बिटिया ! लक्ष्य हमेशा रखना याद

August 1, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

अनसुनी करके सबकी बात
लक्ष्य हमेशा रखना याद।।
इल्म ऐसा तुझमें आए
तेरी मंजुलता सबको भाए
हर सङक पर, हर गली में
हरेक जन की हो ये फ़रियाद
अनसुनी करके सबकी बात
लक्ष्य हमेशा रखना याद।।
तिरोहित न हो कभी तेरी साहस
कोई जन हो न तुझसे आहत
सबकी चाहत हो ऐसी बिटिया
पूरी हो तेरी हर मुराद
अनसुनी करके सबकी बात
लक्ष्य हमेशा रखना याद।

मेरी आत्मजा (जन्मदिन की हार्दिक बधाई)

August 1, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

कयी जिम्मेदारी है
“ऐ आत्मजा” तुम पर
हासिल करना है तुझे
छिपा जो क्षितिज पर।
लगन जगाना है कुछ ऐसा
मशाल बन जाए वो वैसा
मिशाल मिल न पाए तुझ जैसा
अनुसरण करें तूं बढ़े जिस डगर पर
हासिल करना है तुझे,छिपा जो क्षितिज पर।
तूं सिर्फ मेरी दुहिता नहीं
कयी प्रभार हैं, तुझ जैसों की, तुझ पर
चमकना है नक्षत्र बनके
बुलंदी की सबसे ऊंची शिखर पर
लब्ध हो वह मुकाम तुमको
जहां नतमस्तक हो, तेरे आगे पुष्कर
हासिल करना है तुझे, छिपा जो क्षितिज पर।
तरगंनी सी प्रवाह को समेटे
तूं बढ़ती रहे निरंतर
तेरी दृढ़ता के आगे
विघ्न हो जाए निरुत्तर
दामिनी सी तेज़ तुझमें
गर्वित हो तेरी फतह सुनकर
बग़ैर डर के, उम्मीद मरीचि-सी
प्रतिक्षण होती रहे तूं अग्रसर
हासिल करना है तुझे, छिपा जो क्षितिज पर।
तूं नन्दनी है मेरी
अरुणोदय की पहली प्रभा
लब्ध करना है तुझे
मंजिल-ए-मकसूद जो तूने चुना
गर्विता कहलाऊंगी उस दिन
पग न होंगे मेरे क्षिति पर
हासिल करना है तुझे, छिपा जो क्षितिज पर।

बसता है कहीं

July 3, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

गर कोई मुझसे पूछे कभी
बता मन तेरा बसता है कहीं
झट से मैं बोल दूं
मगधेश की गौरवमई परम्परा समेटे
है जहां बस वहीं।।
भोले भाले लोग जहां के
मेहनत नस नस में है सनी
स्वर्ग से भी सुंदर यह धरा
जिनके भलमानस से है बनी
हां धरा के उस भू-भाग पर ही
उल्लास की सुमन है खिली
मगधेश की गौरवमई परम्परा समेटे
है जहां बस वहीं।
जहां की बोलियों में मगही की मिश्री है घुली
कवि विद्यापति की गीतों की लगती है झङी
जहां जन्म ले आर्यभट्ट ने शून्य, गिनती में जङी
साक्षात् देव प्रभंजन से जिनकी अर्चन है जुङी
सर्वश्रेष्ठ शासन जनतंत्र की है जो जन्मस्थली
मगधेश की गौरवमई परम्परा समेटे
है जहां बस वहीं।
प्रकृति प्रदत्त है जिसकी अवर्णीय शोभा
दूर तलक दिखते‌ बस खेत खलिहान हैं
अहिंसा की बीज जन्मी, जिस ज़मीं पर
जहां की मुख्य फसल मकयी गेहूं धान है
जन्मे जेपी जहां पर, जुड़ी गांधी की स्मृति
मगधेश की गौरवमई परम्परा समेटे
है जहां बस वहीं।
प्राण छूटे इस माटी पर,जुङे हर अरमान हैं
कुछ नहीं है पास मेरे, मन से धनवान हैं
पिछङा अशिक्षित गरीबी का तमगा है लगा
पर संतुष्ट होते हैं हमारे घर, चाहे जो मेहमान है
अभिमान है मुझको खुद पर है मेरी जन्मस्थली
मगधेश की गौरवमई परम्परा समेटे
है जहां बस वहीं।

नारी ही नारी के काम नहीं आती

July 1, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

सखि बनती नहीं क्यूं दुश्मन बन जाती है
क्या बताऊं नारी ही नारी के काम नहीं आती।
अपनी बात को मनवाने के लिए
कितने झूठ सच कहा सहारा उसने लिए
अहम तुष्टि की खातिर,क्या-क्या कर जाती है
क्या बताऊं नारी ही नारी के काम नहीं आती।
खुद के गुरूर का आवरण कुछ चढ़ा ऐसा
हर कोई ग़लत, कोई नहीं यहां उसके जैसा
अपनी अच्छाई बताते क्या से क्या कह जाती है
क्या बताऊं नारी ही नारी के काम नहीं आती।
बेटियां अच्छी तभी तक,बहु न बनती जब-तक
आखिर सही साबित करे वो खुद को कहां तक
कब- कैसे कयी दुर्गुणों का कोष बन जाती है
क्या बताऊं नारी ही नारी के काम नहीं आती ‌।
कितना अच्छा हो,हर क़दम पर साथ मिलता हो
ग़लत करके भी, सीखने का अवसर मिलता हो
तुरंत कैसे परिपक्वता की उम्मीद की जाती है
क्या बताऊं नारी ही नारी के काम नहीं आती।

तेरे लिए

June 30, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

गुम कर दिया तेरे प्यार में
पर फिर भी यही सवाल रहा
क्या करती हो मेरे लिए।
छोङ दिया अपनी पसंद
भूल गयी क्या था नापसंद
भुला बैठी खुद के अस्तित्व को
फिर भी सवाल मुंह बाए खड़ा
करती क्या मेरे लिए।
छोङ दिया अपनी पसंद
भूल गयी क्या था नापसंद
भुला बैठी खुद के अस्तित्व को
फिर भी सवाल मुंह बाए खड़ा
करती क्या मेरे लिए।
बाजार में, अचानक आई वारिश में
भींग गयी, खो गई उन बिछङी ख्यालों में
कागज़ की कश्ती पानी में बहाना
कहां आता मुझे, अब कागज़ की नाव बनाना
आकांक्षाओं को जिम्मेदारियों में दफना के
रह गयी तेरी होके लाए‌ जब अर्द्धांगिनी बनाके
जीते जी मर जाती हूं, कहते हो जब
करती क्या मेरे लिए।
तुम्हारे घर को अपना लिया,
पहचान तुमसे बना जो लिया,
भुला पाई अपने उस रात मात को
तुझे सौंप,पुन्य जिसने कमा लिया
उनकी परेशानी, उनकी बीमारी से
बेचैन हो उठती हूं, अपनी लाचारी से
सक्षम होके,अक्षमता के लिवास में लिपटी हुई
कर पाती नहीं ,सारे अधिकार हूं बिसरी हुई
सिर्फ दुआओं का है आसरा, फिर कहते हो क्यूं करती क्या मेरे लिए।

