कितना अच्छा होता !

July 30, 2020 in मुक्तक

कितना अच्छा होता!
अगर ऐसे ही हमारे नाम भी अलग होते ,
और काम भी अलग-अलग होते ,
मगर, जात और धर्म एक ही होती,
इंसानियत।

मित्र

July 30, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

“मित्र”

वो मेरा सगा नहीं है ,
मगर भाई से बढ़कर है।

कोमिडन नहीं है,
मगर हंसाता है;
कार्टून से बढ़कर है।

थोड़ा जिदी है,
मगर इतराता नहीं है‌।

बेपरवाह है खुद के लिए,
पर मेरे लिए!
जान देने से घबराता नहीं है।

कभी भले-बुरे के लिए,
गालियां देने वाला!
सनकी बाप,
तो कभी प्यार देने वाली ,
मां सा; बन जाता है।

सब बेमतलब सा
लगता है ,
जब वो ना हो साथ।

हर मर्ज की दवा,
मिले या ना मिले,
मगर मेरे चेहरे पर मुस्कान
उसके साथ होने से मिल जाती हैं।

——मोहन सिंह मानुष

शायरी

July 29, 2020 in शेर-ओ-शायरी

आजकल वफ़ा और कदर सोने के भाव है,
मगर धोखा यहां पुलिस की तरह ,
हर चौराहे पर मिलता है।

शायरी

July 29, 2020 in शेर-ओ-शायरी

एक दूसरे से प्यार करना ,
फिर एक दूसरे को समझना,
फिर शादी कर लेना,
और फिर खुशहाल जीवन जीना,
ये सब काल्पनिक सा लगता है।

वो मां ही तो है।

July 29, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

जब तुम उदास हो,
कोई भी ना पास हो,
तब जो सहारा देती है ,
सब दुख बाट लेती है,
वो मां ही तो है।
बिस्तर गीला किया मैंने,
वह सो गई गीले में ,
मुझे छाती पर सुलाया।
खुद भूखी रहकर,
मुझे निवाला खिलाया।
चिंता मेरी जिसे हरदम रहती है,
वो मां ही तो है।

मैं जब- जब घिरा ;मुसीबतों से ,
जमाने ने  केवल रुसवा ही किया,
मगर शीतलता जिसके आंचल में मिली ,
वो मां ही तो है।

मेरे रोम -रोम में बसा तेरा नाम।

July 29, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मेरे रोम- रोम में बसे तेरा नाम ,
कण कण में तू रग- रग में तू,
अद्वितीय तू, अखंड तू,
क्षण- क्षण में रमा है तू,
सुक्ष्म रूप भी है तेरा ,
और विशालकाय पर्वत सा भी है तू,
तू मिलता है कुछ-कुछ रहीम सा भी,
और मिलता है कुछ-कुछ शिव जैसा भी,
रहता है तू जब मेरे हृदय में,
तो क्यों ढूंढो मैं तुम्हें यहां वहां,
हे ईश्वर तू प्रेम में बसा है,
और रमता है दया में,
किसी प्यासे की आस में है तू,
किसी के सुख का एहसास है तू,
मैं मूर्ख इंसान प्रभू  !
जो देख ना पाऊं मूर्त्तियों में तुम्हें,
थोड़ा सा हूं अनजान प्रभू!
जो मानता नहीं तुम्हें तन की शुद्धि में,
पर इतना सा है ज्ञान प्रभु!
जो ढूंढ रहा हूं तुमको,
अपनें मन की झुग्गी में,
पर मन मेरा बड़ा चंचल ठेहरा,
करता बड़ी सी गलती है,
पाखंडों में लिन दुनिया,
भ्रमित मन को करती है,
मैं गलतियों का धाम प्रभू!
पर कृपया तुम्हीं को करनी है।

प्रभु! जरूर मिलेंगे।

July 29, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

तू हड़बड़ाता क्यों है ,
और घबराता क्यों है,
तेरे दुख दर्द को ,
कोई देख रहा है,
तू अपने ज़हन में ,
झांक जरा सा ‌।

वो रमा है तेरे ही,
अंतर्मन में;
मन के पटों को खोल जरा सा ।

वो सुनता है नादानों की,
तू छल कपट से हो दूर जरा सा ।
वो भूखा तेरी श्रद्धा का,
तू पाखंडों से बच जरा सा।

वो निराकार सा ,
पूरी प्रकृति में है विद्यमान,
हृदय की गहराइयों से पुकार ,
बस दिखावे से बच जरा सा।

देर है ,अंधेर नहीं!

