Ushesh Tripathi
कहते तो खुद को आशिक-ए-पर्वरदिगार थे,
December 29, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
आसमाँ तले जो बैठे हैं चाँदनी के मुन्तजिर,
आपकी जुल्फ़ों में चाँद के आसार ढ़ूढ़ते हैं!!
कल तलक जो जीते थे फकीराना सी जिन्दगी,
हर ओर आज वो ही घर द्वार ढ़ूढ़ते हैं!!
खुद के साये से भी जो डरते थे शब-ए-श्याह,
आज आपके साये में संसार ढ़ूढ़ते हैं!!
कहते तो खुद को आशिक-ए-पर्वरदिगार थे,
फिर हर सम्त छुपने को क्यों दीवार ढ़ूढ़ते हैं!!
शजर जो काट देते थे बीज बोने से पहले ही,
छाँव की खातिर ही क्यों बाग बारम्बार ढ़ूढ़ते हैं!!
जिन्दगी भर भटका किये राह-ए-उम्मीद में,
October 7, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
जिन्दगी भर भटका किये राह-ए-उम्मीद में,
कभी पहुँच ही ना पाये दयार-ए-हबीब में,
शाम ढ़ल गयी और हम यूँ ही बैठे रह गये,
वो आये और जा बस गये निगह-ए-अंदलीब में,
क्या खता खुदा की क्या उनकी खता थी,
जब लिख दिये हो किसी ने ग़म-नसीब में,
जब वो अक्स-ए-रूख थे देख रहे मेरे रकीब में,
हम पूँछते ही रह गये क्या कमीं थी मुझ गरीब में,
वो आके हमसे पूछते क्या हो किसी तकलीफ में,
हम घुट घुट के यूँ ही मर गये हिज्र-ए-हबीब में,
आ कि तुझ बिन बज्म-ए-यारों में
September 29, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
आ कि तुझ बिन बज्म-ए-यारों में भी घबराता हूँ मैं,
अपनों की महफिल में खड़ा गैर हो जाता हूँ मैं,
बिन तेरे सारा जहाँ नाशाद सा लगता मुझे,
सू-ए-मंजिल से दफ्अतन यूँ ही भटक जाता हूँ मैं,
‘ना जाने क्यों उन्होंनें जिन्दगी ही नाम कर दी
August 7, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
मैं उनसे चन्द पल की ही तो मोहलत माँगता था,
ना जानें क्यों उन्होंनें जिन्दगी ही नाम कर दी हैं,
मैं सोया हूँ नहीं दिन रात जबसे देखा हैं उनको,
निगाह-ए-इल्तिफातों में सुबह से शाम कर दी हैं,
उसी कूचे में रहता हूँ जिधर से तुम कभी गुजरीं,
हिकायतें इस कदर फैली मुझे बदनाम कर दी हैं,
बज्म़ यारों की कभी लगती थी जहाँ कल तक,
आज उस चौखट को मयखाने के नाम कर दी हैं,
पैरहन तक हैं तेरे ही नाम के अब तो,
जियाद़ा कुछ नहीं बदला बात ये आम कर दी हैं,
कभी शायर नहीं था मैं कभी नज्में नहीं लिखी,
दर्द दिल में ज़रा उठा आवाज-ए-अवाम कर दी हैं,
“ढ़ूढ़ता हूँ”
July 19, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
ना जाने किस भँवर में हूँ इक ठिकाना ढ़ूढ़ता हूँ,
जिन्दगी जी लूँ ज़रा सा बस फ़साना ढ़ूढ़ता हूँ,
प्यार की कश्ती में लगता डूबता ही जा रहा हूँ,
मौत से मिल जाऊँ इक दिन बस बहाना ढ़ूढ़ता हूँ
“आँखें”
July 11, 2016 in ग़ज़ल
मन की बात खुदा ही जानें आँखें तो दिल की सुनती हैं,
