शिशु सुधार की चाह

March 17, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

शिशु सुधार की चाह में रहते हर जन
खुद चाहे रहा बिकर्षित उनका जीवन
ब्यर्थ चिंतित हो उल्झाता जन निज मन
धरा अवतरण हेतु सबका अपना कारण

स्वभाव अलग हो सबका यह है संभव
प्यास हरता सबका पर वही शीतल जल
प्यार बिना सूना है पर सबका मधुबन
प्यार‌ से ही बनता है सरल हर संसाधन।।।।

संतान से चाह है मात-पिता की भूल
मांग बन जाती नन्हीं सी ह्रदय की शूल
अम्बर का परिचय सच उन्हें कराना है
क्षितिज तक उन्हें किंतु स्वयं ही जाना है

नहीं भूख से मरता कभी कोई पशु पक्षी
संरक्षा पूर्ण जगत है नहीं कोई नरभक्षी
प्रार्थना के लिए द्वार प्रभुजी का चुनना है
सुधार हेतु वरदान वहीं से सदा मिलना है

अधम बन जाते बाल्मिकि

March 15, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

आगे बढ़ने की होड़
जन कठिनता का कारण
सीखने-सिखाने की प्रवृति बना
नर उत्तमता करता धारण

बीती बातों से नफ़रत पलता
इंसान तो हर दिन बदलता
बुराई को तजकर नित दिन
अच्छाई का करता जाता वरण

अधम बन जाते बाल्मिकि
निरक्षरता मिटती जाती है
पलती शत्रुता जिसके लिए
उसका भूत में ही होता हरन

किसी सूरत में नहीं किसान

March 15, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

खाली दिमाग शैतान का
खाली बैठे रहे बेईमान
निकम्मे निठल्ले हरामखोर वे
किसी सूरत में नहीं किसान

रंगे सियारों जैसे बनकर
शरीफों को कर रहे बदनाम
सार्वजनिक संपत्ति पे निर्माण
हैवानों का है यह काम…..

सूरबीर अकेले ही चलता
सबके हित की सदा करता
भेड़ बकरी के झुंड सदा
तपस्या में डालते ब्यवधान

भीड़ देख बुद्धू अक्सर
आकर्षण में बंध जाते हैं
उत्सुकतावश काम छोड़कर
कीमती वक्त करते अवसान

अमृत कलश

March 7, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

स्वर्णिम किरणों के रेशमी तार
मन सबके मनके जैसे वो हार
कितना उसको है मुझसे लाड़
सुर संगीत लिए आता सबके द्वार

सुनते हैं ऊज्ज्वलता का श्रोत वहीं
श्रृष्टि की सुन्दरता का‌ वो ही रथी
बल बुद्धि ज्ञान का भंडार सही
तभी तो अहंकार का लेश नहीं

दिनकर दरस को न तरसे कभी
इतनी ही आकांक्षा ईश से है
अमृत कलश तूं अमर रहे यही
इतनी प्रार्थना जगदीश से है

यश

March 7, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

यूं ही नहीं मिलता किसी का साथ
ये तो जन्मों जन्मों की अधूरी आश

खेल कूद कर संगी साथी के संग
खबर न हुई कब बड़े हो गए
कीमती उनकी यादों के तार ने
सूने पल के गुजरने का सहारा बने

वक्त के साथ यादों पर धूल जमी
कभी हमी हतास कभी उनकी कमी
भूल कर प्रीत को जब आगे बढ़े
खूबसूरत अहसास थे पर में पड़े

साथ बचपन की महक थी कहीं दबी
दूब को नमी मिलते ही वो चल पड़ी
मीठी सी आस है फिर तेरी प्यास है
शैशव में थे अकेले अब पूरी बारात है

फिर है मौका तेरे बचपन में जाने का
यादों के आंगन को फिर से जिलाने का
यश है तूं सभी के लिए ही जीना तेरा
तेरे खुशबू से है महका सूना मन मेरा

हर्षित रहो

March 7, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

काम होता अवश्य मन में हर्षित रहो
सबको शीष नबा कर्म में रत रहो

आशीर्वाद से ही जीना होता आसान
बड़े सत्य वही जिन्हें छोटों का ध्यान
खेल खेल में ही अचरज संभव‌ हुए
प्रश्न थे मुश्किल जो आसानी से हल हुए

स्मरण ईश्वर का करता सब कुछ आसान
सारे गुरु में वही सब उसकी संतान
बैरी बन जाते मीत अजनबी दिखलाते पहचान
परीक्षा में वही हल का करता संधान

निज को परख

March 6, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

हद में रह
ज्यादा न बोल
फट जाए कहीं
जैसे कोई ढोल

बड़ा या छोटा
समझ तो रख
तूं है क्या
निज को परख

पिता हैं तेरे
आंखें न‌ दिखा
पुत्र तैयार खड़ा
तेरा लौटाने को

नीचे ही‌ बहती
तट तालाब सभी
पेय ऊपर फेंकी
शक्ल नीचे अभी

आदर देकर ही
सबका हो पायेगा
स्वयं में खोकर
सब कुछ गंवाएंगा

नन्हीं चिड़िया

March 6, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

बड़े का नाम बहुत ही है दुनियां में
छोटी चीजें पर खुशी का‌ है कारण

नन्हीं नन्हीं चिड़िया जमी पर फुदकती हुई
कितनों के मन को करती थी हरण
आज उनके बिना सुबह सूनी लगती
सबके ही जगने का जो थी कारण

काली सफेद लिबास में लिपटी हुई
नृत्य उसका मनोरंजन था कितना
कैसे कोई जीवंत उदाहरण भी
बन जाता है ऐसे इक दिन सपना

ओझल हो चुकी ऐसा लगता था
इक्की दुक्की फिर हैं दिखने लगी
आओ संभाले कीमती नन्हीं परियों को
स्वर में जिनकी ईश ने मधुर संगीत भरी