July 27, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

कहां है वो ,
सबकी नींव धरने वाला!
सबका दाता कहलाने वाला!

कैसे खा गए , वो दरिंदे
उस कच्ची सी कली को,
बहुत ख़रोंचे है, मोम जैसे हाथों पर !
निकली है बाहर आंखें,
मक्खियां है मुंह और नाकों पर!

कितना कराहई होगी वो और
कितना चिल्लाई भी होगी
मगर किन्नर सा समाज ,
अंधा सा,बहरा सा,
अपनी आई पर  ही रोता है।

भगवान को भी बहुत पुकारा उसने,
दयालुता को उसकी ललकारा उसने,
मगर उसको तो देर करनी  ही होती है
क्योंकि उसके दर पर ,
देर है अंधेर नहीं!
    
            ——-मोहन सिंह मानुष

अपनें मतलब ! स्वार्थ

July 26, 2020 in शेर-ओ-शायरी

अरे तुम होगें ,खिलाड़ी किसी बड़े मैदान के!
मगर मेरे अपनों से मुकाबला कहा होगा,
वो दिलो के साथ बहुत अच्छा खेलते हैं!

सुखद घटना से भी बढ़कर!

July 25, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

वो कोई सुखद घटना ही नहीं,
मानो सुखों का वरदान था मेरे लिए।
उसका आना,
हृदय का आह्लादित हो जाना ,
मेरे आंगन की मुस्कुराहट सी,
कुदरत की बनावट सी,
मानो खुशियों का भण्डार था मेरे लिए।

वो नन्ही सी परी ,जादू की छड़ी,
फूलो की खिलखिलाहट सी,
मेरे होठों की चहचहाहट सी,
उसकी प्यारी सी किलकारियां
मानो अमृत है मेरे लिए।

और जब से जन्म लिया है उसने,
मानो जीवन की मेरे,उमंग सी,
लहराती कोई पतंग सी,
वो कोई सुखद घटना ही नहीं ,
मानो सुखों का वरदान है मेरे लिए।

————मोहन सिंह मानुष

वफ़ा की उम्मीद

July 25, 2020 in शेर-ओ-शायरी

हम अपनी बेबसी पर,
बेबस रहना पसंद करते हैं।
ज़माना लाख बेवफाई करें हमसे ,
हम अब भी वफ़ा की उम्मीद करते हैं।
******************************

क्योंकि मैं इंसान हूं

July 25, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

“क्योंकि मैं इंसान हूं ”

इंसानियत है मेरे अंदर,
क्योकि मैं इंसान हूं ।
धर्म है मेरे में मानवता का;
और बंधन भी है ,
नैतिकता का अंदर;
क्योंकि मैं इंसान हूं।

अगर मैं मान लूं अपने अहम् की;
कर दूं राख अपने संयम की,
मानो फिर एक हैवान हूं।
इंसानियत है मेरे अंदर ,
क्योंकि मैं इंसान हूं ।

समझू ना मैं औरों को कुछ भी ,
करू मनमानी अपने मन की,
समझो फिर शैतान हूं ।
इंसानियत है मेरे अंदर ,
क्योंकि मैं इंसान हूं।

भ्रम है मोह माया ,
इसको कोई समझ ना पाया,
अगर बनूं में हमदर्द किसी का,
बांटू खुद से ;दुख- दर्द किसी का।
समझो फिर एक गुणवान हूं।
इंसानियत है मेरे अंदर ,
क्योंकि मैं इंसान हूं।
               ……..  मोहन सिंह मानुष

बेचारी नींद

July 25, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

बात ऐसी हो गई कि
नींद नहीं आएगी ; हमें आज।
वो लोयल नहीं, ढोंगी थे,
उजागर हुई , मगर ये बात।

आंखों से वो बड़े भोले लगते,
शर्म हया का ,क्या नाटक करते !
भ्रम मिटा, चलो  ये आज,
नींद बेचारी कैसे आए ?
धोखा मिला है हमें जनाब  !
                          –मोहन सिंह मानुष

मिजाज

July 25, 2020 in शेर-ओ-शायरी

मत उछालो मेरे ज़हन को;
मत उछालो मेरे ज़हन को,
खिलौना समझ कर,
मेरा मिजाज कुछ कोयले सा है!
कब लपट बनजाए कुछ पता नहीं।

