कालचक्र मौत का

September 11, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

पाबंदियों की धज्जियां उङाते, सीधे-सीधे संक्रमण को आमंत्रण देने निकल पङे ।
गजब की परिस्थितिया, चारों तरफ मंडराते मौत के बीच खुद को चुनौती देने निकल पङे ।
संकटकालीन दौर में जीते, मन बेचैन जिगर बेताब
जीने की लालसा, कैसे रखें फासला, हालात हैंखराब
अजीब सा भय लिए देखो सङक पर निकल पड़े ।
खुद पे लगी पाबंदी खुद ही हटाते चल दिए
पेट की आग ऐसी बढी, सवाल हैं कयी खङे
मौत के खौफ की धज्जियां उङाते निकल पङे ।
हमारे प्रतिनिधि का आचरण क्या अनुसरण योग्य है
खुद में मतान्ध वे कर रहे सत्ता का दुरूपयोग हैं
जनता के अंधत्व को हवा देने निकल पड़े ।
यह महामारी हमारी गलत क्रियाकलाप की देन है
बगैर भेदभाव के, गलत को दबोचने का यह खेल है
ग़लत है वही जो नियमों की अनदेखी कर निकल पड़े ।
अब भी सचेत हो कालचक्र की यह माँग है
अब तो नादानी छोङ दे जीवन का सवाल है
अनुशासन की खिल्ली उङाते क्यों निकल पङे ।

सुता को ज्ञान

September 10, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

अपनी सुताओ को वह ज्ञान दे दे
माँ की तरह उन्हें भी थोङा प्यार वो दे दे।
दोष उनका क्या जो हदन में अकेले हैं
दूर सुत उनका क्यूँ स्वप्नों से खेले हैं ।
बङी हसरत थी उनकी जो आंखो का तारा है
सफलता की बुलन्दी को चुमे, जो प्राणों से प्यारा है
जिसकी पढाई में जर-जमीन तक बेचें
भूखे रहके, दुख सहके, आशाओं के पौध को सीचे
जुदा मत कर, जिगर के उस टुकड़े को
अपनों के बीच में उन्हें भी, उनका स्थान वो दे दे।
यह कहानी है अधिकांश उस अभिभावक की
चिन्ता फिर भी जिन्हें, अपने सुत के हिफाज़त की
हर दिवाली अकेले इस आश में गुजरती है
निगाहें उनकी, उस पथ पर जाके ठहरती है
कभी तो उनकी पूरी यह आश वो कर दे
माँ की तरह थोड़ा उन्हें भी थोड़ा प्यार वो दे दे।

समवेत स्वर

September 9, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

एल एसी में शान्ति, विश्वास बहाली को हम प्रतिबद्ध हैं
मातृभूमि की अखंडता, संप्रभुता की रक्षा को तत्पर हैं ।
हमारा भारत शान्ति का हिमायती, हिंसा से दूर रहता है
बातचीत से ही मसले सुलझाने की ख्वाहिश रखता है ।
हमारे पङोसी की मंशा उकसावे की रहते आई है
हमरे मुल्क के संवाद, अहिंसा की नीति पे बन आई है ।
सुलझाना नहीं, उलझाना जिन्हें बस आता है
अशांति के पोषक को, शान्त रहना, कहाँ भाता है ।
उद्धत रवैया की भरपाई उन्हे भी करना होगा
इसकी कीमत उन्हे चुकाना है, यह समझना होगा ।
विश्वसनीयता पर छाया संकट, उनका कल कैसा होगा
विश्व समुदाय से अलग-थलग होके उन्हें रहना होगा ।
चीनी भयादोहन का सामना हमें मिलकर करना होगा
हर जन में विश्वास का बीज, सरकार को भरना होगा।
दुर्योग के मौकों पे,मतभेदों से इतर होके रहना होगा
विपक्ष को भी प्रतिबद्धता के समवेत स्वर भरना होगा ।
समवेत की आहट सरहद लाघ उनतक पहुंचाएगे
आत्मविश्वास के आगे कहाँ, खुद को रख पाएंगे ।

तुझसा बनना चाहती हूँ

September 9, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैं पीङ तेरी अपनाना चाहती हूँ
तेरे आँसूओ की वज़ह जानना चाहती हूँ ।।
तेरी साधना, तपस्या, त्याग के भाव को
बस अपने में समाना चाहती हूँ ।।
तेरी करूणा वात्सल्य ममत्व के गुणों को
खुद में खुद से पिङोना चाहती हूँ ।।
तू ज्ञान की मूर्ति, कामनाओं की करे पूर्ति
तुझ जैसी ही अन्नपूर्णा, बनना चाहती हूँ ।।
कभी ज़िद पे न अङती, दूजे के लिए को बदलती
मैं भी अपनी हठधर्मिता, तुझ-सा मिटाना चाहती हूँ ।।
दूर से ही समझ जाती हो मुश्किलों को
माँ मैं वही चेतना,खुद में पाना चाहती हूँ ।।

हम ही चले जाते हैं

September 8, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

किसी की रूसवायी की वज़ह क्यूँ बनें
ऐ मेरी जिंदगी, चलो हम ही चले जाते हैं ।
औरों की परेशानी का सबब क्यूँ बने
किसी की आँखों की चुभन क्यूँ बने
तेरा चैन यूँ ही बना रहे, चलो हम ही चले जाते हैं ।
क्यूँ किसी से गिला हम करें
क्यूँ किसी की हसरतो से हम जले
सारे स्वप्न पलकों पे लिए, चलो हम ही चले जाते हैं ।
कयी उम्मीदों के सुमन थे तुमसे खिले
बिखर गए सब, कयी ज़ख्म ऐसे तूने दिये
कोई आश फिर से पले, चलो हम ही चले जाते हैं ।

ऐ जिन्दगी

September 7, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

ऐ जिन्दगी ! कभी तो तू मेरी होती
जिधर को मैं कहती, उधर रूख़ करती ।।

तू जिधर इशारा करती, मुङ जाते हैं उधर
तेरे आगे अपनी मर्जी चलती है किधर
काश! बस एक बार मेरा अनुसरण करती।

थक गये हैं, तेरी इच्छाओं की कद्र करके
भीगी है पलकें मेरी, उभरे हैं जो दर्द बनके
इस पीङा की अनुभूति तू भी जिया करती ।

पथ पर पथिक बहुत हैं पर,अपनी-अपनी मंजिल है
कहाँ मिलता है सबको , जो जिसके काबिल है
मनचाही मंजिल का फिक्र,तू भी करती ।

भूलेगी कैसे

September 6, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

आज का यह भारत प्रतिफल है उनके अथक प्रयासों का
सावित्री बाई फूले जो थी शिक्षिका, उनकी शिक्षा नीतियों का
भूलेगी कैसे भारत की बेटियां, ऋणी है जिनकी संकल्प शक्ति का
जिनके जज़्बातो से, बल मिला, बालिका शिक्षा दिलाने का
हर स्त्री का सच्चा है आभूषण उनकी ज्ञान की ज्योति का
ललक जगाया उनमें शिक्षित,स्वाबलम्बी,आत्मविश्वासी
बनने का ।

पथप्रदर्शिका

September 5, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

लडकियों की पथप्रदर्शिका थी जो
घर से निकल पाठशाला का रूख करवायी थी जो
पति ज्योतिबा संग शिक्षा की अलख जगाने चली थीं जो
तमाम बाधाओं पे पार पाते हुए,
पहली पाठशाला बालिकाओं की खोली थी जो
“खूब पढो” सिखाने वाली, सावित्री बाई फूले थी वो

मेरे पथ प्रदर्शक

September 5, 2020 in Other

बबीता मैम ,
बहुत सारे शिक्षकों का मुझे मार्गदर्शन प्राप्त हुआ परन्तु आपनें मुझे जीवन जीना सिखाया आपने ।
मैं तो कुछ भी नहीं थी परन्तु आपने मेरी सुप्तावस्था की क्षमताओ को उजागर किया आपने ।
मुझपे जितना विश्वास खुद नहीं था, उससे कहीं ज्यादा मुझपे विश्वास जताया आपने ।
मैं बहुत दूर हूँ, नम्बर नहीं की बात कर सकूँ, परन्तु फिरभी मेरे मन के करीब रहना सिखाया आपने ।
आज भी निराशाओं की घङी में आपकी कही बातों से प्रेरित होना सिखाया आपने ।
“मैम जहाँ भी हैं आप हमेशा अपने परिवार के साथ खुश रहे ”
Happy teacher day

बधाई शिक्षक दिवस की

September 5, 2020 in Other

हे गुरूवर करूँ आपका अभिनन्दनम्
सानिध्य आप सबो का पाके बन जाऊँ मैं चन्दन शिक्षक दिवस पर सभी गुरुजनों का हार्दिक बधाई!