कचहरियां

March 6, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

अप्रमेय तथ्य है सदा से ही अविकल्प
जीवन में शांति उन्हीं से पर है कायम
प्रमाण सदन तो कुंठा से ही भरे हुए
जीवन अवसाद का जो सदा बने कारण

न्याय नाम से मची है वहां पर अंधी दौड़
अन्याय का हितैषी है जहां का हर अवयव
काग भुसुंडी से दिखते हैं चारोओर कौवे
ज्ञान अंशमात्र भी कहां है पर वहां सुलभ

तिल मात्र सा भी दरार है जिन रिश्तों में
तार बनाने का इन्हें है डिप्लोमा हासिल
जन जो पहुंचे थे जख्म मरहम लेने यहां
जीवन नर्क बना गया जो भी था हासिल

फिर भी कहां कमी है इनकी महफ़िल में
हर दिन निरीह आ फंसते हैं आश लिए
बिन सोचे करने की बनी आदत जिनकी
शतरंज बिछा फांसने का नया जाल लिए

झगड़ा मतभेद स्वार्थ इंसानो को अक्सर
बेईमान कचहरियों के आंगन पहुंचाते हैं
सरकारी तंत्र सारे ही उलझे हैं यूं बदस्तर
कहां सफल हुए हैं भ्रष्टाचार और बढ़ाते हैं

सोंच अलग है

February 25, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

सोंच अलग है
याददाश्त विलग है
अपनी चाहतों के लिए
वो आज हमसे अलग हैं

लाखों जमा कर दोस्तों ने
सारी उम्र की कमाई गवांई
शहर की छोटी जमी के लिए
वहीं पे सारी सुविधाएं जुटाई
सिसकती रही गांव भूमि बेचारी
जिन संसाधनों से जिंदगी बनाई

कुछ ने बहुत सी फसलें उगाई
जमीनें भी ली और बहुत सारी
वहीं जहां की खुशबू ने पढ़ाई
उन्हें शहर मंजिलो में पहुंचाई
करनी पड़ेगी उनकी पर बड़ाई
बचपन ने उन्हें यहीं खींच लाई

आकर्षण के तार को तोड़कर
गांव के स्नेह को यूं छोड़कर
आशीर्वादों से कैसे मुंह मोड़कर
पूर्वजों की धरोहर को तजकर
नया आशियाना बनाते हैं दोस्त
कहां से हिम्मत जुटाते हैं दोस्त

अपनेपन की कमी से शायद
बसें है जा इतनी दूर कहीं
कैद हो गये सुविधा सुरक्षा में
शहर की चकाचौंध भाया सही
गांव आज भी रह गया है वहीं
नई सोंच वहां कहां पहुंच सकी

सोंच अलग है
याददाश्त विलग है
अपनी चाहतों के लिए
वो आज हमसे अलग

किसानों का किया है इन्हीं ने तो बुरा हाल

February 24, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

आतंकियों के ठिकाने बदल रहे हैं
शिकारियों के पैमाने बदल रहें हैं
छिप-छिप के करते थे कभी ठगी जो
लालच के उनके आशियाने बदल रहे हैं

भोले-भाले को ठगना ही जिनका काम
चींटियों की तरह बांबियां बनायी सरेआम
सब का ही कर रखा है देखो रास्ता जाम
इतने निष्ठुर तो नहीं कहीं होते हैं किसान

बेईमानों की प्रत्यक्ष है पहली बार मंडली
लूट का पता बता रही हैं तन जमी चर्बी
नहीं है ये हितकारी न ही कोई किसान
फुटपाथ पे ले आई इन्हें इनकी खुदगर्जी

किसानों का किया है इन्हीं ने तो बुरा हाल
उनके हक को खा-खा करने आये हलाल
टिड्डियों की तरह छाये हैं जहां भी मंडी
फसल वाले परेशान ऐसे जैसे करते थे फिरंगी

आश्चर्य है कि दिल्ली अब तक है सहनशील
उन्हें नहीं दिखा क्या रूप इनका अश्लील
ये हैं सभी के दुश्मन सभी के ही विरोधी
पर निकले चींटियों के तो शहर की ओर हो ली

मैं-मैं व तूं तूं

February 24, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

सारे व्यापार को तेरा आधार
संबंधों में भी तुझसे ही है प्यार
तुझमें ही सब और सबमें प्रकट तूं
फिर भी सब में क्यूं भरा मैं मैं व तूं तूं

पल पल के मीत जाते बीत
प्यार सच्चा पर अंतराल का गीत
नीरस जीवन में लाता मधुरता संगीत
प्रियतम तेरे आशीष संबंध सुख पाते जीत

तुझसे ही बने हैं सारे रूप
नेह आगार भरे कितने अनूप
सुंदर जो थे कैसे बन जाते कुरूप
प्रभु तुझसे ही तो सब की छांव धूप

अंत तुम्हीं तुझमें विश्राम
तुझमें रमन कर होते शाम
तुझसे ही सफल तो सारे काम
करूणानिधि तुझसे ही मिले हर बिहान

रिश्ते क्षितिज की तरह

February 13, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

रिश्ते क्षितिज की तरह
मिले से प्रतीत होते हैं
बंधन में बंधे लोग कब
इक दूजे करीब होते हैं

आकर्षण करीब लाता है
विकर्षण भी खूब भाता है
पास में टकराव है लेकिन
दूरी से ही सच नजर आता है

लम्बी सी कतार है लेकिन
इक तरफ झुकाव है लेकिन
आगे को ही स्नेह बरसता है
पीछे वाला अक्सर तरसता है

