मेरे लफ्ज़ ग़ुलाम

March 12, 2016 in शेर-ओ-शायरी

मेरे लफ्ज़ ग़ुलाम बन गए
तेरे लफ़्ज़ों की सरफ़रोशी से
राजेश’अरमान’

तेरे शिकवे कभी न

March 12, 2016 in शेर-ओ-शायरी

तेरे शिकवे कभी न हवा हो सके
मेरे दर्द की तुम कभी न दवा हो सके
कुछ तार बिखरे, कुछ टूट गए
ख्वाब अपने कभी न जवाँ हो सके
राजेश ‘अरमान’

अपनी हर सांस तो

March 12, 2016 in शेर-ओ-शायरी

अपनी हर सांस तो बस तेरी चाह में गुजरी
तेरी सारी उम्र जमाने की परवाह में गुजरी
सोचा था कहोगे उदास तुम मेरी खातिर न हो
क्या कहेगा ज़माना ,फिक्र ज़िंदगी की राह में गुजरी
राजेश’अरमान’

पटका तो

March 12, 2016 in शेर-ओ-शायरी

पटका तो ,कहीं दूर जा, गिरी ख़ामोशी
अब खामोशियों के टुकड़े चुन रहा हूँ
राजेश’अरमान’

ज़िंदगी की उधेड़बुन

March 12, 2016 in शेर-ओ-शायरी

ज़िंदगी की उधेड़बुन
कबूतर गए दाने चुन
राजेश’अरमान’

शरीर आत्मा में

March 12, 2016 in शेर-ओ-शायरी

शरीर आत्मा में लगा कोई दीमक
मन परमात्मा में लगा कोई दीपक
क़र्ज़ सांसों का होता बस शरीर पर
आत्मा बही-खातों में रखा कोई बीजक
राजेश’अरमान’

मर गई आत्मा

March 12, 2016 in शेर-ओ-शायरी

मर गई आत्मा ,शरीर कहने को ज़िंदा है
पंछी मन का उड़ गया ,आँखों में परिंदा है
राजेश’अरमान’

कभी बादलों से

March 12, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

कभी बादलों से
कभी बिजलिओं से
बनती है सरगम

कलकल बहते पानी
चलती हवाओं से
बनती है सरगम

इठलाती घूमती
बेटियां होती झंकार
बनती है सरगम

अपनी साँसें भी
जब सुर में हो
बनती है सरगम

कुछ यादें भी
होकर मधुर
बनती है सरगम

किसी साज़ का दर्द
खुद सा लगे तब
बनती है सरगम

राजेश’अरमान’

गम की फसलें सींचता

March 12, 2016 in शेर-ओ-शायरी

गम की फसलें सींचता
आँखों की बारिश से
हर ख्वाब ने दम तोडा
अपनी ही गुजारिश से
राजेश’अरमान’

अब मंज़िल मेरे

March 12, 2016 in शेर-ओ-शायरी

अब मंज़िल मेरे साथ-साथ चलती है
जब से बनाया मंज़िल अपने साये को
राजेश’अरमान’

कोई वज़ह यूँ भी

March 12, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

कोई वज़ह यूँ भी
निकल आती
तेरे मिलने की
तारों की सजी डोली
लेके आता कहार
मेरे मन के द्वार
मैं मन ही मन में
रूप लेता निहार
काश उस डोली में
कोई ख्वाब सजा होता
आँखों ने लिए थे
संग जिसके सात फेरे
राजेश’अरमान’

चल पड़ा फिर जिस्म

March 12, 2016 in ग़ज़ल

चल पड़ा फिर जिस्म
किसी राह में
मन को छोड़ अकेला
क्यों नहीं चलते
दोनों साथ -साथ
कोई रंजिश नहीं
फिर भी रंजिश
फूल की बगावत
किसी टहनी से
भवरे की शिकायत
किसी फूलों से
मन की तिजारत
किसी जिस्म से
मन रहता है
जिस्म में किसी
मुसाफिर की तरह
जिस्म की हसरत
जिस्म की तरह
नश्वर है
काश रग़ों में
मन दौड़ता
जिस्म की
उमंगों जैसा
किसी जिस्म
किसी मन
की राह अलग न होती
राजेश’अरमान’