मंजुषा से नैतिकता की शिक्षा

September 4, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मंजुषा से नैतिकता की शिक्षा
** ** ** ** ** ** **
सिर्फ जननी-जनक कहलाने के नहीं अधिकारी हम
विवेकशील, कर्तव्यपरायण कहाते मनुजधारी हम
है मनुज पशु नहीं, क्यूँ दिखाये अब लाचारी हम
बच्चों को नैतिकता सिखाने की ले जिम्मेदारी हम।।
बेघर आवारा कुत्तों की तरह ताकते फिरते इधर-उधर
हैवानियत की निशानी छोङ आते किसी की देह पर
कभी आखों से बेधते, छेङते आते-जाते छेककर
हर सीमा को लाघते, बहसीपन दिखाते आवरू बेधकर।।
अफसोस जताकर निकल जाने की बेर अब है नहीं
बच्चों की हरकतों पर रखते है पैनी नजरें क्यूँ नहीं
मंजुषा से ही मिले नैतिकता, जीवन मूल्यों की शिक्षा किसी के भी घर की अस्मत की नहीं तो खैर होगी नहीं।
हर घर में खुशियों की नितदिन दीवाली मनती रहे
बेखौफ़ बेटियां भी, हर डगर चलती-फिरती रहें
ना डर हो मन में ना खौफ का किसी पे साया रहे
खुशी से चहकती, उसपे आत्मविश्वास की छाया रहे ।।

गमगीन है सारा हिन्दुस्तान

September 3, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

गमगीन है हिन्दुस्तान
———————-
प्रणवदा थे राजनीति का एक जीता-जागता, सजीव संस्थान
निधन,राजनीति ही नहीं, जनता के लिए भी बङा नुकसान ।
गुणी, पढ़े लिखे, सादगी की थे जो जीती-जागती प्रतिमान
इस दौर में ढूँढे नहीं मिलेगा, उनकी बराबरी का कहीं
इंसान
विरोधियों से भी थी जिनकी अपने सगे-संबंधियों जैसी
पहचान
करनी कथनी में गज़ब का तालमेल, द्वेष का नहीं नामो-निशान
सैद्धांतिक नीतियों के बल पर दशकों तक बन रहे सबसे महान
विदेश मंत्री,रक्षा मंत्री वित्त मंत्री, राष्ट्रपति बन बढाया राष्ट्र का मान
पद्मविभूषित,सर्वश्रेष्ठ सांसद,प्रशासक,भारत रत्न,पाये बंगला मुक्ति सम्मान
सिद्धांतों को जीने वाले, दमन के विरोधी,
मानवता के पोषक पसंद करता जिन्हें सारा जहान
निधन, एक अपूरणीय क्षति है, गमगीन है सारा हिन्दुस्तान

बढ़ता ही जा रहा

September 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

क्यूँ बारम्बार किया जाता महिलाओं के साथ घृणित अपराध,
कयी तरह की वेदना-संताप से गुजरती,जिनसे होता
बलात्कार ।
हर कानून बौना सावित, हर जायज कोशिश जा रही बेकार,
थमता दिखता नहीं, दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा
दुराचार ।।
बेटियाँ परिवार पे बोझ नहीं समझी जाती हैं जब
हर सुख-सुविधा, समानता, शिक्षा मुहैया है अब
पर विडम्बना है यह, क्या आई है ईश्वर से वह माँगकर
कभी बस में, कभी ट्रेन में, कभी स्कुटी से खींचकर
लुटते अस्मत, दरिन्दगी दे रही नैतिकता को ललकार ,
थमता दिखता नहीं, दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा
दुराचार ।।
आज मातम नहीं, हर्षोल्लास होता इनके जन्म पर
पर पल्लवित होते देख इन्हें, मन क्यूँ जाता है हहर
समानता के इस दौर में, कैसे घर पे रखू मैं रोककर
आतंकित रहते हर माँ-बाप, रहते बेबस और लाचार ,
थमता दिखता नहीं, दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा
दुराचार ।।
बेटियाँ माँ की होती हैं, हरदम सबसे अच्छी सहेली
पिता की लाडली, हरेक का ख्याल रखती हैं अलबेली
उसकी हिफाज़त का जिम्मा, बन बैठा अबुझ पहेली
शिक्षित करने की ही नहीं, है सशक्त करने की दरकार ,
थमता दिखता नहीं, दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा
दुराचार ।
महिलाओं के अधिकारों की लङाई लङ रहे हैं हम
संसद तक में भी आरक्षण की मांग कर रहे हैं हम
चलते-फिरते बहसी मनोरोगियों का क्या करें हम
आतंक के ठौर में लैंगिक समानता का स्वप्न कैसे ले आकार,
थमता दिखता नहीं, दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा
दुराचार ।।
बेटियों पे लगाते आए, हमेशा कयी तरह की पाबंदियां
थोड़ी-सी अपने बेटे के प्रति भी निभाले जिम्मेदारियां
पीङिता के दर्द का, उन्ही में से क़ोई होता गुनाहगार
ताकि हंसती-खेलती परियां न हो दरिन्दगी का शिकार,
हाँ, किसी भी बेटी से न हो हिंसा, ना हो कभी कहीं
दुराचार ।।

गंगा बहती है जहाँ

September 1, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

गंगा बहती है जहाँ
***************
रीषिमुनियो की तपोभूमि बसती हैं वहाँ
सबसे पावन भूमि है मेरी गंगा बहती है जहाँ ।।
हरदिन से जुड़ी एक कथा, बयां होती है जहाँ
हर कथा नैतिकता की पाठ पढाती हैं जहाँ
बर, पीपल, शमी, तुलसी की पूजा होती जहाँ
हे राम! के नाम से गुन्जित हर सुबहा है जहाँ
सबसे पावन भूमि है मेरी गंगा बहती है जहाँ ।।
प्रकृतिदृश्य की छटा इतनी निराली है जहाँ
पठार, पहाङ, मैदान, मरूभूमि से सजी धरा है जहाँ
हर धर्म, हर जाति, हर नस्ल के लोग बस्ते हैं जहाँ
बोली-भाषाओं में, रीति-रिवाजों में विविधता है जहाँ
मेरी मातृभूमि है वो गंगा बहती है जहाँ ।।
मेरे देश के नाम का, जहाँ में सागर बहता
जिसके चरणों को धोकर, जो पावन होता
देवता, किन्नर को भी ललक है जहाँ आने की
भूमि है नानक, पैगम्बर, राम कृष्ण मनभावन की
मेरी कर्मभूमि है वो गंगा बहती है जहाँ ।।
यहाँ हर कथा नैतिकता की पाठ सिखाती है
गर्भ में भी शिक्षण का महत्व बताती है
जन्म से पूर्व ही संस्कार शुरू हो जातें हैं
माँ-बाप की सेवा को, पूजा से बङा बताते हैं
पावन भूमि है वही, गंगा बहती है जहाँ ।।
बालपन की भूल को भी, नहीं भुलाते हैं
मित्र का कर्ज, सर्वस्व देके प्रभु चुकाते हैं
भक्त के भाव में, प्रभु सारथी बन जाते हैं
कर्म करने का पाठ, युद्धभूमि में सिखाते हैं
हाँ यह वही भूमि है, गंगा बहती है जहाँ ।।
सुमन आर्या

जन्म भूमि की ओर चलें

September 1, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

जन्म भूमि की ओर चलें
*******************
इस बेगाने शहर में मरने से अच्छा
अपनी जन्म भूमि की ओर चलें ।
भूख की जंग में मरने से अच्छा
मिट्टी की सोनी खुश्बू के बीच रहें।
एक ऐसा सफ़र,जहाँ पैरों का सहारा है
जहाँ गाङी नहीं,हौसलों का पंख हमारा है
हम प्रवासी,भाग्य से दो-चार होने को चलें—-
कितने कष्टों से होते हुए यह सफ़र पूर्ण हुआ
दहशत में ना रहो,गाँववासी हूँ वक्त का मारा हुआ
कष्ट न होगा ,अपनी जमी को अपना बनाने चले–
अब पलायन नहीं,यही आजीविका तलाशेंगे
खुद को साबित करने का अपना हुनर को तराशेंगे
संभावनाओ का ठौर बनाते हुए
शून्य से शुरूआत करने को चले—
सुमन आर्या
————-