जिनसे पल भर की दूरी रास नहीं उनसे ही निगाहें लड़ती हैं,
दिल भँवर बीच यूँ फँस जाता साँसें भी मुअस्सर ना होतीं,
आँखो आँखों के खेल में बस हर रोज सलाखें मिलती हैं,
बज्म-ए-गैर में जब जब दिल-आवेज़ नज़र कोई आता हैं,
बयान-ए-हूर में उनके येें आँखें ही कसीदें पढ़ती हैं,
रंज-ए-गम के अय्याम यूँ ही हँसते हँसते कट जाते हैं,
बिस्मिल की गफ़लत आँखें जब महफिल में नगमें बुनती हैं,
खाना-ए-गुल-ए-ना-शाद में गर कुछ भी उधारी रह जाता,
इक तार-ए-नज़र भर से ही ये आँखें तक़ाजे करती हैं,
ये प्यार हटा दो तुम दिल से कहीं धोखा ये दे जाये ना
July 9, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
ये प्यार हटा दो तुम दिल से कहीं धोखा ये दे जाये ना,
कसमों वादों और बातों में कहीं रात गुज़र ये जाये ना,
सच बोलूँ तो है प्यार बहुत कहीं आँखों से छलक ये जाये ना
दिल से दिल की इन बातों में कहीं दिल ही बिखर ये जाये ना
बड़ी देर से मैं भी मुन्तजिर हूँ बड़ी देर लगा दी आनें में,
गर इतनी देर लगाओगे तो जान निकल ये जाये ना,
इस रंग भरी दुनिया में तुम बेरंग नज़ारे ना देखो,
इन आँखों को तो तुम ढ़क लो कहीं घायल ये कर जाये ना,
ये अदा है ज़हर है या रूप नया इस बात को ज़रा बता जाओ
यूँ होठ दबाओं ना दाँत तले कहीं जंग अभी छिड़ जाये ना,
पसे-मर्ग ना पढ़ो कसीदा तुम ये दोज़ख में हमें सतायेंगे,
पर्दा कर लो तुम चेहरे पर कहीं चाँद भी शर्मा जाये ना,
गैरों से नहीं हैं पर्दा गर तो हम से ही ये शर्माना क्यों,
यूँ छुप छुप कर ना देखो यार हमें कहीं प्यार हमें हो जाये ना
उँगली थामों या हाथ पकड़ दरिया-ए-इश्क तुम पार करो,
बर्षों से मुसाफिर भटक रहा कहीं राह भूल ये जाये ना,
“वतन-परस्ती”
June 10, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
वतन परश्ती के लिये कोई हिन्दू कोई मुसलमाँ नहीं होता ,
जिधर भी देखो हर वक्त मौजूद भगवान नहीं होता,
ज़रा नफरत की आग तो बुझाओ हर तरफ तुम्हें यही पैगाम दिखेगा,
जिस जिस के दिल में भी तुम झाकोगे बस हिन्दुस्तान दिखेगा,
“ना तो इन्कार करते हैं ना ही इकरार करते हैं”
May 30, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
ना तो इन्कार करते हैं ना ही इकरार करते हैं,
मेरी हर अताओं को सरज़द स्वीकार करते हैं,
हया की तीरगी को वो नज़र से खा़क करते हैं,
भरी महफिल में भी मुझसे निगाहें चार करते हैं,
मेरी हर अजाँओं को निगाह-ए-पाक करते हैं,
मेरे हर अल़म को भी जलाकर ऱाख करते हैं,
अहद-ए-हवादिश में भी तबस्सुम-जा़र करते हैं,
मेरी हर सदाओं को सुपुर्द-ए-ख़ाक करते हैं,
कैद-खानें में ही सही मेरे तिमसाल से,
वो गुफ़्तगू दो चार करते हैं,
बन्द आँखों से कुछ भी दिखाई नहीं देता
