तिब्बत, चीन के बाप का नहीं

July 20, 2017 in Other

मैं बस्तर हूँ

April 22, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता

दुनियाँ का कोई कानून चलता नही।
रौशनी का दिया कोई जलता नहीं।
कोशिशें अमन की दफन हो गयी
हर मुद्दे पे बंदूक चलन हो गयी॥
कुछ अरसे पहले मैं गुलजार था।
इस बियाबान जंगल में बहार था।
आधियाँ फिर ऐसी चलने लगी।
नफरतों से बस्तीयाँ जलने लगी।
मैं आसरा था भोले भालों का
मैं बसेरा था मेहनत वालों का।
जर्रा जर्रा ये मेरा बोल रहा है
दरदे दिल अपना खोल रहा है।
अबूझ वनवासियों का मैं घर हूँ।।
आके देखो मुझे मैं बस्तर हूँ।।
तुम सम्हालो मुझे,मैं बस्तर हूँ।
तुम बचालो मुझे, मैं बस्तर हूँ॥

दंडेवाड़ा से झिरम के घाटी तक।
चारामा से कोंटा के माटी तक।।
अपने ही घर में मैं शरणार्थी हूँ।
हे।देन्तेश्वरी मै क्षमा प्रार्थी हूँ।
अस्मत बेटियों का कौन लूट रहा।
न्याय के मंदिर से कातिल छूट रहा।
पहरेदार और माओ जब लड़ने लगे।
शक में हम बेकसूर यूं ही मरने लगे।।
मुखबिर समझकर माओ ने मारा।
पहरेदारों को भी है तमगा प्यारा।
नक्सलवाद से जला मैं वो शहर हूँ।
तुम बचालो मुझे, मैं बस्तर हूँ
तुम सम्हालो मुझे,मैं बस्तर हूँ।
तुम बचालो मुझे, मैं बस्तर हूँ॥

कुंटुमसर के घुमने वालों
चित्रकोट में झूमने वालो
तिरथगढ़ में नहाने वालों
इंद्रावती के चाहने वालों
रो रहा हूँ मैं फरियाद सुनो
छत्तीसगढिया भाई आवाज सुनो।
हिन्दुस्तानी आवाम सुनो।
रायपुर के हुक्मरान सुनो॥
मत काटो जंगल झाड़ी को
पहचानों तुम शिकारी को
उजाडो मत इस आशियाने को
आदिवासी तरस रहे हैं खाने को
अबूझ हल्बा मडिया और भतर हूँ
आके देखो मुझे, मैं बस्तर हूँ॥
तुम सम्हालो मुझे,मैं बस्तर हूँ।
तुम बचालो मुझे, मैं बस्तर हूँ॥

लाल सलाम के इस दंगल में।
बारुद बिछ गया है जंगल में।
जिन्दगी यहाँ पर महफूज नहीं।
मौत भी यहाँ रहकर खुश नहीं।
हर घर से जनाजा उठ रहा है।
शमशान को कौन पुछ रहा है॥
नौजवान खुलकर बोलता नहीं।
दर्द है दिल में मगर खोलता नहीं।।
कनपटी पे सबके बंदूक तना है।
दरिंदा, हमारा मसीहा बना है।
सलवा जुडूम में मैं मरता रहा।
बदूंको से निहत्था लडता रहा।।
नक्सलवाद में गुमराह हुये
मेरे बच्चे देखो तबाह हुये॥
तबाही का मैं वो, मंजर हूँ।
आके देखो मुझे, मैं बस्तर हूँ।
तुम सम्हालो मुझे,मैं बस्तर हूँ।
तुम बचालो मुझे, मैं बस्तर हूँ॥

शौक से यहाँ तुम उद्योग लगावो
पर रहे हम कहाँ ये भी बताओ।
अब महुआ बिनने जायेगा कौन।
चार तेदुं जंगल के लायेगा कौन।।
कौन सुनाएगा फिर अमिट कहानी।
दिखाएगा कौन शबरी की निशानी।।
हद से जियादा हमारी चाह नहीं।
सोने चादीं का हमको परवाह नहीं।
दो जून की रोटी ,और परिधान मिले।
अपने ही माटी में,हमें सम्मान मिले।
बस इतनी सी हमारी जो चाहत है।
इस पर कहते हो आप आफत है।।
मजाक मत उड़ाओ मेरे भोलेपन का।
कुछ तो सिला दो मेरे अपनेपन का।
बुद्ध भी हूँ मै,और मैं ही गदर हूँ।
आके देखो मुझे,मैं बस्तर हूँ॥
तुम सम्हालो मुझे,मैं बस्तर हूँ।
तुम बचालो मुझे, मैं बस्तर हूँ॥
ओमप्रकाश अवसर
पाटन दुर्ग
7693919758

मैं बस्तर हूँ

April 22, 2017 in गीत

दुनियाँ का कोई कानून चलता नहीं।
रौशनी का दिया कोई जलता नहीं।
कोशिशें अमन की दफन हो गयी
हर मुद्दे पे बंदूक चलन हो गयी॥
कुछ अरसे पहले मैं गुलजार था।
इस बियाबान जंगल में बहार था।
आधियाँ फिर ऐसी चलने लगी।
नफरतों से बस्तीयाँ जलने लगी।
मैं आसरा था भोले भालों का
मैं बसेरा था मेहनत वालों का।
जर्रा जर्रा ये मेरा बोल रहा है
दरदे दिल अपना खोल रहा है।
अबूझ वनवासियों का मैं घर हूँ।।
आके देखो मुझे मैं बस्तर हूँ।।
तुम सम्हालो मुझे,मैं बस्तर हूँ।
तुम बचालो मुझे, मैं बस्तर हूँ॥

दंडेवाड़ा से झिरम के घाटी तक।
चारामा से कोंटा के माटी तक।।
अपने ही घर में मैं शरणार्थी हूँ।
हे।देन्तेश्वरी मै क्षमा प्रार्थी हूँ।
अस्मत बेटियों का कौन लूट रहा।
न्याय के मंदिर से कातिल छूट रहा।
पहरेदार और माओ जब लड़ने लगे।
शक में हम बेकसूर यूं ही मरने लगे।।
मुखबिर समझकर माओ ने मारा।
पहरेदारों को भी है तमगा प्यारा।
नक्सलवाद से जला मैं वो शहर हूँ।
तुम बचालो मुझे, मैं बस्तर हूँ
तुम सम्हालो मुझे,मैं बस्तर हूँ।
तुम बचालो मुझे, मैं बस्तर हूँ॥

कुंटुमसर के घुमने वालों
चित्रकोट में झूमने वालो
तिरथगढ़ में नहाने वालों
इंद्रावती के चाहने वालों
रो रहा हूँ मैं फरियाद सुनो
छत्तीसगढिया भाई आवाज सुनो।
हिन्दुस्तानी आवाम सुनो।
रायपुर के हुक्मरान सुनो॥
मत काटो जंगल झाड़ी को
पहचानों तुम शिकारी को
उजाडो मत इस आशियाने को
आदिवासी तरस रहे हैं खाने को
अबूझ हल्बा मडिया और भतर हूँ
आके देखो मुझे, मैं बस्तर हूँ॥
तुम सम्हालो मुझे,मैं बस्तर हूँ।
तुम बचालो मुझे, मैं बस्तर हूँ॥

लाल सलाम के इस दंगल में।
बारुद बिछ गया है जंगल में।
जिन्दगी यहाँ पर महफूज नहीं।
मौत भी यहाँ रहकर खुश नहीं।
हर घर से जनाजा उठ रहा है।
शमशान को कौन पुछ रहा है॥
नौजवान खुलकर बोलता नहीं।
दर्द है दिल में मगर खोलता नहीं।।
कनपटी पे सबके बंदूक तना है।
दरिंदा, हमारा मसीहा बना है।
सलवा जुडूम में मैं मरता रहा।
बदूंको से निहत्था लडता रहा।।
नक्सलवाद में गुमराह हुये
मेरे बच्चे देखो तबाह हुये॥
तबाही का मैं वो, मंजर हूँ।
आके देखो मुझे, मैं बस्तर हूँ।
तुम सम्हालो मुझे,मैं बस्तर हूँ।
तुम बचालो मुझे, मैं बस्तर हूँ॥

