मुझ पर हंसने वालो का

September 6, 2023 in शेर-ओ-शायरी

मुझ पर हंसने वालों का!
हुजूम तो काफी विकराल था,
मगर मेरे मालिक को तो देखो!
वह हर बार बाजी पलट देता है।

मुस्कुराना तो हम भी नहीं छोड़ेंगे।

May 3, 2022 in शेर-ओ-शायरी

पैर थक गए हैं तेरी ठोकरों से,
ए जिंदगी!
मगर कहता! हौसला इन पैरों का,
ज़फ़र तो हम भी नहीं छोड़ेंगे।
और तेरे सितमों का कहर,
पहाड़ ही क्यों ना बन जाए,
मुस्कुराना तो हम भी नहीं छोड़ेंगे।
— मोहन सिंह मानुष

बारिश की फुहार

March 1, 2022 in शेर-ओ-शायरी

बारिश की एक फुहार से,

सुखे पेड़ में भी जान आ जाती है

और जब होता है जिक्र प्यार का,

मुझे मेरी मां याद आ जाती है।
—मानुष

दिल ए इज़हार मत करना।

July 4, 2021 in शेर-ओ-शायरी

छुपाकर ही रखना बेबसी,
मानुष !
दिल ए इज़हार मत करना,
कर लेना बातें,परछाईं से अपनी,
जमाने को दीदार मत करना,
और बैठे हैं लोग खोल कर कानों को,
दर्द ए इक़रार मत करना,
माना कि मन हल्का होता है
जताने से,
मगर बहुत मशग़ूल है लोग आजकल उड़ाने में,
हमदर्द तो अब अपनों में नहीं मिलते
गैरों पर भी विश्वास मत करना,
दर्द ए इक़रार मत करना।

तेरे लिए

July 1, 2021 in शेर-ओ-शायरी

यहां जान बहुत सस्ती है,
नहीं दुंगा!
मैं जीने आया हूं तेरे लिए।
और चांद तारों का क्या हैं करना!
मैं खुशियां लाया हूं तेरे लिए।
— Manush

आलसियों के महाराज (बाल कविता)

November 16, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

भिन-भिन करती,
मक्खियां आई!
भी-भी करते,
मच्छर लाई!

गोलू बड़े ही मस्त मौला,
जिन्न को झट से आवाज लगाई,
मुस्कुराकर जिन गोलू से बोला,
चैन से सोएं मेरे साईं,
मच्छरदानी! अभी लगाई।

भी -भी ,भिन-भिन,
मच्छर कांटे!
गिन -गिन ,
गिन -गिन,
सपनों की गहराइयों से,
गोलू ने फिर की लड़ाई।

ओ रे मच्छर!
तुझको जरा-सी शर्म ना आई,
तुझे ना आती, मुझे तो आती,
नींदें मेरी बड़ी सुहानी,
तुमने नालायक क्यों भगाई।

ऊपर से ये मच्छरदानी,
पास मेरे ये क्यों ना आई,
आजा तनिक! लग जा ज़रा,
मेरी चारपाई करें दुहाई ।

और इतनी दूरियां अच्छी नहीं,
चद्दर को उसने, तंज लगाई।

तुम तो बहुत ही प्यारी हो,
पैरों की मेरे दुलारी हो,
ज़रा आ जाओ!
मेरी चरण पादुकाओं!

ओह ! ये शौचालय कितना दूर!
निर्दई पापा ! क्यों बनवाईं।
अचानक मां की आवाजें आई,
सो गया बेटा!
गोलू ने फिर दुबकी लगाई,
सब्र से महसूस,
किया ज़रा-सा,
ओह ! आ गया मेरा, तिलस्मी जिन्न!

मगर ये टॉयलेट,
बड़ी खिसियानी ,
नींद के पल में; जोर से आईं,
क्या करूं ,क्या ना करूं!
अब तो जाना; पड़ेगा भाई!
😔😔😣🙄

—मोहन सिंह मानुष

दोस्त

November 3, 2020 in मुक्तक

अगर खुदा तुमने ,
लाखों तकलीफें दी हैं;
मानुष को!
तो कोहिनूर से दोस्त भी दिए हैं,
उनकी मोजुदगी ही है,
जो मुझे आस्तिक बनाती है।

मैं भी चौकीदार!

November 2, 2020 in शेर-ओ-शायरी

इश्क़ ने हमें बर्बाद किया;
फिर भी दिल ने; खुद को आबाद किया।-२
अरे! ना आती है ,
तो ना आए !
नींदें रात को,
मैं भी चौकीदार !
गर्व से!
मोदी जी को याद किया।

तेरा मेरे लिए होना

October 27, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

तेरा मेरे लिए होना,
उतना जरूरी,
जितना जरूरी ,
ज़हान को हवा पानी है,
तू अंजाम है,
मेरे इश्क का ,
तू सुकून है ,
मेरी बैचेनी का,
कम शब्द में कहुं तो
दिल की हसरतें,
तेरी दीवानी है
सांसों के बिना,
कोई कैसे रहे
तू मेरे हाले-दिल की,
कहानी है
तेरा मेरे लिए होना
उतना जरूरी
जितना जरूरी
ज़हान को हवा पानी है
हंसी हो, खुशी हो,
गम हो या दर्द की झड़ी हो
वक्त की बदहाली में भी ,
तेरी मौजूदगी से ,
मौज-ए-रवानी है
तेरा मेरे लिए होना
उतना जरूरी
जितना जरूरी
ज़हान को हवा पानी है
फर्क नहीं पड़ता
लोगों की चुगलियों का,
तानों का,
बहानों का,
मेरे होठों की थरथराहट की ,
तू ही महज़ जुबानी है
तेरा मेरे लिए होना
उतना जरूरी
जितना जरूरी
ज़हान को हवा पानी है
Specially for my wife….

वह हिंदुस्तान ही हैं!