दीप जलाओ

November 13, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

दीप जलाओ और बस दीप ही जलाओ
पटाखे जलाकर प्रकृति को मत चिढ़ाओ

मन के अँधेरे को मिटाकर समझ का दीपक जलाना
मकसद यही है दिवाली का जीवन को रौशनमय बनाना
शांत करता वातावरण स्वच्छ होता जाता मानस मन
निर्मल शांत रात्रि को तुम कोलाहल की न भेंट चढ़ाओ

प्यार से जलते हुए दीपक साथ हमें रहना सिखाते
सुख की छांव हो या दुःख की तपन एकता को बढ़ाते
पटाखे की कोलाहल से शांत मन भी खीझ जाते
प्रदूषित हुई धरा को तुम और प्रदुषण से न पटाओ

ये कैसी मानव जाति है

November 8, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

अच्छाईं भाती है फिर भी
जुबां गलत बोल जाती है
ये कैसी मानव जाति है

सामान तो हरदम है पास
जब हो कुछ बहुत खास
तभी तो जरूरत आती है

अंतर तो सर झुकाता है
बाहर कुछ और दिखाता है
सरलता को क्यूं छुपाती है

आसमान पे थूकने को आमादा है
अपना काम पड़ा रह जाता है
फिर गुस्सा औरों पे दिखाती है

समय जैसे ख़ुद का गुलाम हो
जरूरी काम कल पर टाल दो
ब्यर्थ औरों पे झल्लाती है

हर आरंभ का है अंत यहां
आराम से मन ऊबता कहां
जमे तन से अब चिल्लाती है

हे प्रभु प्रीतम

November 8, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मार्गदर्शन से तेरे
होते सब काम
हो जब थकान
तुझ में विश्राम
हे प्रभु प्रीतम
हे दया निधान
आनंदित रहूं सदा
करूं तेरा ध्यान
सुबह रहे तेरा नमन
कर्म हो तेरा सिमरन
तुझ से विलग हो सिहरन
सदा रहो देव मुझे स्मरण
रिश्ते तेरे सम्मान रहे
कृतियों के लिए आदरभाव रहे
अच्छाई पर ही ध्यान रहे
नहीं खुद पर अभिमान रहे

इक हद होती है

November 6, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

हर बात की आखिर
इक हद होती है

सच लगता था कभी
झूठ आज साबित हुआ
अँधेरे में थी जिंदगी
उजाले पर काबिज हुआ

भविष्य देखने का दावा
अब तो खोखला पड़ा
जिसकी हथेली थी खाली
वो ही सिंघाशन चढ़ा

लगता था कभी जंगलराज
खत्म न हो पायेगा
इक चायवाला आसमा को
जमी की हकीकत दिखायेगा

अब तो लगता असंभव
कुछ भी नहीं है यहाँ
कुछ भी मुमकिन है
ये है अपना हिंदुस्तान

उम्मीद की किरण जागी
सत्ताधारी दहशत में है
सरकारी कुर्षीधारी की अकड़
लम्बी आकस्मिक छुट्टी पर है

समर्थ की ही होती परीक्षा
नयी चुनौती आती है
असमर्थ की सुस्ती देख
मुश्किल भी शर्माती है

हिम्मतवाले से हार परास्त
एकता बढ़ती जाती है
दबे कुचलों को मिलता बल
मानवता उठती जाती है

दुनियां की पुरानी आदत है

November 5, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

नन्हीं कलियों से आस लगाना
दुनियां की पुरानी आदत है

तनहा मुंह मियां मिट्ठू रहकर
खुशफहमी पालना आदत है
संगत से खुद को बचाते जाना
इंसानों की अब तो फितरत है

कंधा से कंधा मिलाते थे जो
अकेलेपन के शिकार हुए
डाक्टर का दर्शन करते रहे
प्रार्थना की ही इनायत है

चुनाव के मौसम आते ही
फिर दर्शन को बेताब हुए
परिणाम आते ही उनसे फिर
वही पुरानी शिकायत है

बंजर पे बसेगी फिर बहार

October 23, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

बे-कार हूं बे-रोजगार नहीं
आदतों का शिकार नहीं
शौक से नहीं परहेज मुझे
तेरी तरह शौक का गुलाम नहीं

इक सुई का किया आविष्कार नहीं
उसे हर नई खोज की दरकार है
मेरी जरूरतों का है ईल्म मुझे
तेरी तरह दुष्-स्पर्धा का बीमार नहीं

मेरे अपनों को जो सुख हासिल नहीं
उसका न लेना है हमेशा स्वाद मुझे
तेरे सुख के लिए खड़े हैं कयी महल
बाबा की झोपड़ी की मुझे दरकार है

भरा आंगन ही था भाता मुझे
अकेलेपन का उपहार तूने दिया
अब तो इसकी भी आदत हो चुकी
भीड़ में भी लक्ष्य से न हटता ध्यान है

माली ज़मीं के सूनेपन को
भरता कई तरह के फूलों से
उन्हें अलग मंदिरों की तलाश है
हर घर को विखराव का शाप है

ये कैसी यात्रा है हर घर की
विखराव न चाहता बचपन
टूटता शिशु का कोमल मन
परिवार के सोंच में बिलगांव है

कहां गया वो समय कि जब
बड़ों की कहीं हुई बातों को तब
छोटे करते रहते थे संधान सदा
न हो पाते थे वो कभी गुमसुदा

तलाश है फिर उस बसंत की
बंजर पे बसेगी फिर बहार
अवयबों के आशियानें अलग
इकजूट होंगें फिर एक बार

इक रितु कभी तो आयेगी
इतिहास फिर दुहराया जायेगा
स्वार्थ से सब ऊंचे उठकर
एकता मंत्र फिर अपनायेगा

अकेले रह जाते हैं

October 21, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

सुंदरता के आकर्षण में बंध
कोई इतना कैसे भा जाता है
ईश्वर से मांग को हो धन्यवाद
प्रार्थना से जीवन में लाता है