रात अपना ही कोई

March 12, 2016 in ग़ज़ल

रात अपना ही कोई
किस्सा बन जाता हूँ
दिन के उजाले में कोई
हिस्सा बन जाता हूँ
निकल तो जाता हूँ
बाज़ारों में कहीं
शाम के होते ही
न चलने वाला कोई
सिक्का बन जाता हूँ
राजेश’अरमान’

उसकी नज़रों की

March 12, 2016 in शेर-ओ-शायरी

उसकी नज़रों की तलाशी में
मेरे किरदार बदले से मिले
मैं ढूंढ़ता रहा उसकी आँखों में
चंद कतरे पर जमे से मिलें
राजेश’अरमान’

जरूरत के हिसाब से

March 12, 2016 in शेर-ओ-शायरी

जरूरत के हिसाब से , खुद से पहचान हुई
कई हिस्से अब भी अजनबी है मेरे अंदर
राजेश’अरमान’

हर भोर

March 12, 2016 in शेर-ओ-शायरी

हर भोर
उगता सूरज
नई किरणों के संग
नए खेल रचता
नई ऊर्जा का संचार
दिन भर तपस
कभी ज्यादा
कभी कम
इस ज्यादा
इस कम
में दबे बैठे है
कई प्रश्न
राजेश’अरमान’

वज़ूद अपना ज़माने

March 12, 2016 in शेर-ओ-शायरी

वज़ूद अपना ज़माने से जुदा रख
अपने अरमानों को गुमशुदा रख
परिंदे के वास्ते अर्श की सरहदें कहाँ
अपने अंदर कोई दोस्त कोई ख़ुदा रख
राजेश’अरमान’

पिंजरे तो खोल

March 12, 2016 in शेर-ओ-शायरी

पिंजरे तो खोल दिए लेकिन
पंछी उड़ गया पिंजरे लेकर
              राजेश’अरमान’

बरपने लगा

March 12, 2016 in शेर-ओ-शायरी

बरपने लगा शोर कुछ अपने पाले सन्नाटों में
कुछ उधर भी है खलबली उनके दिए काँटों में
माना की कोई मरासिम नहीं उनके सायों से ,
अब भी मौजूं है मगर हर किसी की आहटों में
राजेश’अरमान’

दरके आइनों को

March 12, 2016 in ग़ज़ल

दरके आइनों को नाज़ुकी की जरूरत है
गर आ जाएँ इल्ज़ाम यही तो उल्फत है

फासले वस्ल के यू सायें से बढ़े जाते है
ये कोई मिलना या तुम्हारी रुखसत है

हरसूँ बिखर गए तेरे पन्नें नसीब के
अब तो खाली जिल्द की हसरत है

वक़्त रूठा किसी बच्चे की माफिक
जिसकी जिद है या कोई शरारत है

अब किस और जहान जाएँ’अरमान’
जिस तरफ देखिये बस नफरत है

दरके आइनों को नाज़ुकी की जरूरत है
गर आ जाएँ इल्ज़ाम यही तो उल्फत है

राजेश’अरमान’

कहाँ तो आरजुएं थी

March 12, 2016 in ग़ज़ल

वक़्त की चाल के अंदाज़ निराले तो न थे
ख्वाब ही सो गए लेके कोई करवट शायद

कहाँ तो आरजुएं थी तेरे मिलने की
यां तो खुद ही हिस्सों में बट गए शायद

जुबान पे क्यों कोई इल्ज़ाम रहें
खता मेरी जो चुप रह गए शायद

मैं ही चल न सका साथ कारवां के
फ़ासले काफिलों से यू बढ़ गए शायद

हर सीने में मंज़िलें धड़कती है
यही रिश्ता बस रह गया शायद

निस्बत कुछ इस तरह निभाई गई
पास रहकर भी दूर रह गए शायद

चंद कतरे भीगे साथ रख ‘अरमान’
अब आँखों में नमी आ जाये शायद

धुंधले आईने में

March 12, 2016 in ग़ज़ल

धुंधले आईने में कोई अक्स नज़र नहीं आता
वक़्त की सुईया पकड़ने से वक़्त ठेहर नहीं जाता