शौक से यहाँ तुम उद्योग लगावो
पर रहे हम कहाँ ये भी बताओ।
अब महुआ बिनने जायेगा कौन।
चार तेदुं जंगल के लायेगा कौन।।
कौन सुनाएगा फिर अमिट कहानी।
दिखाएगा कौन शबरी की निशानी।।
हद से जियादा हमारी चाह नहीं।
सोने चादीं का हमको परवाह नहीं।
दो जून की रोटी ,और परिधान मिले।
अपने ही माटी में,हमें सम्मान मिले।
बस इतनी सी हमारी जो चाहत है।
इस पर कहते हो आप आफत है।।
मजाक मत उड़ाओ मेरे भोलेपन का।
कुछ तो सिला दो मेरे अपनेपन का।
बुद्ध भी हूँ मै,और मैं ही गदर हूँ।
आके देखो मुझे,मैं बस्तर हूँ॥
तुम सम्हालो मुझे,मैं बस्तर हूँ।
तुम बचालो मुझे, मैं बस्तर हूँ॥
ओमप्रकाश अवसर
पाटन दुर्ग छ०ग०

7693919758 

दुनियाँ का कोई कानून चलता नही।
रौशनी का दिया कोई जलता नहीं।
कोशिशें अमन की दफन हो गयी
हर मुद्दे पे बंदूक चलन हो गयी॥
कुछ अरसे पहले मैं गुलजार था।
इस बियाबान जंगल में बहार था।
आधियाँ फिर ऐसी चलने लगी।
नफरतों से बस्तीयाँ जलने लगी।
मैं आसरा था भोले भालों का
मैं बसेरा था मेहनत वालों का।
जर्रा जर्रा ये मेरा बोल रहा है
दरदे दिल अपना खोल रहा है।
अबूझ वनवासियों का मैं घर हूँ।।
आके देखो मुझे मैं बस्तर हूँ।।
तुम सम्हालो मुझे,मैं बस्तर हूँ।
तुम बचालो मुझे, मैं बस्तर हूँ॥

दंडेवाड़ा से झिरम के घाटी तक।
चारामा से कोंटा के माटी तक।।
अपने ही घर में मैं शरणार्थी हूँ।
हे।देन्तेश्वरी मै क्षमा प्रार्थी हूँ।
अस्मत बेटियों का कौन लूट रहा।
न्याय के मंदिर से कातिल छूट रहा।
पहरेदार और माओ जब लड़ने लगे।
शक में हम बेकसूर यूं ही मरने लगे।।
मुखबिर समझकर माओ ने मारा।
पहरेदारों को भी है तमगा प्यारा।
नक्सलवाद से जला मैं वो शहर हूँ।
तुम बचालो मुझे, मैं बस्तर हूँ
तुम सम्हालो मुझे,मैं बस्तर हूँ।
तुम बचालो मुझे, मैं बस्तर हूँ॥

कुंटुमसर के घुमने वालों
चित्रकोट में झूमने वालो
तिरथगढ़ में नहाने वालों
इंद्रावती के चाहने वालों
रो रहा हूँ मैं फरियाद सुनो
छत्तीसगढिया भाई आवाज सुनो।
हिन्दुस्तानी आवाम सुनो।
रायपुर के हुक्मरान सुनो॥
मत काटो जंगल झाड़ी को
पहचानों तुम शिकारी को
उजाडो मत इस आशियाने को
आदिवासी तरस रहे हैं खाने को
अबूझ हल्बा मडिया और भतर हूँ
आके देखो मुझे, मैं बस्तर हूँ॥
तुम सम्हालो मुझे,मैं बस्तर हूँ।
तुम बचालो मुझे, मैं बस्तर हूँ॥

लाल सलाम के इस दंगल में।
बारुद बिछ गया है जंगल में।
जिन्दगी यहाँ पर महफूज नहीं।
मौत भी यहाँ रहकर खुश नहीं।
हर घर से जनाजा उठ रहा है।
शमशान को कौन पुछ रहा है॥
नौजवान खुलकर बोलता नहीं।
दर्द है दिल में मगर खोलता नहीं।।
कनपटी पे सबके बंदूक तना है।
दरिंदा, हमारा मसीहा बना है।
सलवा जुडूम में मैं मरता रहा।
बदूंको से निहत्था लडता रहा।।
नक्सलवाद में गुमराह हुये
मेरे बच्चे देखो तबाह हुये॥
तबाही का मैं वो, मंजर हूँ।
आके देखो मुझे, मैं बस्तर हूँ।
तुम सम्हालो मुझे,मैं बस्तर हूँ।
तुम बचालो मुझे, मैं बस्तर हूँ॥

शौक से यहाँ तुम उद्योग लगावो
पर रहे हम कहाँ ये भी बताओ।
अब महुआ बिनने जायेगा कौन।
चार तेदुं जंगल के लायेगा कौन।।
कौन सुनाएगा फिर अमिट कहानी।
दिखाएगा कौन शबरी की निशानी।।
हद से जियादा हमारी चाह नहीं।
सोने-चांदी का हमको परवाह नहीं।
दो जून की रोटी ,और परिधान मिले।
अपने ही माटी में,हमें सम्मान मिले।
बस इतनी सी हमारी जो चाहत है।
इस पर कहते हो आप आफत है।।
मजाक मत उड़ाओ मेरे भोलेपन का।
कुछ तो सिला दो मेरे अपनेपन का।
बुद्ध भी हूँ मै,और मैं ही गदर हूँ।
आके देखो मुझे,मैं बस्तर हूँ॥
तुम सम्हालो मुझे,मैं बस्तर हूँ।
तुम बचालो मुझे, मैं बस्तर हूँ॥
ओमप्रकाश अवसर
पाटन दुर्ग
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लाल चौक बुला रहा हमें, तिरंगा फहराने को

April 18, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता

सिहासन के बीमारों ,कविता की ललकार सुनो।
छप्पन ऊंची सीना का उतर गया बुखार सुनो।
कश्मीर में पीडीपी के संग गठजोड किये बैठे हैं।
राष्ट्रवाद के नायक पत्थरबाजी पर मुक कैसे हैं॥
क्यूं चलकर नहीं जा रहे अब कश्मीर बचाने को।
लाल चौक बुला रहा तुम्हें,तिरंगा फहराने को॥

 

भारत माँ जगा रही है एक सौ पच्चीस करोड़ बेटों को।
रण क्षेत्र में बुद्ध भी चलेंगे , लेकर अपने उपदेशों को।
जिन्हें ज्ञान चाहिए उनको, आगे बढ़कर सम्मान दो।
हूरों की जिन्हें चाह है उन्हें, सीधा कब्रिस्तान दो॥
भरतपुत्रों घर से निकलो तुम,दहशतगर्दी दफनाने को॥
लाल चौक बुला रहा तुम्हें, तिरंगा फहराने को॥

 

बर्मा काबुल कंधार कॆ जैसे कश्मीर नहीं हम खोनेवाले।
अमरीका के चौखट पर जाकर और नहीं हम रोनेवाले।।
भारत को अमरीका का बाजार बनाना बंद करो।
पाकिस्तान जैसे देश को यार बताना बंद करो॥
अब तो गूंगा कर तुम मित्रता के अफसाने को।
लाल चौक बुला रहा तुम्हें तिरंगा फहराने को॥

 

 

आतंकवादी देश कहना होगा , पाकिस्तान को।
देख लिया है हमने नवाज शरीफ के ईमान को।।
नवाज के घर जाकर जब जब खुशी मनाते हैं।
तब-तब पीठ के पीछे खंजर हम अक्सर खाते है।।
फिर भी आतुर व्याकुल क्यूं है हम, हाथ मिलाने को।
लाल चौक बुला रहा तुम्हें तिरंगा फहराने को॥

