हालात फिर बदले

March 6, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

कल भी हम थे ,ये जमीं थी
पर वो पाँव नहीं थे
ढूंढ सकते जो तेरे क़दमों के निशाँ

हालात फिर बदले

इन पाँव को
मिली कोई मंज़िल
जो थी तेरे
पलकों की महफ़िल

हालात फिर बदले

मेरे पाँव ,तुम्हारे पाँव
अब हमारे हो गए
लगने लगे सब बेगाने
तुम इतने हमें प्यारे हो गए

हालात फिर बदले

तुम लौट गए सफर से
मिटाकर उन क़दमों के निशां
जिस राह पर कदम थे मेरे
नहीं थे तुंम्हारे क़दमों के निशां

हालात फिर बदले

हम तुम और मैं हो गए
जमीं रही वही मगर
हम भी रहे ,सफर भी रहा
पर रहा न कोई हमसफ़र

हालात फिर बदले

मैं हूँ मेरे पाँव है
तुम हो तुम्हारे पाँव है
पर तले उसके
वो साँझा जमीं न रही

छोड़ आया थी

March 6, 2016 in शेर-ओ-शायरी

छोड़ आया थी अपनी तन्हाई को भींड में
लुत्फ़ अब ले रहां हूँ तन्हाई की भीड़ में
राजेश ‘अरमान’

अजीब इत्तफ़ाक़ है

March 6, 2016 in गीत

अजीब इत्तफ़ाक़ है

अजीब इत्तफ़ाक़ है
तेरे जाने और सावन के आने का

अजीब इत्तफ़ाक़ है
तेरी चुप और मौसम के गुनगुनाने का

अजीब इत्तफ़ाक़ है
मेरे माज़ी और मेरे मुस्कराने का

अजीब इत्तफ़ाक़ है
तेरे मिलने और मेरे ज़ख्म खाने का

अजीब इत्तफ़ाक़ है
तेरे गेसू और घटाओं के छाने का

अजीब इत्तफ़ाक़ है
तेरे तीर और कहीं चल जाने का

अजीब इत्तफ़ाक़ है
मिल के और ग़ुम हो जाने का

अजीब इत्तफ़ाक़ है
बंद आँखें और ख्वाब टूट जाने का

अजीब इत्तफ़ाक़ है
‘अरमान ‘ तेरे और तेरे अनजाने का

राजेश ‘अरमान’

चलो चुप लफ्जों

March 6, 2016 in ग़ज़ल

चलो चुप लफ्जों को मिल के बाँट लेते है
चल निकले लफ्जों को मिटटी से पाट देते है

वो तेरा कहना मुझे मौसम की तरह
चल तीर को किसी शाख पे गाड़ देते है

वो तेरा मिलना किसी अजनबी जैसे
चल इसे पहली मुलाक़ात का नाम देते है

वो तेरा बारहा जाना फिर रूठ के मुझसे
चल इसे तेरे क़दमों की ख़ता मान लेते है

वो हर बात पे कहना तुम वैसे न रहे ‘अरमान’
चल इसे वक़्त के साथ चलना जान लेते है

न माथे पे

March 6, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

न माथे पे कोई बिंदिया
न हाथों में कोई कंगन
न होठों पे कोई लाली
न पोशाक में तेरी खुश्बू
न जुल्फें सवरी हुई
न माथे पे कोई टीका
न आँखों में काजल
न पैरों में है पायल
न हिना की महक
आ तुझे प्यार करूँ
ज़िंदगी तू सज के तो आ

राजेश ‘अरमान’ १२/११/१९८९

मैं संघर्ष कर रहा हूँ

March 6, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैं संघर्ष कर रहा हूँ
मैं संघर्ष कर रहा हूँ

एक ‘मैं’ हूँ अपने ही जैसा एक ‘मैं’ और भी है
इन दोनों ‘मैं’ में तालमेल बिलकुल भी नहीं
फिर भी मैं रखता हूँ दोनों को अपने साथ
अपने जिस्म में ,रूह की गहराईयों में
कभी एक ‘मैं ‘ मेरा दर्द होता है
तो दूसरा ‘मैं’ दवा बन जाता है
कभी एक ‘मैं’ मेरा दोस्त होता है
तो दूसरा ‘मैं ‘ दुश्मन बन जाता है
इन दोनों ‘मैं’ में से बस एक ही
समय एक ही ‘मैं ‘मेरे अस्तित्व
की परछाई बन दुनिया को दिखता है
मेरे अंदर दो ‘मैं’ रहते है
अस्तित्व केवल एक ‘मैं’ का
आज तक मैं दुसरे ‘ मैं’ को उसका
हक़ नहीं दिला पाया हूँ
क्योकि दोनों में से एक ही ‘मैं’
को मिली है नागरिकता
बस अपराधबोध पनपता है
एक उस दुसरे ‘मैं’ के
नाजायज होने का
अब भी उस दूसरे ‘मैं ‘के लिए
मैं संघर्ष कर रहा हूँ ..
मैं संघर्ष कर रहा हूँ ..