May 27, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
कहो कोई तो कि आज फिर से शाम हो जायें,
मजबूर हूँ बन्द आँखों से कुछ भी दिखायी नहीं देता,
मैं सन्नाटे में क्यों कर बोलता रहता,
मेरे अल्फ़ाजों को भी क्या कोई गवाही नहीं देता,
कब्ज़ा हो गया लगता इबादतगाह पर फिर से,
तभी हर फरियाद पर कोई सलामी नहीं देता,
अल्फाजों सा बरसोंगें या अब्रों सा थमोगें तुम,
छतरी ले ही लेता हूँ कि मेरी जान का कोई दिखायी नहीं देता,
रफ़्ता रफ़्ता चलो कि शहर अन्जान हैं ,
कौन शागिर्द है कौन जाबिर यहाँ मिलते ही हर कोई दुहाई नहीं देता,
चश्म-ए-तर हैं सभी अंजुमन में यहाँ ,
ज़रा गौर से देखो सब यूँ ही हँसी चेहरों से तो जताई नहीं देता ,
‘मौसम और वो’
May 17, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
काली घटायें हैं बादल में ,
धीमी हवायें हैं सागर में ,
भीनी सुगन्ध है माटी की ,
करती आकर्षित घाटी को,
तुम कहाँ छुपे हो इस पल में ,
जब पुरानी यादें हैं आँचल में,
अब काली घटायें भी नहीं रहीं ,
सागर भी उठ के सिमट गया,
जाने वाले सब चले गये ,
पर याद तेरी क्यों जाती नहीं,
हवायें थी घटायें थी ,
थी तेरे न होने की तन्हाई भी ,
आवाम भी थी आवाज भी थी ,
थी हवाओं की पुरवाई भी ,
कुछ बेगाने थे कुछ अपने थे ,
थे उनमें सिमटें कुछ सपने भी,
मन की सुन्दरता भी थी, तन में व्याकुलता भी थी, मन व्याकुल था तुझसे मिलने को, तेरे ख्वाबों में मर मिटने को, तेरे दीदार का साया था मुझपे, संसार समाया था तुझमें, जग को पाने की रार नहीं , तेरे जाने से हार हुई, अब इस पल में तुम कहाँ गयें , अब अन्तकाल में कहाँ गये, तुमको खोजों मैं इधर उधर , तुम मिलते मुझको शहर शहर ,
– Ushesh
“आखिर माँ हैं वो मेरी”
May 8, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
आखिर माँ है वो मेरी मुझे पहचान जातीं हैं…….
मैं बोलूँ या ना बोलूँ कुछ वो सब कुछ जान जातीं हैं,
मेरी खामोशी से ही मुझे वो भाँप लेती हैं,
मेरी बातों से ही मेरी नज़ाकत जान लेती हैं,
भरे दरिया में मेरे अश्को को वो पहचान लेती हैं,
आखिर माँ है वो मेरी मुझे पहचान जातीं हैं……
मेरे हर दर्द को वो दूर से महसूस करती हैं,
मेरी हर हार को भी वो मेरी ही जीत कहती हैं,
मेरे सपनों की महफिल का भी वो सम्मान करती हैं,
मेरे आँखों की पलकों का भी वो ध्यान रखती हैं,
आखिर माँ है वो मेरी मुझे पहचान जातीं हैं……
– Ushesh Tripathi
ताबीर
May 8, 2016 in शेर-ओ-शायरी
भरे महफिल में मेरे इश्क की वो इस कदर ताबीर करता हैं,
कि अब तो हर गली में सब मुझे ही पीर कहता हैं,
हर बात ही हो लफ़जों से बयाँ जरूरी तो नहीं
May 3, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