 

 

राजनीतिक पार्टियों के,कैसे बनते हम गुलाम हैं।
राम से लेकर शिवाजी तक मेरा भारत महान है।।
नेता आज हैं कल नहीं रहेंगे, इस बात में सच्चाई है।
भारत भुमि के दम से, सदियों से जग में रौशनाई है॥
अजर अमर है देश हमारा, निकल चलो ये गाने को।
लाल चौक बुला रहा तुम्हें, तिरंगा फहराने को॥

 

 

ये भी गजब संस्कृति है पत्थर पर भी प्यार पले।।
महबूबा तुमको प्यारी है और सेना पर एफआईआर चले।
कोई भी ऐरा-गैरा कैसे कुछ भी कह जाता है।
इस पर हिन्दुस्ताँ की सहनशीलता वो सब सह जाता है
देश की जनता हिम्मत कर ले नेताओ से टकराने को।
लाल चौक बुला रहा है तुम्हें, तिरंगा फहराने को॥

 

श्यामा प्रसाद के सपने सोये हैं कश्मीर की वादी में।
कुछ तो बोलो राष्ट्र नायक, घाटी की बरबादी में॥
आखिर पूर्वजों को कोश कोश के कब रोनेवाले हैं।
इतिहास हमें भी कह देगा कि ये भी सोनेवाले है॥
याद कर लो पल भर लाल कृष्ण के जमाने को।
लाल चौक बुला रहा तुम्हें, तिरंगा फहराने को॥

 

माना हमारी मजबूरी है रोटी कपड़ा और मकान।
चिंता दे देती है हर रोज, नौकरी और दुकान।।
बस दो दिन अपना दे दो तुम, मातृभूमि के उपकारों को।
चलो सबक सिखाकर आते हैं कश्मीर के गद्दारों को।
फिर हिम्मत ना कर पाये कोई सेना से टकराने को।
लाल चौक बुला रहा है हमें, तिरंगा फहराने को।

ओमप्रकाश अवसर

पाटन दुर्ग छत्तीसगढ़

7693919758 

हमर डाक्टर दवा नही दारु देथे

March 13, 2017 in छत्तीसगढ़ी कविता

https://youtu.be/9q3bESm_cFo

छत्तीसगढीया बघवा पीला मन दहाडेल सीखव रे

March 13, 2017 in छत्तीसगढ़ी कविता

छत्तीसगढीया बघवा पीला मन दहाड़ेल सीखव रे

मैं छत्तीसगढ़ बोल रहा हूँ

October 25, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

https://youtu.be/Y79WeR6uFjIhttps://youtu.be/Y79WeR6uFjI

मैं छत्तीसगढ़ बोल रहा हूँ

August 26, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

मै चंदुलाल का तन हूँ।
मैं खुब चंद का मन हूँ।
मैं गुरु घांसी का धर्मक्षेत्र हूँ।
मैं मिनी माता का कर्म क्षेत्र हूँ।।
मैं पहले कुंभ का तर्पन हूँ।
मैं राजिम का समर्पन हूँ।।
मैं ही राम का नाना हूँ।
लेकिन अब सियाना हूँ।।
मैनें सबको बल दिया है।
सुनहरा ये पल दिया है।।
मैंने सबको अपनाया है।
मेरा दिया सबने खाया है।।
लेकिन अपनों से छला पड़ा हूँ
सरगुजा से बस्तर तक
देखो मैं तो जला पड़ा हूँ।
मन गठरी खोल रहा हूँ मैं छत्तीसगढ़ बोल रहा हूँ॥

 

हरे रंग की धोती मेरा, कन्धे पर लाल रंग का साफा है।

धान की कलगी से सजा धजा सिर पे मेरा पागा है।।
एक हाथ में फावड़ा है और दूजे हाथ में कुदाल है।
भंद ई है पैरों पर है, तेजतर्रार कदमों की चाल है।।
महानदी और अरपा पैरी नस-नस मेरा सीच रही है।खेती से सोना उपजाना इस धरती की रीत रही है॥
तपता हूँ खेतों पर अपने, फिर भी आह नहीं भरता हूँ।
त्याग मेरे रग रग में है ज्यादा की चाह नहीं रखता हूँ।
जो भी मेरे घर आता है खुले मन से अपनाता हूँ।
अपने इस भोले पन के कारण अक्सर धोखा हूँ।।
कुछ नलायक हैं जो इस शराफ़त का मज़ाक उड़ाते हैं ।
गिद्धों के जैसे नोच नोच कर मुझको जिन्दा खाते हैं।।
इसीलिए तो दया धरम की गठरी को मै तौल रहा हूँ।
मन की गठरी खोल रहा हूँ मैं छत्तीसगढ़ बोल रहा हूँ॥

 

मेरे घर में सोने,चांदी और हीरे मोती का भड़ार हैं।

फिर भी छत्तीसगढीया क्यूं दिखता अब लाचार है॥
मेरा कण-कण भरा पड़ा है,लोहा,कोयला और हीरे से।
मेरा चोला दमक रहा है, माईल्ड स्टोन के जखीरे से।।
बस्तर से लेकर रायगढ़ तक कारखानों की भरमार है। उनके दरवाजों पर लिखा है छत्तीसगढीया बेकार है।।
छत्तीसगढीया अफ़सर ना हो कारखानों की अहर्ता है।
परदेशीयों को रोजगार मिले बस यही स्वीकार्यता है॥
चौक चौराहों पर वो लोग नाजायज उगाही करते हैं।
पहाड़ो के सीना चीरकर वहाँ गहरी खाई करते हैं।।
लूट रहे हैं घर मेरा वो और मैं कुछ कहने से डरता हूँ।
जल,जंगल, जमीन हैं मेरे, लेकिन मैं भूखा मरता हूँ।।
मालिक होकर धनी धरती का,बरसों से गरीबी झेल रहा हूँ।
मन की गठरी खोल रहा हूँ मैं छत्तीसगढ़ बोल रहा हूँ।

 

एक से बड़कर एक, भ्रष्टाचारी नेता मैं पाता हूँ।
रिश्वतखोरी के बाजारों में बेबस ही बिक जाता हूँ।।
जड़ लूटे जमीन लूटे खेत लूट लिए है मक्कारों ने।
आँखों को बस आँसू दिये हैं अबतक के सरकारों ने।
रावण को मिल गया सत्ता, वनवास मिला है राम को।
रिश्वत ही पूरा कर सकता, अब यहाँ हर काम को।।
दफ्तर की कुर्सी छोड़ के अधिकारी गये आराम को।
मिल जायेंगे निश्चित ही वो, मयखाने में शाम को।।
नदी नाले तो सुखे है पर शराब की नदिया बहती है।
जुल्मों सितम सब बंद करो, घर-घर बिटिया कहती है।
शराब बह रही है अब, छत्तीसगढ़ के हर गलियारे में।
यकींन नहीं है तो मुँह लगालो, मंत्रालय के फौहारे में॥
छत्तीसगढ़ीया नशे से दूर रहो, मैं बारम्बार बोल रहा हूँ॥
मन की गठरी खोल रहा हूँ मैं छत्तीसगढ़ बोल रहा हूँ।

 