राजेश’अरमान’

गर वाबस्ता हो

March 6, 2016 in ग़ज़ल

गर वाबस्ता हो जाता रूहे-अहसास से जमाना
न कोई शायरी होती न कोई ग़ज़ल होती
गर वफ़ा करने की आदत होती जहाँ में
न कोई शायरी होती न कोई ग़ज़ल होती
गर न तेरे शिकवे होते न शिकायत होती
न कोई शायरी होती न कोई ग़ज़ल होती
अंधे ख्वाबों का न सिलसिला गर होता
न कोई शायरी होती न कोई ग़ज़ल होती
जज़्बे की तौहीन न दिल तार तार होता
न कोई शायरी होती न कोई ग़ज़ल होती
तेरी कलम की रोशनाई सूख जाती ‘अरमान’ गर
न कोई शायरी होती न कोई ग़ज़ल होती
राजेश’अरमान’ 12/04/1991

बिखरे बिखरे ख्वाब

March 6, 2016 in ग़ज़ल

बिखरे बिखरे ख्वाब
सुलगते सुलगते आंसूं
सीने में तूफ़ान
दिल में बस कशिश
काफिले यादों के लम्बे
कोई शै मुकम्मल नहीं
तनहा तनहा सफर
लम्बी लम्बी रातें
न वफ़ा का इल्म
न जफ़ा का तजुर्बा
बस एक गहरी खाई सी जीस्त
उस पर भी सुकु के ,
पंख होते तो उड़ते फिरते
खुली हवा में भी ,
पिंजरे का बंदपन
सांसें भी लेते है ,
खुद पे अहसान जताकर
लगता है सृष्टि रचते वक़्त ही ,
ग़ज़ल भी रच दी गई थी
राजेश ‘अरमान’ १४/०२/१९९०

वर्तमान ही सत्य

March 6, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

वर्तमान ही सत्य बाकी सब मिथ्या है.
भूत तो बिन बाती तेल का दीया है
मत सोच में डुबो, तुझे किसी से क्या मिला
कर हिसाब तूने किसी को क्या दिया है

राजेश ‘अरमान’

फरियाद बन के

March 6, 2016 in ग़ज़ल

फरियाद बन के निकली मेरी वफ़ा तेरी गली में
कौन सुनता मेरे दिल की सदा तेरी गली में

यूँ तो बस आवाज़ हूँ एक बुतखाने की
कौन बख्सेगा यूँ मेरी खता तेरी गली में

दरो-दीवार से लिपटी हुई एक तस्वीर सही
कौन मुड़ के देखेगा यहाँ तेरी गली में

बात दरियां की करों या समुन्दर की
डूब के देखेगा मुझे कौन भला तेरी गली में

मेरी आहट भी मुझे नागवारा गुजरी ‘अरमान’
मेरे सनाटों को सुनेगा कौन भला तेरी गली में
राजेश ‘अरमान’

ग़मे-ए-मुदाम

March 6, 2016 in शेर-ओ-शायरी

ग़मे-ए-मुदाम से इस कदर परेशां न हो ,
सुना है हर गम के पंख भी होते है
राजेश’अरमान’

तेरे साथ गुज़ारे

March 6, 2016 in शेर-ओ-शायरी

तेरे साथ गुज़ारे चंद लम्हों की
जागीर की बस मिल्कियत रखता हूँ
ये अलग बात है खुद को
सबसे अमीर अब भी समझता हूँ
राजेश’अरमान’

वो समझते रहे ताउम्र

March 6, 2016 in शेर-ओ-शायरी

वो समझते रहे ताउम्र, बस एक किस्सा मुझे
हम वहम् में रहे वो समझते है ,अपना हिस्सा मुझे

फरेब खाने की तो तालीम अपनी बड़ी पुरानी है
हम फूलों की तरह मिलते, वो दिखाते काटों का गुस्सा मुझे

राजेश’अरमान’

तूफां मन के

March 6, 2016 in शेर-ओ-शायरी

तूफां मन के अंदर हो या समुन्दर में
लहरें कुछ न कुछ खींच के ले ही जाती है
राजेश ‘अरमान’

मैंने खुद ही

March 6, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैंने खुद ही
खींची लकीरें
अपने दरम्या