पहचान हमारी जिनसे है

June 21, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

हम जो भी हैं मात तात के बल पे हैं
जुङी बहुत-सी उम्मीदें ‌हमारे कल से हैं
जन्मदाता ही नहीं, हमारी हर पहचान उनसे है
हमारी आजीविका, रूतवा, हर मुकाम उनसे है
रहते जहां उनकी दुनिया, जहान हमसे है
हम कहीं भी रहें, उनकी सुबह-शाम हमसे है
फ़ोन की घंटी,‌ दरवाजे की आहट पर ध्यान
इज्ज़त, पैसा, दुआ, दान, धर्म, करम, अरमां
हर खुशी-गम हमसे है

Happy father’s day

सर पे रहे पिता का साया

June 21, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

अंगुली पकङ चलना सिखाया
गिर-गिर कर संभलना सिखाया
मुश्किलों में भी हंसना सिखाया
भय-स्नेह से सही-ग़लत में भेद बताया
हर दांव-पेंच को समझना सिखाया
इस जीवन से परिचय करवाया
मुझे इस धरा पर‌ इक पहचान दिलाया
क़िस्मत के धनी सिर पे जिनकी पिता का साया

पितृ दिवस

June 21, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

आपने बहुत किया हमारे लिए
काबिल बनाया, जी सकूं, न सिर्फ़ अपने लिए
काम आऊं, कुछ कर पाऊं मैं, आपके लिए
सहारा बनके नहीं,साथ रहूं आपके पनाह के लिए
आसरा मेरी नहीं, मैं आकांक्षा रखूं आशीर्वाद के लिए

विरासत

June 19, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

विरासत जिन्दगी की
मिली है जो हमको
समझ पाने में अक्षम
कैसे बतलाये तुमको।
खुली हवा में जीना
स्वचछ सांस लेना
निर्मल था पानी
उसे भी हमने छीना
वारी बिक रही है
वायु बिक रहे हैं
अनमोल खजाना
मिला निःशुल्क जो हमको
लापरवाही कितनी बताये किसको
विरासत जिन्दगी की मिली है जो हमको
समझ पाने में अक्षम कैसे बतलाये तुमको।

दुआओं की महफ़िल सजाते हैं

June 15, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

हर एक की अपनी मजबूरी है
पर उसको समझना जरूरी है।
जरूरतें बहुत है, पर साधन सीमित है
आकांक्षाओं की परिधि तो असीमित है।
समझना पहले है, समझाना अगली कड़ी में शामिल है,
बनाने वाला ही जानता होगा कौन किसके काबिल है।
बहुत सी बातें अनकही रह ही जाती हैं
कहां हर ख्वाहिश पूरी हो पाती है।
उचित-अनुचित का फैसला उसी पर छोङ देते हैं
बनाने वाले की फितरत पे क्यूं तोहमत लगाते हैं
चुभन तभी होती है जब कांटों से टकराते हैं
कहा यही जाता, सब करनी का फ़ल खाते हैं।
अच्छा करने से पहले अच्छा सोचने की आदत लगाते हैं
चलो दिल से दुआओं की महफ़िल सजाते हैं।

जरिया नहीं दर्द मिटाने का

June 13, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

जब कोई जरिया मिलता नहीं
ग़म छिपाने का।
हमराज दिखता नहीं
दर्द मिटाने का।
बेचैनी हद से ज्यादा आसरा नहीं
तकल्लुफ मिटाने का।
बरबस मन की पीर अश्क बन छलक आती,
है सौख नहीं आंसू दिखा,सहानुभूति पाने का।

याचना अपनी बीमार मां के लिए

June 13, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

ढूंढता है उन लम्हों को
जहां सिर्फ अपनापन था
अधिकार मां पर सिर्फ अपना
नहीं दबाव किसी का था।।
जहां हक था
भाई से बातें करने की
पिता से लाङ जताने की
मां के आंचल में छिप जाने की
न डर था किसी के तोहमत का।।
मां के गोद में सर अपना रखूं
या उनके हाथों का सहारा बनूं
उनके दर्द सब हरके,हर पीर सहूं
क्या मर्ज करूं, उनकी परेशानी का।
जन्म दिया, पालन पोषण क्या सोच किया
पठन पाठन करवा के, गैरों को सौंप दिया
घर‌ बसे मेरा, पतवार सा रूप लिया
हक नहीं क्यूं आज़ तेरे संग रहने का।
बीमार है तूं, पर किसके खातिर
अबतक जीते आई तूं औरों की खातिर
कुछ दिवस ऐसे हों, तेरा जीना हो तेरे खातिर
अधिकार है तुझे भी‌ हर सुख सुविधा पाने का।
अब कुछ दिन जियो मेरे लिए
पास रहूं, मैं पहनूं फिर कपङे तेरे सिले
सुबह उठते ही तेरे चरणों की झलक मिले
काम से लौटूं तो तेरी चाय की ललक रहे
हमें भी हक तेरे साथ खुश रहने का।।
“सुना है दुआओं में बहुत असर होता है।आप सब से प्रार्थना है एक बार सच्चे मन से मेरी मां के लिए दुआ कीजिए।”
“मेरी मां जल्दी से स्वस्थ हो जाए!”