October 21, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

जहां बेटियों को पूजा जाता है
वह हिंदुस्तान ही है,
और
जहां पर इज्जत को सरेआम,
नीलाम किया जाता है ,
वह भी हिंदुस्तान ही है।
जहां बेटी पढ़ाओ,
बेटी बचाओ!
की मुहिम फैलाई जाती है,
वो भी हिंदुस्तान ही है
और
जहां बेटियों के इंसाफ हेतु
राजनीति खेली जाए,
वह भी हिंदुस्तान ही है।

अब के दशहरे

October 21, 2020 in मुक्तक

चलो ! अब के दशहरे ,
नया कोई चलन करते हैं।
भला कब तक जलाते रहें,
लकड़ी का रावण,
मन में जो बैठा है,
उसी का आज दहन करते हैं,
चलो अब के दशहरे !
नया कोई चलन करते हैं।

बीती सुध

October 18, 2020 in मुक्तक

बीती सुध ,जो कभी सुखदायक थी ,
आज वो बड़ा रुलाती हैं,
चार दिन की घनी हरियाली थी,
अब पतझड़ बड़ा सताती है।

दर्द का जो स्वाद है

October 11, 2020 in गीत

दर्द का जो स्वाद है,
उससे दिल आबाद है,
मुफ्त है जग में,
खुदगर्जीया !

मक्कारियां सरेआम है,
दर्द का जो स्वाद है,
उससे दिल आबाद है।

मदहोशियों का माहौल हैं
बहरूपियों की यहां फौज हैं,
पराया यहां,
किस -किस को कहें,
अपनों की जरा खोज है,

बैचेनियां, तन्हाईयां,
बदनामियां!
आजाद हैं,
दर्द का जो स्वाद है,
उससे दिल आबाद है।

वे सो रहे हैं

October 3, 2020 in मुक्तक

वे सो रहे हैं व्यवस्था को,
जेब में लेकर,
हम रो रहे हैं ,
हाथ में मोमबत्तियां लेकर!
वे जागते हैं अक़्सर चुनाव में,
और हम हादसों में ….

मैं जब-जब अकेला होता हूं

October 3, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैं जब-जब अकेला होता हूं,
दर्द के संताप को,
बाहों में लेकर रोता हूं।

खो जाता हूं ,उन यादों में,
उलझे हुए उन ख्वाबों में,
वक्त की जबरई को,
गले लगाकर; खोता हूं,
जब-जब अकेला होता हूं।

कभी अपना ही,
कभी औरों का ,
गम देखकर, मैं हैरान-सा
नींदों को भगाए रहता हूं,
जब जब अकेला होता हूं।

मुझे सोने नहीं देती

September 27, 2020 in शेर-ओ-शायरी

मैं अक्सर आंखें मूंद लेता हूं,
चैन से सोने के लिए,
मगर मक्कारी;
बीमारी जमाने की;
मुझे सोने नहीं देती!

मेरी हिंदी,मेरा अभिमान!

September 14, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मेरी भावनाओं में;
जो उत्तथ-पुथल है ,
उनको शांत !
वो आराम से कर सकती है,
माना बहुत सारी है,
भाषाएं इस संसार में,
मगर मेरी आत्मा को तृप्त!
मेरी हिंदी ही कर सकती है।

हिंदी दिवस की सबको हार्दिक शुभकामनाएं।
🙏🙏मोहन सिंह मानुष

वो चली गई!

September 12, 2020 in मुक्तक

वो रात भर खांसती!
चिल्लाती!
घबराती!
फड़फड़ाती!
भुखी-प्यासी, आंसू बहाती,
अकेली तड़पती,
चलीं गईं!
छोड़ सांस ,
वो चली गई।
मगर बेटे बड़े संस्कारी!
ऐसे ना भुखा जाने देंगे,
जीते जी तो कुछ कर ना पाए ,
मगर आज पूरा ध्यान देंगे,
जिसके लिए कितना तरसी वो,
पूरा वो मान देंगे,
पूरा वो सम्मान देंगे!

हसरत ए दीदार

September 12, 2020 in मुक्तक

बहुत झगड़े हम रात भर
दिल से अपने ,
मगर बदनामी करे,
मनमानी करे,
दिल मेरा ,
तुम्हारी ही गुलामी करें ,
आखिर आना ही पड़ा लौटकर ,
तेरे शहर में,
तेरी गलियों में,
हसरत ए दीदार को तेरे ,
दिल मेरा बदनामी करे,
दिल मेरा मनमानी करें।

फर्क तो जरूर मिलता है।

September 11, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

तू शक्तिशाली!,मैं दलित !
तू स्वर्ण ! मैं नीच!
यह शब्द स्वार्थ में ,
तूने ही मुझे दिए।
तू मालिक, मैं दास,
तेरी विचारधारा में;
मेरा उपहास,
शोषण का खाता,
यहां हर रोज खुलता है,
अरे!कितना भी अनदेखा करो,
फर्क तो जरूर मिलता है।
जरा-सा खून का कतरा निकाल,
मेरा और अपना,
फिर देख!
मिला ,
मेरे वजूद के साथ अपना वजूद,
फर्क मिलेगा!
मगर नस्ल का नहीं ,
ना ही रूप का ,
हां! तेरी सोच के बीज का,
उच्च-नीच के बीच का,
भेदभाव चीखता,
तेरे अहम् में गुरुर लाजमी-सा
मिलता है !
फर्क तो जरूर मिलता है।

नादान पौधा

September 11, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

नन्ना-सा ,एक छोटा-सा ,
टहनी बड़ी, मगर कोमल-सा,
अकेला मनोहर पौधा,
तेज हवाओं में ,वो झूला झूले,
कभी इधर कभी उधर,
क्रीडा ललाम बड़ी सुहावनी,
बारिश में वो नृत्य करें,
मगर माली ठहरा क्रुर-सा,
पौधा उसे नापसंद करें,
बांध दिया उसने उसको,
मोटी-सी एक डंडी से,
हो गया बेचारा कैदी-सा,
पकड़ा-सा कोई भेदी-सा,
कैसे हवाओं में वो झूमे,
कैसे धरती को वो चूमे ,
पल-पल पुरानी यादें,
मन में एक विद्रोह करें,
मगर बड़ा हुआ जब पौधा,
माली से क्यों प्रेम करें?
माली से बहुत प्रेम करें।

आओ ताली बजाते हैं!