हर बात ही हो लफ्जों से बयाँ ये जरूरी तो नहीं ‘हुज़ूर’,
दिल ए नादाँ की कुछ सदायें तुम भी तो सुनना सीखो,
हर नज्म़ में करता हूँ मैं बस तेरी ही तारीफ,
मेरी नज्मों को तुम भी तो पढ़ना सीखो,
लगता है बहुत कर ली है अदावत से मोहब्बत तुमने,
कभी जंग-ए-मोहब्बत में तुम भी तो उतरना सीखो,
महफिलों में मिलते ही नज़रे झुक सी जाती हैं तेरी,
कभी नज़रों की महफिलों में तुम भी तो चढ़ना सीखो,
राज-दाँ है ज़माना सदियों से तिरी औ मिरी मोहब्बत का ,
‘ज़नाब’ इस राज को तुम भी तो अपनाना सीखो ,
इश्क के मंजर में बंजर हो गये कितने चाहने वाले,
इसी बहाने ही सही तुम मुड़ कर मेरा भी अफ़साना देखो,
खुश-चश्मों को तो बे-रंग भी सतरंग नज़र आता है,
कभी तुम भी तो मेरी बे-ज़ार आँखों का नजा़रा देखो,
मुझे तो तलब सी हो गयी हैं तुझे ख्वाबों में पाने की ,
मेरे ख्वाबों को भी तो अपनी पलकों पर सजाना सीखो,
हम तो मोहब्बत में तेरी ज़फाओं तक को निभाते रहे,
मोहब्बत में अकीदत को तुम भी तो निभाना सीखो,
“लगता है भूल गये हो”
April 30, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
यूँ गयें हो दूर हम से जैसे कुछ था ही नहीं,
लगता है पुरानी सोहबतों को भी तुम भूल गये हो,
इतना भी आसान नहीं भूला देना किसी को,
जुर्म मेरा है या फिर मगरूर आप हो गये हो,
हर सावन कुछ यादें ताजा हो ही जाती होंगीं,
यकीन नहीं होता की उन्हें भी तुम भूल गये हो,
सिलवटें तो होंगी ही जहन में यादों की कुछ,
लगता है उन पर इस्त्री करने में मशगूल हो गये हो,
कशूर मेरा होगा बे-शक मानता हूँ मैं,
फरमान मौत का तुम यादों के लिये क्यों छोड़ गये हो,
मेरी तकदीर में ही नहीं हो तुम ‘हुज़ूर’ आज कल,
या फिर अपनेपन की फिकर में ही फकीर हो गये हो,
हर दर्द की दवा मरहम ही नहीं होती ‘हुज़ूर’,
लगता है इतनी सी बात भी तुम भूल गये हो,
मेरी पलकों से ही कोई खास रंजिश है तुम्हारी,
या हर एक की नजरों से भी तुम दूर गये हो,
गिले सिकवे तो हो ही जाते हैं मोहब्बत में हर कहीं,
लगता है माँफी की कदर भी तुम भूल गये हो,
हुज़ूर ! कोई सजा नहीं होती है गमों को बताने से यहाँ,
फिर भी उन्हें छुपानें में इतना क्यों मशगूल हो गये हो,
यूँ भागते हो फिरते क्यों दुनियाँ से आज कल,
लगता है तुम भी इश्क के चादर तले रंगीन हो गये हो,
‘हुज़ूर’ जाते वख्त भी तुम मेरे पास ही लगता है,
नायाब चीज़ अपनी कोई भूल गये हो,
जिक्र तो होता ही होगा हर निशा में हर वख्त़,
उसकी फिक्र में ही लगता है यूँ गमगीन हो गये हो,
चिरागों को जलाते ही नहीं हों रौशनी के डर से आज भी,
या फिर अब उनकी रौशनी में ही चूर हो गये हो ,
अब कुछ अपनी कुछ मेरी मानों मेरी एक फरियाद सुनो,
कुछ प्रयास करता हूँ मैं भी तुम भी तो कुछ याद करो,