छिपाना मत

August 31, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

जो भी हो मन में,
देखो कुछ भी छिपाना मत ।
मैं हर भावो को खुद ही समझ जाऊँगा
देखो लोचन पे लाना मत ।
कभी तुमने ही कहा तो था
सच बताने
गर सच बताया तो
दामन छुङाना मत।
कयी गम हैं इन पलकों पर
बताया तो
पलकों को रूलाना मत।
देखो तुम रूठे तो जग रूठा
मैं रूठू , मुझे मनाना मत।

स्वच्छ भारत अभियान

August 30, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

खुले में शौच से मुक्ति का दावा, बिलकुल निराधार
घोषित करने से, कार्ययोजना लेती कहाँ आकार ।।
स्वच्छ भारत अभियान का सच बताता
ग्रामीण सङको के किनारे चलना मुश्किल होता
ताजुब हमें तब होता, जब पढने को मिलता
कोई जिला, कस्बा शौच मुक्त घोषित कैसे होता
शौचालयों के निर्माण में खानापूर्ति कर रही सरकार
सिर्फ घोषित करने से कार्ययोजना लेती कहाँ आकार ।
बता दें कहाँ बारह हजार में होता शौचालय निर्माण
उसमें भी जब दो हजार की पेशगी लेते विभागप्रधान
शेष दस हज़ार का हिसाब भी बङा तगङा है
भूखों ने इतनी मोटी गड्डी पहली दफ़ा पकङा है
बच्चों की आशापूर्ति करें, या चुकाएं जिनके हैं कर्जदार
सिर्फ घोषित करने से, कार्ययोजना लेती कहाँ आकार।
राशि मिलने से पूर्व, तस्वीर जो खींची जाती है
दीवार खड़ी कर बस फाटक लगा दी जाती है
फोटो खींच नियमों की धज्जियां उङायी जाती है
योजनाओं को जमी पे उतारने में बाधक है भ्रष्टाचार
सिर्फ घोषित करने से, कार्ययोजना लेती कहाँ आकार ।
भूख से बिलखतो को, भोजन के सिवा क्या दिखता है
अभावों में पले जीवन को सफाई की सीख भी चुभता है
पाणि में रोजगार, मुख में रोटी मुअस्सर होगी
ज्ञान की क्षुधा , तभी जन-जन में जागृत होगी
सवच्छ भारत अभियान का स्वप्न, तभी तो होगा साकार
सिर्फ घोषित करने से, कार्ययोजना लेती कहाँ आकार ।
जबतक जागरूकता ग्रामीण भारत में न आयेगी
यूँ ही हर अभियान, अधर में दम तोङती नज़र आएगी
बगैर सही संचालन के, सफल नहीं हो पाएगी
सही सोच से ही हर विधान सफ़ल हो पाएगी
सचेत हो नहीं तो हर आकांक्षा पङी होगी मझधार
सिर्फ घोषित करने से कार्ययोजना लेती नहीं आकर।
सुमन आर्या

मेरा गाँव

August 30, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मेरा गाँव
————–
गाँव मेरा, हां वही गाँव है
जहाँ सर्दी में धूप,गर्मी में शीतलता की छाँव है ।
अपनेपन का हर जङ चेतन से व्यवहार है
हर गली हर टोले में छिपा अब भी प्यार है
एक आवाज़ पे दौङ पङता है जो
बना भारत की पहचान है हा वही गाँव है ।
मगही बोली में घुली मिस्री की मिठास है
गोबर से लिपी गलयो में खुशबू का वास है
खेतों में लहराती फसल,पगडंडियो पे मखमली घास है
मन में कोई भेद नहीं,बालमन में गोकुल का रास है
हर डाली पे कोयल तीतर बटेर मैना का ठाव है
आने का संदेश देता कौवा का काव काव है ।
सुमन आर्या

मातृत्वसुख

August 29, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

हर माँ शिशु के जीवन को संवारती
खुद को खोकर, हर पहलू को निखारती ।
की कभी वह, स्वपहचान की भी अनदेखी
कभी गहरी निद्रा पलकों पे इसकी नहीं देखी
एक हल्की सी आहट, थोड़ी-सी छटपटाहट
कयी आशंकाओ से घिरी,आत्मा तक कराहती,
खुद को खोकर, हर पहलू को निखारती ।
गर्वित कर जाता, आँचल से ढक स्तनपान करवाना
आलोकित करता उसे मातृत्व के अहसास को जीना
स्नेह की मूरत वह , पलकों पे करूणा का छलक आना
माँ कहलाने के खातिर, हर पीङा को हंसके लान्घती,
खुद को खोकर, हर पहलू को निखारती ।
कयी तनाव , संघर्षों से खुद जूझते,
पर पार करती गम के हर पङाव को
अकेली ही झेलती, सहती हर दुःख संताप को
नित नये सवालों से रूबरू, जीवन में उतारती,
खुद को खोकर, हर पहलू को निखारती ।
यह एक बेहतरीन पल, आएगा क्या दुवारा
हर क्षण को जिये, इसे गवाना नहीं गंवारा
इनकी गतिविधियों को, पलकों पे कर क़ैद
“मातृत्वसुख” है हासिल, लेता हर अवसाद हर
रमती बच्चों में, हर क्रियाकलाप को सराहती,
खुद को खोकर, हर पहलू को निखारती ।
माँ जननी ही नहीं, गुरु, मित्र भी, शिशु की होती है
आखरी लम्हों तक, सुत के नाज-नखरे हंसके ढोती है
उसकी विशालता के आगे, हर इंसान की कद छोटी है
अपने सुत-सुता के लिए वह, ईश्वर से बढ़कर होती है
दुनिया भर की दुआओं संग, खुद को भी निसारती,
खुद को खोकर, हर पहलू को निखारती ।
सुमन आर्या

आश बूढ़े माँ-बाप की

August 28, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

अलगाव, अवसाद से निकलने को ,
तैयार हो अपनी सोंच बदलने को ।
खुद को आकने, अंतर्मन में झांकने को ,
नये हुनर सीख तैयार, बेहतर करने को ।
भविष्य की अनिश्चितता हमेशा से कायम थी
अकेलेपन की खुमारी पहले ही से व्याप्त थी
टूटते संयुक्त परिवार, एकल में हो रहे तब्दील थे
खुद तक सीमित, पडोसियों से भी अनभिज्ञ थे
हम अकेले ही नहीं, सब तैयार हैं फल भुगतने को,
बस तैयार हो अपनी सोंच बदलने को ।
थोड़ा-सा सुधार करें, खुद में हल्का- सा बदलाव करें
घर-ग्राम जो छोङ आए, पुनः उसपे भी हम ध्यान धरें
बुजुर्ग जो घर में बैठे, अपनी आश लगाए हैं
उनकी कंपित हाथों को थोड़ा-सा आराम दे
हम जो भी हैं, माने प्रतिफल, उनकी साधना को,
बस तैयार हो अपनी सोच बदलने को।
तन्हा बैठे-बैठे तकते रहते वे उस पथ पे
कान्हा उनका आएगा, छोङ गया जिस दर पे
कट रही जिन्दगी पडोसियों के रहमो करम पे
ज़रूरतों के लिए कबतक आश्रृत रहे गैरो पे
इस कोरोना काल में, बीमार जो वे पङे
पङोसी भी नहीं आए, थे जो साथ खङे
इसके का दोषी हम, या दोष दे मानवता को,
बस तैयार हो अपनी सोंच बदलने को ।
भूखे रह, खुद को जोखिम में डालकर
फ़रमाइशे पूरी करने को जो थे हरदम तत्पर
अपनी जरूरतों के लिए भी निर्भर हैं दूसरों पर
जिन्हें गरूर समझ, मेहनत-से सीच- सीचकर
बनाया स्वाबलम्बी, पहुँचाया मनचाहे मुकाम पर
अपना जहाँ बसा, भुला बैठे अपनों की आश को,
बस तैयार हो अपनी सोंच बदलने को