मैंने खुद ही
बना दिये
इतने धर्म

मैंने खुद ही
सीखा दिया
भूर्ण को छल कपट

मैंने खुद ही
गिरा दिए
अपने संस्कार

मैंने खुद ही
मिटा दिए
अपने हर्ष को

मैंने खुद ही
बना लिए
खाली मकान

मैंने खुद ही
जला दिए
अपने सपनो को

मैंने खुद ही
ओढ़ लिए
कई चेहरे

मैंने खुद ही
सब किया है
अब तक

मैंने खुद ही
रचा है
अतृप्त रंगमच

मैंने खुद ही
सजाये है
सूनी सेज

मैंने खुद ही
बहाये है
आँखों से नीर

मैंने खुद ही
नहीं माना
खुदको दोषी

क्या हो अंत
इस खुद का
जो है अनंत

जिजीविषा के
इस मायावी
अंतर्मन को

किसी की नहीं
दस्तक चाहिए, बस ,
अपने खुद की

राजेश’अरमान’

बंदगी तेरी

March 6, 2016 in शेर-ओ-शायरी

बंदगी तेरी यूँ मेरे काम आ गई
अब किसी दुआ की जुस्तजू न रही

राजेश’अरमान’

मन की चेतना

March 6, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

मन की चेतना
आत्मा की वेदना
सत्य का भेदना
अधीर प्रश्न
बुझे उत्तर
बिलखते प्रश्नचिन्ह
निष्कर्ष कुंठित
आज का आदमी

राजेश ‘अरमान’

आँखों में रखा

March 4, 2016 in ग़ज़ल

आँखों  में रखा बुलंदिओं का जोश है
 यहाँ हर इंसा खुद में   मदहोश है

वहां से निकल तो आया था जहाँ शोर था
कैसे निकलू जो अपने ही अंदर सरफ़रोश है

कौन सी दुनिया को कोसते हो जी भर के
कौन नहीं  भला यहाँ अहसान-फरामोश है

न हवाओं न फ़िज़ाओं का कोई कसूर यहाँ
हर शख्स अपनी ही दौड़ का सोता खरगोश है

                               राजेश’अरमान’

aankhon mein rakha

March 4, 2016 in ग़ज़ल

aankhon mein rakha bulandion ka josh hai
 yahan har insaa khud mein  madhosh hai

wahan se nikal to aaya tha jahan shor tha
 kaise nikaloon jo apne hi ander sarfarosh hai

kaun si duniya ko koste  ho jee bhar ke
kaun nahin bhala yahan ahsaan-faramosh hai

na hawaon na fizaon ka koi kasoor yahan
har shaksha apni hi daud ka sota khargosh hai

                  rajesh’armaan’

हासिल कुछ भी

March 4, 2016 in शेर-ओ-शायरी

हासिल कुछ भी नहीं नफरतों से
क्यों खेलते हो फिर जज्बातों से
जब इंसा ही इंसा का दुश्मन हो
क्या मिलेगा किसी को इबादतों से
                    राजेश’अरमान’

कमबख्त दिल

March 4, 2016 in शेर-ओ-शायरी

कमबख्त दिल सब समझता है
     खुद  दिल से दूरियां रखते है
वज़ूद  सामने होता है लेकिन
      खुद को बहरूपिया रखते है
                राजेश’अरमान’

जिनके आने से पहले

March 2, 2016 in शेर-ओ-शायरी

जिनके आने से पहले, मौसम का गुमाँ हो जाता था
आज वो खुद ही हो गए, इक मौसम की तरह
राजेश’अरमान’

इम्तिहाँ लेते है वो

March 2, 2016 in शेर-ओ-शायरी

इम्तिहाँ लेते है वो कुछ इस अंदाज़ से
आता हुआ जवाब भी हम भूल जाते है
राजेश’अरमान’

अब भी मेरा नाम

March 2, 2016 in ग़ज़ल

अब भी मेरा नाम उनके अपनों में शुमार है
उनके हाथों के पत्थर को मेरा इंतज़ार है

ये चादर जरा आहिस्ते से संभल कर ही हटाना
ये फूलों से नहीं ,चुभते काटों से सजी मजार है

वो नाम भी मेरा लेते है और कसम भी खाते है
हम तो पहलू में उसके मिटने को कब से तैयार है

यक़ीनन उसके इरादों पे कोई शक नहीं मुझे
भरे ज़ख्मों को भी हिला देंगे मुझे ऐतबार है

अभी तो इब्तिदा है तेरे सितम की ‘अरमान’
तेरे सहने को पड़े कतार में अभी गम हज़ार है

अब भी मेरा नाम उनके अपनों में शुमार है
उनके हाथों के पत्थर को मेरा इंतज़ार है

राजेश’अरमान’ २१/०४/2012

सब कुछ है जहाँ में

March 2, 2016 in ग़ज़ल

सब कुछ है जहाँ में ,बस यहाँ किल्लत कुछ और है
ज़िंदगी तुझे जीने के लिए ,बस जिल्लत का दौर है

आईने ने कब माफ़ की है ख़ता किसी गुनाहगार की
और हमें सच बोलते आईनों की इल्लत से बैर है

देखिये उस तरफ फिर कोई मकां जल रहा है
शायद वहीँ अपने अपने हिस्से की आदमियत का शोर है