हर उम्मीद जुङी तुमसे हो

June 10, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

जब-तक सांस मेरे तन में रहे
तेरे हाथों में हाथ मेरा हो
हर उम्मीद जुङी हो तुमसे
बस हर क्षण तेरा साथ हो।।
उम्मीदों की सहर हो या
ढलती उम्र की शाम हो
समय का कैसा भी हो पहर
पर लवों पर तेरा ही नाम हो।
कितने दिन बीते ऐसे
साथ रहे अजनबी जैसे
फासला अब और नहीं
तुम बिन कोई ना काम हो।
मन से आपका सम्मान करूं
आप भी मेरा मान रखें
चाहे जितनी भी बाधाएं आएं
हर हाल में तेरा ही मन‌ में ध्यान हो।
आंख खुली ‌या बन्द रहे
सांसों की गति क्यूं न मंद रहे
पर तेरा ही मनन करूं मन में
तुझसे ही जुङा हर काम हो।
आश तुझी से पूरी हो
मरूं तो मांग सिंदूरी हो
तुझसे न कोई दूरी हो
तुझसे ही जुङा जीवन का तार हो।

वो लम्हा जिए

May 28, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

उसे भी वो जख्म मिलें
जो उसने थे दिए
कुछ पल ही‌ सही
हर वो लम्हा जिए
जो थे मेरे लिए बुने।
अपने हक़ के लिए
किस तरह तङपना‌ मेरा
सब कुछ होकर भी
कुछ के लिए तरसना मेरा
अपनों से ही आहत
कौन भला उन कष्टों को गिने
हर वो लम्हा जिए
जो थे मेरे लिए बुने।
हर बात का बतंगड़ बनाना
जैसे है तितकी से आग लगाना
मुंह फुलाकर अपनी बातें मनवाना
बेबाक मुझपर तोहमतें लगाना
चाहकर भी कुछ भी भूले ना भूले
हर वो लम्हा जिए
जो थे मेरे लिए बुने।

मैंने सीख लिया

May 28, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

अपनी की गई गलतियों से
सबक लेके,
खुद की कमियों को
चिन्हित करना
मैंने सीख लिया ।
हासिल करने के लिए ख्वाबों का होना
जीने के लिए एक मक़सद होना
अपनी दुआओं में सबों को शामिल करना
जख्म देने वालों से भी मोहब्बत करना
मैंने सीख लिया ।
कोई कुछ भी कहे
चाहे अनगिनत शूल मिले
हर हाल में जीना है
अपने बच्चों के लिए
कही बातों को अनसुना करना
मैंने सीख लिया ।
कङवी यादों को दिल से
भुलाने की नाकाम कोशिश
बार-बार उभर आते हैं
रूठे रिश्तों की तपिश
मिले ज़ख्मों को सीना
मैंने सीख लिया ।
देखते- देखते कैसे
वक्त गुजरता गया
उलझनों का सिलसिला
कहीं थम न सका
एक के बाद दूसरी
मुश्किल होती खङी
हर हाल में डट के रहना
मैंने सीख लिया।

अच्छा होता

May 23, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

ज़मीं से आसमां का फासला तय होता
मौत के घर का पता सबको पता होता।
न डर होता किसी के खोने का
कोयी छाया ऐसा, नशा होता।
मुस्कराहट होती बस हरेक चेहरे पर
न खौंफ का कोई मंज़र बना होता।
यह विपदा यूं ना मुंह बाये खङी होती
न खैरातों की दमघोंटू सिलसिला शुरू होता।
संतुष्टि की महफ़िल से,‌यह‌ मन सजा होता
प्रकृति का कहर यूं ना‌ हमपे‌ बरपा होता।

सुकून के पल कहां

May 21, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

तलाश करने जो चले
सुकून के पल
घूमकर आ गये वहीं
जहां से चले होके बेकल।
मन में भी सुकून नहीं
फिर ढूंढते फिरते कहां
जीवन पे ही छाया ग्रहण
छिनती सांसों की गिनती कहां
हर तरफ़ फैला है कैसा अनल
घूमकर आ गये वहीं
जहां से चले होके बेकल।
उम्मीद की किरण दिखती भी नहीं
जीने की ललक, थमती भी नहीं
परेशान हैं, परेशानी खलती भी नहीं
मृगतृष्णा सी फितरत जाने क्यूं है बनी
मरूद्दान‌ सी आश मन में सफल
घूमकर आ गये वहीं
जहां से चले होके बेकल।

रात तूं कहां रह जाती

May 20, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

अकसर ये ख्याल उठते जेहन में
रात तूं किधर ठहर जाती
पलक बिछाए दिवस तेरे लिए
तूं इतनी देर से क्यूं आती।।
थक गये सब जर-चेतन
थका हारा है सबका मन
आने की तेरी आहट से
पुलकित हुआ है कण-कण
बता तूं कहां चली जाती
तूं इतनी देर से क्यूं आती।।
जाना है तो जा लेकिन
सितारों को ना ले जाना
जाने से पहले
ठिकाना तो बता जाना
बता तूं भाव क्यूं खाती
तूं इतनी देर से क्यूं आती।।
उदासी भरा ये आलम, नज़र क्यूं नहीं आता
पसरा हर गली मातम, कैसे रास तुझे आता
काश इससे तूं निजात दिला पाती
तूं इतनी देर से क्यूं आती।।

आसान नहीं

May 19, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

समूची इंसानियत के हक-हकूक की बात
ऊंचे-ऊंचे ओहदे पर आसीन जनों की असली औकात
भुला पाना आसान नहीं।
बदतरी में बेहतरी‌ तलाशने की नाकाम‌ कोशिश
क़ातिल पंजों की पकड़ से निकलने की कोशिश
भुला पाना आसान नहीं।
आक्सीजन की जरूरत में भटकते अपने
दवाओ की कालाबाजारी में बिखरते सपने
भुला पाना आसान नहीं।
खाली अस्पताल के गेट पर लिखा जगह नहीं
जरूरत के समय इंसानों के दिल में रहमत नहीं
भुला पाना आसान नहीं।
जीते जी अपने लिए दो पल हासिल नहीं
मरते-मरते उन्हीं की अपनापन मयस्सर नहीं
भुला पाना आसान नहीं

मां तूं दुनिया मेरी

May 10, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

हरदम शिकायत तूं मुझे माना करती कहां
निमकी-खोरमा छिपा के रखती कहां
भाई से‌ ही‌‌ स्नेह मन में तेरे
यहां रह के भी तूं रहती कहां।
जब भी कुछ बनाती,
आंखें छलक आती तेरी
गर इतनी ही फिकर है तुझे
भाई को क्यूं नहीं रखतीं यहा
यहां रहके भी तूं रहती कहां।
पास रहकर भी जन्मदिन मेरा भूल जाती है तूं
पेङा भाई के जन्मदिन पर बनाती है क्यूं
मुझसे तुझे नेह कहां,
मन बसता बस भाई ‌है जहां
यहां रहके भी तूं रहती कहां ।
यह तकरार मन में चलता रहा
भाई के प्रति मां का खिंचाव खलता रहा
पूछ न‌ पाई कभी मां से कोई सवाल
क्यूं ‌तेरी दुनिया है वो भाई रहते जहां
यहां रहके भी तूं रहती कहां ।
मेरे हर सवाल का जबाव मिला तभी
मां बनकर खुद ही को तौला ज़भी
पास जो है उसका हरपल आभास है
दूर जो है मन उसमें अटकता है वहां
यहां रहके भी तूं रहती कहां।
आज मेरा बेटा मुझसे ‌बहुत‌ दूर है
हर पल हर‌ क्षण तङपता, मन‌ मजबूर हैं
भोजन का पहला निवाला लेने से पहले
घूम आती मैं, रहता वो जहां
यहां रह के भी तूं रहती कहां।
आज मां के प्यार का अर्थ ‌समझ आया मुझे
हर चिंता जायज़ सबकी चिंता है तुझे
जो‌ दूर है कमजोर है तूं थामती उसी का छोर है
मां तू करूणामयी, हाथों में तेरी सबकी डोर है
हर बच्चे की जन्नत, तूं रहती जहां
कहीं भी रहो, पर हमेशा रहती यहां।