September 8, 2020 in मुक्तक

आओ थाली बजाते हैं!
गरीबी का मुंह दिखाने वाली,
बेरोजगारी के लिए ,
आओ ताली बजाते हैं!

देश की कमर तोड़ने वाली
मरी हुई अर्थव्यवस्था के लिए,
आओ थाली बजाते हैं!

झूठ को सच बनाने वाली
दलाल मीडिया के लिए ,
आओ ताली बजाते हैं!

मैं शिक्षक हूं वर्तमान का!

September 5, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैं शिक्षक हूं वर्तमान का,
मुझे बच्चों से डर लगता है,
मजबूर-सा हूं पढ़ाने में,
बेरोजगारी से डर लगता है।

सम्मान-वम्मान जुति बराबर
मगर लाचारी से डर लगता है,
अध्यापन ही एक काम नहीं
अतिरिक्त कार्य बहुत से होते है,
मालिक बड़े ही प्रताड़ित करते,
सैलरी रुकने से डर लगता है।

क़तरा-क़तरा ख़ून निचोड़े
फिर जेब से पैसा निकलता है,
ना पढ़ाएं तो खानें के लाले,
भूखमारी से डर लगता है।

गुरु है , गोविंद समान ,
कहने को अच्छा लगता है।
मैं अध्यापक हूं निजी संस्थान का,
दुत्कारी से डर लगता है।

दिखावे के पीछे -पीछे

September 3, 2020 in मुक्तक

दिखावे का मायाजाल बड़ा भयंकर,
जो फंस जाएं निकल ना पाए,
फिर उचित ,अनुचित सब परे-सा,
अलग-अलग हाथी के दन्तों -सा।

हां मान लेता हूं…

September 2, 2020 in शेर-ओ-शायरी

हां मान लेता हूं ,
अब नहीं होता ,पहले जैसा,
बार-बार वो इजहार करना ,
मगर मैं उस कस्तूरी-सा
जो कपड़ा फट जाए ,
मगर खुशबू नहीं छोड़े।

मेरा वजूद

August 31, 2020 in मुक्तक

वो मेरा बहुत ख्याल रखता ,
मुझे भले-बुरे की पहचान कराता,
जब भी संकट आता ,मुझे बचाता,
मगर उससे ज्यादा ,
मैंने दूसरों से प्यार किया,
पर,जब सबने ठुकराया,
उसी ने मेरा हौसला बढ़ाया,
बस इसीलिए बहुत प्यारा है,
मुझे मेरा वजूद।

हमें औरों-सा ना समझ…

August 30, 2020 in शेर-ओ-शायरी

हमें औरों सा ना समझ,
आंखों से और बातों से,
इरादों को भांप लेते हैं।
ये झाड़ पर चढ़ाना,
मीठी-मीठी बातें बनाना,
यहां नहीं चलेगा,
हम स्वार्थ की चाह को,
दिमाग़ से अपने; थोड़ा जांच लेते हैं।

मेरा रक़ीब

August 30, 2020 in शेर-ओ-शायरी

मेरा दिल ही मेरा रक़ीब है,
मैं भुलना चाहता हूं, उसे
और ये याद करता रहता है।

तुम जाओगे…

August 30, 2020 in शेर-ओ-शायरी

तुम जाओगे ,कल नहीं;
आज चलें जाओ,
छोड़ जाओ, रोकूंगा नहीं,
मगर काम ज़रा-सा करके जाओ,
फिर कभी टोकूंगा नहीं।
ये यादें जो घर बनाएं बैंठी है दिल में,
ज़रा मेहरबानी ! ले जाओ,
फिर कभी भी; ईमान से, कोसूंगा नहीं।

बेबसी का सैलाब

August 29, 2020 in शेर-ओ-शायरी

बेबसी का सैलाब कुछ ऐसा आया ,
सब रिश्तों को बहा ले गया,
तंगी कुछ ऐसी हुई कि,
हर कोई हमसे; तंग-सा हो गया,
और जनाब!कोरोना तो वैसे ही;
हैं बदनाम ;आजकल
कोरोना से बुरा तो ,
हमारा वजूद हो गया।

तुम्हें नहीं मालूम…

August 29, 2020 in शेर-ओ-शायरी

तुम्हें नहीं मालूम ,
मगर मंसूबों को तेरे ,
मैं जान लेता हूं,
रहता हूं परेशान,
मगर; फिर भी
खुद को हर हाल में ,
संभाल लेता हूं,
और इत्तेफाक से
तुम्हारी आंखों और
लफ्जों का तालमेल,
बिगड़-सा गया है आजकल ,
बस !इन्हीं हरकतों से ,
तुम्हें पहचान लेता हूं,
इन्हीं हरकतों से ,
तुम्हें पहचान लेता हूं।

प्रेम विरह

August 28, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

प्रेम विरह

क्या सही है ,क्या गलत ,
ना जानू ।
पर आंखें  टपक- टपक
नयन-जल बौछार में ;
भीगा तनबदन,
क्या करूं? क्या ना करूं ?
ना जानू।

नाराज़ हूं ;मैं खुद से
पर क्यो वो नाराज़ हैं ?
ग़लत मैं थी या वो ?
ना जानू ।

पर क्यों ना रह पाऊ?
क्यों ना कह पाऊं?
हर दूख , हर पीड़ा
सह जाऊं,
क्रोध को उनके,
जफ़ा  को उनकी
पानी-सा समझ पी जाऊं
पर कैसे मनाऊं उनको ?
ना जानू।

एक कक्ष में
दो परिंदे ,
कैसे ?कब से ?
हम हो गए
ना जानू।

कुछ भी तो ना भाता ,
उन बिन,
एक दिन भी  सौ साल लगे
कितना मोह होने पर भी
खफा तुम कैसे हो गए
ना जानू ।

—- मोहन सिंह मानुष

मुझे समझने की कोशिश मत करना

August 27, 2020 in मुक्तक

मुझे समझने की कोशिश मत करना,
मैं उलझा-सा कोई जाल हूं,
जितना सुलझाओंगे ,
उतना ही उलझ जाओगे
अगर सुलझा लिया तो,
फिर खुद को ही भूल जाओगे।