हर्फ़ निकलते ही लब से, बन जाते है अफ़साने कई
कौन देखेगा यहाँ किस अफ़साने से मिटा कोई दौर है

चल कोई ऐसी फिज़ा इफ़्फ़त भरी तलाश करें ‘अरमान’
या तो पहले ही से फैला फिज़ाओं में हर तरफ जहर है

राजेश ‘अरमान’
इफ़्फ़त= शुद्धता, पवित्रता
इल्लत= दोष, बुरी आदत,

आराईश अपने अंदर

March 2, 2016 in ग़ज़ल

आराईश अपने अंदर की तो हम अब खो चुके है
तलाश आलम की करते फिरते रहने को नासबूर है

परस्तिश बन्दे की हो या फिर ख़ुदा की हो
बस कुछ न कुछ मांगने का अजीब सा दस्तूर ह

तिरा हर फैसला निकलता है सिर पे पत्थर की तरह
कोई मेरे हक़ में भी हो ,जिसे मैं भी कहूँ मंजूर है

या के इन परिंदो के आसमां में भी कोई पिंजरे न सजा दे
ताक के इनको उड़ता है कोई ,जो अपने पंख से मजबूर है

इस तस्सली के दरिया में कब तक रहे ‘अरमान’
मेरे हिस्से का भी बना कोई समुन्दर कहीं जरूर है

राजेश’अरमान’

मेरी खिड़की से

March 2, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

मेरी खिड़की से
कोई ख्वाब निकल
फिर खो गया
इन हवाओं में
अब मैं खिड़की
बंद रखने लगा
अब ख्वाब आते है
भागते भी नहीं
बस इक घुटन सी
फैलती है उनके
साथ रहने से

हवा सी चीज़ है
ये ख़्वाब भी
बस महसूस होते है
इन्हे मुठी में
जकड नहीं सकते
ख्वाब हवाओं में ही
रहने को बने है
अब फिर मैंने
खिड़की खोल दी है
राजेश’अरमान’

आए न रास किश्तों के क़त्ल

March 2, 2016 in ग़ज़ल

आए न रास किश्तों के क़त्ल ,क़त्ल हो तो एक बार हो
मेरे क़ातिल दुआ मेरी ,तेरे खंजर की न खत्म कभी धार हो

देते है खुद को धोखा ,औरो के फरेब से क्या बच पाएंगे वो
अपने गिरेबां में झाकने से जो गुरेज करें,वो खुद से क्या शर्मशार हो

चल के बैठे फिर उस महफ़िल पे क्यों गैरत के खिलाफ
उस महफ़िल कभी न जाना जहाँ तेरे वज़ूद की मजार हो

तिनके तिनके से बिखर जाते है न जाने क्यों ये नशेमन
किसी नशेमन का इन आंधिओं से इस कदर न प्यार हो

आ लेके चल खाक अपने सफर की निशानी समझ ‘अरमान’
ना जाने किस मोड़ पे आके , यही खाक तेरी ग़मगुसार हो

राजेश ‘अरमान’

अनंत की खोज

March 2, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

अनंत की खोज

व्याकुल सा कण कण
मन चंचल अपार चिंतन
जिजीविषा मृतप्राय
अपने होने का अभिप्राय
एक खोज अनंत की
निष्कर्ष मरीचिका
एक खोज मोक्ष की
निष्कर्ष अज्ञात
एक खोज सृष्टि की
निष्कर्ष मौन
मोक्ष किसका
निष्कर्ष शून्यता का
राजेश’अरमान’

वो इतना ही कह सका

March 2, 2016 in ग़ज़ल

वो इतना ही कह सका था तुझसे रुखसत पे
जान हाज़िर है तेरे वास्ते तेरी निस्बत पे

बाग़ की रौनके पूछिए उस बागबाँ से
जिसने खिलाये है फूल तेरी चाहत पे

कौन समझा है इन हवाओं के रुख को यहाँ
इख्तियार नहीं है इन हवाओं के आक़िबत पे

हर्फ़ निकले लबों से ,ज्यों जां निकलती है
जब तेरी बेरुखी को सजाया था अपनी आदत पे

लो फिर छेड़ दी दास्ताने-हिज़्र तुमने ‘अरमान’
क्या हो जाता है हासिल तुझे खुद की उक़ूबत पे

वो इतना ही कह सका था तुझसे रुखसत पे
जान हाज़िर है तेरे वास्ते तेरी निस्बत पे

राजेश ‘अरमान’
उक़ूबत= दंड, सजा, उत्पीड़न, यातना
आक़िबत= अन्त, परिणाम, भविष्य
निस्बत= सम्बन्ध, स्मोह, सम्बन्ध लगाना,