हे अन्नपूर्णा बचा लो हमें तुम!

April 24, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

अपने लोक की ये कथा है, अपनी मां धरनी बसुन्धरा है
निज सुत की करनी से दुःखी हो
व्याकुल हो त्राहि-त्राहि करने लगी वो
तब उसने तप का लिया सहारा
त्रिलोक के स्वामी को जाके पुकारा
कहां छिपे हो, हे जग के रचयिता
कब हरोगे संताप इस मन का
प्रभु ने वरदान अवनी को दिया तब
अवतार ले संघार असूरों का किया जब
हे रत्नगर्भा कहां सो रही हो
सुत के संकटों से मुंह मोड़ रही हो
पल-पल आंचल के सितारे झङ रहे हैं
खोई कहां तूं, कैसे मनुज मर रहे हैं
तेरे गोद में पलने वाले, मिट्टी से खेलने वाले
असमय हो चले अनजाने काल के हवाले
इस संकट से उबारो से माता
मां – पुत्र का, हमारा है नाता
हम पुत्र हैं, कुपुत्र हो चले थे
तेरी संपदा का दोहन कर रहे थे
विरासत में मिली थी जो जीवन के सलीके
सतत रख सके न, चढ़े इच्छाओं के बलि पे
अब सज़ा से उबारो हमें तुम
नतमस्तक हैं, अन्नपूर्णा बचा लो हमें तुम!

समझ में आ ही गया

April 24, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

बेटी और बेटे में इक फर्क समझ में आया
ससुराल में रहकर भी मैके का साथ निभाया।
दूर रहकर भी ‌मन‌से ममत्व नहीं मिट पाया
पास रहकर भी यह पुत्र समझ नहीं पाया।
पुत्र को डर यह कैसा,पत्नी को दोष लगाया
कर्म पथ से पीछे हट, कर्त्तव्य से नज़र चुराया।
मां का राजा बेटा, जब रानी घर ले आया
दो पाटे में बंटकर, सामंजस्य बना न पाया।
गृहस्थी बसाने चला प्रवासी बनकर
मां बाबा पे, कैसे मिथ्या दोष मढ़कर
उनकी कमज़ोरी का लाठी बन नहीं पाया
बेटी और बेटे में इक फर्क समझ में आया।
कोरोना का कहर लौटाकर
ले आया गांव भगाकर
बन्दिशों से भागे थे बचकर
पर‌ लौटे हैं क्या अपने बनकर
कशमकश का दौङ उभरकर आया
बेटी और बेटे में इक फर्क समझ में आया।

बुढ़ापे की लाचारी

April 23, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

आज कयी बच्चों के एक पिता को
दवा के अभाव में तङपते देखा है
ना उसके भूख की चिन्ता
न परवाह उसकी बीमारी की
गज़ब दास्तां है, बुढ़ापे की लाचारी की।
बिस्तर पर पङे, पर बिछावन है नहीं
वस्त्र के नाम पर, साफ धोती भी नहीं
निगाहें तकती,किसी अपने की आहट की
गज़ब दास्तां है, बुढ़ापे की लाचारी की।
बेटा-बेटी कहने को अपने, झूठे सारे सपने
समय के अभाव का रोना,अभी है कोरोना
वधु घर पर आश है ससुर के दम निकलने की
गज़ब दास्तां है बुढ़ापे की लाचारी की।
पता नही क्यूं, हम इसकदर बदल जाते हैं
जनक-जननी से ज्यादा,
वाहरवालो की बातों पर आ जाते हैं
औरों के दुःख में द्रवित,
सहानुभूति के आंसू भी बहा जातें हैं
पर अपनी जिम्मेदारियों से
हमेशा इतर हो‌ मुंह चुङा जातें हैं
अपनी कमी छिपा, डर नहीं ऊपर वाले की
गज़ब दास्तां है बुढ़ापे की लाचारी की।
बेटी की चाह नहीं रखते पुत्र की ललक मन में है
पराया धन समझते, जगह नहीं अपने घर में है
चाहत सेवा की लिए अलग कहीं ‌तङपती है
मर्यादा के नाम,हमेशापिसती‌-सिसकती रहती है
अब बारी है कुछ परम्पराओं को बदलने की
गज़ब दास्तां है बुढ़ापे की लाचारी की।
बेटी ही बहु बनती,‌स्नेह कहा छोङ आती है
सास‌ भी‌ बहु को बेटी क्यूं नहीं ‌बना पाती है
अहम आङे आता है, दूरियां बढ़ते जाती है
घर एक है मगर, भावनाएं बिखरते जाती है
कोशिश कैसे करें, इसे मिटाने की
गज़ब दास्तां है बुढ़ापे की लाचारी की।

हर एक की सूनी नज़र है

April 20, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

सुनने को कर्ण यह तरस गये
कहां अब कोई अच्छी ख़बर है
वेवसी का आलम है यह कैसा
पल यह कैसा,हर एक की सूनी नज़र है।।
सुनने को अंन्तर्मन यह‌ तरस रहा है
कहीं से उठकर लहर वो आए
मन के डर को दूर बहा के
किसी समंदर में छोङ लाए
कह दे अब ना किसी का भय है
अब ना कहीं संक्रमण का डर है
पल यह कैसा,हर एक की सूनी नज़र है।।
संक्रमण का यह खौंफ कैसा
मनुज पङा लावारिस शव जैसा
धरा पर ढ़ेर मृतकों का लगा है ऐसे
वारूद के अंबार पर नर खङा हो जैसे
मरी संवेदना मन की, करूणा की झलक नहीं है
कैसे कहूं – इंसानियत अब भी अजर-अमर है
पल यह कैसा, हर एक की सूनी नज़र है।।
है बेखबर या, डर से ‌ख़ामोश, यह शहर है
सहम-सहम कर जी रहे, हवाओं में फैलीं ज़हर है
करनी हमारी, कैसे कहें कुदरत का कहर है
आकांक्षाओं की पूर्ति, आहूति जिसमें जीवन की डगर है
मानवता पिसती, बिखरते रिश्ते, फिसलती हाथों से सहर है
पल यह कैसा, हर एक की सूनी नज़र है।।