तुच्छ राजनीति

August 27, 2020 in मुक्तक

ये राजनीति बड़ा ही मीठा जहर,
मानवता पर बड़ा ढहाती कहर ,
होते दंगे ,बिखर जाती लाशें,
फिर मिडिया हमारी,
दिखाती दलाली,
हाए! हिन्दू मर गया ,
हाए! मुस्लिम मर गया,
पर कौन बताए?
और कौन समझाए ?
केवल इंसान मरता है,
तुम्हारे तुच्छ मंसूबों से,
केवल इंसान मर गया,
हां ,इंसान मर गया।

पापा की लाडली

August 26, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

निकल ही गई ,जान मेरी!
जब नन्हीं-सी जान ,
पहली बार बीमार हुई।

औरों को भी थी गमी,
पर आंखों से मेरी,
बेमौसम बरसात हुई,

नहीं था होश,
मुझे ना जाने ,
कितनी बैचैनियो की बाढ़ हुई।

भागा मैं उसे लिए गोद में ,
पल पल मन में घबराहट हुई
फिर से वो मुस्कुराए,
जल्द फूल- सा वो खिल जाएं ,
मन से मेरे फ़रियाद हुई।

जब पहुंचा मैं अस्पताल में,
डॉक्टर !डॉक्टर! हाय!चित्कार हुई।
डरना तो बेकार है,
बस हल्का सा बुखार है!
डॉक्टर ने ये बतलाया।
दवा -दारू के दिए घोल से
बिटिया मेरी स्वस्थ-हाल हुई

जब गुंजाया घर ;
किलकारियों से उसने,
पापा- पापा शब्दों की
आवर्ती बारंबार हुई।

सुकून मिला ,बड़े चैन के साथ,
उस सुख की कोई सीमा न थी
आनंद ही आनंद घोर आनंद
संतुष्टि मन को इस बार हुई।

——–मोहन सिंह मानुष

चश्मे वाले नेताजी!

August 26, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

चश्मे वाले नेताजी!
गजब कमाल करते हैं,
करोड़ों जनों को चुना लगाने का;
जिगरा सरेआम रखते हैं ,
ना खाऊंगा ना खाने दूंगा!
ऐसे-ऐसे वादे तो;
वो खुलेआम करते हैं,
चश्मे वाले नेता जी ,
गजब कमाल करते हैं।

यह सूट बूट ; ये शानो शौकत
महज़ एक औपचारिकता,
असल में नेताजी!
एक फकीर ठहरे!
और फिर गंगा पुत्र हैं नेताजी
मगर ,गंगा अभी मैली ही है,
फिर भी ,भाषण कला एक अस्त्र!
इसका प्रयोग नेताजी;
हर बार करते हैं,
चश्मे वाले नेताजी!
गजब कमाल करते हैं‌।

गरीबों के वो बड़े हिमायती ;
चुनाव में,
मगर आजकल उनसे रूठे है,
कोरोना की महामारी में
कितने गरीब भूखें है!
वादे किए थे देंगे रोजगार,
अब घर-घर में बेरोजगारी हैं,
पर नेता जी ठहरे जुमले बाज!
ऐसे इकरार तो , वो हर बार करते हैं,
चश्मे वाले नेता जी !
गजब कमाल करते हैं।
 
         …..मोहन सिंह मानुष

माना कुछ बुराईयां…..

August 25, 2020 in शेर-ओ-शायरी

माना कुछ बुराईयां है मुझमें,
मगर सारी अच्छाईयां नहीं है तुझमें,
फर्क इतना-सा ,
मैं हुबहु कहता,
और तू बनाकर।

जिससे ठोकर लगी मेरी…

August 25, 2020 in शेर-ओ-शायरी

जिससे ठोकर लगी मेरी,
एकाएक वो पत्थर बोला!
माना गिरे हो तुम,
मगर इतने भी नहीं गिरे हो तुम,
जो गिरते ही रहोगें हरदम।

नन्ही सी बिटिया

August 25, 2020 in मुक्तक

शैतान की नानी,
बन्दर-सी शैतानी,
जादू की पुड़िया,
सोने की गुड़िया,
परियों सी रवानी,
प्रेम की निशानी,
बालों को नोचे,
कान को खींचे,
शरारतें उसकी मन को भाएं,
थकान का आलस पल मे उड़जाए,
बेटी मेरी कलेजे का टुकड़ा,
दिल में बसा है अब उसका मुखड़ा,
आंगन की मेरे वो है शोभा,
परिवार की मेरे शान बढ़ाये।

आपके लिए तो…

August 23, 2020 in शेर-ओ-शायरी

आपके लिए तो केवल वो शब्द थे,
जो निकल गए जुबान से,
मगर जो आघात हुए हैं हृदय से,
उनकी खता तो बताइए ,जनाब!

अभागी क़िस्मत

August 23, 2020 in मुक्तक

आज तू हंस ले ,
खुलकर मुझ पर,
मगर ,थोड़ा सा सब्र कर;
अरी; सुन ! मेरी अभागी क़िस्मत!
मैं सीख तुम्हें सीखलाऊंगा,
मेहनत की जंजीरों से जकड़कर,
मुलाजिम तुम्हें बनाऊंगा।
मुलाजिम, तुम्हें बनाऊंगा!