पाकर इच्छित साथी खूब इतराता है
अपनों को ठुकरा उसे अपना बनाता है
नये रिश्ते जुड़ते ्संबंध छूट से जाते हैं
उमंग में लेकिन महसूस कहां कर पाते हैं

जीवन पाते खोते आगे बढ़ता जाता है
सुख दुख का आना जाना लगा रहता है
इक दूसरे के आशाओं को समझते हुए
जिंदगी भी इक समझौता सा लगता है

शौक सभी ने पाले थे जो जो
धाराशाई होते चले जाते हैं
कयी हसरतों से पालते बच्चों को
सपने हमेशा टूटते चले जाते हैं

खून के रिश्ते होते हैं मजबूत
क्यूं अचानक बिखर से जाते हैं
पर की चाहत रखने के लिए
जननी के आंसू नजर न आते हैं

माता स्वाभिमान को भूल कैसे भी
बच्चों के लिए निज को भुलाती है
संतान की निष्ठुरता को सहकर भी
स्व को बलिदान किये चली जाती है

बचपन से सब रटते पढ़ते कि
इतिहास स्वयं को दुहराता है
भविष्य का फिर भी न डर इनको
इंसान सदा किया हुआ पाता है

भेद परिवार में जो पैदा करते रहते
स्वयं सुखों का हमेशा संधान किया
ऐसी बहुत बेटियां ने स्वयं ही तो
अपने जीवन को श्मशान किया

अपना पेट काट काट कर जो
अपने अनुजों को पालते हैं
उनमें सुधार न पाकर अग्रज
मन ही मन चिन्तित हुए जाते हैं

भाई को तिजोरी मानकर जो
उसकी खुशियों को खा जाते हैं
इक दिन तो करनी का फल मिलता
फिर हाथ मलते हुए पछताते हैं

मांगने को ही जो निज रिश्तों में
अपना ईमान बनाते चले जाते हैं
खुद को ही धोखा देते रहते
दुनियां में अकेले रह जाते हैं

संतान

October 21, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

माया को रचा हमने
प्यार का दीप जलाया
जिनका था सहारा हमें
उन्हें ही किया बेसहारा

गौ माता को पूजते तब तक
जब तक अमृत धार बहाती
यही स्वार्थ की अंधी भक्ति
अपनों से हमें दूर कर जाती

रिश्तेदारों से सम्बन्ध तभी
जब तक धन वे लुटाते
कार्य सिध्ध होते ही अपने
जाने लुप्त कहाँ हो जाते

फिर से ये निस्तेज शक्ल
उनको तभी हैं दिखाते
जब नयी वासना के लिए
धन थोड़े कम पड़ जाते

अपने भी बन जाते सपने
ये शौख जिन्हे हो जाते
अहसानो को भूल उन्हें बस
अपनों के धन याद रह जाते

उनसे अब रिस्ता ही कैसा
माँ को जिसने भुलाया
अब भी प्रार्थना करती नित
संतान को कौन भूल पाया

ऐसे सन्तानो की प्रभु कभी
शक्ल न किसी को दिखाए
शक्ल दिखाने को जो अपनी
माता को सदा तरसाये

जरुरत पड़ने पर ही जिसको
भाई माँ बाप की याद आये
स्वयं सुखों को दूर अपनाये
अपनों के धन को हर्षाये

संतान वही जो क्षण भर को
माँ बाप को भूल न पाए
किसी की नन्ही अहसानो को
जीवन भर भूल न पाए

जिसने उसको संसार दिया
उस पर सर्वस्व लुटाये
जान पर भी है हक़ जिसका
हक़ के लिए न उसे बिसराये

बोच बसंत

October 20, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

गुमनामी में गुजर गयी जिंदगी
फिर भी न शिकायत कभी की
जिनके लिए जी तोड़ मेहनत की
उनकी बेरुखी ही हरदम सही
फिर भी उदासी न चेहरे पे दिखी

हंस मुस्करा कर सबसे कुछ कहना
आदत थी जिनकी हिल मिलकर रहना
बच्चों को आदर दे बड़प्पन का भरना
अचरज है ऐसे पुरुष कैसे बेकार हो जाते हैं
गुमनामी का शिकार हो क्यों विदा हो जाते हैं

समाज में कुछ लोग जोंक से होते हैं
मेहनत करा खाते मजदूरी कम देते हैं
काम से मतलब सेहत से न पर की
उनके जहर को श्रमी आशीर्वाद समझ लेते हैं
अनमोल तन जो दिये ईश्वर ने उनको
चंद शिक्कों के खातिर बुरी आदत धर लेते हैं

इक ‘बोच’ बसंत का ऐसा अंत
अपने क्या गैर को भी नहीं पसंद
सीमा के आगे हर इंसान अक्षम
चाहकर भी न काम आया कोई संत
निष्ठुर दुनियां प्यार दिखाती अनंत

बेटी से ही तो दुनियां

October 12, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

बचपन से संवेदनशील
बच्चों में होशियार
सब करते हुए भी
लक्ष्य पर रहता ध्यान
हरदम ही समझदार
फिर भी क्यूं शिकार

शायद घर में ही रहकर
सबकी सेवा ही कर-कर
खुद को समझती कमजोर
मन से होती रहती बीमार
समझती खुद को लाचार
शायद इसलिए वो शिकार

अथक जिसकी सेवाये
निकम्में उसे सताये
कैसी विडम्बना है
करनेवाला ही बड़ा है
रक्षा में उसकी आयें
उसे मिलकर समझायें

तूं ही तो आदि शक्ति
तूं न किसी से कमजोर
बेटी से ही तो दुनियां
न कोई तुझमें कमियां
समूह में चलना सीख
सामूहिक ही कर विरोध