दर्द के चरागों को बुझने का

March 1, 2016 in ग़ज़ल

दर्द के चरागों को बुझने का कोई बसेरा दे दो
ग़ुम हुए लोगों को कोई इक नया चेहरा दे दो

इन सुर्ख आँखों का कसूर तुम्हारा हिस्सा है
इन आँखों को तुम कोई ख्वाब सुनहरा दे दो

न शजर, न कोई शाख, न पत्तों का कसूर
अपने बाग़ों को बस थोड़ा सा चेहरा दे दो

छोटी छोटी बातों से क्यों जख्म रोज़ देते हो
एक बार ही कोई ज़ख्म मुझे गहरा दे दो

निस्बत कुछ ज़माने से यूँ निभाए न कोई
हर रिवाज़ों पे ज़माने का कोई पहरा दे दो

चीखें सुनकर भी वो खामोश से बैठे है
काश मुझे साथी कोई बहरा दे दो

समुन्दर न मिला कोई बात नहीं
दिल बहलाने को कोई सेहरा दे दो

हर तरफ बदलने का गर्म बाजार ‘अरमान’
ले के पुराना कोई नया गम ठहरा दे दो
राजेश ‘अरमान’

दर्द के चरागों को

March 1, 2016 in ग़ज़ल

दर्द के चरागों को बुझने की कोई हवा दे दो
ग़ुम हुए लोगों को लौटने का कोई पता दे दो

इन सुर्ख आँखों का कसूर इतना तुम्हारा हिस्सा है
इन आँखों को तुम कोई ख्वाब सुनहरा दे दो

न शजर, न कोई शाख, न पत्तों का कसूर
अपने बाग़ों को बस थोड़ा सा चेहरा दे दो

छोटी छोटी बातों से क्यों जख्म रोज़ देते हो
एक बार ही कोई ज़ख्म मुझे गहरा दे दो

निस्बत कुछ ज़माने से यूँ निभाए न कोई
हर रिवाज़ों पे ज़माने का कोई पर्दा दे दो

हर तरफ बदलने का गर्म है बाजार ‘अरमान’
ले के पुराना मुझे कोई नया गम दे दो
राजेश ‘अरमान’

है तो इंसा ही हम

March 1, 2016 in ग़ज़ल

है तो इंसा ही हम कोई खुदा नहीं है,
गुस्ताखिओं की और कोई वज़ह नहीं है

गिरते झरने से, अच्छे लगते है उड़ते परिंदे
पर मेरा अक्स ये जमीं है कोई आस्मां नहीं है

यूँ तो रखते है हम भी बेइंतेहा पाक नज़र
पर वज़ूद खाक है ,किसी मस्जिद की चौखट नहीं है

सरफ़रोश हो भी जाते गर गमजदा न होते
पर तुझ पे मिटना भी सरफ़रोशी से कम नहीं है

गर्दिश-ऐ -मुदाम से हम हो गए इतने आज़र्दाह
आब-ए-आईना हूँ ,पर अपनी ही सूरत नहीं है

हमने ढोये है जिनके इलज़ाम अपने सिर पर
अब उनके किस्सों में मेरा नाम तक नहीं है

कल जो गुजरी वो रात बहुत लम्बी थी
बात तन्हाई की है , एक रात की नहीं है

अबद से टूटे कई शीशे ज़माने के पत्थरों से
हम खुद हो गए पत्थर अब कोई शीशा नहीं है

ले के बैठे रहे ताउम्र वसीयत में वफादारी ‘अरमान’
लोग कहते के, ये इस ज़माने का आदमी नहीं है

राजेश’अरमान’
अबद=अनन्तकाल
आब-ए-आईना= दर्पण की चमक
आज़र्दाह= उदास, दु:खित, खीजा हुआ, व्याकुल,बेचैन

मेरे अस्तित्व

March 1, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

मेरे अस्तित्व
के इर्दगिर्द
बैठे है
कई जाल मकड़ी के
भेदना असंभव
मगर प्रयास अनवरत

मेरे सत्य
के इर्दगिर्द
बैठे है
असत्य के पंछी
उड़ाना असंभव
मगर प्रयास अनवरत

मेरे मन
के इर्दगिर्द
बैठे है
अहंकार के पशु
भगाना असंभव
मगर प्रयास अनवरत

मेरे कामना
के इर्दगिर्द
बैठे है
भाग्य के दानव
हटाना असंभव
मगर प्रयास अनवरत

मेरी आत्मा
के इर्दगिर्द
बैठा हूँ
मैं स्वयं
निहारना संभव
पर प्रयास अतृप्त

राजेश’अरमान’