——मोहन सिंह मानुष

मैं…

August 23, 2020 in शेर-ओ-शायरी

चलो ‘मैं’ को,
‘मैं’ से लड़ाते हैं!
जीतकर ,
फिर ‘मैं’ से
‘हम’ बनाते हैं।

विशेष–>
यमक अलंकार का प्रयोग
एक “मैं ” अपने आप के लिए
दूसरा ” मैं ” अहंकार के लिए

एक सावन ऐसा भी (कहानी)

August 22, 2020 in Other

              

किसी ने कहा है कि प्रेम की कोई जात नहीं होती, कोई मजहब नहीं होता ।मगर हर किसी की समझ में कहां आती है ये बातें।

कुछ लोगों के लिए समाज में इज्जत से बड़ी कुछ चीज नहीं होती है ,मगर यह इज्जत क्या इंसानियत से भी बढ़कर होती है; यह समझना या समझाना बड़ा मुश्किल है।
बात हरियाणा के एक छोटे से गांव महबूबगड़ की है ।
गांव के खुले आसमान और  हरियाली भरे वातावरण की छटा ही निराली होती है जो आपको कहीं नहीं मिलता वह गांव में मिलता है जैसे कि एक- दूसरे के साथ भाईचारा, संयुक्त परिवार में रहना, मिलजुल कर काम करना, खाने पीने की चीजें अपने लिए भी और दूसरों के लिए भी पैदा करना।

ये सब आजकल शहरों में कहां होता है,सब अपने से मतलब रखते हैं; किसी को किसी से कोई लेना देना नहीं होता । मगर गांव में भी बहुत कुछ गलत होता है जोकि आपको कहानी में आगे पता चलेगा।

मन में अपने गांव के बारे में सोच- सोच कर, मोहित दिल्ली में अपने फ्लैट की बिल्डिंग से खाली पड़े; मैदान की तरफ घूरे जा रहा था।
अंदर से कल्पना आवाज देती है -“ऐ जी! सुनते हो खाना तैयार हो गया है आ जाओ।”

कल्पना की आवाज सुनकर मोहित एकदम से गांव की दुनिया से बाहर निकलता है और टेबल की तरफ आगे बढ़ते हुए ( मुस्कुराते हुए)- “बहुत-बहुत मेहरबानी। मैडम जी!हम पधार रहे हैं।”

मोहित और कल्पना की शादी को अभी छह महीने भी नहीं हुए हैं ,नई नई शादी और ऊपर से साल का पहला सावन आने वाला है ऊपर से तीज का त्यौहार भी ।
हरियाणा में वसंत और तीज से महिलाओं को कुछ
ज्यादा ही प्यार होता है और क्यों नहीं हो, बागों में झूला झूलना, मधुर मधुर गीत गाना, फिर तीज के दिन घरों में अच्छे-अच्छे पकवान बनाना। बहुत सारी बातें हैं प्यार करने की।

मोहित ने पिछले कुछेक महीनों में बहुत सारी तरक्की कर ली है, अपना खुद का फ्लैट, गाड़ी और सभी ऐसो आराम की चीजें।
वह दोनों बहुत ही खुश हैं इस रिश्ते से ।
मगर हैरानी वाली बात यह है की इन दोनों की शादी से न तो मोहित के घर वाले खुश है और ना ही कल्पना के।
मोहित एक दलित परिवार से संबंध रखता है दूसरा कल्पना ब्राह्मण है ।

गांव की विचारधारा के अनुसार एक ब्राह्मण कभी भी एक दलित के साथ अपनी बेटी का विवाह नहीं कर सकता है, दूसरे मोहित के घरवाले मन ही मन तो कल्पना को पसंद करते थे मगर गांव वालों के डर से उन्हें भी यह सब मंजूर नहीं था ।

मोहित और कल्पना ने कोशिश की थी घरवालों को मनाने की मगर उनकी कोशिश असफल रही।
इसमें कोई दो राय नहीं कि मोहित एक अच्छा लड़का था, अच्छी पढ़ाई लिखाई ,अच्छा व्यवहार, कमी बस यही थी कि वह दलित था।

कल्पना मोहित को स्कूल टाइम से जानती थी फिर कॉलेज साथ -साथ पढ़ाई की, ऐसे करते -करते एक दूसरे को अच्छे से जानने लगे, पहचानने लगे ;फिर बात शादी तक चली गई।

मोहित कभी नहीं चाहता था कि वह भाग कर शादी करें, मगर कल्पना की जीद, प्रेम और हालात से मजबूर होकर उसको यह कदम उठाना पड़ा। यही कारण था कि पिछले छह महीनों से गांव में किसी को नहीं पता था कि वह दोनों कहां रह रहे हैं ।

मोहित के पापा ने उसे बेदखल कर दिया था और कल्पना के घर वालों से माफी मांग ली थी मगर कहीं ना कहीं आग की ज्वाला लपटे खा रही थी। मगर यह दोनों दंपत्ति इन बातों से बेपरवाह थे।

कल्पना खाना परोस ते हुए- “सूनो जी बहुत दिन से आप ऑफिस से घर, घर से ऑफिस! बस यही कर रहे हो; मैं चाहती हूं कि कुछ छुट्टियां लो और कहीं ना कहीं घूमने चला जाए ।”

“अपनी शादी के पहले सावन का आनंद लिया जाए।”
मोहित -“नहीं कल्पना तुम जानती हो ना अभी कुछ भी सही नहीं हुआ है। अभी थोड़ा वक्त और लगेगा तुम्हारे घरवालों का गुस्सा ठंडा होने में।”
कल्पना-” ऐसा कुछ नहीं है, सॉरी मैं आपको कुछ बताना भूल गई ।”
मोहित -“क्या?”
कल्पना-“मेरी बात दीदी से हुई थी ,उन्होंने मुझे फेसबुक पर टैक्स किया था।”

मोहित-“तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था ,कल्पना क्या प्रूफ है कि वह तुम्हारी दीदी ही है। ”
कल्पना-” प्रूफ है ना मैंने उसको फ्रॉड सिम से व्हाट्सएप कॉलिंग की थी और दीदी ने मुझे बताया कि भैया को छोड़कर सब लोग चाहते हैं कि मैं उन लोगों से मिलु ।”

मोहित -“यह सब उन लोगों की चाल भी हो सकती है ,गांव के लोगों को मैं बहुत अच्छी तरीके से जानता हूं, आजकल भ्रूण हत्या, ऑनर किलिंग जो हो रही है, सबसे ज्यादा हरियाणा में ही होती है और मैं नहीं चाहता कि तुम्हें हादसों का सामना करना पड़े।”

कल्पना-“मैं समझती हूं, पर मुझे नहीं लगता कि अब ऐसा कुछ होगा ।”
“मोहित! मम्मी तो तभी छटपटा रही होंगी, मुझसे मिलने के लिए और पापा का गुस्सा जल्दी ही शांत हो जाता है और भैया को दीदी मना ही लेंगी । ”

“और दूसरा हमने गलत किया भी क्या है एक ना एक दिन तो शादी करनी ही थी उन्हे मेरी। और तुम भी तो जाना चाहते हो गांव में।”
मोहित-“कल्पना! चाहता तो  मैं भी हूं मगर!”
कल्पना -“क्या मगर!”