इंसान हूं मगर ,काल्पनिक सा।

July 24, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

#इंसान हूं मगर ,काल्पनिक सा”

जैसे पशु और पक्षियों का
अपना वर्ण और रूप होता है ,
वैसे ही मैंने जन्म लिया ;
इंसान के रूप में।
पर ये क्या हुआ, मैं इंसान तो था ;
पर नाम का।

जैसे-जैसे मेरा स्वरूप बदला
वैसे-वैसे मेरा वर्ण भी बदला
मैं हिंदू बना ,मैं मुस्लिम बना
कहीं सिख बना तो कहीं ईसाई,
और कहीं अमीरी- गरीबी की हैं, खाई!

बात यहीं तक नहीं है, सीमित!
जातियां भी तो हमने बनाई!
यहां पहनावा और रंग – ढंग ,
लिबास बहुत भेदी हैं …

दाढ़ी के साथ मूंछ नहीं हैं ,
है सिर पर पगड़ी ,
या फिर जालीदार टोपी
माथे पर तिलक!
भगवा , हरा, सफेद ,सब बटे हुए हैं ,
एक दूसरे से।

अरे ! कर्म भी तो मुझको अलग करता है!
मैं शूद्र ! तु  वैश्य! वो ब्राह्मण ! कोई क्षत्रिय !
कोई छोटा ,कोई बड़ा
इस दुविधा में मैं पड़ा!

अब तो काल्पनिक सा लगता है,
कि सही में , मैं इंसान हूं?
भगवान हूं या शैतान हूं,
ईर्ष्या और द्वेष से,
अहंम के प्रवेश से,
रहा कहां इंसान हूं,
रहा कहां इंसान हूं।
                           मोहन सिंह (मानुष)

मौत एक सत्य

July 23, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मेरे आशिक ,तूने मुझे पुकारा!
तो मैं जरूर आजाऊंगी,
किसी के पास देर से आती हूं ,
किसी के पास जल्दी से आती हूं,
तुमने ललकारा है तो क्षण में आ जाऊंगी ।
तू कर जिंदगी खराब अपनी,
कर नशा ,पी शराब ,कर अय्याशी!
तू खेल मेरे साथ, तुझे खूब खिलाऊंगी,
मैं मौत हूं !  तुझे सच में खा जाऊंगी।

हां वही हूं मैं जिससे सब,
थरथर कापते,
पास तो दूर की बात,
सब दूर से ही नाचते ।
प्यार जो किया है तूने मुझसे
अब कैसे ना तुझे अपनाऊंगी
मैं मौत हूं ! तुझे सच में खा जाऊंगी।

आ निचोड़ दू तेरे अहम् को,
मरोड़ दूं, तेरे वहम को,
क्यों तड़पता है मेरे लिए
आ तुझे हमेशा के लिए सुलाऊंगी
मैं मौत हूं, तुझे सच में खा जाऊंगी।

                            ———  मोहन सिंह मानुष

सपनों की पंख

July 23, 2020 in मुक्तक

मत काटो मेरी पंख ;मेरे अपनों
मैं बुलंदी के आसमानों में उड़ना जानता हूं।
छोड़ दो मुझे मेरे रास्ते पर ,
मैं ठोकरो से संभलना जानता हूं।

अनमोल सा खजाना

July 23, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

वो नन्ही नन्ही आंखें मुझे निहारती रहती हैं
वो छोटे छोटे हाथों की शरारत ,
और होठों की चिल्लाहट ,
मुझे बुलाती रहती है ।
अब कितना सबर करूं? कि वो मुझे ;
कब पापा कहकर पुकारे,
मेरे अंदर की ये खुशियां मुझे जगाती रहती है!
मेरे अंदर की ये खुशियां मुझे जगाती रहती है।

रोटी का टूक

July 23, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

“रोटी का टूक”

वह रो रहा था, सुबक-सुबक कर
हाथों से छाती ,पटक-पटक कर
आंखें हैं लाल ,पसीने से बुरा हाल
सामने पड़ी दो लाशें,
कहने को शरीर ,पर दिखने में  कंकाल !
वीडियो बना रहे कुछ लोग,
सबके मन में बहुत सवाल !
सवाल ?
किसने मार दिया है इनको?
शायद कोई बीमारी ने ?
क्या बीमारी  ?
कहीं तुम्ही ने तो नहीं मार दिया है इनको ,
शराबी लगते हो !
बोलो !
कुछ तो बोलो!
वो दुखिया बेचारा,