“तन्हाइयाँ”
April 29, 2016 in शेर-ओ-शायरी
मेरी तन्हाइयों का जिम्मेदार किसे मानूँ मैं ‘हूज़ूर’
तेरे जाने के बाद इन हवाओं नें भी तो रुख बदला था,
” दर्द “
April 29, 2016 in शेर-ओ-शायरी
गलतफ़हमीं में जी रहे हो ‘हुज़ूर’ दर्द क्या होता हैं तुम्हें क्या मालूम,
ज़रा पूछो उनसे जिनके अश्कों को पलकों का सहारा नहीं मिलता,
पैगाम
April 23, 2016 in शेर-ओ-शायरी
मेरे खतों के पैगाम का आलम कुछ यूँ हैं ‘ज़नाब’,
कि सफीरों की लाशें बिछ गयीं हैं राह ए इंतिजार में,
मय-कदा
April 21, 2016 in शेर-ओ-शायरी
चलो उसी कू-ए-यार में चलतें हैं साकी मय-कदा तो खाली हो गया लगता,
जहाँ शब-ए-सियह में भी उनके हुश्न-ए-जाम के प्याले मिला करते थे ,
बे -जा़र नज़र आता है मुझे
April 19, 2016 in ग़ज़ल
उनके अश्कों में भी इक रंग नजर आता है मुझे,
तन्हा रातों में भी कोई संग नजर आता है मुझे,
उल्फ़त में उनकी मैं भी बे-जा़र हो गया लगता,
अब्र का शाया भी गेसुओं सा नज़र आता हैं मुझे,
इश्क मकसद है मिरे जीने का सभी कहते रहे,
अब तो खुद की बातों में असरार नज़र आता हैं मुझे,
जिक्र ए अग्या़र भी होने लगा है अब ख्वाबों में,
नकाबपोशी का असर भी बे-आसार नज़र आता हैं मुझे,
अदायत को आये हर शख्श से रंजिश सी हो गई लगता,
अब तो हर शख्श में तेरा अक्स नज़र आता है मुझे,
तेरे ख्वाबों में ठहरने की ख्वाहिश थी मेरी ,
पर तेरी नींद खुल जाने का डर सा सताता है मुझे,
तिरे ऐवानों पर खड़ा था रात भर मैं भी,
अब तो हर बाब पर. दरबान नज़र आता है मुझे,
तेरी राहें ही हैं रहगुजर मेरी,
अब तो तेरे शाये में भी पर्वरदिगार नज़र आता है मुझे,
“पैगाम”
April 17, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
आज नहीं तो कल चुका दूँगा ,
कुछ प्यार मुस्तआर ही दे दो,
चोरी छुपे नहीं सरेआम माँगता हूँ ,
आखरी वक्त का सलाम ही दे दो,
सरीक हो जाओ मेरी हयात में रूह बनकर ,
अब तो मेरी साँसों को भी आराम दे दो,
अगर उकूब़त अब भी हैं बाकी तो मेरी,
अजा़ब पर ही जुदाई का इक पैगाम तो दे दो,
“इशारा”
April 16, 2016 in शेर-ओ-शायरी
हर बाब बन्द और दरीचे खुलीं थीं घर की इशारा इस ओर था,
कोई चोरी छुपे ही सहीं झरोखों से मगर इन्तजार में राहें निहार रहा था,
‘दीदार’
April 14, 2016 in शेर-ओ-शायरी
ये तसादुम ये रंजिशे अब देखी नहीं जाती कह दो उन से भी कि दीदार ए यार ना करे ,
तस्वीरें देख देख कर हम भी दिन काट लेंगें कह दो उनसे भी हमारा इन्तजार ना करे,
“कुछ नया तो नहीं”
April 12, 2016 in ग़ज़ल
अहवाल ए मोहब्बत की समझ हम में भी हैं तनिक सी ,
इश्क कर बेवफाई को बदनाम करना कुछ नया तो नहीं ,
यूँ मौत के वक़्त भी क्या तगाफ़ुल कर के जाओगे,
हर रात का ही हो अब अंजाम जुदाई कुछ नया तो नहीं ,