बेटियां संभालती है

October 12, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

सपनों में आ जाओ
फिर मुझे याद दिलाओ
मेरा वो स्वार्थी मन
तेरा वो भोला बचपन

अनजान मेरी हर शैतानी
कितनी थी तुझे परेशानी
तेरा बर्दाश्त करते रहना
हैरानी में आज भी डालती है

वो खजूर के पेड़ ऊंचे
पत्थर का सर पे गिरना
मेरे डर के कारण
तेरा दर्द सह चुप रहना

याद मुझे है अब भी
रो रो तेरा सो जाना
फिर भी तेरे दर्द को भुला
अपना बचाव करते जाना

छोटी होकर भी बेटियां
बड़े को सदा संभालती है
स्वयं कष्ट का अन्देखा कर
देश समाज को संभालती है

इक ज़माना था

October 10, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

इक जमाना था
लोग प्यार करते थे
पर बताते न थे
इक जमाना है
प्यार का तो पता नहीं
पर रोज ही जताते हैं

प्रेमी के सुख दुःख का
कितना ख्याल था
बुरा न मान जाये कही
हर समय ही ध्यान था

उम्र गुजर जाते
पर बताते हुए डरते थे
कितने जिंदादिल थे
दुःख सहकर ख़ुशी देते थे

महबूब की चाहत अगर कोई और हो
उसकी चाहत का भी ख्याल करते थे
उनकी बड़ी गलतियों का भी
न दिल में मलाल रखते थे

अब तो ये आलम है की
अपनी फिक्र में ही सब डूबे हैं
चहेतो की क़द्र कहाँ हैं
अपनी ही शौख से न ऊबे हैं

प्यार का ढाबा है पर
जान तक ले लेते हैं
न जाने कितनो से ही
एक ही खेल खेले हैं

अपनों से दूर

October 8, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

अपनों से दूर हो हर इंसान
खुद को भी भूल जाता है

अपने करते हैं नित शिकायत
पराधीन कहां सुख पहुंचाता है
पारावत की तरह हर सन्देशें
पर की अंजाने को पहुंचाता है

अपने रहें आश में तड़पते
पालक को भी ठुकराता है
बीती अपनों पर तकलीफें जो
स्वयं भी भुगतना पड़ जाता है

बच्चों की जनक से करता शिकायत
निज करतूत भी न याद आता है
दुख बांटने वाले को ही मिलता है
किसी के लिए नियम न बदलता है

जिंदगी बीता दी जब सारी शायद
जीना कैसे तब जाके समझ आता है

सुनियोजित आयोजन

October 6, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

हर एक के लिए सुरक्षित सुनियोजित आयोजन
फिर भी क्यूं हम करते रहते भविष्य का प्रबंधन

दूरदर्शिता की हुईं हैं सभी को बिमारी
वर्ष अंत का आरक्षण शुरू में करायी
चहुंओर बंदी से हुई है कितनी धन की हानि
आदत ने कब कहां की है मन की गुलामी

लोगों को अनावश्यक घूमने की आदत
स्वयं के साथ औरों के काम में है बाधक
समय के साथ बढ़ी भेड़चाल की आदत
शिक्षक प्रकृति ने सिखाया दूरी है इबादत

जितनी है सीटें उतना ही हो आरक्षण
बचे परेशानी से सुरक्षित हो मानवधन
धन की लालच में न हो सुविधा का हनन
नैतिक मूल्यों का न होने दें और पतन

सुंदरता सुख देती है

October 6, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

सुंदरता सुख तो देती है
पर साथ दुख भी आता है
गुलाब के फूलों के साथ

कांटा स्वयं चला आता है
नये आकर्षण से बंधकर
मन को आराम तो आता है
काम का बोझ भी बढ़ता है

इंसान पूर्ववत हो दुख पाता है
आकर्षण से मुंह मोड़ने पर
ईच्छा दबी रह जाती है
अनुभव कर आगे बढ़ सकते हैं
प्रचंडता में अधिक सताती है

सच सदा से कड़वा होता है

October 6, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

सच बोलने को हिम्मत चाहिए
मीठा झूठ सभी को भाता है
सच सदा से कड़वा होता है
मधुमेह वालों को भी न सुहाता है
तब रावण एक अकेला था
हर घर अब रावण का मेला है
पागल खाने में भी जगह कहां
जहां मुफ्त में भोजन मिलता है
मुश्किल में हंसने वालों के लिए
इक जगह वहीं बस दिखता है
सुख मिलने पर भी लोग हंसते कहां
याद दिलाते तो कष्ट से हो पाता है
मुस्कुराने में जो भी मेहनत लगती
चेहरे पर स्पष्ट नजर आ जाता है

अचरज है कैसे

October 5, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

अचरज में हूं मैं न जाने कब से

भारी भरकम आदमी की बोली हल्की कैसे
हल्के आदमी की बातों में वजन है कैसे

चींटियां आंख बिन चढ़ती दुर्गम पहाड़ों पर
आंखवालों की कमर टूटती बिस्तर पर कैसे

सुंदरता झुकाती है अकड़ वाले पहाड़ों को भी
पहाड़ी तन निर्मित न करते इक फूल भी कैसे

दूध दही की नदियां बहाते हैं जो नित निज घर
फीके पेय की घूंट को हर दिन गले लगाते कैसे

बड़ों की सीख पल भर भी न सिर टिकने दिया
बच्चों को वही सिखलाते हुए न शरमाते कैसे

जिंदगी को खुशी की इक बुंद भी तोहफे में न दी
औरों की जीवन की खुशियों को खा जाते कैसे

हम वहीं रह जाते हैं

October 4, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

दिन गुजर जाते हैं
हम वहीं रह जाते हैं
नये दिनों की तरह
कहां नये हो पाते है

पुराने जख्म मिले कहीं
क्यों न भुला पाते हैं
आये नये जो पल हाथ
बीती बातों को दुहराते हैं