विधि का मारा;
खो दिया जिसने,
प्यारी को, लाल को।
क्या बोले ?
बहुत दबाए है दर्द को,
पर क्या बोले ?
अभागा !
क्या करें ?
तमाशा बनता देख,
सहसा वो चिल्लाया!
मार दिया मेरी पत्नी को,
बेटे को!
तुम्हारी इस बीमारी ने ,
सरकार की लाचारी ने।
पापिन भूख!
हां मार दिया।
भूख ने,
रोटी के एक टूक ने,
हाय ! हां ! मार दिया।
                   –मोहन सिंह ( मानुष)

घुटन भरी सी जिंदगी

July 22, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

ए जिंदगी तू खूबसूरत है,
मगर औरों के लिए ।

मेरे लिए तो तू; केवल बोझ सी,
बन कर रह गई।

मैंने तुझे जितना भी जिया,
तूने मुझे उतना ही दिया, दर्द!

मैं लड़ाता रहा, खुद को ;
तेरी तकलीफों से ,
तेरे जुल्मों से,

मगर मुझे आजकल
तेरी बहन से ,
प्यार हो गया है ।

जहां तू जिंदगी भर रुलाती है ,
वही वो केवल सुलाती है ,
सदा सदा के लिए!

          ——मोहन सिंह मानुष

शायरी तो बहाना है।

July 22, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

जो है बात दिल में ,
वो लब पे आए ।
चिट्ठी सा बन कर ,
उस तक पहुंच जाए,
हाले दिल को ;
शब्द जाल से ,
कुछ कहकर बतलाना है ;
शायरी तो बहाना है।

क्या बीती हम पर,
क्यों रोए हम रात भर,
दर्द दे दिल के गम को ,
थोड़ा सा हल्का कर जाना है,
शायरी तो बहाना है।

बहुत कुछ खो दिया ;
आंखों को भी भिगो दिया।
पर वफा ना मिली ,
ना कोई अपना सा मिला,
इश्क की खुमारियों का
अहसास सा कुछ कराना है ।
शायरी तो बहाना है।

चींस जो उठती है ;
जब दिल में आह ! करके
हवा हो जाती है ,
नींदें ! रात तबाह करके।
आंखों से चले झरने को;
सनम पर कुछ बरसाना हैं।
शायरी तो बहाना है।
                     ———मोहन सिंह (मानुष)

चलो इंसान बनते हैं।

July 22, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

चलो इंसान बनते हैं।

कब तक जकड़े रहेंगे ,
हम भेदभाव की जंजीरों में ।
कब तक पकड़े रहेंगे हम ,
धर्म- भ्रम की बेड़ियों से।

मानवता की चलो ,
पहचान बनते हैं ‌
भगवान तो ना ही सही ,
चलो इंसान बनते हैं।

चलो फिर से कुरेदते हैं।

July 22, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

चलो फिर से कुरेदते है

बीती सुध को,
चंद निमेषों को,
अनुराग भरें संदेशों को,
चलो फिर से कुरेदते है।

क्या अनुपम वेला!
आह्लादों का मैला!
प्रेम-क्रीडा से; मैं था खेला,
गुजरे वक्त की किताबो को,
चलो फिर से खोलते हैं।
क्षत को ,
चलो फिर से कुरेदते है।

टीस की घुट्टी,
दर्द का तुफान,
बैचेनियों की सरसराहट;
आया उफान,
तनहाई के पत्तों को
चलो फिर से बिखेरते हैं,
अभागी नियति को,
चलो फिर से कुरेदते हैं
                  — मोहन सिंह (मानुष)

बुढ़ापे का अकेलापन।

July 20, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

   ” बुढ़ापे का अकेलापन ”

बहुत ही मुसीबतों के दौर से गुजरा है,ये जीवन
पर किसे समझाऊं ? कैसे समझाऊं? और क्यो समझाऊं! जब कोई समझता ही नहीं है।

अपनों के दुख से; दर्द होता है ,बेहद
पर किसे बताऊं ? कैसे बताऊं? और क्यों बताऊं!
जब कोई साथ में, बतलाता ही नहीं है।

स्वार्थ की भुजाएं ,अब बहुत लम्बी हो गई,
और कैसे? पूरी करूं जरूरतें,
अब, उम्र भी कुछ ज्यादा  हो गई;
मगर ! आंखों में है ,बहुत सारा प्यार !
पर किसे जताऊं? कैसे जताऊं? और क्यों जताऊं!
जब कोई इन आंखों में झांकता ही नहीं है।