वो चिरागों सा रोशन कभी एक नूर सा था
क्या हुआ शख्स अब वो नज़र नहीं आता

कहता रहा रहने दो रिश्तों को पर्दों में
कुरेदने से सच रिश्तों का बदल नहीं जाता

उसकी हसरत थी महफूज उसके हाथों में
हाथों की जिन लकीरों को कोई बदल नहीं पाता

कौन देखेगा इन हवाओं में मुड़ के ‘अरमान’
साथ दुनिया के आखिर वो क्यों चल नहीं पाता

धुंधले आईने में कोई अक्स नज़र नहीं आता
वक़्त की सुईया पकड़ने से वक़्त ठेहर नहीं जाता
राजेश ‘अरमान’

रिश्तों की बानगियाँ

March 12, 2016 in शेर-ओ-शायरी

रिश्तों की बानगियाँ अब तेजी से बदलने लगी है
वास्ता लाश से कम कफ़न से ज्यादा हो गया है
राजेश’अरमान’

ऊंची दीवारें भी पल

March 12, 2016 in शेर-ओ-शायरी

ऊंची दीवारें भी पल में मिट जाती है
बस नज़रें दीवार के पार जानी चाहिए
राजेश’अरमान’

हर सांस है मुजरिम न

March 12, 2016 in ग़ज़ल

हर सांस है मुजरिम न जाने किस गुनाह में
हर ख्वाईश है क़ैद न जाने किस गुनाह में

न कुछ बस में तेरे न कोई डोर हाथ में
जाएँ तो ज़िंदगी किन क़दमों की पनाह में

थमा वक़्त कभी तेज भागता वक़्त बेपैबंद
हर लम्हा दुबका बैठा ज़िंदगी की राह में

ख्वाब के बाद ऑंखें सदा खुली रखना
न जाने कब आ जाएँ कोई निगाह में

कब तलक खुद को बहलाएगा ‘अरमान’
फिर किसी अजनबी से मरासिम की चाह में

हर सांस मुजरिम है न जाने किस गुनाह में
हर ख्वाईश क़ैद है न जाने किस गुनाह में

राजेश ‘अरमान

ज़िंदगी कभी गूंथे हुए

March 12, 2016 in ग़ज़ल

ज़िंदगी कभी गूंथे हुए आटे की तरह लगती
कभी फायदे की कभी घाटे की तरह लगती

आस के फूल हर शाख पे खिलने दो
टूटी आस चुभते हुए काटें की तरह लगती

वक़्त की मार से कब कौन बचा यारों
कभी मुक्के तो कभी लातों की तरह लगती

ख्वाइश से उगती खवाइश का खेल ज़िंदगी’अरमान’
कभी चुप तो कभी चीखते सनाटे की तरह लगती

ज़िंदगी कभी गूंथे हुए आटे की तरह लगती
कभी फायदे की कभी घाटे की तरह लगती
राजेश ‘अरमान’

कोई दिल का मेरे चारागर होता

March 12, 2016 in ग़ज़ल

कोई दिल का मेरे चारागर होता
यूँ न तन्हा मेरा सफ़र होता
आज फिर दिल ने आरजू की है
घर के अंदर मेरा घर होता /
वो जो रहते थे हमसाये की तरह
मेरी परछाई में फिर क्यों न बसर होता
अब गिला क्या करें किन बातों का
गर जो होना था कुछ असर होता
आज मैं दूर बहुत दूर चला आया हूँ
काश के पास मेरा शहर होता/…
जुस्तजू की भी कोई होती अगर जुस्तजू
फसले-गुल न होती, न कोई शजर होता
कोई दिल का मेरे चारागर होता———–
RAJESH ‘ARMAN’