अनुभूति से ओतप्रोत

March 1, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

अनुभूति से ओतप्रोत
जीवन चलता है

जैसे कोई लहर
जैसे कोई झोँका
जैसे कोई मौसम
बस अनुभूति
ही तो है
अनुभूति से परे
अपने भीतर का
अपने मन का
अपने अंतर्द्वंद का
कोई नाता होता है
किन्तु बिखरा बिखरा
किन्तु टूटा टूटा
इस टूटे टूटे को
जोड़ना जोड़ना होगा
पंछी को खुले आकाश
पे उड़ने के लिए छोड़ना होगा
कहीं पिंजरे में
रहकर कोई पंछी
आकाश को नाप सकता है
नापना आकाश का
उतना अनिवार्य नहीं
जितना अपने को नापना
लहर का अपना
स्वभाव होता है
हिलोरे मारना
महज एक क्रिया नहीं
एक जीवन्ता है
उसके और प्रकृति
के मध्य का सम्बन्ध
क्या कोई सम्बन्ध
इस शरीर का प्रकृति से
स्थापित किया है
इस शरीर के
तत्वों को आलोकित किया है
शब्द मौन
पर ये मौन
अपराधबोध से ग्रस्त
कभी इस मौन
की गूँज से
हो जाओं न
व्यथित असीमित
स्पर्श स्वयं का
कर दे भयभीत

अनुभूति से ओतप्रोत
जीवन चलता है

राजेश’अरमान’

तुम एक परिणाम हो

March 1, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

तुम एक परिणाम हो
तुम क्रिया नहीं हो
सृष्टि एक क्रिया
है जो रची गयी है
रचने की क्रिया
एक अलोकिक सत्य है
प्रकृति ,पानी .वायु ,अग्नि
सब परिणाम है
बस तुम्हारी तरह
तुम भयभीत क्यों हो ?
परिणाम के पश्चात
कुछ नहीं होता
न भय ,न प्रश्न
सृष्टि जब -जब
रची जाएगी
तब-तब तुम
उसके परिणाम होगे
क्योकि?
तुम एक परिणाम हो

राजेश’अरमान’

गैरों से क्या करें

March 1, 2016 in शेर-ओ-शायरी

गैरों से क्या करें शिकायत
अपनों से ही मिली तिज़ारत
रूसवाइयां तेरी साथ लेकर
कर लेंगे इस जहाँ से रुखसत
राजेश ‘अरमान’

सहारे बदल गए

March 1, 2016 in ग़ज़ल

हम भी है तुम भी हो ,पर ये सहारे बदल गए
लहरें तो वही है मगर ये किनारे बदल गए

लोग पत्थर के बन गए है , ,दिल हमारे है आईने
हम तो अब भी वही मगर ये हमारे बदल गए

कल तक महका करती थी बगियाँ ये फूलों से ,
माली तो वहीँ मगर चमन के नज़ारे बदल गए

इस ईमारत की बुनियाद तो अब भी है बुलंद
बस रहने वालों के हाथों के इशारे बदल गए

यादों के दिए आखिर कब तक जलाये ‘अरमान’
अफ़सोस तेरे बदलने का यूँ तो सारे बदल गए

राजेश’अरमान’
२७/०७/१९९०

गर निकल पड़े जो सफर को

March 1, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

गर निकल पड़े जो सफर को
देख मुड़ के न फिर डगर को

आएँगे यूँ तो कई विघ्न
पड़ेंगे देखने कई दुर्दिन
हौसला हो साथ अगर
हो जायेंगे ये छिन-भिन्न

तट से जो भटक गई हो,
तो दो मोड़ उस लहर को

गर निकल पड़े ———

गर काली रात हो सामने
बढ़ाओ हाथ अंधेरों को धामने
देंगे फिर घुटने टेक
दो पल के ये है पाहुने

गर डस ले सर्प कालरूपी
उगल डालो उस जहर को

गर निकल पड़े ——–

गर फस जाएँ तूफा में कस्ती
लगने लगे मौत जीवन से सस्ती
अगर ठान लो जूझने की ,
फिर इस तूफा की क्या है हस्ती

पा लोगे अपने किनारे
कर परास्त इस भवर को

गर निकल पड़े ——

क्यों हो ढूँढ़ते उत्तम अवसर
होता आया है यही अक्सर
जिसने किया इंतज़ार इसका
प्रयास उसका वहीँ गया ठहर

गर हो प्रतिकूल समय तो
बदल डालो उस पहर को

गर निकल पड़े जो सफर को
देख मुड़ के न फिर डगर को

राजेश’अरमान’
२७/०७/१९९०

निकला ढूंढने

March 1, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

निकला ढूंढने
अपने दुश्मन को
कोई मिला नहीं
टटोला जो अपने
मन को
पहचान गया
अपने दुश्मन को
राजेश ‘अरमान’

तुम महज एक तस्वीर हो

March 1, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

तुम महज एक तस्वीर हो

मैं जानता हूँ कि,
तुम महज इक तस्वीर हो
ओर उससे आगे कुछ भी नहीं
मगर दिल ये कहता है
तुम महज इक तस्वीर नहीं हो