             ——मोहन सिंह मानुष

हालात दुख देते हैं।

July 19, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

हालात दुख देते हैं।

हां नहीं निभा पाया मैं वो वादें,
तुम्हें खुश रखने के वो इरादे,
याद है मुझे।
बहुत हालातों से की मैंने बंदगी,
मगर दुश्मन है ये जिंदगी!
जो चाहूं, वो कर ना पाऊं,
टूटी पतंग सा पुनः गिर जाऊं।
बेशर्मी से शर्मिंदा हूं,
लाचार सा मगर,जिंदा हूं।
मतलबी ,फरेबी, कुछ भी कहो
जहन को मेरे कुरेदती रहो
मैं हिमालय सा कठोर,
लड़ता रहूंगा, तकलीफों से,
जिंदगी के सलिको से।
और अभी भी मन में ,
पली है मेरे ,एक उमंग
तुम्हें खुश देखने की,
मिलकर साथ चलने की।
                 ———मोहन सिंह मानुष

पता नहीं चलता।

July 18, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

बर्फ के टुकड़े सा है ये प्यार,
दगा का सूरज कब पींघला दे,
पता नहीं चलता।

वक्त बदले या ना बदले,
इंसान कब बदल जाए,
पता नहीं चलता।

अनजान चहरे समझ
लेते हैं हमें ;
आजकल,
अपनों में नहीं, कौन अपना
पता नहीं चलता।

राख के अन्दर; कोयला ढूंढता,
सूखे में से बूंदें सींचता,
उम्मीद का धागा कब टूंट जाएं;
पता नहीं चलता।

मैं झूठा हूं या सच्चा!
बुरा बहुत या अच्छा!
कब किसी की सोच बदले,
पता नहीं चलता।

कितना भी जताओ,
इश्क!
जितना जताओगे,
उतना ही गंवाओगे,
चैन !सूकुन ! नींद!
कब उड़ जाएं ,
पता नहीं चलता।
                      –मोहन सिंह (मानुष)

मजदूर हूं मैं !

July 17, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मजदूर हूं मैं

जरूरत तो पड़ेगी मेरी ,
क्योंकि मैं निर्माता हूं ।
माना झोली खाली है मेरी,
मजदूरी करके खाता हूं।
बहा कर खून-पसीना ;
खुशहाल देश बनाता हूं।

पूछो उन दीवारों से,
भवनों से, मीनारों से,
खेतों से,खलीहानों से ,
अनाज के एक-एक दानों से,
क्या वे नहीं जानते  ? मुझको!

ईटों से, पत्थरों से,
रेत के हर कण- कण से ,
पूछो तो सही वे जानते हैं !
मेहनत को मेरी पहचानते हैं ।

पर आज बड़ा मजबूर हूं मैं,
दाने -दाने से दूर हूं मैं ।
भूखी आत्मा ; सुखा शरीर
भारत देश का मजदूर हूं मैं।

मजदूर हूं मैं ,वही;
तुम्हारे होटल बनाने वाला!
तुम्हारी फैक्ट्रीयां चलाने वाला!

मजदूर हूं मैं ,
तुम्हारी सफाई करने वाला!
तुम्हारा खाना पकाने वाला!

मजदूर हूं ,
पसीना बहाने वाला!
आंसू की घूंट पीने वाला!

मजदूर हूं,
हजारों मील चलने वाला!
रेलगाड़ी से मरने वाला!
मजबूर हूं,
थोड़े में सब्र करने वाला।
भूख से लड़ाई लड़ने वाला!

याद है मुझे वह कहावत
करे कोई भरे कोई!
बड़े लोगों की बीमारी, साहब!
पड़ रही है हम पर भारी।

पर फिर भी देश का कोहिनूर हूं मैं
जरूरत तो फिर भी पड़ती है मेरी
दिहाड़ी वाला मजदूर हूं मैं।
                               
                             — मोहन सिंह( मानुष)

देर नहीं लगती

July 16, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

देर नहीं लगती

कोई क्यों इतना एहसान फरमा रहा,
कुछ तो है जो संग आ रहा
खाली जेब को,
कभी किसी की नजर नहीं लगती ,
रिश्ते कब मतलबी हो जाए ,
देर नहीं लगती।