कर्मफल

August 28, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

स्वप्नों के बीज पर ही कर्म फल लगते हैं
स्वप्न सीढ़ियों पर चढ लक्ष्य के फल चखते हैं ।
बगैर स्वप्न देखे कहाँ हम आगे बढ़ते हैं
बगैर इसके कहाँ उपलब्धियाँ हासिल करते हैं ।
कल्पना ही है वह आधार भूमि
लक्ष्य इमारतों की बुनियाद जिसपर रखी होती हैं
जीजिविषा के दम पर ही मन साकारता को पाती हैं
हर नवनिर्माण के पीछे चेतना संघर्ष करते हैं
स्वप्न के बीज पर ही कर्म फल लगते हैं ।
हमारा व्यक्तित्व सशक्त स्वप्न की पहचान है
हमारी पायी गयी मंजिल हमारे अरमान हैं
स्वप्न हमारी हर आनेवाली समस्या का समाधान है
इसके बल पर आत्मविश्वास को उङान देते हैं
स्वप्न के बीज पर ही कर्म लगते हैं ।

प्रतीक बन जा

August 27, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

कठिन पथ पे चलकर, फतह हासिल करने की
तू प्रतीक बन जा !
स्वमेहनत से कुछ ऐसा कर, सभी के मन की
तू मुरीद बन जा !
अनेक रंगों से सजे, संग- संग गुजारे
खट्टे- मीठे कयी भावों में पल बीते हमारे
बिखरती-संवरती, कभी चल-चल के ठहरती
चलते रहे निरन्तर एक-दूजे के सहारे
बस ख्वाहिश है इतनी,नित नव कीर्तिमान गढते
निडर, निर्भिक, अनवरत् आगे बढते
निराशाओं के भंवर में भी पुरउम्मीद बन जा !
कठिन पथ पर चलकर, फ़तह हासिल करने की
तू प्रतीक बन जा !
जिसकी चाहत भी न की हो, वह सब हासिल हो तुमको
मनचाहा वह वर मिले, तेरी खुशी की बस चाहत हो जिनको
जिनकी हर ख्वाहिश को पूर्ण करने वाली मनभावन
तू कल्पवृक्ष बन जा !
कठिन पथ पर चलकर, फ़तह हासिल करने की
तू प्रतीक बन जा !

रिश्ता है बस निभाने का

August 27, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

बस अब और नहीं, गये अब दिन तुम्हारे हैं
हमने हंस हंस के, जो अपनाये अंगारे हैं
ये अंधेरे में सने पूनम की जो रातें हैं
दिये तुमने, पर यही अब संग हमारे हैं ।
गमों की कहाँ परवाह हमको है
खुशी की कहाँ चाह मन को है
मिले जो दर्द तुमसे है
बस उसीकी परवाह हमको है ।
थामा प्यार का दामन जो हमने था
बदला यह , बना कब दर्द का रिश्ता
समझ पाते, क्या है रिश्ते- नाते
पर समझने की धैर्य किसमें था।
खुद को सौंप के तुमको
निभाया फर्ज अर्धांगनी का
ख़बर थी कहाँ हमको
यह नाम का नाता, बस है निभाने को।

न जाने कहाँ बसता है वो

August 26, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

ना जाने बसता कहाँ
* ———-*——–*——–*
सङको पे चलता कहाँ वह संक्रमण से अनजान है
भय व भूख को साथ लिए वो भी एक इन्सान है
जानता है यह सफ़र शायद हो अंतिम सफ़र
चल रहा, माथे पे गठरी ,बच्चों की अंगुली पकड़
धूप से तपते बच्चे को माँ लेती सीने से जकड़
मुसीबत से बेपरवा,खिलखिला,मासूम नादान है ।
कभी बिस्कुट की ज़िद करता चिल्ला पङता वो
तात की अंगुली छूङा,बेखौफ़ दौङ पङता है वो
खाद्यान्न से भरी ट्रक के आगे,मचलते गिर पङता वो
भूख मिटाने चला,काल का ग्रास बन बैठा वो
थी नहीं जिन्दगी की समझ,कहाँ मौत से अनजान है ।
कोरोना का डर,भूख की लहर,टूटा नियति का कहर
हुए अपनों से दूर,मा के सपने चूर,कितनी नियति है क्रूर
देके खुशी,छीनी अधरों से हंसी,दी क्यू ये खामोशी
ना जाने बसता कहाँ,करते जिसका हम गुणगान हैं
सुमन आर्या
*** *** ***

देवी नहीं बस इन्सान

August 24, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

एक ऐसा जहाँ, देवी नहीं बस इंसान समझा जाता हो
देवी का दर्जा देके न छल, नारी से किया जाता हो।
आसमां पे बिठा के अस्तित्व पर भी बन आया है
बाहर तो क्या घर में भी सम्मान कहाँ पाया है
जिसकी वह अधिकारिणी वह भी छिनता आया है
खुद पर खुद की इच्छाओं पर मलाल जिसे आया है
वह नारी है जिसकी सोच पर पाबंदी लगा आया है
नभ नहीं बस वह जमी मिले,जहाँ मान रखा जाता हो
जहाँ देवी नहीं बस इंसान समझा जाता हो ।
कन्या पूजन के लिए, जिसे घर-घर में ढूँढ़ा जाता है
जमी पे आने से पहले ही, जिसका कत्ल किया जाता है
दुर्गा, काली, कभी अन्नपूर्णा समझ जिसे पूजा जाता है लक्ष्मी को घर में ही, दहेज की वेदी पे चढाया जाता है
सारे रिश्ते तो क्या, इन्सानियत को भी भूलाया जाता है
पत्थर की मूरत नहीं, अर्धांगनी का मान रखा जाता हो
जहाँ देवी नहीं बस इंसान समझा जाता हो ।

हे प्राणदायनी नारी

August 24, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

हे प्राणदायनी नारी
*************
हे प्राणदायनी नारी,तेरी करूण कहानी
आँचल में है करूणा,पर आखों में पानी ।
हर युग में क्यू नारी ही सतायी जाती है
विरह वेदना सहती,अग्नि में उतारी जाती है
कदम -कदम पर सहती,सबकी मनमानी ।
तेरी करूण कहानी—
स्नेह की डोर से बँधकर,आई है तेरे द्वारे
एक प्रीत निभाने ख़ातिर,त्यागे सपने प्यारे
अलग कहाँ है तुमसे,है तेरी अर्धांगनी
तेरी करूण कहानी—
पाँच पतियों की द्रोपदी,उसमें उसका कोई दोष नहीं चौसर पर दांव लगा बैठे,धर्मराज को कोई होश नहीं
पति की करनी,वेश्या कहाती रानी
तेरी करूण कहानी—-
अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले,पत्नी से छिपकर भागे
विरह- वेदना का दुख, क्यू रखा यशो के आगे
क्यू बनी वह दर्द की अधिकारिणी
तेरी करूण कहानी—–

सुमन आर्या

गणपति

August 24, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

प्रथम मौलिक जन-जन के गुरु
प्रबंधन के पुरोधा,नवाचार की शुरू
आस्था के आकाश पर सूर्य से बिराजमान हैं
धर्म के धरातल पर रचे कृतिमान हैं
मातृभक्ति की वज़ह से पिता की भी की अवहेलना
पिता की विश्राम की खातिर परशु का किया सामना
हाथ में फरसा लिए मूषक पर सवार हैं
एकदन्त दयावन्त बप्पा हमार हैं

जहाँ बसाते चलें

August 23, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

कुछ पाना हमारा मकसद न हो
देने की लत खुद को लगाते चलें
जीवन हमारा यह रहे न रहे
दूसरों का जहाँ चलो बसाते चले ।
हमने देखा दुनिया की भीड़ में भी हम अकेले है
क्यूँ न अकेले ही आशियाना बसाने चले ।
बहुत सह लिया अपनो से सितम
फिर क्यू उनके नाम का दीप जलाते रहे ।
मेरी भावनाओं की जिन्हें कद्र ही नहीं
क्यूँ उनकी बेरूखी पे आँसू बहाते रहे ।
जिन्हे आँसूओ की कद्र ही नहीं
क्यूँ उनके खातिर खुद को जलाते रहे।
कयी ऐसे है जिनकी उम्मीदें हैं हमसे जुङे
क्यू न उनके लिए ही खुद को फिर से बनाते चलें ।
जीवन का मकसद बदले में पाना नहीं
बिना पाये ही परहित में खुद को लुटाते चले ।
ज्यादा नहीं, पर कुछ के लिए बहुत कर सकते है हम
चलो दूसरों की खुशी को अपना मकसद बनाते चले।