अपनी कश्ती खुद चलाओ

April 20, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

अपनी कश्ती खुद ही चला कर
दिखदो मंजिल को पास ले आकर
नहीं कुछ भी ऐसा जो तेरे बस में नहीं हैं
कर‌ सकते हो‌, बढ़ो बस ये अहसास जगाकर।
आसान से गर मिल ही गया जो
मोल का अहसास कब‌ कर‌ सकेगे
चुभन का स्वाद गर न‌ लगा तो
हासिल करने का जुनून कैसे पैदा करेंगे
चखेंगे स्वाद जी तोड मेहनत का फल उगाकर
कर सकते हो, बढ़ो बस ये अहसास जगाकर।

महामना मालवीय

April 20, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

हिम किरीटनी, हिम तरंगनी,
युग चरण के रचयिता हे साहित्य देवता
है ऋणि हम,‌करते है अर्पित श्रद्धा-सुमन,
साहित्यअकादमी से विभूषित,शोभित पद्यभूषण
तेरा यश है फ़ैला, क्या भू-तल क्या गगन।।
परतंत्रता के दर्द को दिखाती
रची तूने जो कैदी-कोकिला
शान्त दिखती, सहजता को पिङोती
तेरी रचित गूढ़ भावो की शब्द-सरिता
युग चरण के रचयिता हे साहित्य देवता——
राष्ट्रीयता से भिगोती
बलिदान की भावना को कर समाहित
देश की स्वतंत्रता की‌ ललक
मन में जगाती भारतीय आत्मा
युग चरण के रचयिता हे साहित्य देवता—-
कर्मवीर, प्रताप को दिया नव तरंग
कभी प्रभा का किया इन्होंने संपादन
देश भक्त कवि ही नहीं,थे पत्रकार प्रखर
धन्य वसुंधरा वहां, जहां चतुर्वेदी ने ली जन्म
युग चरण के रचयिता हे साहित्य देवता—-
बाबयी ग्राम, मध्य प्रदेश है इनकी ‌जन्म भूमि
युगद्रष्टा, सच्चे राष्ट्रकवि के निश्चल समर्पण की
अनन्य‌ देश-प्रेम के बीज निर्जन हृदय में कर समाहित,
“पुष्प की अभिलाषा” सी ललक जन-मानस में जगाने की—
युग चरण के रचयिता हे साहित्य देवता–

नव आरंभ

April 20, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

आज वही दिन है
जब‌ मेरी मुझसे पहचान हुई
मुझमें भी है लेखन क्षमता
इक नई खूबी की आभास हुई
मेरे अल्फ़ाज़
मेरी ख़ामोशी की आवाज़ बने
इक नई सुबहा हुई
नयी उम्मीदों से मुलाक़ात हुई
चल पङी इस सफ़र पर
आरंभ इक अजनबी मंजिल की तलाश हुई
सुमन थी जो घर आंगन तक
आर्या बनने की शुरुआत हुई।।

चलना तय सफ़र पर

April 20, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

आसान बहुत है चाह अच्छा बनने की पाल लेना
पर तय सफर पर बढ़ते रहना,बङा ही कठिन है
आस किसी के मन में जगाकर,
खुद के घर की रौनक घटाकर,
पर हित में इच्छा को दबाकर,
खुद के ख्वाइशो के राख पर,
आशिया गैरों का सजाना,‌
बङा ही कठिन है।
क्या कहूं तुमसे, कैसे बाधक बनूं मैं
चुप रहकर कैसे,‌ तिल-तिल जलू मैं
भला करके भी, कुछ हासिल नहीं
कैसे समझाऊं,वे सहानुभूति के काविल नहीं
डसने वालों की फितरत बदलना
बङा ही कठिन है।
है भरोसा, ऊपर वाले की रहमतों पर
न्याय से वंचित नही, कोई उनके दर पर
आसरा नहीं किसी और की इस‌ मन में जगे
आसरा पूरी करूं, ऐसी लगन बल पौरुष मिले
हे नाथ!तात-मात-सखा आप हो, राफ्ता बदलना
बङा ही कठिन है।

रूपरेखा

February 24, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

ख़ुद पर ऐतवार कर पर भूलकर भी न किसी पर
विश्वास कर।
खुद के ही बल पर अपने जीवन की रूपरेखा तराश कर।।
कब कोई अपना,अपनी अंगुली को घुमा,तोहमत तुझपे लगा देगा
तेरी हर जायज़ कोशिश को भी, तेरी ही गलती बना देगा
अकेले ही रहने की आदत डाल, न अपनी भावनाओं से खिलवाड़ कर।।
देखो कैसी अजब घङी यह आई है,
अपनों से ही अपनेपन की लङाई है,
न स्वार्थ है फिर भी क्यूं ये खिंचाई है
मन है सूना- सूना, पलकें मेरी पथराई हैं
ख्वाइशो को आग लगी,‌कैसे क्यूं किस पर गुमान कर।।

बता तो दो

February 14, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

बता तो दो क्यू तुम ऐसे हो,
मेरे होकर भी परायों से कमतर हो।
यक़ीनन दोष हममें, दुनियादारी की बूझ नहीं
आकलन करें कैसे, रिश्ते- नातोंकी समझ नहीं
साफ़ कहने की आदत, सुनने की हिम्मत नहीं
पर क्या सारा दोष मेरा,तुम पाक वारी जैसे हों
बता दो क्यूं तुम ऐसे हो।
अपने जो हैं उनकी बातो पे चिलमन डालना
कङवी-से-कङवी लब्ज को हंस के टालना
इतना ही सीखें हो, कही बातों का गिरह बांधना
ये गांठ बेधते मन को, कोई नासूर जैसे हों
बता दो क्यूं तुम ऐसे हो।