मोहित-“मगर मैं अपने दोस्त रोहित से बात करूंगा पहले अगर मुझे लगेगा सब ठीक है तो फिर चलते हैं; तुम्हारा सावन में बाहर घूमने जाना भी हो जाएगा। ”
मोहित खाना खाकर ऑफिस की तरफ रवाना होता है; रास्ते में वह रोहित के पास फोन करता है ।
रोहित से बात होने के बाद वह कल्पना को तैयारियां करने के लिए बोल देता है ।

कल्पना घर जाने की खुशी में कल्पनाओं से भर जाती हैं
मगर उसके मन में उलझन सी हुई उसने वहां जाने से पहले एक बार अपनी मां से बात करना सही लगा,
दीदी के पास बात करके वह अपनी मम्मी से बात करती है-“मम्मी !मुझे माफ कर दो, सच में हालात ऐसे हो गए थे,मम्मी मैं नहीं रह सकती थी, मोहित के बगैर और पापा मेरी दूसरी जगह शादी करना चाहते थे।”

कल्पना की मां-“मैं समझती हूं बेटा मुझे कुछ कहने की जरूरत नहीं है ,तुमने मुझे बताया भी तो था।”
“और मुझे तो मोहित पहले से ही पसंद था जो होता है अच्छे के लिए होता है बेटी। ”
कल्पना (खुश होते हुए)-क्या मां सच में ! तुम खुश हो इस रिश्ते से।”

कल्पना की मां-“हां ! बेटी मेरा कलेजा फटा जाता है बस एक बार तुम्हें देखना चाहती हूं ।”
“आ जाओ बेटा तुम्हारे पापा बताते तो नहीं है, मगर सब समझती हूं मैं वह भी तड़पते रहते हैं तुम्हारे लिए।”
तो ठीक है, मां हम अगले सप्ताह आ रहे हैं ,आपसे मिलने आप अपना ध्यान रखिए।
यह कहकर कल्पना फोन काट देती है और उसके मन में एक उमंग सी है अपने घरवालों से मिलने की और गांव में जाने की।

गांव में हरे भरे खेत आम के पेड़ों पर, पके हुए आम
जामुन ,अमरूद के बाग; बहुत कुछ देखने लायक है महबूब गढ़ गांव में।
धीमे धीमे गाड़ी की रफ्तार से मोहित और कल्पना प्रकृति का नजारा ले रहे थे और उन दोनों में एक उत्साह के साथ साथ एक घबराहट भी थी क्योंकि काफी समय बाद वह गांव में जा रहे थे ,फिर भी वह यह बात मन में ही दबाए हुए थे।
एकदम से बारिश शुरू हो जाती है कल्पना को पता नहीं क्या होता है, जोर से चिल्लाती है मोहित गाड़ी रोको! रोको ,मोहित ने एकदम से गाड़ी को ब्रेक लगाया कल्पना हंसते हुए ,जल्दी से खिड़की खोल कर बाहर बारिश में भीगने चली जाती है ।
उधर मोहित उसे पकड़ कर लाने के लिए बाहर निकलता है -“अरे !तबीयत खराब हो जाएगी, मत भिगो!”
मगर कल्पना को बहुत मजा आ रहा था बहुत दिनों में उसे ऐसे मौसम का नजारा देखने को मिल रहा था और उन दोनों  की यह  सावन की पहली बारिश थी, फिर मोहित भी उसके साथ भीगने लग जाता है किसी फिल्मी सिन की तरह वे एक दूसरे में खो जाते हैं, बारिश का मजा लेने के बाद वे दोनों घर की तरफ निकलते हैं।

कल्पना -“कितना अच्छा मजा आया, मोहित! हमारी शादी के बाद गांव में हमारा पहली बार आना कितना  मजेदार है ,है ना!
मोहित (मजाक के मूड में) ” हां, शायद।”
अचानक ,सामने खड़ी गाड़ी को देखकर मोहित एकदम से ब्रेक लगाता है गाड़ी में से उतर कर छह सात लोग आकर उनकी गाड़ी पर टूट पड़ते हैं ।
अंदर से मोहित और कल्पना चिल्लाते हैं! कौन हो तुम लोग ? पूरी गाड़ी को लठ और डंडों से  डैमेज कर दिया जाता है
मोहित जल्दी से गाड़ी को पीछे की तरफ चलाता है मगर पीछे भी दो गाड़ियां आकर खड़ी हो जाती हैं मोहित थोड़ा गौर करके देखता है तो पीछे कल्पना के पापा खड़े हैं और ठीक सामने उसके खुद के पापा।
“रतिराम जी !बोलो क्या करना है अंदर की अंदर ही जला दे दोनों को या बाहर निकाल कर मारना है बहुत बड़ी भूल थी हमारी कि इस हरामी को हमने जन्म दिया” मोहित के पापा बड़े जोश के साथ कल्पना के पापा को कहते हैं।
“पूरी इज्जत के झंडे गाड़ दिए हैं दोनों ने ऐसे तो नहीं जाने देंगे ,कितने दिन से कुत्तों की तरह ढूंढ रहे थे इन लोगों को । शुक्र है इस बदचलन की मां ने मुझे बता दिया, वह तो आंखें फाड़ फाड़ कर इंतजार कर रही है इसका” रामप्रसाद तुम्हारा काम हो गया है आज से हमारा गिला शिकवा खत्म तुम अपने घर जा सकते हो। और उस रोहित को इनाम के तौर पर दे देना दो लाख रुपए साला कुत्ते का दोस्त कुत्ता होता है”
उन लोगों  की बात सुनकर मोहित और कल्पना सहमे से रह गए औरआगे होने वाले घटना से मोहित सूचित हो चुका था
मोहित कल्पना को अपने गले से लगाते हुए कहता है- “हमने एक दूसरे के साथ जितना थोड़ा सा वक्त गुजारा है वो हजारों सालों से भी बहुत अच्छा था और हमारी शादी का यह पहला और आखरी सावन बहुत ही यादगार है और सुंदर है ।”
कल्पना ने रोते हुए मोहित को कस कर पकड़ लिया और कहने लगी यह सब मेरी वजह से हुआ है ।
मोहित ने उसे समझाते हुए कहा- “जो होता है अच्छे के लिए होता है। ”
इतनी बातें हुई थी कि वह जानवरों से भी गए गुजरे लोग कुहाड़ियों ,तलवारों से उस गाड़ी पर टूट पड़े और देखते ही देखते पूरी सड़क लहूलुहान हो गई।
और जीत हुई उस समाज के उन इज्जतदार, मान मर्यादा वाले ,हैवानों की ,जिन्होंने दो प्यार करने वाले प्रेमियों को जाति, परंपरा और खोखली मर्यादा  के नाम पर खा लिया।