स्वतंत्रता की वर्षगांठ

August 16, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

स्वतंत्रता दिवस काव्य पाठ प्रतियोगिता:-

खुशी खूबसूरती और खैर- ख़ैरियत के साथ
चलो मनाते हैं देश की स्वतंत्रता की वर्षगांठ ।
आजादी सौगात नहीं,अमर शहीदों की विरासत है
रक्त बून्द से सिंचित,करना हमें जिसकी हिफाज़त है
गली कूनवे, हर जन को करनी मुल्क की इबादत है
हमारी अभिव्यक्ति अपनी नहीं, ये उनकी शहादत है
विकसित नव निर्माण के संकल्प के साथ
चलो मनाते हैं स्वतंत्रता की वर्षगांठ ।
गुलामी के दंश से मातृभूमि को जो राहत दिलायी
कुर्वानी खुद की दे आजादी की मन में चाहत जगायी
कटकर भी जिनके शीश हिमालय शिखर से भी ऊंचे हैं
अपने शौर्य से जिसने आज़ाद हिन्द के अक्श खींचे हैं
उनके पदचिह्नो पर निर्भिक चलने के संकल्प साथ
चलो मनाते हैं देश की स्वतंत्रता की वर्षगांठ ।
अब भी क्यू अपने संकीर्णता के पंजे में जकड़े हैं
खुद के गर्व में खुद को बान्धे किस मद में अंधे हैं
कभी धर्मान्धता तो कभी जातिवादिता को पकङे हैं
क्षेत्रवाद, भेदभाव जैसे उन्मादो में अकङे हैं
रूकावटो को दूर कर, राष्ट्रनिर्माण संकल्प के साथ
चलो मनाते हैं देश की स्वतंत्रता की वर्षगांठ ।
क्या ये वही भारत है जिसमें थीं वीरों की आस्था
खेत, सङक आसरागृह में सुता की दिखती है व्यथा
फाँसी पे लटकती, अग्नि में जलाती दहेज़ की प्रथा
बेटियों को कमतर आकने की प्रचलित है कुप्रथा
भ्रूणहत्या नहीं, भ्रूणपल्लवन के संकल्प के साथ
चलो मनाते हैं देश की स्वतंत्रता की वर्षगांठ ।
हमारी अस्मिता पर टिक न पाए किसी की नजर
बुलन्दी के आगे उठ न पाए किसी दुश्मन का सर
हमारी सर्वशक्ति का विश्वभर में हो ऐसा असर
घुसपैठ की सोचने से पहले दहल जाए उनका जिगर
अपने कण-कण की हिफाज़त के संकल्प के साथ
चलो मनाते हैं देश की स्वतंत्रता की वर्षगांठ ।
विभिन्न नस्लों जातियों धर्मों से गुलज़ार है ये उपवन
विभिन्न बोलियों भाषाओं से महकता है प्यारा चमन
अहिंसा के दूत बनें ,पसन्द हो शान्ति -अमन
मतभेदों से उठकर, हम करें इन्सानियत को नमन,
अंजाम को सोचे बिना सत्यवलण के साथ
चलो मनाते हैं देश की स्वतंत्रता की वर्षगांठ ।
सुमन आर्या
****

स्वविजय करें

August 14, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

35: *स्वविजय करो *
******************
स्वयं दीप बनों ।
स्वयं नियमन करो ।।
सभ्य, ज्ञानी, जागरूक हो तुम ।
खुद,खुद का संचलन करो ।।
परस्पर सुरक्षित दूरी का,ध्यान रखते हुए ।
खुद सतर्क रहो ,नियमों का अनुसरण करो।।
खुद के रणक्षेत्र में,योद्धा बने हो तुम ।
खुद की नीतियों से, खुद के पथ पे ,स्व विजय करो।।
जोखिम भरा ये जीवन ,इच्छाओं का कर तर्पण ।
खुद, खुद की लगा पाबंदी,मानवता का संरक्षण करो ।
* सुमन आर्या *

राम हैं जनगण के नायक

August 13, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

राघव भक्तों के सदियों तक के बलिदान,
संघर्ष और तपस्या का परिणाम
अयोध्या की पावन भूमि का शिलान्यास
और फिर भव्य मन्दिर का निर्माण ।
कितने भक्त मन में निर्माण की आस लिए
कर गये इस अवनी से प्रस्थान
अब जाके उन अतृप्त आत्माओं को
मिला परित्राण ।
नमन है उन वीर व्रतधारियो को सनातन –
निर्माण के कठिन विरासत को संजोये रखा
मन्दिर निर्माण के,कठिन व्रत को,
निर्भिक नेतृत्व से जनगण में जगाये रखा ।
रघुनन्दन है जन-जन के नायक
इनके मूल्य हैं भारत की आत्मा
हे पुरूषोत्तम ! अब तो कर दो इस धरा से
संताप, द्वेष, तृष्णा,घृणा का खात्मा ।
तहेतत अच्युतम ! चरित्र दर्शन,आपका रहे
हमारे समाज की बुनियाद में
भविष्य, वर्तमान की सभी पीढियों की
आस्था हो भगवान रघुनाथ में ।
हर जन, सच्चे मन से- शान्ति ,अहिंसा,
मानवता ,मर्यादा का पालन करे
उनमुक्त भाव से सब राममय हो
परस्पर भातृत्व भाव की हो भावना ।
आनंद का है आया वह क्षण
संकल्प पूरा हुआ
भारत के कण-कण में बसते हैं राम
यह भान इस जग को हुआ ।
सुमन आर्या

कान्हाजन्म की बधाई

August 11, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

बधाई हो यशोदा मैया
आयो कान्हा तेरे द्वार
सुर नर मुनि करते
स्वागत है बारम्बार ।
जन्म लियो मथुरा जेल गृह में
पोषित भये देवकी के गर्भ में
आये दुष्ट कंश के करन संघार
बधाई यशोदा मैया आयो कान्हा तेरे द्वार ।
यशोदा के लाल कहाये
देखो कैसे सबखा मन हर्षाये
यशोदा के गोद खेलत है जग के पालनहार
यशोदा मैया आयो कान्हा तेरे द्वार ।
कभी ग्वालन संग माखन चुराये
यमुना तट पर वस्त्र छिपाये
गोपियन संग रास रचाये सृजनहार
यशोदा मैया आयो कान्हा तेरे द्वार ।
सुमन आर्या

v

बधाई यशोदा मैया

August 11, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

बधाई हो यशोदा मैया
आयो कान्हा तेरे द्वार
सुर नर मुनि करते
स्वागत है बारम्बार ।
जन्म लियो मथुरा जेल गृह में
पोषित भये देवकी के गर्भ में
आये दुष्ट कंश के करन संघार
बधाई यशोदा मैया आयो कान्हा तेरे द्वार ।
यशोदा के लाल कहाये
देखो कैसे सबखा मन हर्षाये
यशोदा के गोद खेलत है जग के पालनहार
यशोदा मैया आयो कान्हा तेरे द्वार ।
कभी ग्वालन संग माखन चुराये
यमुना तट पर वस्त्र छिपाये
गोपियन संग रास रचाये सृजनहार
यशोदा मैया आयो कान्हा तेरे द्वार ।
सुमन आर्या

स्वागत कैसे करें तुम्हार

August 10, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

कान्हा तेरो
स्वागत है बारम्बार !
जनमाष्टमी आए
सबके जीवन में हर बार !
मोर मुकुट तेरो सिर पे सोहे
तू जन -जन के मन मोहे
तेरो महिमा अपरमपार
कान्हा तेरो स्वागत है बारम्बार!
देवकीसुत वसुदेव के नन्दन
नन्द- यशोदा करे तेरो अभिनन्दन
मेरो बन्दन भी करो स्वीकार
कान्हा तेरो स्वागत है बारम्बार!
त्रस्त हैं सब वसुधा के बासी
अदृश्य शत्रु करे हमरो उपहासी
चुप काहे है तू तेरे नयन हैं हजार
कान्हा तेरो स्वागत है बारम्बार!
तेरो जन्मदिन कैसे मनाये
मन व्यथित है कैसे सोहर गाये
व्याधि से मुक्त करा, करो सबपे उपकार
कान्हा तेरो स्वागत है बारम्बार !
देखो कैसे जी रहे डर-डर के
तरस गए हैं अपनों के दरश के
सब हंस के मनाये यह त्यौहार
कान्हा तेरो स्वागत है बारम्बार!
सुमन आर्या