तुम्हारे लिए

February 14, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

यह जीवन मेरा रहा है समर्पित
हां बस तुम्हारे लिए।
अपनी इच्छाओं के पंखों को
अपने ही इन दोनों बाजुओं से
टुकड़ों में बांट बिखेरा है हमने
हां बस तुम्हारे लिए।
अरमान मेरे ना गगन को चुमू
इस धरा पर, तेरी होके जी लूं
आश में खुद को तराशा है हमने
हां बस तुम्हारे लिए।
कभी साथ लेकर कहीं चलने में
तकलीफ़ थी मुझे साथ रखने में
अपनी तौहीन तुझी से सहा है हमने
हां बस तुम्हारे लिए।
तुझे सबसे ज्यादा चाहा है हमने
तेरी सलामती ही मांगा है हमने
मिटा के खुद को जिलाया है हमने
हां बस तुम्हारे लिए।

भारत कोकिला

February 13, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

हे भारत कोकिला!
मुबारक हो तुम्हें जन्मदिन तुम्हारा।
वतन के लिए कर खुद को समर्पित
जीवन तेरा स्वतंत्रता को अर्पित
हैदराबाद में जन्मी अघोरनाथ की सुता कहाई
माता दी कवयित्री निज रचना की लोङी सुनाई पालना में जिनकी गुन्जती हो बांग्ला कविता
पश्चिम तक गुंजायमान था स्वर तुम्हारा
हे भारत कोकिला!
मुबारक हो तुम्हें जन्मदिन तुम्हारा।
मानवाधिकार की संरक्षक, गोविराज की भार्या
किंग्स कौलेज लंदन में जिसने शिक्षा पाई थी
‘ गोल्डन थ्रैशोल्ड ‘ प्रथम कविता संग्रह
‘ब्रोकन विग’ से कवयित्री की प्रतिष्ठा पाईं थीं
“केसर ए हिन्द” से नवाजित, आसमान तक फैला स्वर‌ था तुम्हारा
हे भारत कोकिला! मुबारक तुम्हें जन्मदिन तुम्हारा।
कहां थकतीं देश प्रेम का अलख जगाने चलीं थी
बहुभाषी, मनमोहनी , वाणी से सोते हृदय झकझोङती थी
सर्वस्व न्यौछावर करने को तत्पर, कर्त्तव्य पर सब चल पङे थे
जेल जाने या भूखे रहने की वाली सब संग उनके खङे थे
संकटों से जूझती, धीर वीरांगना की भांति
हिन्द के कण-कण में बसा है समर्पण तुम्हारा
हे भारत कोकिला! मुबारक हो जन्मदिन तुम्हारा।
कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्ष बनकर कानपुर में गरिमा बढ़ाई
कभी भारत की प्रतिनिधि बन, दक्षिण अफ्रीका तक जाके आई
राज्यपाल पद पर होके सुशोभित राष्ट्रनिर्माण का व्रत लिया था
पहली महिला इस पद पर विराजित,देश को प्रगति पथ पर अग्रसर किया था
गांधी की शिष्या एनी की सखि तुम, सबसे ऊंचा
नाम तुम्हारा
हे भारत कोकिला! मुबारक हो जन्मदिन तुम्हारा।
,,,,, Happy National Women’s Day

रात तू अकेली नहीं

January 30, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

दूर तलक तनहाई का आलम
अकेली बिरह वेदना सहती
ख़ामोशी की गहरी चादर ओढ़े
चुपचाप रहती है रात।
किसको अपनी पीङ सुनाए
कैसे उसको अपना मीत बनाए
जिसके लिए कयी ख्वाब सजाए
उधेड़-बुन में रोती रात।
देखो ये कोयल क्यूं ‌ कूके
तुझसे भी क्या प्रीतम रूठे
तू भी है विरहा ‌की मारी
खुद से ही बातें करती रात।

आइना पूंछता है

January 28, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

आइना पूंछता है
**********
यह सवाल हर रोज
मानती क्यूं नहीं सलाह मेरा ।
चेहरा वही है
क्यूं वक्त जाया करती है मेरा ‌
निखार आएगा कैसे
वही पहली सी फितरत है तेरा ‌
ज़िद का आवरण कुछ छाया है ऐसा
अच्छाइयों पर लगा बादल घनेरा ।
कुमकुम से रौनक आएगी कब तक
अंन्तर्मन में छाया हो शक का बसेरा ।

स्मृति शेष

January 28, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

ईमेल, चैटिंग ही अपना भविष्य
क्या हस्तलेखन अब है स्मृति शेष ?
नववर्ष का कार्ड नहीं
प्रेमपत्र लेखन स्वीकार नहीं
कलम कागज का जमाना बना अतीत विशेष
क्या हस्तलेखन अब है स्मृति शेष ?
क्या बस गोल वृत को काले-नीले से
भरकर पूर्ण करन ही इसकी जिम्मेदारी
हस्ताक्षर करने को ढूंढा करते नर- नारी
शर्ट की शोभा नहीं मांगने की लगी बीमारी
नहीं रह पाएगी यह सर्जनात्मक क्षमता विशेष
क्या हस्तलेखन अब है स्मृति शेष ?

देख लिया

January 27, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

देख लिया दुनिया तुझको
अब और नहीं कुछ चाहत है,
हर तरफ चेहरे पर एक चेहरा है
अपनों से ही हर जन आहत है।
अब और फरेब की गुंजाइश नहीं
यहां अपनापन की लगी नुमाइश है
ढिठता की हद पार किए
दिखती ‌नही‌ शरमाहट है।

अपना गणतंत्र

January 26, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

अपनी तमाम विषमताओं के साथ
अनगिनत विविधताओं के बावजूद
सबसे माकूल व्यवस्था है ‌अपना गणतंत्र।
इस बदलते समय की बस यह मांग है
लोक के प्रति तंत्र की सहिष्णुता
और तंत्र के प्रति लोक की समझदारी
लोक से परे लोक का उल्लघंन
तंत्र की नाकामी की‌ ओर बढ़ता कदम
कैसे कहें माकूल व्यवस्था है अपना गणतंत्र।
अपनी है चुनौतियां, जो अपनों के द्वारा दी गई
पङोसी बेख़ौफ़ देख हमें दम्भ से मुस्करा रहा
अपने इस संघर्ष से हौसले दुश्मनों के बुलन्द
ऐसे में, कैसे कहें माकूल व्यवस्था है ‌अपना गणतंत्र‌।
समय के साथ, करते कमी अब भी दूर क्यूं नहीं
दूर होता जा रहा, फिसलता जन गण का विश्वास
बिखरता आत्मसम्मान आसक्त होता यह शासन
फिर बता कैसे कहें, माकूल व्यवस्था है गणतंत्र ।