                              ——-मोहन सिंह मानुष
  कहानी में लिए गए सभी पात्र व गांव का नाम सभी काल्पनिक है इनका किसी भी घटना से कोई संबंध नहीं है।

वजह क्या हैं

August 22, 2020 in शेर-ओ-शायरी

बहुत आ रहे हैं लोग ;
आजकल ,पास तुम्हारे !
पहले तो नहीं आते थे ,
सच बताओ ये रजा क्यों है,
डॉक्टर हो शायद ,स्वार्थ के!
सच तो बताओ , वजह क्या हैं?

माना शराफत भली है..…

August 22, 2020 in शेर-ओ-शायरी

माना शराफत भली हैं ,इंसानियत के लिए,
मगर, हे मानुष !
ज्यादा युधिष्ठिर ना बन,
तेरे आस-पास सुगनी बहुत रहते हैं।

पपीहे की आस(कहानी)

August 22, 2020 in Other

पपीहे की आस

जैसी खुशी बच्चे के पैदा होने पर होती हैं ,शायद उससे भी ज्यादा खुशी किसान  को बारिश होने पर होती हैं
यही खुशी प्यारेलाल की आंखों में दिख रही है, आज बसंत के मौसम में इंद्र की कृपया से खेतों में मानो जान सी आ गई थी।
वर्षा के साथ-साथ प्यारेलाल के मन में कल्पनाओं ने जन्म लेना शुरू कर दिया था, अबकी बार फसल अच्छी होगी तो वह सारा कर्जा उतार देगा, फिर मुनिया को ,गंठा रोटी खाने के लिए मजबूर भी नहीं होना पड़ेगा‌।

दो एकड़ जमीन को बंजर से उपजाऊ बनाने में प्यारेलाल और धनवती ने अपनी पूरी जिंदगी दांव पर लगा दी, मगर इस साल बारिश समय पर हुई है इसलिए वह बहुत उत्साहित हैं।
रिमझिम बारिश में प्यारेलाल को खेत में हल जोतना बहुत ही रास आ रहा था ,वह बैलों के पीछे ऐसे सवार था जैसे कोई राजा अपने राज महल में रथ की सवारी कर रहा हो।

जैसे-जैसे बारिश तेज तेज होती प्यारेलाल के मुख से संगीतमय गीत की ध्वनि वातावरण में चारों तरफ फैल जाती।

“ए जी! सुनते हो! आ जाओ खाना खा लो फिर करते रहना जुताई ।”
धनवती की आवाज सुनकर प्यारेलाल अपने गीत को विराम देता है। “आ गई !भाग्यवान!बस रूको हो गया है काम,आता हूं।”
“जब तक आप और मुनिया खाना खा लो, तब तक, मैं पौध लगाना शुरु करती हूं। ”
“मुनिया की मां !ज्यादा मेहनती मत बनो पहले खाना खा लो फिर लगते हैं तीनों!”प्यारेलाल प्यार से कहते हैं।
“मैं खा लूंगी फिर”धनवती ने उठते हुए कहा।
प्यारेलाल हाथ पकड़ते हुए “बैठ जाओ और जल्दी से खा लो, जब तक बारिश भी हल्की हो जाएगी।”

अगले दो  दिन तक बारिश अच्छी होती है प्यारेलाल अपने दोनों खेतों में धान की फसल लगा देता है, फिर पहले की तरह खेत से घर, घर से खेत, यही तो चलता है किसान के जीवनी में।
मगर अब सूर्य देवता का क्रोध दिन -प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था और इंद्र देवता मानो बादलों को लाना ही भूल गए हो। जो खेत पानी की वजह से लहरा रहे थे, अब वह  धरती की तपन की वजह से मुरझा रहे थे और धरती शुष्क हो गई थी।
उधर प्यारेलाल की उम्मीद की सीमा तेज धूप में गोते खा रही थी।

“हे ईश्वर !बस एक बार अपनी कृपया कर दे; हम पर ।
बस एक बार बरस जाओ, नहीं तो मुनिया के बापू सच में टूट जाएंगे।”धनवती मंदिर में भगवान के सामने हाथ जोड़े खड़ी है ,और मानो आंखों से बह रहा झरना, बहुत कुछ कह रहा है।
किंतु जिस चीज की आवश्यकता हमें होती है वह जल्दी से मिलती कब हैं!