छत्तीसगढीया सबले बढ़िया इस नाम से मशहूर हूँ।
विकाश किताबों में लिखा है,लेकिन मैं तो कोसों दूर हूँ।।
तुम भरी सभा में पूछ रहे हैं, कहो ये विकाश कैसा है।
पुरखों ने देखा था सपना, क्या ये छत्तीसगढ़ वैसा है?
सच कहने की आदत मेरी, मैं तनिक नहीं घबराऊंगा।
देखा है गोरख धंधा अब तक, सुनो आज सुनाऊंगा॥
नसबंदी करवाती माताओं को मैंने मरते देखा है।
अमृत दूध के नाम से बच्चों को डरते देखा है।।
सत्ता के दरवाजे पर दिव्यांग को जलते देखा है।
फांसी लगाकर खेतों में किसान को मरते देखा है।।
मैंने नक्सल की आग में बस्तर को जलते देखा है।।
भुमि अधिग्रहण के कारण, रायगढ़ मरते देखा है।।
धमतरी के दंगे में हिन्दू-मुसलमान को लड़ते देखा है।आँखों के आपरेशन में लोगों को अंधे बनते देखा है।।
देखा है नित अपमान मैंने छत्तीसगढ के माटी का।
चीर हरण होते देखा है मैंने,कागेर की घाटी का॥
दुर्योधन राजा हो जब, दु:शासन को अपराधी कौन कहें।
छत्तीसगढ़िया जनता, भीष्म पितामह के जैसे मौन रहे।।
तब्दील हो गया कुरुक्षेत्र में, बम-बारुद मैं देख रहा हूँ॥
मन की गठरी खोल रहा हूँ मैं छत्तीसगढ़ बोल रहा हूँ

 

जाने कब से कैद हूँ,मैं सरगुजा के रजवाड़ो में।
दिख जाता हूँ कभी-कभी,तीज और त्योहारों में।
महुआ भी गिरता नहीं अब,बसंती बहारों में।
होड़ लगी है देखो अब, सरकारी सियारों में।।
चीख सुनाई देती है अब, इंद्रावती के कलकल में।
डूब गये हैं जाने कितने नक्सलवाद के दलदल में॥
सरकारी अफसर भी अब औरत पे कहर ढ़ाते हैं।
बलात्कार में मरने वाली को नक्सलवादी बताते हैं॥
गाँव तबाह हो गये, अब तो घोटूल मरने वाला हैं।
हाथ उठाकर कहो माटी के खातिर कौन लड़ने वाला हैं।।
बेटों के चुप्पी के कारण जुल्म सितम मैं झेल रहा हूँ।
मन गठरी खोल रहा हूँ मैं छत्तीसगढ़ बोल रहा हूँ॥

 

गोड़ी ,हल्बी और छत्तीसगढ़ी मिल बैठकर रोतीं हैं।
अंग्रेजी और हिन्दी ,यहाँ पर बिस्तर ताने सोतीं हैं॥
अपने ही घर में जाने क्यूँ छत्तीसगढ़ी को सम्मान नहीं।
हक मिले अब राजभाषा को तिनका-तिनका दान नहीं॥
इतिहास हमारी भाषा का, है किसी से कम नहीं।
अस्मिता भूल रहे हैं हम,और रत्ती भर गम नहीं॥
छत्तीसगढ़ी पढ़ाई नहीं जाती, स्कूल के किताबों में।
नज़र आ जाती है कभी-कभी, नेताओं के वादों में।।
छत्तीसगढ़ी को काम-काज में लाने का इरादा है।
लेकिन झूठे वादों का कागज सादा था सादा है ।।
लाख कोशिशों बावजुद आठवीं अनुसूची नहीं।
या शामिल कराने के लिए सरकारी दिल नहीं। ।छत्तीसगढ़ी की चाह लिए, मैं टेबल टेबल डोल रहा हूँ।
मन की गठरी खोल रहा हूँ मैं छत्तीसगढ़ बोल रहा हूँ॥
ओमप्रकाश चंदेल”अवसर”
पाटन दुर्ग छत्तीसगढ़
7693919758

 

हाथ खाली रह गया है

August 11, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

हाथ खाली रह गया है।
पास था जो बह गया है।।
नाज़ है उनको, महल पर
औ शहर ही बह गया है॥
कुछ यहाँ मिलता नहीं है
कोइ हमसे कह गया है।।
लूटते हैं कैसे अपने
देख आँसूं बह गया हैं।।
पैसे का ही खेल है सब
कौन अपना रह गया है॥
छोड़ गए वो भी तंगी में
साथ हूँ जो कह गया है।।
देख ली हमने ये दुनिया
कुछ नहीं औ रह गया है॥
देख लो तुम नातेदारी
कौन किसका रह गया है॥
तू दुखी मत हो,ऐ “अवसर”
फ़िर खुदा ये कह गया है॥

ओमप्रकाश चंदेल “अवसर”

पाटन दुर्ग छत्तीसगढ़

7693919758

बिकने दो! शराब अभी इस गाँव में…

August 9, 2016 in Other

बिकने दो! शराब अभी
इस गाँव में।
अभी भी कुछ बच्चे स्कूल जाते हैं
घर आकर क ख ग घ गाते हैं।
लेकिन कुछ बच्चे तालाब किनारे
खाली बोतल चुनते है।
कुछ तो खाली बोतल में
पानी डालकर पीते है।
उम्र कम है लेकिन
उनको पापा के जैसे
बनना है।
ये सब देखकर
कमला, बुधिया का ही रोना है।
समारु, बुधारु का क्या कहना-
उनको तो दो पैग अभी
और होना है।
कोई डरता हो,
डर जाये।
कोई मरता हो
मर जाये।
दारु के संग
बस रात चले।
उनके मन में
ये बात चले।
बिकने दो शराब अभी
इस गाँव में।।

सरकारी नौकर बहुत खुश है।
उनके लिए क्या सावन और क्या पूश है।।
अब तो दारू खुद चलकर घर तक आता है।
मोबाइल के एक मैसेज से काम बन जाता है।
गुरुजी बेचारे तो शाम से शुरु होते है।
शाम को शराबी और दिन में गुरु होते हैं।
उनका तो वहाँ बहीखाता है।
दारुवाले से गहरा नाता है॥
तभी तो उन्हे यही समझ आता है
बिकने दो शराब अभी
इस गाँव में।

चुनाव जीताने का वादा है।
मुखिया तो उसका चाचा है।।
हर शाम दो बोतल चाचा के घर जाता है।
दारु के दम पर पंचों पर रौब वह जमाता है।
इसी लिए तो पंचायत में गीत यही वो गाता है।
बिकने दो शराब अभी इस गाँव में।

कुछ नौजवान शाम को आते है।
मूछों पर ताव लगाते हैं।
कहते हैं शराब बेचना बंद करो।
वर्ना थाने हमारे साथ चलो।
दारुवाला समझदार है।
समझ गया बेचारा
ये बेरोजगार है।
सब पीने का बहाना है।
एक पौवा दो प्लेन का
बाकी तो अपना जमाना है।
नौजवान नशे में धूत हुआ।
लगता है वो भूत हुआ।
धूल चांटते जमीन पर
बस यही चिल्लाता है
बिकने दो शराब अभी
इस गाँव में॥

वर्दी वाले भी आते हैं
खाली खोली में
दिमाग लगाते हैं
शायद उनको सब
मालुम है।
बोतल कहाँ पर गुम है।
लगता है सबका अपना हिस्सा है
तभी तो ये किस्सा है
बिकने दो शराब अभी
इस गाँव में।
ओमप्रकाश चंदेल “अवसर”
पाटन दुर्ग छत्तीसगढ़
7693919758

तिरंगा हमारा भगवान है

August 3, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

तिरंगा बस झण्डा नहीं
हम सब का सम्मान है।
तिरंगा कोई कपडा नहीं
पूरा हिन्दुस्तान है।।

तिरंगा कोई धर्म नहीं
सब धर्मों की जान है।
तिरंगा बस आज नहीं
पुरखों की पहचान है।।

तिरंगा बस ज्ञान नहीं
ज्ञान का वरदान है।
तिरंगा कोई ग्रंथ नहीं
पर ग्रंथों का संज्ञान है॥

तिरंगा में दंगा नहीं
हिन्दु और मुसलमान है ।
तिरंगा कोई गीत नहीं
प्रार्थना और अजाने है॥

तिरंगा कोई मानव नहीं
मानवता की पहचान है।
तिरंगा में जाति-धर्म नहीं
ये तो हमारा भगवान् है॥

ओमप्रकाश चन्देल”अवसर’
पाटन दुर्ग छत्तीसगढ़
7693919758

क्या आप राष्ट्र वादी हैं?