यह अपना गणतंत्र

January 26, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

अब हम हैं स्वतंत्रत
देखो यह‌ अपना गणतंत्र।
७२वी वर्षगांठ में भी
देखो उमंग, कहां से लाया कैसा मंत्र
यह अपना गणतंत्र।
देख के इसका रूप सलौना
पाक तरस रहा,चीन रचता षड़यंत्र
यह अपना गणतंत्र।

उजालो पे हो अख्तियार तेरा

January 16, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

यह दर्द मेरा
लिखा है जिसपर नाम तेरा
ढूँढे जो कोई हमदर्द
बेदर्द में शामिल नाम तेरा।
सही अगर तुम हो
नाम, गलत होगा किसका
धर्म के पथ पर चलने वाले
कर्महीन सही होगा नाम तेरा।
मेरे आश की हर कलियाँ
जुङकर फूल बनने को आतुर
तेरे सिवा कोई चाह नहीं
हर उम्मीद पे है लिखा नाम तेरा।
शिकायत की कोई चाह नहीं
यह दम निकले कोई आह नहीं
ढूँढ रहे चैन, मिले कहीं ठौर नहीं
अब खुशी कहीं है और नहीं
तिमिर मेरे, उजालो पे हो अख्तियार तेरा।

दामन धैर्य का

January 16, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

धैर्य का दामन टूट रहा प्रभु
फिर देखो न किस्मत रूठ रहा।
अपना यहाँ है कौन यहाँ
तू चुप क्यों बैठे देख रहा।
सब्र नहीं अब मुझमें है
सोच के मन में हैरत है
कैसे कोई किसी के
हिस्से की रोटी लूट रहा।
या कोई कर्ज मुझपे
पूर्व का शेष था जो
इस जन्म में चुकाते
मौन खङा तू देख रहा ।
फिर क्यूँ इन पलकों पर
अश्रु की बुन्द ढलक आए
तेरी रज़ा जब तक न हो
कैसे भाग्य विधाता रूठ रहा ।
हर दर्द तुझी से भेंट मिले
तुझसे ही ठेस मन को लगे
कैसे आशाओं के दीप बुझे
कहाँ माथे पे तेरा आशीष रहा।

कार्य हमारे मन के

January 16, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

कार्य हमारे मन के
अनुरूप हो
थोङी सी छाया
ना सिर्फ धूप हो।
हम सही मायने में
कार्य उसे ही कहेंगे
जिससे कोई
सकारात्मक
परिणाम का
आभास मिलें ।
हमारे कार्य का
एक मकसद हो
हमारा यह मकसद
हमारे ह्रदय को
अथाह आनंद से
सराबोर कर दे।
कर्म वही करें
जो मन से पसंद हो
वरना हमारे काम
जेल में कैदियों से
कराये गये कार्य के
समरूप हो ।

सेना दिवस

January 15, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

15 जनवरी की पावन तिथि, सेना दिवस है आज
चलो शपथ ले, कल पर छोङे न कोई काज।
आत्मनिर्भर बनें, परनिर्भरता का करें त्याग
नयी नीति से करें आने वाले पलों का आकाज ।
अपने दुश्मनों को ताकने का अवसर न दे
हौसले मुकम्मल न हो, आए अपनी हरकतों से बाज ।
उनकी बढती ताकतें, हममें प्रतिद्विन्ता लायें नहीं
कर कुछ ऐसा कि उन्हे अपनी करनी पर आए लाज।
हथियारों की दौङ में मुब्तिला रहना उचित नहीं
अंगीकार हो काट की रणनीति, देखा-देखी हो त्याज।

मकरसंक्रांति आई

January 14, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

मकरसंक्रांति
अलग अंदाज लिए,
हर प्रान्त में,
अपनी छटा बिखेर रहा ।
सूर्य चले उत्तरायन हो
छटा नव आशा की
किरण बिखेर रहा ।
सकारात्मकता का संदेश लिए
अपनी संस्कृति, अपनी परिवेश
की झलक बिखर रहा ।
यह पर्व है धरती पुत्रों का
उनकी पौरूष, त्याग्, मेहनत की
अद्भुत गाथा बिखेर रहा ।
इस दिन को मनाने की परंपरा
आधुनिकता के दौर में भी
प्राचीन छवि को बिखेर रहा ।
पतंगो को धागे से जोर
थामें मन से हर रिश्ते की डोर
सभ्यता को सहेजने की, समझने की
जङ-चेतन की अहमियत बिखेर रहा ।

सहधर्मिणी तुम्हारी

January 4, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

आँखों में खटकती, फ़िर दिल में कैसे रहती
जद्दोजहद में गिर गिरकर मैं पग रखती
खुद ही खुद से हारी
कैसे कहूँ मैं हूँ सहधर्मिणी तुम्हारी ।
फ़िजाओ के रूख़ -सा मिज़ाज तेरा बदला
फिर भी धैर्य के संग ठहरा रह मन पगला
लेके उम्मीद सारी,
कैसे कहूँ मैं हूँ सहधर्मिणी तुम्हारी ।
अपेक्षाओं के मोतियों से,गुथी आशाओं की माला
तुम्हे भली जो लगे, उस रूप में खुद को ढाला
छोङी चाह प्यारी,
कैसे कहूँ मैं हूँ सहधर्मिणी तुम्हारी ।
तेरा-मेरा रिश्ता, रहे हमेशा सही- सलामत
हमसे जुङी है दो कुल, परिवार की चाहत
अपने अहम् को भी वारी,
कैसे कहूँ मैं हूँ सहधर्मिणी तुम्हारी ।