हर लम्हा गुजर गुजर

March 12, 2016 in ग़ज़ल

हर लम्हा गुजर गुजर कर कुछ कह गया
अपनी आँखों में हल्का सा कुछ तैरता गया
ज़िद जिनकी थी वो ज़िद में रह गए
हाथ से उनके कोई फैसला सा गया
ज़िंदगी कुनकुनी धुप तो कभी चुभती तपन
वो कहते क्यों वो कुम्हलाया सा गया
असर किसी का किसी पे होने में
वक़्त लगता मगर किसी से लगाया न गया
फासले कैसे भी हो मिट सकते है
सरहद की तरह कभी हमसे बनाया न गया
जिसको हासिल बुत सी ख़ामोशी ‘अरमान’
क्यों कहते उससे हाथ मिलाया न गया
राजेश ‘अरमान’

रोज़ होती रही तेरे वादों की बरसात

March 12, 2016 in ग़ज़ल

रोज़ होती रही तेरे वादों की बरसात
कमाल ये के कभी हम भीग नहीं पाएं
तंगदिल है मेरा या तेरा सिलसिला क़ाफ़िर
न तुम समझे न कुछ हम समझ नहीं पाएं
वक़्त के वलवले कुछ कम नज़र आते
ज़ख्म अपने ही मगर भर नहीं पाएं
तेरी रुखसत से जुड़ा कोई किस्सा हूँ
पढ़ना चाहा भी मगर पढ़ नहीं पाएं
अपनी मर्ज़ी भी कोई मर्ज़ी है ‘अरमान’
जो हुआ हम कुछ कर नहीं पाएं
रोज़ होती रही तेरे वादों की बरसात
कमाल ये के कभी हम भीग नहीं पाएं
राजेश ‘अरमान’
की बरसात

कमाल ये के कभी हम भीग नहीं पाएं
तंगदिल है मेरा या तेरा सिलसिला क़ाफ़िर
न तुम समझे न कुछ हम समझ नहीं पाएं
वक़्त के वलवले कुछ कम नज़र आते
ज़ख्म अपने ही मगर भर नहीं पाएं
तेरी रुखसत से जुड़ा कोई किस्सा हूँ
पढ़ना चाहा भी मगर पढ़ नहीं पाएं
अपनी मर्ज़ी भी कोई मर्ज़ी है ‘अरमान’
जो हुआ हम कुछ कर नहीं पाएं
रोज़ होती रही तेरे वादों की बरसात
कमाल ये के कभी हम भीग नहीं पाएं
राजेश ‘अरमान’

एक जरूरी दस्तावेज

March 12, 2016 in ग़ज़ल

एक जरूरी दस्तावेज ही तो है जीवन
न कागज़ अपना न स्याही अपनी
फिर भी भ्रम अपना कहने का

अपनी सासें अपनी धड़कन से विवाद करती
कभी तालमेल नहीं मन से मन का
फिर भी भ्रम अपना कहने का

मन से मन मिलता नहीं फिर भी
हर संयम अपना ही उपहास करता
फिर भी भ्रम अपना कहने का

यथार्थ हो गए पुराने अख़बार से
हम लिपट गए किसी शै की तरह
फिर भी भ्रम अपना कहने का

राजेश ‘अरमान’

मुड़े कागज़ की तरह

March 12, 2016 in ग़ज़ल

मुड़े कागज़ की तरह माथे की लकीरें बन गई है
मेरी किस्मत की हाथों की लकीरों से ठन गई है
अपने हिस्से की गिरवी रखी उदासी को
देख अब उस पे कितनी सूद चढ़ गई है
माना हस्ती अपनी खुद की न कतरे से जुदा
खुद ये कतरा मेरा आईना बन गई है
मेरी कलम से निकली हुई स्याही यूँ हुई खफा
ज़ीस्त अपनी कोई बिगड़ी कहानी बन गई है
क्या है अर्ज़ तेरी कौन सुनेगा ‘अरमान’
ख्वाइशें खुद बखुद खौफ बन गई है
मुड़े कागज़ की तरह माथे की लकीरें बन गई है
मेरी किस्मत की हाथों की लकीरों से ठन गई है

राजेश ‘अरमान’