ऐसे ही छोड़ जाएगी,
मिनटों में दिल तोड़ जाएगी,
इतनी भी वह मुझको फरेबी,
खैर नहीं लगती।
पर बहुत जुड़ते- टूटते रिश्ते; आजकल!
बात कब बिगड़ जाए,
देर नहीं लगती।

संगदिल है सब,
हमदर्द हैं सब ,
तेरे सुख के हर पलों में,
पर यह क्या हुआ ?
दुख में तू अकेला !
टूटा सा कोई जैसे ठेला!
वक्त की कड़वी गोली ,
सबक से कम नहीं लगती
कब ?कौन ?कहां?
हाथ छोड़ दे,
देर नहीं लगती।

मैं सह सकता हूं।

July 15, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैं अखण्ड हूं,
प्रचंड हूं,
निडर हूं ,अजर हूं,
संतोषी हूं ,
मुस्कराती हुई ख़ामोशी हूं,
कड़े दर्द से लड़ सकता हूं,
मैं सह सकता हूं।- २

लोगो के बहानो को,
अपनों के तानों को,
मुसीबतों का सामना भी
कर सकता हूं,
मैं सह सकता हूं।-२

मैं उस पेड़ सा ,
तुफान मैं जो झुक जाएं
सब्र करे, नियति बदलती है
हर बार,
विरोध के समय, जो मूक जाएं
पानी सा नित बह सकता हूं,
मैं सह सकता हूं।-२

कभी कभी करता है मन रो दूं,
आंसूओं से खुद को भिगो दूं,
मिटा दूं वजूद अपना ,
भूल जाऊं हर सपना,
मगर नहीं ,
धैर्य के साथ रह सकता हूं,
मैं सह सकता हूं‌।-२

सह सकता हूं !
ईर्ष्या को,घृणा को,
हीनता को,
पीड़ा को और दरिद्रता को।

पर नहीं सह सकता हूं !
पेट की बीमारी को,
जीभ की खूमारी को,
पापिन! हाए!भूख को,
हां ! भूख को ,
मैं नहीं सह सकता हूं।-२
                           मोहन सिंह (मानुष)

उदासी

July 14, 2020 in शेर-ओ-शायरी

        उदासी   

मधुमक्खी के छत्ते सा है

ये ज़हान ,

यहां सब, मतलब से

झांकने वाले हैं।

अब किसे मैं यहां अपना कहूं,

यहां सब काटने वाले हैं ।

मां को छोड़कर,

सब लोभी है, ढोंगी है,

फरेबी है ।

जरा संभल कर  ‘ मानुष ‘

यहां सब पीछे से झपटने वाले हैं।

——–मोहन सिंह मानुष

बूंद बूंद बूंदें।

July 13, 2020 in गीत

बूंद बूंद बूंदें
बूंद बूंद बूंदें

बूंद बूंद बरसती है ,
आंखों से मेरी ।
तूने क्यों की रुसवाई ,
जज्बातों से मेरे।
बूंद बूंद बूंदें
बूंद बूंद बूंदें

तू धूप सा चुभता रहा,
मैं बर्फ सी पिंघलती रही।
तू गाज सा गिरा मुझ पर ,
मैं सब्र सी सहती गई।
नैना ये तरसते हैं,
यादों में तेरी।
कितनी नींद गवाही ,
यादों में तेरी ।
बूंद बूंद बूंदें
बूंद बूंद बूंदें

पागल मनवा ढूंढे तुझको,
पर तू तो मिलता नहीं।
बेबसी का जाम है तू ,
जाम ये  चढ़ता नहीं।
जाम ये मिलता नहीं।
दिल का बहम मिटा नहीं,
कि तू बेवफा नहीं।
फिर वफा तो की ही नहीं,
हालातों से मेरे।
बूंद बूंद बूंदें
बूंद बूंद बूंदें

बूंद बूंद बरसती है ,
आंखों से मेरी ।
तूने क्यों की रुसवाई ,
जज्बातों से मेरे।
बूंद बूंद बूंदें
बूंद बूंद बूंदें
              ——मोहन सिंह मानुष

मां ही सुंदर

July 13, 2020 in शेर-ओ-शायरी

बहुत-बहुत सुंदर है वो,
प्यार का समंदर है वो ,
फीखा है हर रिश्ता ,
पर उसका कोई तोड़ नहीं,
देखी होगी आपने बहुत सी देवियां ,
पर मेरी मां की कोई होड़ नहीं,
मेरी मां कोई होड़ नहीं।

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