आशा रख कर औरों से
हर दिन क्यूं जलते जाते हैं
भूत के बोए बबूल को भूल
आम की चाहत किये जाते हैं

आंखें बाहर को खुलती है
स्वयं का अनदेखा करती है
विश्वास खुद पे होना चाहिए
औरों पे भरोसा क्यूं करती है

आज जो अहं में डूबे हैं
कल पर अहं को झेलेंगे
जो फसल आज बोयेंगे
कल उसी स्वाद मजे लेंगे

जिंदगी पृथ्वी की तरह पाक
जो न करती कहीं ताक झांक
इसका सदा अटल स्वभाव है
न किसी के लिए भेदभाव है

बापू

October 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मनुष्य कहां कोई सम्पूर्ण
जनता की नजर में सब अपूर्ण

दुनियां जिन्हें पूजती बारम्बार
स्वदेश में उनके निंदक हजार
तिनके की तरह ठुकराई सत्ता
कभी भी न पाया कोई भत्ता
निठल्ले करते उनकी बुरी बातें
स्वयं के दामन अच्छाई ढूंढते रह जाते

बापू ने तो दी सौ सौगातें
अंधों को अंशु न नजर आते
दिन रात बैठ कुछ बड़बड़ाते
खुद कहे शब्द याद न रख पाते
शैतान सब में बुराई ढूंढ ही लेते
हंस पुरुष सभी को अच्छा बताते

बेटी

September 28, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

हर घर की खुशी व रौनक है बेटी
उसी से दुनियां शुरू व खत्म होती

किलकारी सब को हर्षा जाती
हर मात पिता को ही भा जाती
परिवार एकता का कारण जो
जीवन जीने की प्रेरणा है वो—

दो घर की सुंदरता उससे ही है
बेटों का संबल भी वो ही तो है
फिर भी कमजोर कैसे बन जाती
कैसे दुर्जन का शिकार वो हो जाती

सबला को समाज ने अबला बनाया
ममता का सबने ही फायदा उठाया
शक्ति साहस का वर्षों से प्रतीक बेटी
फिर भी उसे बचाने की जरूरत पड़ी

सुधार निशदिन

September 28, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

बहुत ही है मुश्किल
औरों में सुधार लाना
बेहतर है खुद को ही
निश दिन सुधारते जाना

काम बहुत है सारे
हर दिन पांव पसारे
कुछ कर नाम कमाते
तो कोई कल पर टारे

दिन यूं ही गुजरते चले जाते
कुछ फुरसत कहां कभी पाते
कई आराम से नित न अघाते
कुछ उन्हें देख चिंतित हो जाते

बीमारी खड़ी मुंह बाए
चंचल को कम ही सताये
आलसी शिकार हुआ जाये
कारण कब समझ में आये

परिवार के ही दोनों अंग
इक आगे नित ही बढ़ाए
इक बिना कुछ किये ही
कर्मठ को नित ही सताये

स्वस्थ वो ही जो प्रयत्नशील
काम करे औरों से कराये
निकम्मा तो हर दिन जले
कटु बातों से पर को सताये

अच्छी सोंच से हर इंसान
आगे को सदा बढ़ता जाये
मधुर मुस्कान नित ही बिखेरे
पर के कष्टों को हरता जाये

नम्रता

September 25, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

नम्रता ही तो है आभूषण
हर्षित करता है सबका मन

जीवन में कोई अवरोध नहीं
प्रगति भी रुकता है कहीं
कर्महीन का सहारा भाग्य
उत्साही का तो हर दिन सौभाग्य —

सब कुछ वह तुरंत ही पाता
औरों को भाग्य समझ आता
लगन से होता जन जागरण
साधारण भी बनता प्रतिभावान

विश्वास शक्ति और महानता का रास्ता
अविश्वासी को नहीं इससे वास्ता
न सीखने से इंसान बूढ़ा बनता जाता
सीख सीख बूढ़ा भी होता जवान

हर विचार तो है इक स्वप्न
कर्म से होता साकार तत्छन
आत्मविश्वास मनुज का बड़ा सद्गुण
अविश्वासी कहां समझ पाए ये गुण

निरंतर

September 23, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

दुख के क्षणों में जो शख्श ऊबता नहीं
सुख के क्षणों में अपनो को भूलता नहीं

पुरुषों में है सदियों से ही अज्ञानता
गलत संगत से निज ज्ञान भी ढका
औरों की बात मन में नित भरते हैं
न चाहते भी कई गलतियां करते हैं

कुछ निर्भर करता बेटी की ईच्छा पर
मात पिता भी बच्चों को भूल पाता कब
रश्म तो सदियों से निरन्तर चलता आता
कंधा मजबूत पर ही भार डाला जाता

संतान

September 21, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

हर संतान है विशेष यहां
अवसर भी भरमार है
मालिक की नई रचना
पुराने से हमेशा खाश है

फिर भी हर पिता को
पुत्र में कमी नजर आता है
मंदिरों में सर झुका पाता जिसको
उस ईश्वर को ही नित सताता है

धार्मिक खुद को बतलाते हैं
संदेश पकड़ न पाते हैं
गंगा के पास जब जाते हैं
उसका अंश ही तो लाते हैं

मानसिक क्षमता दुर्बल शायद
बीती बातों को भुलाते हैं
इसलिए हर पिता ही लगभग
अपने नौनिहालों को सताते हैं

ऐतवार

September 21, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

समय के साथ समझ बदल जाती है
चाहने वालों की चाहत बदल जाती है
प्यार करने वाले गलतियां सहित अपनाते हैं
भरोसा है जिसपर कभी तोहमत न लगाते हैं
ऐतवार हो तो प्यार हो ही जाता है
दर्द लेकर भी ये कष्ट से बचाता है
ऐतवार मां जैसा कहां है किसी में
अद्वितीय चीज है इस जग जहां में
आखिरी सांस तक निज संतान पर
ऐतवार करती है न शक है जिस पर
ऐतवार हो तो कीचड़ कमल बन जाता है
चाय केतली छोड़ विश्व सिंघासन पाता है