July 19, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

आज सुबह से मैं,
राष्ट्रवादी खोज रहा हूँ।
कौन-कौन है देशभक्त
ये सोच रहा हूँ॥
सुबह-सुबह किसी ने
दरवाजा खटखटाया,
देखा तो कन्हैया आया।
उसके हाथ में दूध के डिब्बा था।
उसके पास अपना ही किस्सा था।
देखकर -मुझे कहने लगा
कवि साहेब- बर्तन लेकर आओ।
चुपचाप क्यों खड़े हो, बताओ?
मैं तो
आज राष्ट्रवादीयों को खोज रहा हूँ।
कौन-कौन है राष्ट्रवादी सोच रहा हूँ।।
इसीलिए दूध वाले पूछ बैठा,
कन्हैया- क्या तुम राष्ट्र वादी हो?
देशभक्ति का पहचान बताओ?
देश के लिए क्या हमें समझाओ?
कन्हैया को शायद कुछ समझ आया।
लेकिन वो जल्दी में था
कहने लगा- अरे! दुध लेबे त चुपचाप ले।
नहीं ते पाछु महीना के पैसा बाचे हे, तेला दे।
सुत के उठे हवं तब ले परेशान हवं।
बिहनिया-बिहनिया नोनी के दाई जगा दिस।
भईस हा बीमार हे मोला बता दिस॥
दऊड़त-दऊड़त जाके डाक्टर ल लाये हवं।
तभे भईस ल मेहा दुहु पाये हवं।
तब तो देरी से आय हवं।
तेहाँ आठ के बजत ले सुते हस।
मोर उठाय मा उठे हस।
अब पुछत हस
कोनो देशभक्ति के काम करे हवं।
ये तोर दरवाजा मा आके दुध ल धरे हवं।
समझ ले इही राष्ट्र वादी काम मय ह करे हवं।
उसके जवाब से मैं
संतुष्ट नहीं हो पाया।
इसलिए क्योंकि
शायद मुँह भर जवाब पाया।

अब मैं नहाधोकर तैयार हूँ।
पूछने के लिए बेकरार हूँ।
क्या आप राष्ट्रवादी हैं?
लो! अब सब्जी वाली आई है।
पालक, गोभी, भिंड़ी लाई है।।
मैंने उनसे तपाक से पूछ ही लिया।
क्या आप राष्ट्र वादी हैं।
हमको जरा बताइये।
मन में उलझन है सुलझाईये।
अब सब्जी वाली कहने लगी-
ये गौटनीन सुन तो वो
तुहंर घर के गौटिया ह संझा किन
चढ़ाय रहीस का?
जा तो जा वोकर घर बेचाथे,
उतरा हर,
ले के आ।
बिहनिया-बिहनिया ले काय-काय
पुछत हे।
भगवान जाने ये मरद मन काय-काय
सुझत हे।
काला बताववं दाई
हमर घरवाला हर रात किन पी के आय रहीस।
एकेला कुकरा चुरोके खाय रीहीस।
किराहा ह रात-भर बडबडाईस हे।
बिहानिया ले उतारा बर मोला ठठाईस हे।
कनिहा मा लोर पर गे हाबय,
तभो ले साग बेचे बर आय हवं
भूखे-प्यासे हाबवं, कुछू न ई खाय हवं।
लागथे तुंहरो घर मा उही हाल हे।
गौटिया घलो दारु के बीमार हे।
अब तो शराबी होने का घूट भी पी गया।
जाने कैसे मैं जी गया।

अभी भी तलाश जारी है
राह चलते लोगों से
पूछने की बारी है।
कि क्या आप राष्ट्रवादी हैं?
रामु अपने कंधे में हल
सिर पर बोरी लेकर
दो बैलों के पीछे-पीछे जा रहा था।
मोर खेती-खार रुमझुम
गुनगुना रहा था।
मैं भी उसके पीछे हो लिया।
और वही सवाल उसे भी दिया।
रामु भैय्या बताओ क्या आप राष्ट्र वादी हैं।
रामु कहने लगा- राष्ट्र ल त समझत हवं।
फेर वादी समझ नई आवत हे।
बता तो भैय्या ये कोन दुकान मा बेचावत हे का?
नहीं त बता भैय्या सरकार ह
कोनो नवा योजना चलावत हे का?
काला दुख ल बताववं भैय्या
छेरी ल बेच के शौचालय ल बनाय हवं ।
बारा हजार मिलही किहीस
फेर एको किस्त नई पाय हवं।
भुरवा के दाई ह रोज झगरा मतावत हे।
छेरी के मोहो मा दु दिन होगे न ई खावत हे।
एसो बादर-पानी बने गिर जाय।
हम किसान मन के दिन फिर जाय।
तहान सबो वाद ल अपनाबो।
एक ठन उहूँ ल दू तीन ठन बनाबो।
यहाँ भी मैं उदास हो गया।
लगा सारा दिन बरबाद हो गया।
सवाल अभी भी बाकी है।
क्या आप राष्ट्र वादी हैं।

अभी रात के नौ बज रहे हैं।
टीवी पर प्राईम टाईम चल रहा हैं।
वाट्स अप से एक-एक करके
मैसेज निकल रहा है।
मैं फेसबुक पर व्यस्त हूँ।
दिन भर काम-धाम के बाद मस्त हूँ।
अब महसूस हो रहा है कि
मैं राष्टवादियों के बीच हूँ।
समझ गया मैं भी क्या चीज हूँ।
लेकिन मैं सोच रहा हूँ
राष्ट्र वादी कौन है
वो जो मुझे दिन में मिले,
या फिर जो रात के नौ बजे के बाद
टी वी पर फेसबुक या वाट्स अप मिल रहे हैं।
लेकिन सवाल अभी भी बाकी है।
क्या आप राष्ट्रवादी हैं?
ओमप्रकाश चंदेल “अवसर”
पाटन दुर्ग छत्तीसगढ़

7693919758

रहम करना ज़रा मौला

July 5, 2016 in गीत

रहम करना ज़रा मौला, नमाजी हूँ तेरा मौला।
तू ही तो मीत है मेरा, तू ही तो गीत है मेरा॥

 

किसी को गैर ना समझूं, किसी से बैर ना रख्खूं।।
मेरा दिल बस यही चाहे, सितम कोई नहीं ढ़ाये।।
नेकी ही रीत है तेरा, तू ही तो मीत है मेरा।
करम ये हो मेरा मौला, रहम करना ज़रा मौला।।

 

भला क्या है बुरा क्या है, तेरा क्या है मेरा क्या है।
लड़ाई छोड़ देना है, दिलों को जोड़ लेना है।
तू ही तो जीत है मेरा, तू ही तो मीत है मेरा।
वचन ये है मेरा मौला, रहम करना ज़रा मौला।।

 

रहे अल्लाह हू दिल में, यही है आरजू दिल में।
खुशी से झोलियां भरना, खुदा हम पर दया करना।
तू ही तो प्रीत है मेरा, तू ही तो मीत है मेरा।
सजन है तू मेरा मौला, रहम करना ज़रा मौला।

 

ज़मीं औ आसमाँ है तू, यहाँ है औ वहाँ है तू।
पुरब है पश्चिम है तू, उत्तर है दक्षिण है तू।
तू ही तो दीन है मेरा, तू ही तो मीत है मेरा।
वतन ही है मेरा मौला। रहम करना ज़रा मौला॥

 

मिली है जिंदगी जबसे, कि मैंने बंदगी तबसे।
तेरा ही आसरा मुझको, मिटाना तू हरेक गम को।
तू ही तो ईद है मेरा, तू ही तो मीत है मेरा।
चमन है तू मेरा मौला। रहम करना ज़रा मौला।
ओमप्रकाश चंदेल “अवसर”
पाटन दुर्ग छत्तीसगढ़
7693919758