बेजान हुआ यह जीवन

January 3, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

बेरंग हुआ उसका जीवन, रूप बदलकर स्याह हुआ ।
लाल रंग से टुटा नाता, दूर सोलहो श्रृंगार हुआ ।।
बिछोह हुआ उस प्रीतम से जिससे उसका ब्याह हुआ ।
जिसने पहनाया था चूङा जिससे शुरू परिवार हुआ ।।
कालचक्र का तान्डव,सिन्दूर,आलता बेजान हुआ ।
बीच भंवर में नाता टूटा, सारा जीवन बेजार हुआ ।।
गभी बारात ले धुमधाम से,सजी थी महफ़िल शाम की।
शहनाई की धुन बजी थी, बनी थी मैं जब आपकी ।।
कभी हल्दी सजी थी जिन हाथों में, उनके नाम की।
आज उन्हीं के नाम से नाता बाकी सब बेकाम की।।
हाथों में खनकी थी उनसे ही हरे काँच का कंगन।
पलकों पे सजा, भाया था जो उनको सूर्ख अंजन ।।
साथ ले गये हाथों की रौनक, कहाँ रहा वो खनखन।
तुम जो गये, निर्जन-सा, बेकाम हुआ मेरा तनमन ।।
कभी सधवा थी कहलाती, शुभ कर्म में थी सहभागी ।
तीज-त्यौहार में सज, तेरे लिए, तेरे संग थी सहगामी ।।
आज तुम्हारा साथ जो छूटा, सब व्रत से नाता टूटा ।
कैसे यह भाग्य रूठा, बनी अभागिन,अछूत कुल्टा ।।
किस्मत में ये वदा था या ईश्वर ही मुझसे खफा था।
देखते-ही-देखते, उजङी बगिया जो अभी खिला था ।।
मौला की नियत में खोट होगी, ये कहाँ किसे पता था।
धूमिल धरा पे चुपचाप पङा, इसे कहाँ कोई गिला था।।
तुम तो चले गये ही, मुझे किस के सहारे छोङा ।
अर्धांगनी तुम्हारी, जन्मों जन्म के, कसम को तोङा ।।
कैसे गुज़र करूँगी, किस तरह नन्हीं को रखूगी ।
“पा पा” की तोतली बोली, सुन कैसे क्या कहूँगी।।
तुम तो चले गये ही, मुझे किस के सहारे छोङा ।
अर्धांगनी तुम्हारी, जन्मों जन्म के, कसम को तोङा ।।
कैसे गुज़र करूँगी, किस तरह नन्हीं को रखूगी ।
“पा पा” की तोतली बोली, सुन कैसे क्या कहूँगी।।
हे भाग्य विधाता, बता इस पीङा में, क्या भला है ।
जब मर्जी बिना तेरी एक पत्ता भी ,ना कहीं हिला है ।।
हर जर्रे-जर्रे पर हक, बस तेरा ही नाम वदा है ।
बता दे, तेरे दर पर, क्यूँ नहीं मुझे भी आसरा मिला है ।।

मैं, मैं न रहूँ !

January 1, 2021 in Poetry on Picture Contest

खुशहाल रहे हर कोई कर सकें तुम्हारा बन्दन।
महक उठे घर आँगन, हे नववर्ष! तुम्हारा अभिनन्दन।।
दमक उठे जीवन जिससे
वो मैं मलयज, गंधसार बनूँ !
उपवास करे जो रब का
उस व्रती की मैं रफ़्तार बनूँ !
सिंचित हो जिससे मरूभूमि
उस सारंग की धार बनूँ !
दिव्यांगता से त्रस्ति नर के
कम्पित जिस्म की ढाल बनूँ !
मैं, मैं ना रहूँ,
हारे- निराश हुए मन की,
आश बनूँ !
बिगत वर्ष में में
जिनका अबादान मिला
कृतज्ञता ज्ञापित,
उनकी मैं शुक्रगुजार बनूँ!
मुकाम कैसा भी आये
पर मन में थकान न आये
हे ईश! हर मुश्किल में
संभलने का समाधान बनूँ!

ऐसा श्रृंगार धरो

December 30, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

नुपुर तुम्हारी शोभा नहीं
ज्ञान को अंगीकार करो
शक्ति रूप तुम धर कर के
पाश्विक प्रवृत्ति का संघार करो।
सिर्फ सदन तक तेरी शोभा नहीं
विशाल गगन तुम्हारा आँगन है
अपने आकांक्षाओं को पंख लगा
कर्मठ बन, खुद का निर्माण करो।
सृजन की बीज की धात्री हो तुम
तपस्विनी हो, नहीं सिर्फ मातृ तुम
खुद की निर्मात्री भी बनने को
हर रूढ़िवादिता का तिरस्कार करो।
अवनी सी धीर, तू धरते आई
व्योम से भी रिश्ता जोङ आई
हर क्षेत्र में तेरी पहुँच बन जाए
तू खुद का विद्या से ऐसा श्रृंगार करो।

नकाब चढ़ा हर चेहरे पर

December 30, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

क्यूँ इन्सान के चेहरे पर नकाब चढ़ा
ऐसा की कोई अपना ही
दगाबाज बन कर निकला ।
सूरत देखकर गैरो पे भरोसा करना
अपने पैरों को जले तवे पर रखना
अपनेपन से चढ़ा खुमार, कहाँ गहरा निकला।
कभी किसी को संदेह से नहीं देखा हमने
अपने तो क्या गैरो को भी
ना परखने की कोशिश की हमने
समझा था कंचन जिसे, वो तो अयस निकला।
मन चाहे कुछ ऐसा यहाँ कर दे
उन जैसों की असलियत सामने रख दे
फिर आँख न उठा पाए किसी पे
पर हिम्मत नहीं, अहम् मेरा भीरु निकला।

ऐ वक़्त

December 29, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

ऐ वक़्त ढूँढ लायेंगे तुम्हें ।
खो दिया उन क्षणों को
कयी स्वप्न सुनहले पलते थे
खौफजदा उन पलक को
जिनमें ख़ौफ के मंज़र तैरते थे
विलखती आत्मा में
आश की ज्योत जलाने को
ऐ वक़्त ढूँढ लायेंगे तुम्हें ।
याद कर उस पल को
पटरियों पर जब थककर चूर थे
थकान से मदहोश होकर
निन्द में मशगूल थे
निन्द से यम के दर का सफ़र
क्या राज़ है जानने को
ऐ वक़्त ढूँढ लायेगे तुम्हें ।
कयी दिनों तक भूख से बिलबिलाते
होंठ सूखे, पेट सटकर, दर्द से बिलखते
रोटियो की आश में दर-दर भटकते
पैदल ही लौटने को टोलियों में निकलते
ग्राम में भी ये प्रवासी क्यूँ स्नेह को तरसते
किस कुकृत्य की सज़ा, यह पूछने को
ऐ वक़्त ढूँढ लायेंगे तुम्हें ।

दीप आश की

December 27, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

कुछ खो सा गया था
इक दूरी जब बन सी गयी थी
पुनः खुद को समेटा
टूटकर बिखर सी गयी थी।
फिर से आपने
जो हौसला बढाया
निखरने की कोशिश में
क़दम मैने बढाया
यह कोशिश कामयाब होगी
उत्साहीन सी हो मैं गयीं थीं ।
एक मंच यह ऐसा मिला है
जहाँ अनजानों से हौसला बढ़ा है
फिर से अनजान रिश्ता बना है
ना शिकवा यहाँ न कोई गिला है
यह सफ़र हमारा ऐसे ही का चलता रहे
आप के सानिध्य में फूलता- फलता रहे
दीप आश की, दिख रही, जो बुझ सी गयी थी।

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