी है, जिस देश की व्यवस्था सभी व्यवस्थाओं में सर्वोपरी थी ।।
कवि विकास कुमार

गाँव मातृ-पिता समाज से बना ।।

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

गाँव, मात-पिता, समाज से बना, हमारा ये प्रथम संसार है ।
सारी जहां में प्रथम पूजनीय, यहीं हमारा जन्मस्थान है ।।
घर में ममता स्वरूप माता व पिता देवता समान है ।
लक्ष्मण जैसा भाई व स्नेह लूटाने वाली बहन है ।।
पत्नी सति सावित्री व पुत्र श्रवन कुमार है ।
सारी जहां से हटके अपनी आशियाना धरा पे स्वर्ग समान है ।।

अपने को अपने समझें पराया को गले लगाये, यहीं हमारी शान है ।
मातृभूमि पे सर्वस्व लूटा दें, यहीं हमारी मान है ।
मान-हानि का भय भुलाके सर्वदा मानव पथ पे चलें, यहीं हमारी आन है ।
कौन अपना है? कौन पराया है? ये नहीं सोचे हम ।
बेझिकक सबों को मदद करे, यहीं हमारी प्रकृति है ।
प्रकृति को कोई नाश न करें हमारी हमारी जनजागरण है ।।

सारी दुनिया को हम अपनी परिवार समझें ।
करें ध्यान विश्व की कल्याण की ।
मातृभूमि पे कभी आँच न आये ऐसा सैनिक-दल तैनात करे हम ।
जो अपनी सर्वस्व लूट दें निज राष्ट्र के कल्याण में ।।

बच्चें को निज राष्ट्र की महानता व देश की गौरवगाथा सुनाते हम ।
ये भी सुनाते तुम्हारी संस्कृति अब लूप्त होती जा रही है इसे बचाना है तुम्हें ।
निज राष्ट्र को फिर से समृध्द-शक्तिशाली व धनवान बनाना है तुम्हें ।
अपनी निज स्वारथ को भूलाके देशहित में अपना सर्वस्व लूटाना है तुम्हें ।।
कवि विकास कुमार

राजतंत्र हो या प्रजातंत्र

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

राजतंत्र हो या प्रजातंत्र सब चाहते है नृपदुखभंजन।
पर किसी क्या मिला ये जानते है जगत-जहां।
सब रामराज की कल्पना करते पर राम की नीति कोय न जाने?
राम की व्यवस्था चाहते हो तो अपनाओ निज धरा पे कौटिल्य अर्थशास्त्र।
और कर दो देश को फिर से अखण्ड- समृध्द-शक्तिशाली और धनवान।।1।।

हम यह देख रहें है, निज राष्ट्र की व्यवस्था किस आधार पे टिकी है ।
यहाँ के राजा अब इन्द्रियों के दास और प्रजा उनके खेल-खिलौने है ।
यहाँ के नृप अब इन्द्रियों के अधीन है,और प्रजा उनके भोग-विलास की वस्तु है।
अब नृप प्रजा को सुत समझें नहीं, वो समझें ये तो मेरे पाँव तले मिट्टी के जैसे है।
इसीलिए तो अब प्रजा राजा पे कंकड़-पत्थर बरसाती है।
(इसीलिए तो अब जनता सरकार पे कंकड़-पत्थर बरसाती है।)।2।।

देख प्रजा की स्थिति अब राजा का उर दुखता नहीं।
नेत्र के होते अब राजा नेत्रहीन है, उन्हें निज राष्ट्र की दुर्दशा दिखता नहीं।
राजनीतिज्ञ और अर्थशास्त्री राजअर्थ के पीछे यूँ भागते है।
जैसे गणिका भागते धनवान पुरूष के अर्थ के पीछे है।
कुराजनीतिज्ञ और अधम-नीच अर्थशास्त्री के कारण अब भारत की यह दुर्दशा है।।3।।

कराध्यक्ष अब निज राष्ट्र की कर चुराते, देख स्थिति सरकार यूँ मुस्कुराते।
जैसे प्रेम-विरह में कोई प्रेमी-युगल मुस्कुराये, ये क्यूँ होता ये जाना हमने?
सुनके बहुत रोना आया, इन्हें कराध्यक्ष से निज स्वारथ कुछ पुरे होते है।
कैसे देश बने अब समृ्द्ध-शक्तिशाली और धनवान ।
जब निज देश के राजा ही प्रजा का हक चुराये ।।4।।

न्यायाधीश अब डरते है चोर-उचक्कें और दुष्ट-आताताई से।
तब वो कैसे न्याय दे सत्य के पक्ष में, जब वो खाते रोटी असत्य के पक्ष में।
जब तक होंगे देश में भीरू-डरपोक और कमजोर न्यायाधीश।
तब तक वो न्याय नहीं दे सकते, कमजोर, लाचार, बेवस वाले सत्य के पक्ष में ।
यह तो राजा की शासन-व्यवस्था ढ़ीली, इसलिए तो न्यायाधीश अपनी कोठी भरते है।।5।।

किसानों की स्थिति अब मुझसे बयां नहीं की जाती है।
इन्हें सरकार अपनी भोगों की वस्तु समझती है।
लालबहादुर शास्त्री की का न्यारा हैः-जवान-किसान पे खड़ा हमारा भारत देश है।
जवान देश की सेवा करते है,किसान देश को अन्न खिलाती है।
पर दोनों मरते देशहित में पर क्या कुछ उन्हें देशहित में?
कवि विकास कुमार

New Report

Close