छत्तीसगढ़ के घायल मन की पीड़ा कहने आया हूँ।

July 3, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैं किसी सियासत का समर्थन नहीं करता हूँ।
भ्रष्टाचार के सम्मुख मैं समर्पण नहीं करता हूँ॥
सरकारी बंदिस को मैं स्वीकार नहीं करता हूँ।
राजनीति के चाबुक से भी मैं नहीं डरता हूँ।।
मेरी कविता जनता के दुख दर्दों की कहानी है।
मेरी कविता भोले-भाले गरीबों की जुबानी है॥
मैं कमजोरों की बातों को स्याही में रंग देता हूँ।
मैं अबला के ज़ज्बातों को शब्दों में संग देता हूँ।।
मैं अपने कलम से सच लिखने की ताकत रखता हूँ।
धरती माँ की पीड़ा पर मिटने की ताकत रखता हूँ॥
मैं गाँव का वासी हूँ गाँव की बात करता हूँ।
थकेहारे जनमानष में नया जोश भरता हूँ॥
महानदी की धार बनकर आखों से बहने आया हूँ।
किसानों के घायल मन की पीड़ा कहने आया हूँ॥

 

मैं रायपुर और दिल्ली का गुणगान नहीं गानेवाला।
चापलूसी से खीर मिले तो मैं नहीं खानेवाला।।
मैं मज़दूर हूँ मेहनत कस, मज़दूरी मेरा काम है।
हल गीता, फावड़ा बाईबिल, कुदाल ही कुरान है।
मेहनत से जो भी हासिल हो घर वही पकाऊंगा।
नहीं तो अपने खेतों पर मैं भूखा ही सो जाऊंगा।।
फसलें हमारी जल रही और नहरें सुखी-सुखी है।
धरती लहू मांग रही क्या करती वो भी भूखी है॥
नदीं नालों के पानी पर उद्योगों का पहरा है।
सत्ता के आगे हम रोये लेकिन वो बहरा है।।
मैं मजबूर किसान, बैंक का कर्जदार हो गया हूँ।
अनदेखी के कारण मैं अब, बेकार हो गया हूँ।।
बदहाली किसानों का मैं, संसद को दिखाने आया हूँ।
मैं छत्तीसगढ़ के घायल मन की पीड़ा गाने आया हूँ॥

 

पूंजीपतियों का यशगान करुं, ये नहीं हो सकता है।
लुटेरों का मैं सम्मान करूं, ये नहीं हो सकता है।।
मैं कोयले को कोयला और हीरा को हीरा कह सकता हूँ।
बहुत सह लिया है चुपचाप और नहीं सह सकता हूँ॥
मैं सरकारी दफ्तर में गरीबों के लिए आसन मांगता हूँ।
भूखे बच्चों के खातिर मैं दो जून का राशन मांगता हूँ।।
मैं छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ीयों का शासन मांगता हूँ।
न ही झूठी दिलासा और न ही झूठा भाषण मांगता हूँ।।
मैं कोई भी नाजायज़ मांग नहीं करने वाला हूँ।
न्याय की आश लगाये अब मैं मरने वाला हूँ॥
जड़,जंगल, और जमीन मेरी इतनी ही लड़ाई है।
कल जहाँ पर लोहा था, आज वहाँ पर खाई है।।
लुटे हुये पहाड़ों पर मैं, कुछ पौधे बोने आया हूँ
मैं छत्तीसगढ़ के घायल मन की पीड़ा कहने आया हूँ।

 

चार काटे, तेंदु काटे, सैगौन काटे हैं सरकारों ने।
औने-पौने दामों पे, खेत हमारे बेचे हैं साहुकारों ने।।
झांसा देकर विकाश का, हमको फंसाया जाता है।
योजना चाहे जो भी हो बस रिश्वत खाया जाता है॥
इंदिरा आवास पर अधिकारी अपना हिस्सा मांगते हैं।
हम सीधे साधे छत्तीसगढ़ीया दफ्तर दफ्तर नाचते हैं।।
शौचालय के दरवाजों पर सरपंचों ने खूब कमाया है।
मेरे अपने हिस्से में तो खाली कमोड़ ही आया है।।
अमृत दूध के नाम पर अब जहर बांटे जाते है।
भूखे बच्चों की क्या कहिये बेचारे वो भी खाते हैं।।
सरकारी नाकामी ने फिर से दो मासुम जानें ले ली है।
छत्तीसगढ़ की माताओं ने आज ये कैसी पीड़ा झेली है॥
मैं छत्तीसगढ़ीयों के लूट पर सवाल उठाने आया हूँ॥
छत्तीसगढ़ के घायल मन की पीड़ा कहने आया हूँ॥

 

मेरे मन में भी आया मैं अनुपम श्रृंगार लिखूं।
एक राजा एक रानी दोनों का मैं प्यार लिखूं॥
मैं भी पायल और काजल की भाषा लिख सकता हूँ।
मैं भी लैला-मजनूं और हीर-रांझा लिख सकता हूँ।।
लेकिन बस्तर की घाटी से जिस दिन से मैं लौटा हूँ।
देख वहाँ की जिंदगानी आँसूं से आंगन धोता हूँ॥
मैं ही मरता हूँ बस्तर में, और मैं ही मार रहा हूँ।
जीत कोई रहा हो लेकिन मैं छत्तीसगढ़ हार रहा हूँ।।
नक्सल और सरकार के बीच आदिवासी पीस रहे हैं।
संस्कृति और संपदा अब एक-एक करके मिट रहे हैं।।
जंगल सूना-सूना है और सड़कें सारी वीरान पड़ी है।
झीरम घाटी देखकर छत्तीसगढ़ महतारी डरी- डरी है॥
छत्तीसगढ़ के चरणों में सबकुछ अर्पण करने आया हूँ।
छत्तीसगढ़ के

घायल मन की,मैं पीड़ा कहने आया हूँ॥
ओमप्रकाश चंदेल “अवसर”
पाटन दुर्ग छत्तीसगढ़
7693919758

वंदेमातरम् गाता हूँ ५

June 22, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता


              वंदेमातरम् गाता हूँ

*************************************
कट्टरता की दीमक चाट गयी, आज बंगला देश को।
भूल गये हो कैसे आज, मुक्ति वाहिनी के संदेश को॥
हिन्दू अस्थि भी शामिल है बंगाल की आजादी में।
भारत माँ भी रोईं थी, चिटगाँव की बरबादी में॥
बंगलादेश की आजादी पर,मैं विजय दिवस मनाता हूँ॥
क्रान्ति पथ पर निकला हूँ मैं, वन्दे मातरम् गाता हूँ।।

 

इस्लाम के नाम पर तूने, ये कैसा उत्पात मचाया है।
अपने ही देशवासियों पर, तूने खूनी कहर ढ़ाया हैं।।
बंगलादेश को लेकर हिन्दू आँखों के कुछ सपने थे।
खून बहाया तुमने उनका, जो बरसों तक अपने थे।।
दीवाली तुम भूल गये लेकिन, मैं अब भी ईद मनाता हूँ।
क्रान्ति पथ पर निकला हूँ मैं , वन्दे मातरम् गाता हूँ॥

 

धर्म निरपेक्षता के नाम पर, कभी ये मुल्क बना था
शेख रहमान के दिखाये पथ पर बंगला देश चला था।
हिन्दू और मुसलमान हर दुख दर्द के साथी थे।
आमार सोनार बंगला कहने वाले वो आंधी थे।।
आज वही हिन्दू अपने देश से निकाला जाता हूँ।
क्रान्ति पथ पर निकला हूँ मैं, वंदेमातरम् गाता हूँ॥
ओमप्रकाश चंदेल “अवसर”
पाटन दुर्ग छत्तीसगढ़
7693919758

और बात थी

June 19, 2016 in Other

बात गर खत्म हो जाती तो और बात थी।
रात गर खत्म हो जाती तो और बात थी।
हीर और राँझा अब भी है देश में लेकिन
जात गर खत्म हो जाती तो और बात थी।

ओमप्रकाश चंदेल “अवसर”

पाटन दुर्ग छत्तीसगढ़ 

खत्म हुई कहानी आज

June 10, 2016 in गीत

खत्म हुई है कहानी आज बरबाद हुई जवानी आज।
दुल्हन बनके चली गई है मेरे  दिल की रानी आज।

नजरें झुका के रहती थी, तेरी हूँ हरदम कहती थी।
गोद में सिर मैं रखता था, वजन वो मेरा सहती थी।
छूट गया है उनका साथ,दिल में बाकी रह गयी याद।
कानों पर गुंज रही है सिसकी भरी उसकी फरियाद ।
खत्म हुई कहानी……………………………

गीत प्यार के गाता हूँ, मैं तुमको भूल नहीं पाता हूँ।
उतनी ही तुम याद आती हो, जितना मैं भुलाता हूँ।
यादों की निकली बरात, सावन में बरसती आग।
शोर-शराबा मत करना, कदम रखो अपने चुपचाप ।
खत्म हुई कहानी आज…………………….