वो मुकाम पाऊँ

August 10, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

वो मुकाम पाऊँ!
बस एक ही तमन्ना है जीतेजी ही नहीं
मरके भी सबो के काम आऊं
सारी खुबिया हो मुझमें
पसंद बनू हर मन की वो मुकाम पाऊँ !
दिया तो बहुत कुछ है, अब और क्या मान्गू
सहेजना आया ही नहीं,तुझे इसमें क्यू सानू
बस अरज है इतनी, जो है उसे संभाल पाऊँ
पसंद बनू सबकी—————!
थक गयी हूँ बहुत खुद को सुलझाने में
कसर कहाँ रखी बाकी मुझे उलझाने में
हर उलझनों को खुद से ही सुलझा पाऊँ
पसंद बनू सबकी वो———–!
तेरे करम पे विश्वास कम हो ना पाए
हर वक्त काम मेंरे तेरी ही रहम आए
फ़ितरत हो ऐसी,दूर तुझसे जा ना पाऊँ
पसंद—————————!
सुमन आर्या

जीवन गढ़ने का अधिकार कहाँ

August 9, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

जीवन गढ़ने का अधिकार कहाँ
*******************?
इन्सान हैं कुछ भी मुश्किल नहीं
चाह ले अगर क्या मुमकिन नहीं
लव कुछ भी कहे चाहे जैसे भी रहे
पर मन से वो हमेशा साथ रहे
अपने हमेशा दिल से साथ रहे
दूर रहकर भी मन के पास रहे
गर जीवन है तो फूल नहीं काटें ही सही ड
साथ निभायेंगे सबका सुख नहीं दुख ही सही
जीवन गढने का कहाँ दम है हममें
जीवन हरने का फिर अधिकार नहीं
यह तन सिर्फ अपना है कहाँ
अपनों की वर्षों के तप की धरोहर है
कयी आश जुङी है उनकी
जन्म से ही ख्वाब सजाए मनोहर हैं

महत्वाकांक्षा की क्षुधा

August 9, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

41: महत्वाकांक्षा की क्षुधा
*******************
अपनी जिद की बलि वेदी पर,
नौनिहालो को कुर्वान मत होने दो ।
अपनी महत्वाकांक्षा की क्षुधा को ,
बस शान्त रहने दो ।।
अधूरे स्वप्न अपने वंश के ,
विरासत में मत छोडो ,
उन्हें खुद से स्वप्न गढके ,
फिर उस क्षितिज की ओर बढ़ने दो ।
अपनी महत्वाकांक्षा की क्षुधा को
बस शान्त रहने दो ।।
टोका-टोकी का संबल मत दो ,
ना ही सहानुभूति की बैसाखी ,
खुद से ठोकर खाकर,
उन्हें खुद से संभलने दो ।
अपनी महत्वाकांक्षा की क्षुधा को
बस शान्त रहने दो ।।
ठोकरों से जो जख्म मिलेंगे
उनके आत्मविश्वास को पंख देगे
खुद के बनाये पंखों से,
उन्हें खुद से उङान भरने दो ।
अपनी महत्वाकांक्षा की क्षुधा को
बस शान्त रहने दो ।।
उङने के क्रम में गिरेगे,गिरकर फिर संभलगे
खुद के बनाये पथ से,खुद का जयगान करने दो ।
अपनी—–‘

कहाँ कुछ है मेरा

August 8, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मेरा वजूद भी तेरा
———***——-
मेरा वजूद भी कहाँ रहा मेरा
इसपर चढ़ा हर रंग तुम्हारा है ।
छूटे माँ पापा, कहाँ मैका अब मेरा
तेरा घर ही अपना बसेरा है ।।

मैं ही नहीं,कहाँ अब नाम भी है मेरा
सात फेरो के बंधन से हर साँस है तेरा ।
माथे की बिंदी हो या मांग पर सिन्दूर की लाली
मेरा वजूद तुझबिन वृहद् आकाश सा खाली ।।

कंगन की खनखन हो या पाजेब की छनछन
सभी तुझसे ही शोभित जाने है ये अन्तर्मन ।
अफसोस है इतना बदला क्यू खुद को इतना
खुद को भूल खुद से जोङा तुझसे हर सपना ।।

इबादत की तुम्हारी,घर को जन्नत सा सजाया है
पर भला तुमने कहाँ कब मुझे अपना सा-जाना है ।
ना मैका है अपना, ना तुझ संग अपना ठिकाना है
कहाँ जाए, छलावा-सा हर बेटी का, कैसा फसाना है ।।

काश! सिर्फ औरत नहीं इन्सान समझा होता
माँ बहन बेटी की तरह हमें भी सम्मान दिया होता ।
हमारी उलझनों को भी, संयम से, सुलझाया होता
फिर डांट डपट चाहे जितनी भी कसक दिया होता ।।

कोई भी गाङी पहिये के सही तालमेल से चलती है
नहीं तो, मन्जिल तक कहाँ, कब ढंग से पहुँचती है ।
लङ के कुछ कहाँ हासिल, कहाँ ऐसे जिन्दगी संवरती है
सुमन आर्या

बहना की मुराद

August 7, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

39: बहना की मुराद
*************

बहना की मुराद हुई पूरी
भाई का आना था जरूरी
बरसों से चाह थी उस सावन की
जिसकी पूर्णमासी को भाई की
सूनी कलाई पे, होगी मंगल कामना की
रेशम के धागे से बंधी अरमानों की डोरी
हर साल राखी देख मन को समझाती
खुद के प्रश्नों में खुद को उलझाती
देखते देखते राखी आके चली जाती
हर बार रह जाती कामना अधूरी
फिर सुना भाई बहन का है एक और त्योहार
बहन बजरी कूटती,आशीष देती बार-बार
जीभ में रेगनी चुभा गाली की करती बौछार
मंगल कामना की लालसा भाई दूज को हुईं पूरी
अबतक जो आश थी अधूरी जाके अब हुई पूरी
मन हर दिन अपनों की खैर मनाता है
हर पल अपनों की याद दिलाता है
भाई बहन की दूरी अन्तर्मन को जलाता है
भाई बहन में ना हो कभी कोई दूरी

अरमान हमारे

August 7, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

46: अरमान
———***—–
विभिन्न धर्मों की मिली-जुली गूंज
सदियों से हमारी माटी के कण-कण में विद्यमान है ।
हमसब के मन-मन्दिर में बसते,
जन-गण के नायक बस श्रीराम हैं ।।

जहाँ मन्दिरों के घंटे,मस्जिदों की अजान है
गुरूद्वारो की गुरूवाणी, चर्च की प्रार्थना,
संग-संग गुन्जमान हैं ।
हाँ, यह हमारी प्रचानीता में समाहित
मजबूत समावेशी भारत की सशक्त पहचान है ।।
यह विजयप्रतीक नहीं
मानवता मर्यादा मूल्यों का पुनः
प्रतिष्ठिकरण का आगाज़ है,
हमसब एक हैं यही हमारी संस्कृति का अभिमान है ।।
नव भारत,सशक्त भारत, समावेशी भारत की
नयी इबारत लिखनी है
धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक,नागरिक
अधिकारों को संरक्षित रखने की हिमायत करनी है
सनातन धर्म हो, सिर्फ इस धरा पर,
बस यही अरमान हैं।
सब के—
सुमन आर्या

चितचोर

August 6, 2020 in Poetry on Picture Contest

मोहक छवि है कैसी, मनभावन कान्हा चितचोर की।
माखनचोरी की लीला करते ब्रिज के माखनचोर की।।

वसुदेव के सुत, जो वासुदेव कहाते थे
नन्द बाबा के घर में नित दृश्य नया दिखाते थे
यशोदानन्दन नामथा जिनका मुख में ब्रह्माण्ड दिखातेथे
बात- बात में जो गिरिवर को कनिष्ठा पर उठाते थे
अपने सदन में छोङ,घर-घर माखन छिप कर खाते थे
यह दृश्य है ग्वालबाल की टोली के सरदार की।
मोहक—-

माँ जशोदा थी बाबा नन्द की पटरानी
नौ लाख गौवन की थी वो गोकुल की महारानी
नित सवेरे दधी मथकर माखन को सिक पर रखती थी
कुछ पल में माखन मटके से, ना जाने कैसे घटती थी
चिन्तित थी वो देख पतीला खाली
माखन कहाँ गया बता दे कोई आली
क्या करू कैसे ख़बर लूँ उस माखनचोर की ।
मोहक—–