परिभाषा

September 15, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

प्रेम की परिभाषा नहीं जानते
वो ही बढ़ चढ़ इसे बखानते

चाहतें जो रही कभी हमारी
वही चाहत रही होगी तुम्हारी
इसलिए कभी मैं ऊब जाता
अनमना सा किया जब पाता

समाज ने इक बंधन तो बांधा
इसे तो हमेशा क्रंदन ही भाया
रिश्तों के नाम पर हर हमेशा
वेदी चढ़ा स्वयं हित ही साधा

समर्पण बिना हर प्रेम अधूरा
चाहकर भी न उत्पन्न हो पूरा
स्वयं उत्पन्ना जिसकी नियति हो
प्रयत्न से भला कैसे फलित हो

बचपन

September 13, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

जीवन की अवस्था तीन सही बचपन का कोई जवाब नहीं
आनंद भरा रहता तन मन पुलकित होता हरेक का संग
शिशु मुख लगता प्यारा प्यारा हर अंग भाता न्यारा न्यारा
मुस्कान हो या फिर हो क्रंदन पलक लपकता रहता ही छवि
जीवन की अवस्था कई सही बचपन का कोई जवाब नहीं
हर नयन में शिशु का आकर्षण न्योछावर हो जाता जन मन
नन्ही बांहो में मां समा जाती पूर्णता का अहसास करा पाती
अपनेपन का कोई स्वार्थ नहीं हर जीव से रहता लगाव तभी
जीवन की अवस्था कई सही बचपन का कोई जवाब नहीं
तब फिर हरी भरी जवानी आती सुख की सौ नयी सौगाते लाती
नव शक्ति से भरता है शरीर चाहता हरण न पर की पीर
सामर्थ्यवान रहते हुए भी तन आलस से भरा रहता ये जभी
जीवन की अवस्था कई सही बचपन का कोई जवाब नहीं
निज पर की आशा बढ़ जाती स्वयंभू क्यों स्वयं को भटकाती
नित नूतनता का आभास लिए कुछ कर जाने का विश्वास पिए
यौवन की सुगंध और मादकता कई प्यासों की आस जिलाती रही
जीवन की अवस्था कई सही बचपन का कोई जवाब नहीं
फिर ज्ञान का दीप जलाता अनचाहा निश्चित बुढ़ापा आता
अनुभव धन का भंडार भरे चहुओर फैलाने को शिथिल परे
परन्तु ये कड़वा सच की इससे यौवन न किसी का ललचाये कहीं
जीवन की अवस्था कई सही बचपन का कोई जवाब नहीं
परशुराम सा हो नर का जीवन संस्कार बाँटना चाहे बुझा यौवन
श्रम का महत्व ही है जग में इसी से ही सुधरता शिक्षित मन
सद्गुरु मिले अगर कोई सच्चा जीवन सफल बनता है तभी
जीवन की अवस्था कई सही बचपन का कोई जवाब नहीं

पशुता

September 13, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

चीनियों को चीनी की बीमारी
चींटी की तरह रेंगते रहते
खाने तक की है अक्ल नहीं
पशु खा पशुता ही प्राप्त कर रहे
अंत करना उनका नहीं मुश्किल
भालू चूहे बन्दर की जरूरत है
कोरोनावायरस फैलाया है उन्होंने
हैजा वाले शस्त्रों की जरूरत है
विश्व के लिए चीन पाकिस्तान खतरा
इनके उन्मूलन की आवश्यकता आ पड़ी
जल्द ही विश्वशोध ढूंढ लेगा हर इनका
मुश्लिम आक्रांताओं से होगी मुक्त धरती

अनिवार्यता

September 8, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

अध्य्यन-अध्यापन का बढ़ता व्यवसायीकरण
राष्ट्र के पतन व जनता के घुटन का है कारण
अत्याचार कोई जब हद से अधिक बढ़ जाता है
प्रकृति तब बचने का कोई अवसर दिखाता है
शिक्षा जन जन की जब मूलभूत आवश्यकता
फिर हर परिवार इसके कारण क्यूं सिसकता
अब हरेक के जेब में ही है कैद जब दूरदर्शन
मुक्त होता जा रहा हर जगह सब अनुशासन
इतने शिक्षालयों की अब तो जरूरत है कहां
विश्वविद्यालय का भी है अब तो विकास थमा
हर चीज के लिए है जहां होती है प्रतियोगिता
घर पर ही हो शिक्षा अब है ऐसी अनिवार्यता

जल-जीवन

September 7, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

जिंदगी को कहीं कैद कहीं आजाद देखा
फिर भी न बदलता उसका स्वभाव देखा

बुंद बनकर आसमां से लहराते आते देखा
कयी बोझिल चेहरे को पल में हर्षाते देखा

चूल्हे पर जलकर फिर आसमां में जाते देखा
प्यालों में जा तन मन की थकान मिटाते देखा

स्वयं को जमाकर औरों पे शीतलता लुटाते देखा
जिनके तन जले उन पर मरहम बन छाते देखा

पर हित लुट जाने वाले को नित भोजन बनाते हैं
तब भी जीवन भर स्वार्थि बन सांसों को घटाते देखा

Kahte the log

September 6, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

समय नहीं समय नहीं यह कहते थे लोग,
लगता था यह ज़िन्दगी बन गयी एक बोझ.
जीवन यूँ ही काम करते हुए बीत जायेगा,
अपना बस नाम का ही अपना रह जायेगा.
समय एक सा ही नहीं रहता है हरदम,
इसी आस में बीत जाता हर एक का जीवन.
सपनो को संजोये ही चला जाता हर मानव,
गुलाम बनाये रहता नौकरशाही का दानव .
हर घटना आती है एक नया सन्देश लिए,
अपनों के साथ भी जी एक नया उपदेश दिए.
सुख हो या दुःख जी लेंगे ज़िन्दगी का हर पल,
मत हो उदाl यह दुरी भी होगी बीता कल.