जब खत तुम्हारा पढ़ता हूँ, आंसूओं से मैं लड़ता हूँ।
डूब रहे है अक्षर सारे,रुको अभी मैं सम्हलता हूँ।
बिछड़ गया है जबसे यार , तबसे जीना है  बेकार।
मरता रहा गर युं ही प्यार,डूब जायेगा ये संसार।
खत्म हुई कहानी आज……………………

वादे सारे बिखर गये,सपने पलकों पर ठहर गये,
शमशान नजर आया शहर में चाहे हम जिधर गये।
धीमे धीमे जलती आग,जली है चिता ढूढ़ो राख।
कान लगाकर सुनना लेकिन अस्थि दे शायद
आवाज                             
खत्म हुई कहानी आज………………………

मिलते थे जब नदी किनारे,दिलदार थे हम तुम्हारे।
हमारी कहानी कहती थी गाँव के सारे चौंक चौबारे।
चौराहों पर अब विवाद, सोनी करती है फरियाद।
महिवाल की खोज में निकल चुके हैं शहरों के सारे सैयाद।
खत्म हुई कहानी आज……………………..
ओमप्रकाश चंदेल “अवसर”
पाटन दुर्ग छत्तीसगढ़
7693919758

वंदेमातरम् गाता हूँ

June 8, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

नारों में गाते रहने से कोई राष्ट्रवादी नहीं बन सकता।
आजादी आजादी चिल्लाने से कोई गांधी नहीं बन सकता।
भगत सिंह बनना है तो तुमको फांसी पर चढ़ना होगा।
देश के लिए कुछ करना है तो हँसते-हँसते मरना होगा॥
संग आओ तुम भी मेरे, मैं सरहद पर गोली खाता हूँ।
क्रांति पथ पर निकला हूँ मैं वंदेमातरम् गाता हूँ।।
नारों में हम कहते हैं जम्मु और कश्मीर हमारा है।
पंडित वहाँ से बेघर हो गये, क्या यही भाईचारा है।।अपमान तिरंगे का जब वहाँ पर सरेआम होता है।
सवाल उठता है, तब जम्हूरीयत कहाँ पर सोता है।
राजनीति के सर्पों को मैं, अपना लहू पिलाता हूँ।
क्रान्ति पथ पर निकला हूँ मैं वंदेमातरम् गाता हूँ॥
पिद्दी जैसा मुल्क पाकिस्तान हमको आँख दिखाता है।
नापाक जुबां वो अपने कश्मीर-कश्मीर गाता है॥
इतने बरसों में हम ये मसला नहीं सुलझा पायें हैं।
जिसके लिए सीने पर हमने अगणित गोली खायें हैं।
खामोश कर दूं पाक को और वादी स्वर्ग बनाता हूँ।
क्रान्ति पथ पर निकला हूँ मैं वन्देमातरम् गाता हूँ॥
देशभक्त और देशद्रोही के खेमे में देश बांट रहे हो।
देशद्रोहियों के तलवे खुद तुम कश्मीर में चांट रहे हो।
अफजल जिंदाबाद के नारे घाटी में जो लोग लगाते हैं।
देशभक्त क्या उनके संग मिलकर सरकार चलाते है?
कथनी और करनी में भेद है क्यूं, ये सवाल मैं उठाता हूँ।
क्रान्ति पथ पर निकला हूँ मैं वंदेमातरम् गाता हूँ॥
जो दुश्मन हमारी सीमा पर घात लगाकर बैठा है।
उनके घर तुम खाकर आये, कहो ये नाता कैसा है॥
एक के बदले दस शिश लाऊंगा, ये कहते फिरते थे तुम।
छप्पन इंच की छाती भी क्या? काले धन जैसे हुई है गुम॥
झूठे वादे गर किये हो तो, मैं चुनाव में सबक सिखलाता हूँ।
क्रान्ति पथ पर निकला हूँ मैं वन्देमातरम् गाता हूँ॥
दुश्मन के संग जब जब हमने गीत प्रेम के गाये हैं।
तब तब अपने पीठ पे हमने खूनी खंजर पाये हैं॥
सहनशीलता को हमारी, दुश्मन कायरता समझता है।
लातों का भूत है वो, बातों से कहाँ समझता है।।
धीरज तुम अपने पास रखो, मैं अब बंदूक उठाता हूँ।
क्रान्ति पथ पर निकला हूँ वन्देमातरम् गाता हूँ॥
सरहद की निगेहबानी में हमने आँखों को बिछाया है।
घाटी के हिमखण्ड़ो को हमने अपना लहू पिलाया है॥
जब जब घाटी पर विपदा आई, पसीना हमने बहाया है।
घाटी के जर्रे-जर्रे के खातिर, जीवन दावं पर लगाया है।।
अपना घर-द्वार छोड़कर मैं, सियाचिन में बस जाता हूँ।
क्रांति पथ पर निकला हूँ, मैं वन्दे मातरम् गाता हूँ।

जाने क्यों हर भारतवासी को जाति-पाति पर नाज़ है?
जाति-धरम के दंगल से ही गुंड़ों के सिर पर ताज़ है।।
टिकट यहाँ पर चुनाव में जाति के नाम से बांटे जाते हैं।
जाति-पाति के कारण ही,यहाँ गद्हे, शेरों को खाते हैं।।
रत्ति भर लाभ नहीं जाति से, फिर भी गर्व से बताता हूँ।
क्रान्ति पथ पर निकला हूँ मैं वंदेमातरम् गाता हूँ॥
आबादी जिसकी जितनी हो उसकी उतनी हिस्सेदारी।
दलित, आदिवासी, पिछड़ा या हो फिर अबला नारी।।
कमजोर जनों को कोई भी बलवान अब न लूट सके।
हाथ पकड़कर चलों सभी कोई भी पीछे न छूट सके॥
दबे-कुचले ब़ढ़े चलो, तुम्हें मैं राह नई दिखलाता हूँ।
क्रान्ति पथ पर निकला हूँ मैं वन्देमातरम् गाता हूँ।।
देश भक्ति में मज़दूर और किसान क्या किसी से कम है।
झूल रहे हैं फांसी पे वो, क्या राष्ट्रवादीयों को ये गम हैं?
योजनाओं में हमारी, किसान की कितनी हिस्सेदारी है।
भूल जाना अन्नदाता को अपनी मातृभूमि से गद्दारी है।।
रूई निकालो कान से तुम, किसानों की चीख सुनाता हूँ
क्रान्ति पथ पर निकला हूँ मैं वंदेमातरम् गाता हूँ।
कुछ लोग पूंजीपति और कोई दशरथ मांझी क्यों है?
आजादी के इतने बरस बाद भी गरीबी बाकी क्यों है?
बेबसी, लाचारी,और बीमारी, गरीबों का साथी क्यों है?
सरस्वती के देश में शिक्षा को लेकर उदासी क्यों हैं?
बचपन चीखकर कहता है, मैं भट्ठी में खप जाता हूँ।
क्रान्ति पथ पर निकला हूँ मैं वंदेमातरम् गाता हूँ॥
छोटे-छोटे बच्चों के सिर पर जाने क्यों ये बोझा है।
कोई में चाय बेच रहा है कोई सिर पर पत्थर ढ़ोता है॥
दिनभर धूप में जलकर बचपन रात को फुटपाथ पे
सोता है।
स्कूल के दरवाजे पर खड़े-खड़े मज़दूर का बेटा रोता है।
शिक्षा जबसे व्यापार बना है मैं कौड़ी के मोल बिक जाता हूँ।
क्रान्ति पथ पर निकला हूँ मैं वन्देमातरम् गाता हूँ॥