क्यों गैर मुंसिफों के हवाले छोड़ गये हो फासलों के फैसले,
दुनिया वाले करेंगे महरूम तिरी यादों से कुछ नया तो नहीं ,
तेरी जानिब चले हो इश्क के सागिर्द पहली दफा़ तो नहीं,
तेरे हाथों ही हो मेरे जज्बातों का कत्ल कुछ नया तो नहीं,
मैं गिनता रहूँ दिन तुझसे जुदाई के सोहबत में तेरी,
और तू आये ना इन्तजार के बाद कुछ नया तो नहीं,
‘शामिल तो ना था’
April 10, 2016 in ग़ज़ल
रुसवा हो गयीं हो तुम या फिर समझ मैं नहीं पाया ,
यूँ नखरें दिखाना तिरी अदाओं में तो शामिल ना था,
तड़प गर मैं रहा हूँ तो खुश तो तुम भी नहीं होगे,
यूँ रूठ कर जाना तिरी अदाओं में तो शामिल ना था,
बहुत हुआ ये बचपना आ अब मिल ही लेते हैं,
ये जाबिराना हरकतें तिरी उल्फत में तो शामिल ना था,
तिरी मय का सुरूर तो अभी चढ़ा भी ना था ढ़ग से,
गुज़रगाहों में यूँ तन्हा छोड़ के जाना मुनासिब तो ना था,
तुम्ही थे या तेरा कोई अक्स मिला था मुझसे,
भरी महफिल में यूँ मुह मोड़ के जाना मुनासिब तो ना था,
तिरी और मिरी उन मुसलसल यादों का क्या होगा,
दरवाजें पर दस्तक दे कर लौट जाना मुनासिब तो ना था,
तकल्लुफ में अगर हो तुम तो तड़पेगा जहाँ सारा,
यूँ बातों बातों में रूठ जाना तेरी आदत में तो शामिल ना था,
“सुना है”
April 10, 2016 in शेर-ओ-शायरी
सुना है रहजन बहुत हैं तिरी राह पर मयकशी के जाम आँखों से लूटते हैं,
चलों लुटने के बहाने ही सहीं ‘ज़नाब’ तिरी जानिब फिर से हो कर गुजरते हैं,
इन्तजार
April 10, 2016 in शेर-ओ-शायरी
तन्हा राहों पर गर मैं भी अकेला चला होता तो अब तलक मंजिल मिल ही गयी होती,
मगर इन्तजार भी कोई चीज़ होती है ‘हुज़ूर’ गुज़रगाहों पर भी जिसने हमें तन्हा रक्खा,
उस दिन
April 8, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
क्या मेरी आँखों से ही तिरी कोई रंजिश थी उस दिन,
या तिरे दीदार की हर खबर झूठी थी उस दिन,
हर गलीं हर चौक पर तो दिल मेरा था झाँकता,
फिर किन गुज़रगाहों से तू गुजरी थी उस दिन,
फूल सारे ताकते थे इक नन्हीं कली आयेंगी उस दिन,
भौरों के भ्रमण में भी इक नयीं मस्ती थी उस दिन,
रूत ए पतझड़ में भी तो बहारों सी बातें थी उस दिन,
दिल के बागानों में भी तो नयीं कोमल शाखें थी उस दिन,
सब थे रूसवा पर मन प्रफुल्लित हो रहा था,
जैसे जश्न लेकर आ गई हो ईद और दिवाली उस दिन,
‘खरीददार’
April 7, 2016 in शेर-ओ-शायरी
हुज़ूर देखा था मैंनें भी उसे सारी तस्वीरें सरेआम नीलाम करते हुये,
लगता हैं वो अन्जान हैं इस बात से की यादों के खरीददार नहीं होते,
“नाम”
April 7, 2016 in शेर-ओ-शायरी
सुना है नाम बहुत है उसका बदनाम होने के लिये,
बहुत बड़ा राज होता है जना़ब कामयाबी यूँ ही नहीं मिलती,
‘फिर क्या हो..’