योजना थी छिपकर चोरन को देखन की
पर यह क्या, ये मण्डली है अपने कृष्णन की
बङे शान से निजगृह में चोरी करन गोपाल हैं आयो
बंधुजन ने तुरत लियो हैं झुककर पीठ चढायो
कुछ खायो हैं कुछ आनन पर लपटायो
मित्र जनों को भी संग खाने का पाठ सिखायो
शब्द नहीं दृश्य हैं ,ऐसो माता हुई, विभोर की।
मोहक—-

मैया ने मन को संभाला, कान पकङकर कृष्ण को थामा
चोरी क्यू की अब तो बता दे,जो कहना है वो भी सुना दे
मैया मैंने चोरी कहाँ की,जले हाथों में पीङा बङी थी
जलन की पीड़ा मिटाने,मैं तो चला था माखन लगाने
मुख पे जो चींटी लगी थीं,मैं लगा था उसको भगाने
मुखपे है बरबस लपटाये,मुझे तो चाहत है तेरे कोर की ।
मोहक—

सुनकर कृष्ण की मीठी बातें सहसा ली गोदी में उठाके
कान्हा तू पहले बताते,क्यू छिपकर हो माखन खाते
तू तो जन-जन को भाते,फिर काहे को हो सताते
मैया मैंनो चोरी कहाँ की,ये करनी है मेरे सखा की
मुझे तो लत है माखनमिश्री व तेरे आँचल के छोङ की।
मोहक—-
सुमन आर्या

रामलला

August 5, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

रामलला
*******
खत्म हुआ वनवास रामलला का
शुरू हुआ निर्माण भव्य मन्दिर का
पुत्र भाई तात नृप सखा का स्वरूप निभाते
तभी तो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं जो राम कहाते
मानवता प्रेम मित्रता सद्भाव का पाठ पढाते
मानव मूल्यों का जन-जन को अहसास कराते
एक स्वप्न फिर से आश तके है विश्वगुरू बनने का–
लोग अलग हैं, धर्म बिलग हैं, पर हममें एक अगन है
हो निर्माण उस मन्दिर का, करेंगे जिसमें राम रमण हैं
सबकुछ उनपे छोङ देते हैं सर पे हमारे रघुनन्दन हैं
मोहनी मूरत हो सबके उर में कहलाते जो श्यामवरण हैं
रामराज्य हो हर जनपद में,मूरत हो बस रामलला का—

सुमन आर्या

माखनचोर

August 5, 2020 in Poetry on Picture Contest

मात हमारी यशोदा प्यारी,सुनले मोहे कहे गिरिधारी
नहीं माखन मैनु निरखत है,झूठ कहत हैं ग्वालननारी।

मैं तेरो भोला लला हूँ माता,मुझे कहाँ चुरवन है आत
बस वही मै सब खाता, तेरे हाथों का माखन है भाता
ठुनक ठुनक कहते असुरारी,झूठ कहत हैं ग्वालननारी।।

ये जो ग्वालन हैं,बङी चतुरन हैं,बरबस ही पाछे पङत हैं
ना जाने क्यू मोहे बैरन हैं,झूठ-मूठ तोसे चुगली करत हैं
मैं तो सीधा-सा हूँ बनवारी, झूठ कहत हैं ग्वालननारी ।।

मैया अबतक मौन खङी थी,चुप्पी भी चुभ-सी रही थी कान्हा तू झूठ कहत है,हाथों का माखन भेद खोलत हैं
जा झूठे नहीं तेरो महतारी,झूठ कहत हैं ग्वालननारी ।।

अश्रु लोचन में भरीं लायो,
तेरो पूत मै तू मोरो मात कहायो
भोर भये क्यू मोहे कानन पठवायो
मोरे हाथों में छाले पङी आयो
चुभन मिटाने को माखन लपटायो
सत्य कहत ,बही आयो वारी, झूठ कहत हैं ग्वालननारी।

लला का रूदन माँ देख न पायीं,गोद उठा गले से लगायी
माँ- बेटे का संबंध हो ऐसा ही पावन,
कान्हा- यशोदा का संबंध हो जैसा मनभावन
अजब-गजब नित लीला रचते अघहारी
झूठ कहत हैं ग्वालननारी ।।
सुमन आर्या

अहिल्या पत्थर बनायी जाती है

August 4, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

अहिल्या पत्थर बनायी जाती है
—————******——————
करनी किसी की भी हो,सतायी नारी जाती है ।
हवस हो इन्द्र की,अहिल्या पत्थर बनायी जाती है ।।
युग युगांतर से यही,बस होता आया है
अहम तुष्टि हो नर की, कलंक नारी पे छाया है
रूप यौवन,सौम्यता नारी ने ईश्वर से पाया है
हरहाल में दुश्मन,बनी उसकी ही काया है
चिथङे उङते सम्मान के,कलंकनी कहलायी ज़ाती है ।
हवस हो इन्द्र की–
मान गया,सम्मान गया,अनचाहा जीवन पाया है
नारी की अस्मिता पर,कैसा संकट छाया है
अन्तर्मन को भेदती निगाहें,दरिन्दगी का कहर ढाहा है
भूलता क्यू है वो भी, किसी जननी का जाया है
बहसी बना वह ,कमी उसमें निकाली जाती है ।
हवस हो इन्द्र की,अहिल्या पत्थर बनायी जाती है ।।—–
बस फर्क इतना है तब व अब की नारी की आह में
हर एक से ठोकर खाती,अहिल्या पङी थी राह में
गौतम का कोपभाजन बन बैठी,इन्द्र की चाल में
बनी शीला उद्धार हेतु, राम के इन्तजार में
दोष किसी की नियत का,दोषी वही ठहरायी जाती है ।
हवस हो इन्द्र की,अहिल्या पत्थर बनायी जाती है ।।—
कल नहीं थी,आज भी कहाँ,नारी सुरक्षित रहती है
चौक-चौराहे पे,अनामिका की आवरू,लुटती रहती है
दुष्कर्म से पीड़ित,नहीं तो,एसिड से जलती रहती है
कोख में,तो कभी,दहेज की वेदी पे चढ़ती रहती है
अत्याचारी है कोई,अंगुली नारी पे उठायी जाती है ।–

संकटमोचन

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

दुनिया में छाया कैसा मंजर है
धरा सूनी सूनी लागे खोया-सा अंबर है
कोविड 19 से हर तरफ मचा हहाकार है
बस एक संजीवनी बूटी की फिर से दरकार है ।।
कहाँ छिपे हो संकट मोचन,संकट मानवता पे आई है इस अप्रत्याशित बीमारी ने,कितनों की दीप बुझाई है
वैद्य सुषेण की फिर से,आन पङी दरकार है
बस एक संजीवनी बूटी—–
विकसित अविकसित का इसने,फर्क मिटाया है
देख दवाई की खातिर, एक गर्वित ने हाथ फैलाया है
जी करता है, कह दा उसे, इन्कार है
बस एक संजीवनी बूटी——-
वसुधैव कुटुंबकम् की नीति का,
पालन करके दिखलाया है
अकङी,घमंडी को भी हमने नहीं कभी लौटाया है
दधीची शीवी की परम्परा को रखा बरकरार है
बस एक संजीवनी बूटी——-

मैत्री

August 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

वृत्ति मान्गकर जीवन यापन करने वाले
के अंतरंग द्वारिकाधीश थे
निज हाथों से सुदामा के चरण पखारते
सच्चे मित्र श्रीकृष्ण थे ।।
मित्रता हो ऐसी जहाँ भेद न कोई रह जावै
मित्र का दुख स्वदुख से भी ज्यादा कष्टप्रद लागै
सुग्रीव के दुख से जैसे दुखी जगदीश थे ।
बिन मांगे, कष्टोंसे बचाने,हाथ जो खुद आगे आवे
सही मारने में साखी कहलाने का पद वो पावे
ऐसो संगी रब से मिला बख्शीश है ।।
गुरूकुल में शुरू,छोटी सी थी जिनकी कहानी
मित्रता निभाई ऐसे,जैसे कर्ज हो सदियों पुरानी
यूँ ही साथ निभाना जैसे निभाये श्रीकृष्ण थे
Happy friendshipday