सुना था तस्वीरें बोला नहीं करती
पर तुम क्यों बोलती हो
क्यों मेरे निहारने से तुम्हारी
तस्वीर का रंग सूर्ख हो जाता है
क्यों कन्खिओं से देखते
तस्वीर का रुख बदल जाता है
तुम महज इक तस्वीर नहीं हो

क्यों मेरा आँगन भरा रहता है फूलों से
जो तेरे हसने से झरते है
जबकि मैं जानता हूँ
मेरे आँगन में
कोई पौधा नहीं लगा है
किसी भी फूल का
तुम महज इक तस्वीर नहीं हो

क्यों तुम्हारी बिखरी जुल्फें
ललाट को चूमती हुई
पूरे चेहरे को स्पर्श करती है
एहसास कराती किसी घटाओं का
घिर आये बादलों का
तुम महज इक तस्वीर नहीं हो

क्यों कानो में घोलती माधुर्य रस
तुम्हारी चूडियों की खनखन
बिखर जाते असंख्य प्रसून
तेरे अधरों के प्रस्फ़ुट कम्पन se
ज्योति को परिभाषित करती
तेरे माथे की बिंदिया
तुम महज इक तस्वीर नहीं हो

कविता हो तुम मेरी कल्पना की
या फिर हो मेरे होठों की ग़ज़ल
कपोलों पर छवि शशि की ,
जैसे झील में खिला हो कँवल
क्यों देख इस कंचनकाया को
हो जाती है साँसें प्रबल
तुम महज इक तस्वीर नहीं हो

क्यों मदहोश कर देती
तेरी चारूं देह की भीनी सुगंध
क्यों देखने से लगता तुझे
पतझड़ भी ,मदमाया मौसम
कब तक रखें कोई
अपने चंचल मन में संयम
तुम महज इक तस्वीर नहीं हो

क्यों देती है तेरी अधखुली पलके
सुधापान का मौन निमंतरण
क्यों न करदे तुझ पे
अपना सारा
जीवन अर्पण
तुम महज इक तस्वीर नहीं हो

तुम महज एक तस्वीर हो
इसका भी मुझे एहसास है
तुम महज एक तस्वीर नहीं हो
इसका भी मुझे विश्वास है

मैं जानता हूँ तुम नहीं ,
मेरे हाथों की लकीर हो
फिर भी कैसे कर लूँ यकीं

तुम महज एक तस्वीर हो

तुम महज एक तस्वीर हो

मेरे ज़ख्मों का खाता

March 1, 2016 in ग़ज़ल

मेरे ज़ख्मों का खाता इक दिन नीलाम हो गया
दुश्मनों को मिला न हिसाब और इन्तेक़ाम हो गया

वाबस्ता थे जिन चेहरों से ,जो थे मेरे रात दिन
उनके चेहरों का रंग सारे शहर में सरे-आम हो गया

कब तलक छुपती है किसी चेहरे पे पड़ी नक़ाब
मेरे क़ातिल का खुद-ब-खुद क़त्ल -ऐ -आम हो गया

उसकी गैरत से कब भला मेरा वास्ता न था ,
उसकी निगाहों में मेरा और कोई इंतज़ाम हो गया

सुर्खिआं अखबार की बन जाओगे क़त्ल कर भी ‘अरमान’
तिरी नादानिओं का देख कैसा बद अन्जाम हो गया

राजेश ‘अरमान’

टूटे अल्फ़ाज़ों को

February 29, 2016 in ग़ज़ल

टूटे अल्फ़ाज़ों को  नसीहत की जरूरत क्या
 बिखरे ख्वाबों को किस्मत की जरूरत क्या

  जो बिक गया खुद ही  सरेआम बाज़ारों में
 फिर   इंसान की कीमत की जरूरत क्या

  हर इक शै का मुक़द्दर जब मुक़र्रर है
  लहूँ में लिपटी वसीयत की जरूरत क्या

 मैंने खुद ही जो इलज़ाम उठा रखे थे
फिर ज़माने को  हक़ीक़त की जरूरत क्या

                                 राजेश’अरमान’

समझते सब है

February 29, 2016 in शेर-ओ-शायरी

समझते  सब  है पर मानता कोई नहीं
    पहचान सब से है पर जानता कोई नहीं
  यूँ तो पड़ा हूँ खुली किताब की तरह
     पढ़े लिखे  सब है पर बांचता कोई नहीं

                          राजेश’अरमान’

एक वो बचपन

February 28, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

 एक वो बचपन था अल्हड सा
 आज तो सावन भी है पतछड सा
 थक गए ढूँढ़ते अब तो पल वो प्यारे
 खुला आसमान भी मिला पिंजरे सा
कोई वज़ह नहीं थी कभी दौड़ने की
 अब तो चलता भी हूँ दौड़ने सा
 कहाँ छूट गए वो सुहाने दिन
 था जीवन  फूलों की तरह महका सा
                  राजेश ‘अरमान’