April 6, 2016 in ग़ज़ल
किया है कभी गौर की गये मयखाने में और ना चढी शराब तो क्या होगा ,
गर पिला जायें कोई हुश्न के दो चार जाम आँखों-आँखों में तो क्या होगा ,
इश्क तो कर बैठे हो बेरुखी के इस मंजर में क्या पता है तुम्हें अंजाम क्या होगा,
अजा़ब तो होगी ही चारों तरफ गर ना मिली जनाज़े को आग तो फिर क्या होगा,
तैय्यार तो है ही सब यहाँ अंजाम ए अजा़ब को गर पड़ गये कफन पर दाग तो फिर क्या होगा,
गर राहें कर दें मंजिल का इशारा और लड़खड़ा जायें पांव तो फिर क्या होगा,
शब ए हिज्र को भी गर नींद ना आयी और बेचैन हो गये ख्वाब तो फिर क्या होगा,
इन्तजार की रात का भी गर अंजाम हो जुदा़ई तो हालात क्या होगा,
जिसकी जुस्तज़ू में लगे हो दिन रात हासिल ना हुआ वो मुकाम तो क्या होगा ,
बातों बातों में चुभने लगे अल़्फाज़ रास ना आये प्यार के अन्दाज तो फिर क्या होगा ,
गर दरीचों ने खोल दिये वस़्लों के राज और,
एन वक्त.पर मुख़्तलिफ़ हो गये ख्वाब तो फिर क्या होगा,
चिराग ए उम्मीद को भी गर बुझा जायें तूफान और,
आफ्ता़ब भी ना ला पायें नूरी की शाम तो फिर क्या होगा ,
फासले
April 6, 2016 in शेर-ओ-शायरी
वक्त मिटायेगा फासले क्या पता कब वो मेरे हो जाये,
मैं ही क्यो मानूँ हार जब भरी महफिल में भी सब अकेले हो जाये
‘माहताब मेरा’
April 5, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
आ चलें फ़लक तले आसमाँ पुकार रहा होगा,
नूरीं की खिदमत में आफ्ता़ब भी तो आ रहा होगा,
क्या पता हो जायें तुझे दीदार तिरी माहता़ब का,
देखा था मैंने भी डोली में कोई चला आ रहा था,
मजबूरियाँ
April 4, 2016 in शेर-ओ-शायरी
कुछ तो मजबूरियाँ तेरी भी रहीं होंगी कुछ तो मजबूरियाँ मेरी भी रहीं होंगी ,
सब की मजबूरियों में मजबूर थे हम तेरी नजदीकियों से दूर थे हम ,
अरे जाओं ज़नाब तुम क्या समझोगे दर्द ए दिल को हमारे ,
अपनी खुशियों मे मशगूल थे तुम अपने गमों मे ही चूर थे हम ,
सोचा ना था
April 4, 2016 in शेर-ओ-शायरी
कुछ यूँ कटेगी बेरहम सी जिन्दगी हमनें सोचा ना था,
वक्त के हाथों ही होगी ख्वाबों की खुदकुशी हमनें सोचा ना था,
तन्हा रातों में ही हो जायेगा कत्ले आम साँसों का,
आँखें खुलेंगी और मिलेगी इस मोड़ पर जिन्दगी सोचा ना था,
नव-वर्ष
April 1, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
- नवल सुबह की नव शुभ किरणें करें सभी का वन्दन ,
क्रन्दन रुदन से रहे परे , करें सभी का अभिनन्दन,
हो देवों की विजय सदा असुरों का संहार करें ,
सुन्दरता जीवन में खोजें दुर्जनता का नाश करें,
मन में पावन ज्योति जला लें पापों का हम त्याग करें ,
मन पावन ,विचार पवित्र हो सब का हम सम्मान करें ,
निश्छलता सब में वास करे सृष्टी भी अट्टाहास करे,
सब की अपनी मर्यादा हो सब का अपना मान रहे ,
भारत माता की शान रहे सब धर्मों का सम्मान रहे ,
मृत्यु शैय्या है निश्चित फिर क्यों इतना भेद रहे ,
ऊँच नीच का भेद न हो समता का हम गान करें ,
इन्ही शुभ इच्छाओं के साथ नववर्ष का आह्वान करें, - भारतीय नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें – Ushesh Tripathi
दाँस्ता : एक दर्द
March 19, 2016 in गीत
सामने खड़ी थी वो चंचल हसीना ,
दीवाना था जिसका मैं पागल कमीना,
सब कह रहे थे तुझे देखती है ,