प्रकृति

September 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

प्रकृति की सुन्दरता इसलिए है कायम
इसे कभी किसी से इश्क नहीं होता
न ही ये कभी किसी के लिए रोता
इसलिए शायद सबका प्यारा होता

चांद और सितारे सदा थे और रहेंगे
पेड़ पौधे सारे सदा थे और भी सजेंगे
आवागमन चक्रीय न थमा है थमेगा
दुनियां में हरियाली सदा मौजूद रहेगा

इंसानों ने कभी न फिक्र की है जिसकी
जरूरत से ज्यादा नष्ट की संपदा सृष्टि की
चेतावनी तो सदा मिलती रही है लेकिन
छोटों ने अब सीख अपमान की है बड़ों की

अक्सर

August 27, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

जीवनदायिनी चीजें ही तो अक्सर
प्रचूरता में जिंदगानी ले लेती है

अग्नि नित सब का चूल्हा चलाती
भोजन को कितना मधुर बनाती
अधिकता में स्वाद को ही मिटाती
अनजाने में घर तक भी जलाती

जल बिन कितना तड़पे हैं मछली
सजीवों की पानी हीं तो है जिंदगी
अधिकता में कितना रौद्र रूप धरती
कितनों का संसार हर साल सूना करती

वायु से है प्रत्येक प्राणी का जीवन
तूफानों ने बदला हर जगह का मौसम
इनसे ही तो होती है जिंदगी की गिनती
श्वांस देने वाली कब सांसों को हरती

प्यार है हर मानव के लिए अमृत
अधिकता से भरता जीवन में विष
नीति है जो पाते वही लुटाते हैं नर
पर पाते कहां से और लौटाते किधर

पृथ्वी

August 23, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाकर प्रेम दिखाती है
बिन मांगे अपनी झोली हमेशा ही भरा पाती है
हर चीज समय से जुड़ी है प्रत्येक जगह यहां
जलीय चक्रीय प्रवृति से भरा है सारा ही जहां

इसकी तरह ब्रह्मांड की हर चीज ही है गोल
मानव मन उलझ जाता पर न पाता उसे तौल
स्वाभाविक रूप से सक्रिय है प्रकृति जिसकी
हर सजीव में झलकती है गतिशीलता भू की

अपने अस्तित्व के कारण ही हम सब हैं जुड़े
समय कब है थमा हमारा हर छोर इसपे खड़ा यहां बैठे हैं इसकी गोद शायद कुछ बचा हिसाब
ईश्वर के पास है सबके सकल कृत्य की किताब

प्रतिस्पर्धा

August 18, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

एक ही प्रतिस्पर्धा में अलग अलग स्वाद मिलते हैं
इसी से पर मुश्किल से मंजिलों के ख्वाब पलते हैं

लक्ष्य है निर्माण कि स्वतंत्रता सब अनुभव कर सके
बीमारी गरीबी और अज्ञानता भूत की बात बन सके

चैन से बैठें नहीं जब तक की लक्ष्य हासिल न हो
गंतव्य तक पहुंचें कि सब के लिए पथ मुमकिन हो

सोंच से ही बनते तो महान चाहे लोग हों या कि देश
अच्छी सोंच से ही हो पाता सफल कोई भी काम नेक

आपदा

August 18, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

जब समझ न आता ऊंच नींच , अहंकारी हो जाता तन मन
अग्रज हो की अनुज या पूज्य , व्यवहार सभी से होता सम
निर्जीव सजीव सभी को दुखी , करता रहता ये मानव जीवन
संस्कार सभ्यता का पाठ पढ़ाने , आपदा तभी तो आती है
वाणी की मधुरता न जाने , मानव की कहाँ खो जाती है
हरकत उसकी कब कहाँ किसे , सुख शीतलता पहुँचती है
संपर्क में आने वाली वस्तु , भी संदूषित हो जाती है
संस्कार सभ्यता का पाठ पढ़ाने , आपदा तभी तो आती है
अपनी निर्मित चीजे ही जब , अपनों की दूरी बढ़ती है
हर जगह हर समय गुलामी , की बस आदत सी पर जाती है
निर्माण उसकी वातावरण को सदा , क्षति ही पहुँचाती है
संस्कार सभ्यता का पाठ पढ़ाने , आपदा तभी तो आती है
जीवन उद्देश्य है सेवा भाव , पाना खोना कुछ भी नहीं
स्वार्थसिद्धि छल कपट घमंड , भला करते किसी का भी नहीं
मानव को उसकी औकात दिखने , प्रकृति माँ सदा ही आती है
संस्कार सभ्यता का पाठ पढ़ाने , आपदा तभी तो आती है

दिल्ली

August 18, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

हॉस्पिटलों का शहर है दिल्ली फिर इतने बीमार क्यों
जनसँख्या बिखरी हमारी इमारतों का वहीँ भंडार क्यों

यात्रायें चलती रहती आवागमन कभी थमता नहीं
आमदनी का श्रोत बनी जनता ही हर जगह तो नहीं

साजिशों का कैसा दौर है जिसमें परेशां है हर कोई
लक्ष्मी भण्डार बन रहा किसी का घर बैठे बैठे ही

स्वास्थ्य की खातिर लम्बी यात्रा कर लुटाते सब कुछ
फिर भी हाथ मल कर रह जाते पास आ पाता न कुछ

महामारी ने दिखलाया है स्वास्थ्य व्यवस्था का ढांचा
डॉक्टर भी नहीं सुरक्षित मरीज जाने की हिम्मत जुटाता

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