कभी तो मेरे माजी

March 12, 2016 in ग़ज़ल

कभी तो मेरे माजी का क़त्ल कर दिया जाएँ
जख्म जैसा भी हो कुछ पल भर दिया जाएँ
माना की शब की जीस्त दुआओं से है भरी
हो असर ऐसा ख़्वाबों को सहर कर दिया जाएँ
फूल भी चुभते रहे ताउम्र किसी खंजर की तरह
चलो किसी खंजर को फूलों से भर दिया जाएँ
लाजिमी हो के कुछ वक़्त यू भी मिल जाएँ
किसी पिंजरे से रिहा खुद को कर दिया जाएँ
तिश्नगी सेहरा की न थी इस दिल को ‘अरमान’
कभी ऐसा हो तस्सवुर में समुन्दर भर लिया जाएँ
कभी तो मेरे माजी का क़त्ल कर दिया जाएँ
जख्म जैसा भी हो कुछ पल भर दिया जाएँ
राजेश ‘अरमान ‘

पत्थर ही पत्थर है दिल

March 12, 2016 in ग़ज़ल

पत्थर ही पत्थर है दिल की जेब मेँ
है बड़ी सच्ची मगर गर्दिशों की बात है
अब के गर्मिओं मेँ ठंडक है तो हैरत किसलिए
किस कदर गर्मियां थी पिछली सर्दियों की बात है
किस कदर ओढ ली थी तुमने ख़ामोशी की चादर
अब के गर्मिओं मेँ ये आई कैसी बरसात है
न कोई शिकायत न कोई मूह फेरने की रस्म
ऐसी चुप सी मुलाक़ात भी कोई मुलाकात है
तेरे सवालों की कोई किताब नहीं ‘अरमान ‘
ज़िंदगी तो खुद अपनी एक सवालात है
पत्थर ही पत्थर ——–
राजेश ‘अरमान ‘

जाते जाते कुछ कह गयी ज़िंदगी

March 12, 2016 in ग़ज़ल

जाते जाते कुछ कह गयी ज़िंदगी
समझ पाया तो ढह गयी ज़िंदगी

करते गुजरा हर सांसों का हिसाब
ज़िंदगी से कुछ कम रह गयी ज़िंदगी

पहलूँ में लिए बैठे कई चाँद उदास
जाने क्याक्या न सह गयी ज़िंदगी

लम्हां लम्हां मिलके सजी मिलके बनी
जाते जाते चुपचाप कह गई ज़िंदगी

उम्र गुजरी किसी सेहरा में ‘अरमान’
आखरी दौर दरिया में बह गयी ज़िंदगी
राजेश ‘अरमान’

बिखरे ख्वाबों को

March 12, 2016 in ग़ज़ल

बिखरे ख्वाबों को बारहा चुनता क्या है
ज़ख़्म तो जख्म है बारहा गिनता क्या है

इन हवाओं से कब कोई मुड़ के देखा
सेहरा की रेत पे बारहा लिखता क्या है

गैर हो न सके, न अपनों में रहे
देख तजुर्बों से तुझे दिखता क्या है

वो बैठा रहा सच की बाँहों में
देख सही तेरे बाजार में बिकता क्या है

यही दुंनिया के दस्तूर रह गए ‘अरमान’
डूबते चाँद को बारहा तकता क्या है

बिखरे ख्वाबों को बारहा चुनता क्या है
ज़ख़्म तो जख्म है बारहा गिनता क्या है
राजेश’अरमान’

हर चेहरे अपने पर

March 12, 2016 in ग़ज़ल

हर चेहरे अपने पर कोई आश्ना न मिला
गिला खुद से मगर कोई आईना न मिला

अपनी तक़दीर-बुलंदी का क्या कहना
बर्क़ को जब कोई आशियाँ न मिला

फ़िज़ां मिली तो मगर खुशगवार न थी
तल्खियों भरा कोई सेहरा न मिला

हस्ती अपनी जमाने में जुदा निकली
कोई शख्स शहर में जब बेजुबान न मिला

एक चुप से लिपट बैठा ‘अरमान’
क्यों कहते हो कोई तज़ुर्बा न मिला

राजेश’अरमान’

सिर्फ एहसास है

March 12, 2016 in ग़ज़ल

सिर्फ एहसास है वफ़ा फिर छूने को जी करता है
यह कौन देता है सदा सुनने को जी करता है