मुझे भी लगा वो मुझे देखती है ,
मैं इस ओर था वो उस ओर थी,
बीच में खिंच रही प्यार की डोर थी ,
समाँ खामोश था वक्त मदहोश था ,
वो भी मशहूर थी मैं भी मजबूर था ,
जैसे लफ्जों को कोई जुबाँ से खी़च रहा था ,
सर्द हवाओं में भी बदन पसीने से भीग रहा था,
बस यूँ ही कट रहा वक्त का वो दौर था , कुछ दिनों तक यूँ ही चला प्यार का सिलसिला ,
बात याद है उस दिन की मुझे ,
रक्त रूक सा गया पैर जम से गये ,
मुस्कुरा के जो उसने इशारा किया ,
मैं अकिंचन ही उस ओर था बढ़ चला,
बीच में आया कोई जिससे लिपट वो गई,
दिल पर मेरे बिजली सी गिर गई,
अपनी प्रेम कहानी यूँ ही पड़ी रह गई ,
आँखों के मुहाने वो यूँ ही खड़ी रह गई,
दिलकशी
March 17, 2016 in शेर-ओ-शायरी
दिलकश ख्यालों से दिलकशी का सबक कुछ यूँ सिखा गये हो ,
हुज़ूर ! अब तो दिलकशी लफ्ज से भी डर लगने लगा है
पेश ए खिदमत्
March 16, 2016 in शेर-ओ-शायरी
पेश ए खिदमत् में तो है ही ये दिल आपके हुज़ूर, मारना है तो मार ही दो ना ,
यूँ तड़पाना गैरों को किसी बड़प्पन की निशानी तो नहीं,
दरकार
March 13, 2016 in शेर-ओ-शायरी
ज़नाब बदल सी गयी है जिन्दगी कुछ यूँ वक्त की दरकार में,
यादों की बहार में, मिलन की दरार में ,और तेरे इन्तजार में,
किनारा
March 13, 2016 in शेर-ओ-शायरी
रात के ख्वाबों में भी उसका सहारा चाहिये, दिन के हर लम्हात में उसका इशारा चाहिये,
हुजूर वो भी इन्सान है शैतान नहीं ,उसकी पलकों को भी तो दरिया का किनारा चाहिये,
लफ़्ज
March 11, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
समझदार हूँ मैं लफ्जों का असर जानता हूँ ,नश्तर सा चुभते हैं दिल में इनका दर्द जानता हूँ,
हर बात बयाँ करने के लिये लफ्ज ही काफी नहीं,खामोशी भी होती हैै असरदार जानता हूँ
“कलमकार”
March 11, 2016 in शेर-ओ-शायरी
कलमकार के कलम की स्याही जिस दिन यारों खत्म हो गई,
या तो कोई जुल्म हुआ है उस दिन या वो अात्मा परम् हो गई,
संसार और मैं
March 11, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
जग सारा सोता है जब तब मैं जागता रहता हूँ,
तेरी यादों में अश्कों से दर्द बांटता रहता हूँ,
तेरी रूह की साये से मैं दूर भागता रहता हूँ,
खुद से खुद की तस्वीर छाटता रहता हूँ ,
बस रात यूँ ही कट जाती है और दिन मुझको दौड़ाता है ,
दिन में भी तुझको पाने के दिवा-स्वप्न ताकता रहता हूँ,
जग सारा सोता है जब तब मैं जगता रहता हूँ,……….
जुबाँ
March 10, 2016 in शेर-ओ-शायरी
आखिर तुझे भी कोई बुला रहा होगा ,तुझे याद कर कर
के कोई मुस्कुरा रहा होगा |
यूँ ही नहीं जुबाँ लड़खड़ा जाती है हर किसी को देखकर, कोई तुझे भी नगमों में गा रहा होगा |
फिरास़त
March 9, 2016 in शेर-ओ-शायरी
ये तो फिरास़त है मेरी जो विरासत ए इश्क कर दी है तेरे नाम,
वरना जाबिरों को काबिल ए वफा समझता ही कौन है ,
उम्मीद
March 9, 2016 in शेर-ओ-शायरी
गम के फसाने को तेरी खुशियों ने लूटा , तेरी हर दीद की उम्मीद ने अखियों को लूटा ,
उजाले की हर किरन को तूनें कनखियों से लूटा,तुझे पाने की हर कोशिश को तेरी सखियों ने लूटा ,
चाहत
March 8, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
कभी कभी दिख भी जाया करो हुज़ूर,डर रहता है कहीं देखने की चाहत ही ना खत्म हो जायें |