उठे जब भी सवाल

February 28, 2016 in ग़ज़ल

उठे जब भी सवाल ज़िंदगी की तरफ
उठे है हाथ मेरे तेरी बंदगी की तरफ
महज इत्तफ़ाक़ था या और कुछ
मेरा इशारा है दिल्लगी की तरफ
वो हर जगह जो मोज़ू था मगर
नज़र पड़ी बस आवारगी की तरफ
उन किताबों से हासिल भला क्या
बढते है कदम किस तिश्नगी की तरफ
इन्तहा हुई हिस्सों में बटते बटते
अब चलें किसी पाकीज़गी की तरफ
राजेश’अरमान’

हर शख्स बस

February 28, 2016 in शेर-ओ-शायरी

 हर शख्स बस अपने ही ख्याल बुनता है
 जिसका जवाब नहीं वही सवाल चुनता है

  कोई कैसे कहे वो गुमसुम सा  क्यों है
 जिसे  भी देखिये अपने ही जाल बुनता है

                                   राजेश’अरमान’

याद है आज भी वो दिन

February 23, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

याद है आज भी वो दिन
जब किताब के बीच
कोई फूल दबा देते थे
और खाली लम्हों को
उस सूखे फूल से महकाया करते थे

याद है आज भी वो दिन
किताबों के पन्नें मोड़ देते थे
इक निशानी के तौर पर क़ि,
फिर कहाँ से शुरू करना है
याद रखने के लिए

याद है आज भी वो दिन
कुछ जरूरी अध्याय को
रेखांकित कर देते थे
ज्यादा ध्यान लाने के लिए
रंगों से सजा देते थे
किताबों के जरूरी पन्नें

याद है आज भी वो दिन
बिखर जाती थी रोशनाई
इन किताबों पर और
चाक के टुकड़े से सोखते थे
स्याही के धब्बों को, कहीं
धब्बों का अक्स न पड़ जाये

अब के दिन याद नहीं रहते
सुना था ज़िंदगी भी
एक किताब होती है
बस किताब समझ कर
जीने लगे ज़िंदगी
और बस कुछ न समझा

अब के दिन याद नहीं रहते
ज़िंदगी की किताब के
दबे पन्नो में मुरझाये फूल से
ख़ुश्बू नहीं मिलती ,सच तो ये
ताज़े फूलों की खुश्बूं भी
लगता कोई चुरा ले गया

अब के दिन याद नहीं रहते
ज़िंदगी के जरूरी अध्याय
के पन्नो को मोड़ तो दिया
पर ज़िंदगी को फिर कहाँ से
शुरू करना है ये पता ही नहीं
बस पन्नें मुड़ते ही जा रहे है

अब के दिन याद नहीं रहते
रोशनाई बिखर गई है
ज़िंदगी के बिखरे पन्नो पर
कोई चाक इसे सोख नहीं पाती
इनके धब्बों का अक्स गहराता हुआ
कई पन्नो पर निशां छोड़ गया है

अब के दिन याद नहीं रहते
ज़िंदगी के जरूरी अध्याय को
रेखांकित करता रहा
अलग अलग रंगों से
पर इस पर ध्यान नहीं जाता
अरेखांकित भाग पर ही
ध्यान टिक जाता है

अब के दिन याद नहीं रहते
मैं तुम्हे इक किताब समझ
जीने लगा था ,पर तुम निकली
मेरे बिखरे पन्नें ,जिस में कोई फूल
दबा कर मैं रख नहीं पाया

ज़िंदगी तुम किताब नहीं
बस बिखरे पन्नें हो
बस बिखरे पन्नें
जिसे बस समेटता
फिर रहा हूँ रात दिन

याद है आज भी वो दिन, पर
अब के दिन याद नहीं रहते

राजेश’अरमान’

अजी कैसा विकास करते हो

February 23, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

अजी कैसा विकास करते हो
छलों को बाहुपाश करते हो

जिन पेड़ो से मिलती है साँसें
उन पेड़ों का विनाश करते हो

हर चीज़ है, पर समय नहीं
ख़ुदकुशी का क्यों प्रयास करते हो

मौन होकर बैठा है घर और
उस पर क्यों मौन उपवास करते हो

ठिठक कर सोई है ज़िंदगी
दीवारों से क्यों उल्हास करते हो

मुठी बंद कर क्यों बैठे हो
रेखाओं का उपहास करते हो

गर तुम ने जहाँ जीता है
मन फिर क्यों उदास करते हो
राजेश’अरमान’

कोई कोना जिस्म का

February 23, 2016 in शेर-ओ-शायरी

कोई कोना जिस्म का
उड़ के बैठा किसी कोने में
अब सफर साँसों का गुजरता है
कभी जिस्म में कभी, किसी कोने में
राजेश’अरमान’

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