हर शख्स का वज़ूद जुदा फितरत भी जुदा
फिर भी उम्मीद वो खुद के वज़ूद सा करता ह

क्या हो तामीर तेरे घर की तेरी आरज़ू से जुदा
हर दरीचा मेरे जेहन का तेरी गली खुलता है

ये अंधेरों की है वफ़ा या उजालों की जफ़ा
ज़ख्म इक मगर दर्द बारहा मिलता है

कितने कुचले हुए लिए बैठा है ‘अरमान’
कोई उजड़ा हुआ गुलशन कभी खिलता है

राजेश ‘अरमान’

बुझे चरागों को हवाओं

March 12, 2016 in ग़ज़ल

बुझे चरागों को हवाओं का करम न दे
मेरी हस्ती मिटने का कोई भरम न दे

जो गुजरा नहीं खुद , मगर आखिर गुजरा
तुम फ़क़त कोई उदास सा वहम न दे

जुबाँ जो है हाथों को कोई खंजर क्या दे
मेरे ज़ख्म हरा रख, कोई मरहम न दे

फिर कोई मौसम गुजरा मेरे वीरानो में
तेरी चुप से लिपटा कोई मौसम न दे

जो भी लिखता, दिल से लिखता ‘अरमान’
मेरे इन हाथों को कोई कलम न दे

बुझे चरागों को हवाओं का करम न दे
मेरी हस्ती मिटने का कोई भरम न दे
राजेश ‘अरमान’

मेरे सफिनों का नाखुदा हो

March 12, 2016 in ग़ज़ल

मेरे सफिनों का नाखुदा हो , जो तूफानों का तलबगार न हो
मुझे ऐसा चराग बना दे जो हवाओं का कर्ज़दार न हो

मेरे हिस्से की हर शे पे लिख दिया तेरा नाम आखिर
गिला करें वो हरदम और तेरा तरफदार न हो

ऐसा कोई सौदा न हो और कोई सौदाई भी न हो
बिक जाएँ जहाँ मेरी वफ़ा ऐसा कोई बाजार न हो

ज़ीस्त की राहों में ऐसा किसे नसीब गुलशन
फूल की चाह हो और हाथों में खार न हो

मत ओढ़ के सो जाना चादर किसी वीरानी की
कौन समझेगा इसे कहीं हस्ती तेरी शर्मशार न हो

न हो ऐसा कोई लम्हा मेरी किस्मत में ‘अरमान’
ख्वाब देखूं तो तेरे चेहरे का दीदार न हो

राजेश ‘अरमान’

कतरा कतरा लहूँ का

March 12, 2016 in ग़ज़ल

कतरा कतरा लहूँ का जिस्म में सहम गया
चलो इसी बहाने रगों में बहने का वहम गया

वो कोई हिस्सा था मेरे ही जिस्म का
जुदा हुआ वो तोड़ कोई कसम गया

मेरे मिटने की तारीख एक फ़लसफ़ा ही थी
जाने क्यों बाँट वो मेरी मौत का परचम गया

कब था इंकार मुझे मेरी तन्हाई के सौदे का
वो देख खुद मेरी तन्हाई आखिर सहम गया

वो तेरे लब्ज़ों की बाज़ीगरी न थी तो क्या थी
फिर कोई छेड़ मेरे ज़ख्मों में कोई नज़्म गया

कोई फ़रियाद क्या करें अपनी सांसों से ‘अरमान’
जब सांसें ही हो क़ातिल ,ठहरा मुझे मुजरिम गया
राजेश ‘अरमान’

उसने खौफ से कभी

March 12, 2016 in शेर-ओ-शायरी

उसने खौफ से कभी आइना साफ़ न किया
आ जाएँ न नज़र कहीं तस्वीर साफ़ उसकी
राजेश ‘अरमान’

तजुर्बों से सीखा

March 12, 2016 in शेर-ओ-शायरी

तजुर्बों से सीखा मगर बस इतना सीखा
फिर गिर पड़े तज़ुर्बा जो गिरने का था
राजेश ‘अरमान’