नये युग का सूत्रपात

August 1, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

विदेशी वस्तुओं का क्यू ना बहिष्कार करें
आज से ही एक नया युग का सूत्रपात करें ।।
विदेशी वस्तुओं का,सिलसिलेवार ढंग से, सरकार तहकीकात करे
चिन्हित वैसी विदेशी वस्तुओं से जनता का साक्षात्कार करें
फिर उन लोकप्रिय सामग्रियों के निर्माण की, स्वदेश में
शुरुआत करें ।।
साम्राज्यवादिता की प्रवृत्ति रही है जिनकी
जो दो-दो विश्वयुद्धो के सृजनहार थे
धूरी राष्ट्रों में शामिल थेजो ,उनपे कैसे क्यू विश्वास करें
किसी एकदेश की नहीं,हर विदेशी वस्तुओं का क्यू ना बहिष्कार करें ।।
कब पलट जाएँगे,क्या देखकर ललचाएगे वे
कब किसे छोङकर, किसका दामन थामेंगे वे
संभल जाएँ समय रहते, क्या जाने कब विश्वासघात करें ।।
कभी रूस का मुँह ताकतें हैं, कभी फ्रांस को निहारते
कभी सुखोई कभी राफेल,क्यूँ विदेशी को स्वीकारते
है जमी पे इतनी संपदा,क्यू न थोङा जोखिम उठा
खुद ही इनके निर्माण का, खुद क्यू न सूत्रधार बनें ।।
मैत्री करके सीखने की प्रवृत्ति को क्यू नहीं अपनाते हैं हम
तकनीकी ज्ञान हासिल कर,रक्षा उपकरणों को तराशते है हम
अपने मानव संसाधनों में खोज की प्रवृत्ति का क्यू ना सूत्रपात करें ।।
विदेशी रक्षा उपकरणों के बल पे अपनी शक्तियो का क्यू करें प्रदर्शन
आयातित सामग्रियों को देख,हम जैसों का विहल हैं अन्तर्मन
शून्य के जनक हो जिस वतन में,उसपे और न वज्रपात करे।।
हे जनप्रतिनिधि! कलाम, नागार्जुन,वशिष्ठ की यह पावन भूमि है
जहाँ के हर शिशु में,एक -से बढकर एक खूबी है
बस उनकी सुप्तावस्था की शक्तियो का जागरण करें
विद्यालय में सही मायने में , नवाचार के चलन का आत्मसात करें ।।
सुमन आर्या

इन्सानियत कहाँ

July 31, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

3: इन्सानियत कहाँ
जिनसे जीवन के गुल खिले, मरते ही शूल हो गये
जिन्दगी जीने की चाह में क्यूँ, मशगूल हो गये ।।
यह ऐसी महामारी है जिसने इन्सानियत में सेंध लगाई है
अमानवीय बन बैठे हैं हम,अपनों ने नजर यूँ चुराई हैं
यह संक्रमण अपने संग वो दर्पण भी एक लाया है
छिपे चेहरे से परत-दर-परत पङी चिलमन भी हटाया है
काल के इस रूप में, सारे नाते-रिश्ते,तार-तार हो गये ।।
जिनसे—
दुश्मन भी दुश्मनी त्याज, जीवन की अंतिमयात्रा में आता है
उदाहरण- इतिहास के जयद्रधबद्ध के पन्नों में मिल जाता है
पर विधाता ने कैसी दारूण बेला, आज लायी है
मृतपङे अपनेको, छूने की जहमत ,हमने नहीं उठायी है लावारिश पङे शव, अपनों को भी अछूत हो गये ।।
जिनसे—
कोरोना का खौफ कुछ ऐसा है
सारे रिश्ते बेमानी,जीवन ही जैसे धोखा है
इसने तोङ दी,जन्मों से जुड़ी,रिश्तो की कङियो को
जीतेजी दिखलादी,अपनों से मुँह मोड़ने की घङियो को
आज अपना संस्कार,संस्कार देने वालोँ का लाङ भूलें हैं
बेगाने बन बैठे वे कंधे,बचपन में हम बैठ जहाँ झूले हैं
पङी जमी पर पथरायी आँखे,हमारी इन्सानियत की निशानी है ये
किसी के परिजनों को क़ोई और देता कफन,बदलते रिश्ते की कहानी है ये
चन्द घङियो की चाह में,कैसे संवेदनहीन हो गये।।
जिनसे—-
सुमन आर्या

3: इन्सानियत कहाँ
जिनसे जीवन के गुल खिले, मरते ही शूल हो गये
जिन्दगी जीने की चाह में क्यूँ, मशगूल हो गये ।।
यह ऐसी महामारी है जिसने इन्सानियत में सेंध लगाई है
अमानवीय बन बैठे हैं हम,अपनों ने नजर यूँ चुराई हैं
यह संक्रमण अपने संग वो दर्पण भी एक लाया है
छिपे चेहरे से परत-दर-परत पङी चिलमन भी हटाया है
काल के इस रूप में, सारे नाते-रिश्ते,तार-तार हो गये ।।
जिनसे—
दुश्मन भी दुश्मनी त्याज, जीवन की अंतिमयात्रा में आता है
उदाहरण- इतिहास के जयद्रधबद्ध के पन्नों में मिल जाता है
पर विधाता ने कैसी दारूण बेला, आज लायी है
मृतपङे अपनेको, छूने की जहमत ,हमने नहीं उठायी है लावारिश पङे शव, अपनों को भी अछूत हो गये ।।
जिनसे—
कोरोना का खौफ कुछ ऐसा है
सारे रिश्ते बेमानी,जीवन ही जैसे धोखा है
इसने तोङ दी,जन्मों से जुड़ी,रिश्तो की कङियो को
जीतेजी दिखलादी,अपनों से मुँह मोड़ने की घङियो को
आज अपना संस्कार,संस्कार देने वालोँ का लाङ भूलें हैं
बेगाने बन बैठे वे कंधे,बचपन में हम बैठ जहाँ झूले हैं
पङी जमी पर पथरायी आँखे,हमारी इन्सानियत की निशानी है ये
किसी के परिजनों को क़ोई और देता कफन,बदलते रिश्ते की कहानी है ये
चन्द घङियो की चाह में,कैसे संवेदनहीन हो गये।।
जिनसे—-
सुमन आर्या

कहाँ है हमारी संवेदना

July 31, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

आज हम कहाँ और कहाँ है हमारी संवेदना
भूल गयें अपनों को,कहाँ कैसी है वेदना ।।
भूल बैठे उन भावनाओं को
जब किसी मृत के शव पर लिपटकर रोया करते थे
देते अंतिम विदाई, सुध देह की खोरा करते थे
आज हैं ऐसी दूरियां
मृतक को पहचानने से भी इन्कार है हमें
मलकर भी ना अपनों का साथ
ना कफन ना वो चार कंधे, ना मुखाग्नी की रश्म
ना अंतर्मन को छेदती वो वेदना ।।
बदल गये सारे दस्तूर
पीङित को छूना नहीं, रहना दूर
भरा-पूरा परिवार,पर किसी को पास पाया नहीं
छटपटाते रहे, आवाज़ लगाते रहे,पर कोई आया नहीं
थोड़ा-सा अपनापन क्या,अंतिम संस्कार भी भाया नहीं
ना निड खून,ना रिश्तेदार,दूर तच अपनों की छाया नहीं
मौत इंसानो से भी पहले इन्सानियत को आई है जिन्दगी जा ही रही,रिश्तो में भी वीरानी छायी है
संक्रमणमुक्त होगा युग,पर क्या जागृत होगी मानव की चेतना ।।
सुमन आर्या

बगिया अधूरी है

July 31, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

जमाना अब तो बदला है कहाँ अब कोई दूरी है
बेटा और बेटी- दोनों का, होना जरूरी है
बिना इनके ना जिन्दगी, ना जिन्दगी
हाँ जिन्दगी अधूरी है ।।
बेटी की थाली में,ना राखी हो ना रोली हो
तो बेटे के हाथों की कलाई भी अधूरी है ।।
बेटी ना हो तो बेटे की जयगान कैसे हो
बगैर कर्णावती के, हुमायूँ की पहचान अधूरी है ।।
गर लङाई हो ना झगड़ा हो,घर गुलज़ार कैसे हो
बगैर भाई के बहना की, हर ख्वाइश अधूरी है ।।
शान्ता न होती तो, रघुनन्दन कहाँ होते
बगैर सुभद्रा के, कान्हा की गान अधूरी है ।।
बहन से ही दीवाली में, दीपो की थाली है
बगैर उसके गुलालों की, हर रंगोली अधूरी है ।।
भाई न होता तो,उठाये कौन अरमानो की डोली
बगैर भाई के कंधों के, हर शहनाई अधूरी है ।।
कुल का लाल बेटा है, तो बेटी घर की लाली है
बगैर इन दोनों फूलों के, हर बगिया अधूरी है ।।
सुमन आर्या

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