उधर प्यारेलाल खेत में आसमान की तरफ आस लगाए बैठा है और उसी पेड़ के ऊपर पपीहा लगातार बोले जा रहा है ,उस पपीहे की दशा प्यारेलाल ही समझ सकता था।

उस पपीहे में और प्यारेलाल में अब कुछ अंतर नहीं था दोनों ही बारिश के लिए तरस रहे थे।
बारिश को हुए महीना हो गया खेतो में फसल दिन प्रतिदिन सूखती जा रही थी मगर बारिश के दूर-दूर तक कोई निशान दिखाई नहीं दे रहे थे।
अब प्यारे लाल के सपनें और कल्पनाएं मानो धूप के नीचे दबती जा रही थी।
पेड़ के नीचे बारिश की राह देखकर उदास सा मुंह लेकर वह घर लौट आता था।
उधर पेड़ पर बैठा पपीहा उसकी क्षमता को कुछ हौसला तो देता ही था, मगर प्यास के कारण उसकी भी अवस्था बहुत बुरी हो गई थी।

अगले दिन प्यारेलाल से उस पपीहे की आवाज सुनी नहीं जा रही थी ,उसकी आवाज में एक तरह से रुदन व  करहाहट थी ।
मानो वह कह रहा हो कि अगर आज बारिश नहीं हुई तो सच में वह अपने प्राण त्याग देगा ।
यही स्थिति प्यारेलाल की थी, क्योंकि अबकी बार फसल नहीं हुई तो साहूकार उसे सच में मार देंगे।

अचानक पीहू- पीहू-पीहू की आवाज शांत हो गई और पपीहा एकदम से नीचे गिर जाता है ,और प्यारेलाल के शरीर में भी मानो जान बाकी ना रही हो ।
इतना कुछ होने के बाद में अचानक से बहुत तेज बादल गरजते हैं ।और देखते ही देखते प्यारेलाल के शौक में बादल भी रोने लग जाते है । मानो वे कह रहे हो, ईश्वर के दर पर देर है अंधेर नहीं! 
                           समाप्त ।
                                —–मोहन सिंह मानुष

कमियां हमारी

August 22, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

दिखाईं देता है,
तुझे अपना दुःख,
और तकलीफें भी,
और नज़र आ जाती है,
अपनी अच्छाईयां भी,

मगर मानुष! तू बहुत लालची,
दिखावे के लिए तुने,
क्या-क्या नहीं किया,
फिर दिखाई देती है,
तुम्हें अपनी बेबसी।

बस एक चीज ,
जो दिखाई नहीं देती,
खोट अपना!
कमियां अपनी!

दर्द या हमदर्द

August 22, 2020 in शेर-ओ-शायरी

जो कभी दुश्मन था मेरा,
वो आज मुझसे हमदर्दी रखता,
ये मेरा दर्द ही अब मुझे ,
आजकल तसल्ली देता है।

आंसू मेरे

August 21, 2020 in शेर-ओ-शायरी

जितना रोकूं उतना ही बहते ,
दर्द का किस्सा पल में कहते,
आंसू मेरे बड़े ही मनमाने-से,
जरा सी बात पर बहते रहते।

रोने वाले पापा (कहानी)

August 21, 2020 in Other

                         रोने वाले पापा

                               मुकुल कितना भी गुस्सा हो ,मगर जब भी वह अपनी बेटी से मिलता हमेशा खुश और जिंदादिली दिखाता । दिनभर की उसकी सारी थकान  एक ही सेकंड में फुर हो जाती थी ।

आजकल काम की वजह से मुकुल काफी परेशान रहने लगा था ।वहीं थोड़ी सी सैलरी और बहुत सारे खर्चे ,बिजली का बिल ,खाने का राशन ,पापा की गालियां और साध्वी की चिक चिक बाजी ।

ऐसी बहुत सारी बातें थी जो उसके दिमाग में पूरा दिन चलती रहती थी। बस  दो लोग थे घर में जिनसे उसको कोई शिकवा नहीं होता था उसकी मां और उसकी प्यारी सी नन्ही बेटी ; नैंसी।

चार महीने की बेटी नैंसी अपनी किलकारियां और अपनी मधुर चिल्लाहट से अपने पापा को भी बच्चा बना देती थी और पापा उसके प्यार में मगन होकर सारी दुनिया के काम झाम को भाड़ में कर देते ।

साध्वी का यह अद्भुत गिफ्ट मुकुल के लिए किसी एंजेल से कम नहीं था और पापा- बेटी के प्यार को देखकर साध्वी को भी कभी कभार ईर्ष्या होती थी क्योंकि मुकुल आजकल साध्वी से इतना प्यार नहीं जताता था जितना कि वह अपनी बेटी को। फिर भी साध्वी उन दोनों की नजर उतारती ।

साध्वीं  काफी समय से अपने माइके जाना चाहती थी पर गर्भावस्था के कारण वह नहीं जा पाई और अब मुकुल के पास कोई जवाब नहीं होता था ।

वो किसी भी शर्त पर नैंसी से दूर नहीं हो सकता था, पर मां की जबरदस्ती और पापा की गालियों  के सामने उसकी एक ना चली और साध्वीं का मायके जाना निश्चित हो चुका था ; उधर मुकुल का बुरा हाल था ।
मां कह रही थी कुछ ही दिनों की तो बात है, बेटा आजाएगी ; फिर ले आना कुछ दिन बाद में ।

मुकुल उदास सा मन करके ऑफिस चला जाता है और फिर जब श्याम को घर आया तो घर का माहौल कुछ बदला बदला सा दिखाई दे रहा था और उसकी नजरें किसी को ढूंढ रही थी
पर नन्ही परी कहीं दिखाई नहीं दे रही थी। उसे जिस बात का डर था वही हुआ।

अचानक मां आकर पानी देते हुए कहती है : -“बेटा राकेश आया था और साध्वी अच्छे से पहुंच गई है वहां सब ठीक-ठाक है।”
अच्छा ठीक  है, यह कहकर मुकुल जल्दी से अंदर अपने रूम में जाता है और झट से फोन निकालता है।

फिर अपनी नन्ही परी की फोटो देखकर, भावुक हो जाता है
“बेटा तुम्हारी मम्मी कितनी बुरी है! कैसे रहूंगा मैं तुम्हारे बिन? मिस कर रहा हूं मेरी छोटी गुड़िया!”
उसकी आंखे अखरूओं से भर गई थी और दरवाजे के पास खड़ी मां  देखकर हंस रही थी और उसके मन में द्वंद्व  चल रहा था वह प्रसन्न हो या परेशान!

“मुकुल तू नन्हा मुन्ना कब से बन गया!”  मां ने मुस्कुराते हुए कहा।
चलो नहा लो और फिर बात कर लेना फोन पर,
मगर मुकुल पर जूं नहीं रेंग रही थी ,वह तो अब भी बेटी के ख्यालो में खोया था।…..
                      
                      ——मोहन सिंह मानुष

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