हम लुत्फ़ कुछ

March 12, 2016 in ग़ज़ल

हम लुत्फ़ कुछ बारिशों का यूँ उठा रहे है
अपने आंसुओं को बारिशों में छुपा रहे है

उसी को याद करना और हमेशा याद रखना
किसी को भूलने की क्या अदावत निभा रहे है

हम तो हो गए कायल अपने नए हुनर के
खाक दीवानगी की हर तरफ उड़ा रहे है

अभी तो कारवां कोई गुजरा नहीं फिर भी
जनाब आप आखिर किस गुबार से घबरा रहे है

जहाँ में कौन कब किसी का हुआ ‘अरमान’
बस ये सोच हम तबियत अपनी बहला रहे है

हम लुत्फ़ कुछ बारिशों का यूँ उठा रहे है
अपने आंसुओं को बारिशों में छुपा रहे है
राजेश’अरमान’

मेरे तस्सवुर के रंग

March 12, 2016 in ग़ज़ल

मेरे तस्सवुर के रंग क्यों फीके होने लगे है
मेरे सायें भी अब मुझसे दूर होने लगे है

मैंने गिन गिन के सजाये थे जो मेरी वसीयत थी
वो लम्हे क्यों मेरी ज़िंदगी से कम होने लगे है

माना की जुस्तजू से ताल्लुक रखना है गुनाह
अब तो हर ताल्लुक मेरे अपनों से खोने लगे है

मिज़ाज़ वक़्त का होता है किसी मदारी जैसा
हम भी चुपचाप किसी खेल में होने लगे है

अपने दरवाजें को बंद कर दे ‘अरमान’
ख्वाब आँखों में आके फिर सोने लगे है
राजेश’अरमान’

रिश्तों का सत्य

March 12, 2016 in ग़ज़ल

रिश्तों का सत्य जो लगता यथार्थ से परे सदा
मानते हुए छलावा हम जुड़े रहना चाहते है सदा

ये रिश्तें जो खून से बनते ,खून में ही पनपते है
अंत होता है खून में ही ये सनते है सदा

इन्हे तोड़ने का साहस भी न कोई जुटा पाया कभी
है कोई इस खोखलेपन से गहरा जुड़ा है सदा

अदा करना जरूरी नहीं जितना जताना जरूरी है
इन रिश्तों ने जताया है अपना हक़ वो सदा

जिसे सीखे गए बस औरों को सीखने के लिए
सिखाये है रिश्तों ने ऐसे ही दस्तूर सदा

इन रिश्तों का भ्रम कब तक कोई पाले
अहसास एक पल भी न होने का रहता है सदा

तोड़ डाले पर होगा ये यथार्थ से सीधा पलायन
जुड़े बैठे है अनचाहे इन रिश्तों से सदा

राजेश’अरमान’ ०५/०२/१९९२

फूलों की हसरत

March 12, 2016 in ग़ज़ल

फूलों की हसरत की ,यही कसूर है मेरा
काटें ही काटें मिले ये नसीब है मेरा

सोचा था तूफां से कस्ती पार निकल जाएगी
तूफां का क्या कसूर, निकला नाखुदा नासेह मेरा

कल तक जो अपने थे बन गए बेगाने खास
रिश्तों की डोर से कुछ ऐसा है ताल्लुक मेरा

फूल लगे गैर मुझे काटें कुछ अपनों से लगे
बस यही गुलशन से है शायद रिश्ता मेरा

याद कर के फिर हो जाता उदास ‘अरमान’
सूखे पत्तों की तरह हो गया वज़ूद मेरा

ज़िंदगी धुप -छोंव्

March 12, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

ज़िंदगी धुप -छोंव्
तपती रेत धसते पाँव

राही सुप्त
बिखरे ख्वाब मंज़िल लुप्त

टूटे सपने
अहसास हुआ थे ये अपने

जख्म हरे
जो की पीड़ा से भरे

दुःख के घेरे
चारों और घनघोर अँधेरे

मौत आखरी दांव
लम्बे सफर का अंतिम पड़ाव
राजेश ‘अरमान’ 19/10/1991

अरमां था ज़िंदगी

March 12, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

अरमां था ज़िंदगी से कभी मुलाकात होगी
बिठा पलकों पे कुछ खास बात होगी
सोचता था होगी ज़िंदगी मेरी फूलों की तरह
निकाले होगी घूँघट किसी रहस्य की तरह
कभी आती जब ज़िंदगी मेरे ख्वाब में
नज़र आती ज़िंदगी मुझे एक नक़ाब में
हाथ में उसके विष से भरा सोने का प्याला
पहने गले में मधुमय काँटों की माला
कभी लगता है वो मनचाही किताब
कभी लगता ज़िंदगी है आंसुओं का सैलाब

ये तो एक ख्वाब है ,पर क्या ज़िंदगी ख्वाब नहीं है
खड़े कई प्रश्न ऐसे जिसका कोई जवाब नहीं है
गर जो मिली मुझको ले लूँगा प्रश्नों के घेरे में
होते हुई भी मेरी क्या भेद है तेरे मेरे में
ज़िंदगी तेरे इतने रंग है जो समझ से परे
हर सांस अजनबी सवाल वही तेरे मेरे
ज़िंदगी का अंत है मौत ,तो मौत का अंत भी होता होगा
मौत की आगोश में कभी ग़म भी तो सोता होगा
कल रात ख्वाब में मेरी आई ज़िंदगी
अपनी कम ज्यादा पराई लगी ज़िंदगी
मौत के अहसास से समझ पाया ज़िंदगी की शान
ज़िंदगी तो निकली रेगिस्तान में काटों की तरह ‘अरमान
राजेश ‘अरमान’ २०/०४/१९९०

ये ख्वाइशें

March 6, 2016 in ग़ज़ल

रेत के महलों की तरह ,हरदम ढहती है ये ख्वाइशें
फिर भी हर पल क्यों सजती सवरती है ये ख्वाइशें

उम्मीदे इन्ही ज़िंदा रखती सांसों में रचती -बसती
पलती-बढ़ती सब चुपचाप सहती है ये ख्वाइशें

एक खवाइश पूरी होते ही अपनी कोख से
दे जाती जनम कोख में पलती है ये ख्वाइशें

इन्हे पूरा होने की आस में रहते बैचेनी की गोद में
जाने -अनजाने दर्द से आलिंगन चाहती है ये ख्वाइशें

कभी होगा खत्म इन ख्वाइशों का अनवरत क्रम
जिंदगी का है अंत पर अमर होती है ये ख्वाइशें

हर खवाइश बंधी आशा की सुनहरी जंजीरों से
जिसे तोड़ने की खवाइश भी ,जन्म देती चंद नई ये ख्वाइशें

कौन कहता है होती नहीं इन ख्वाइशों की जुबान
हर पल टूटती न जाने ,क्या चीखती है ये ख्वाइशें

शायद इन ख्वाइशों और धड़कनों का नहीं कोई रिश्ता
मर जाता है इंसान, पर मरती नहीं है ये ख्वाइशें

लगता इन ख्वाइशों का सच अपनी समझ से परे ‘अरमान’
शायद यही ज़िंदगी है कुछ उम्मीदें और अनंत है ये ख्वाइशें

हम उन लम्हों

March 6, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

हम उन लम्हों की याद को
जेहन में यु संजोये बैठे है
रहकर भी दूर जैसे
आँखों में बसता है कोई
उन लम्हों की सांसें हमें
हरदम चलती नज़र आती है
जो अहसास कराती है अपने
और लम्हो के जीवित होने का
लगता इन लम्हो की धड़कन
रूक जाने से शायद
रुक जाएगी मेरी धड़कन भी
सोचता हूँ क्या बात है खास
उन बीत गए लम्हो में
क्यों इन्हे सजोने की इच्छा
इस कदर रखता हूँ मैं
आखिर क्यों उन लम्हो को
कफ़न ओढ़ा दफ़न नहीं कर पाता
शायद कोई ठोस कारण है इसका
शायद इसे दफ़न नहीं कर पाता इसलिए
क्योकि ये मेरे जीवित होने का
जीवंत भ्रम पालने के लिए
लगता एक अनिवार्य दस्तावेज बन गया है
राजेश ‘अरमान’२३/०७/१९८९

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