नेताओं की तू-तू , मैं-मैं संसद में जनता चुपचाप देख रही है।
कानून आँख में पट्टी बांधे शमशान में आग सेक रही है।
जलती है हर रोज लाशें गरीब, मज़दूर और किसानों की।
बलि मांग रही है बेरोजगारी, पढ़े-लिखे नव जवानों की।
नेता जी संसद में कहते हैं मैं पूंजीपतियों को रिझाता हूँ।
क्रान्ति पथ पर निकला हूँ मैं वन्दे मातरम् गाता हूँ॥
घोटालों में फसनेवाले, लोकतंत्र बचाओ नारा लगाते हैं।
सत्ताधीश बनते ही वो, लोकतंत्र का गला दबाते हैं॥
पुलिसिया डंडे के बल पर वो अपना राज चलाते है।
जांच एजेंसियों को सरकारें अपने इशारों पर नचाते है।
जनता की आवाज़ हूँ मैं, जंतर-मंतर पे लाठी खाता हूँ।
क्रान्ति-पथ पर निकला हूँ मैं वन्दे मातरम् गाता हूँ॥
हर वाद-विवाद के पीछे राजनीति मुँह छुपाये बैठी है।
आतंक का कोई धरम नहीं फिर तरफ़दारी ये कैसी है।।
गुनाहगारों के लिए सजा लिखो,निर्दोषों छोड़ो तुम।
हर मुद्दे को हिन्दू-मुस्लिम से बेवज़ह मत जोड़ो तुम।
दाऊद हो या साध्वी, मैं दोनों पर मौन नहीं रह पाता हूँ।
क्रान्ति पथ पर निकला हूँ मैं वन्देमातरम गाता हूँ।।
परिवारवाद से भरी पड़ी है सड़कें बेचारी दिल्ली की।
राजनीति खेल बन गयी है अब डंडे और गुल्ली की।।
जनता भी अंजान नहीं है वो सारा खेल समझती है।
देखें घोटाले बाजों की गद्दारी कब तक छिपती है।।
देखे तो अपनी सुरत दिल्ली, मैं दर्पण दिखलाता हूँ।
क्रान्ति पथ पर निकला हूँ मैं वन्देमातरम् गाता हूँ॥
समानता जब आएगी तो दुश्मन भी पक्का साथी होगा।लड़ना छोड़ो आपस में, फ़िर हरेक घर में गांधी होगा॥
जाति-धरम का खेल खेलना राजनीति अब बंद करे।
दंगा-फसाद की राह छोड़ कट्टरता का हम अंत करें।
मैं तो प्रेम का पुजारी हूँ गीत मिलन के गाता हूँ।
क्रान्ति पथ पर निकला हूँ मैं वन्देमातरम् गाता हूँ॥
ओमप्रकाश चंदेल “अवसर”
पाटन दुर्ग छत्तीसगढ़ 7693919758

मोर रंग दे बसंती चोला, दाई रंग दे बसंती चोला

May 18, 2016 in गीत

ये माटी के खातिर होगे, वीर नारायण बलिदानी जी।
ये माटी के खातिर मिट गे , गुर बालक दास ज्ञानी जी॥
आज उही माटी ह बलाहे, देख रे बाबु तोला।
मोर रंग दे बसंती चोला, दाई रंग दे बसंती चोला॥

ये माटी मा उपजेन बाढ़ेन, ये माटी के खाये हन।
ये माटी कारण भईया मानुस तन ल पाये हन॥
काली इही माटी मिलही, तोर हमर ये चोला।
मोर रंग दे बसंती चोला, दाई रंग दे बंसती चोला।।

पुराखा हमर ज्ञानी रीहीस अऊ अबड़ बलिदानी जी।
भंजदेव जइसे राजा रीहीस, जे अबड़ स्वाभिमानी जी॥
गुरू घांसी के बेटा अस ग, का होगे हे तोला।
मोर रंग दे बसंती चोला, दाई रंग दे बसंती चोला।।

डोंगरगढ़ अऊ चनदरपुर छत्तीसगढ़ के शान हे।
राजिम अऊ सिरपुर मा बईठे सऊंहत भगवान हे।।
दंतेश्वरी पुछत रहीथे, का चाही ग तोला।
मोर रंग दे बसंती चोला, दाई रंग दे बसंती चोला।।

बोली-भाखा ल अपन, हमन ह बिसराये हन।
सिधवा के नाम मा भईया बड़ धोखा हम खाये हन।।
परदेशी मन लूट के जावत हे भर-भर के झोला।
मोर रंग दे बसंती चोला, दाई रंग दे बसंती चोला।

छत्तीसगढ़ के आन बर, मय बाना उठाय हवं।
अपन बोली-भाखा बर, प्रन मय हर खाय हवं॥
क्रांति के धरके निकले हाबवं मय हर गोला।
मोर रंग दे बनाती चोला, दाई रंग दे बसंती चोला।।

जड़ लूटिन, जमीन लूटिन, लूटिन खेती-खार रे।
अपने घर मा हम खाथन , परदेसी के मार रे।।
अब लहू डबके होगे , हमरो मन के सोला।
मोर रंग दे बसंती चोला, दाई रंग दे बसंती चोला।।

रेहेबर जेला घर देये हन, कारोबार जिये बर।
आज उही मन मन बनाये, लूटपाट करे बर।।
महानदी के रेती मा, दफ़नाबोन हमन वोला।
मोर रंग दे बसंती चोला, दाई रंग दे बसंती चोला।।

रईपुर ल रायपुर कहि डारिन, दुरुग ल दुर्ग जी।
अक्कल में परदेशी मनके बनगे हन हम मुर्ख जी।।
भुलाके अपन असमिता ल का मिलही ग तोला?
मोर रंग दे बसंती चोला, दाई रंग दे बसंती।।

नसा-पानी ल तुमन छोड़व, छोड़व बात बिरान के।
दारू हमला तबाह करे हे, बात सुनव सियान के।।
जिम्मेदारी छत्तीसगढ़ के, मिले हे बाबू तोला।
मोर रंग दे बसंती चोला, दाई रंग दे बसंती चोला।

पेट पालथन दुनिया के हम छत्तीसगढ़ीया किसान जी।
देश बर लोहा गलाथन,भिलई मा हम जवान जी।।
हमर धरती ल जेन मताही, नई छोड़न ग वोला।
मोर रंग दे बसंती चोला, दाई रंग बसंती चोला।।

छत्तीसगढ़ ल कहिथे भईया धान के कटोरा जी।
तिहार हमर मन के हरे तीजा अऊ पोरा जी।।
कमरछट के अगोरा रहीथे, छट से काहे मोला।
मोर रंग दे बसंती चोला, दाई रंग दे बसंती चोला॥

हम छत्तीसगढ़ीया आपस में भाई-भाई आन गा।
मनखे-मनखे एक बरोबर , भेद झन मान गा॥
रहन सबो झिन जुर मिलके कोनो झिन रहव अकेला।
मोर रंग दे बसंती चोला, दाई रंग दे बसंती चोला।

मिटबो हम माटी के खातिर, हमर ये बिचार हे।
अपमान होवय माटी मोर, मोला नई स्वीकार हे॥
मुड़ मा कफ़न बांध निकले हाबय हमर टोला।
मोर रंग दे बसंती चोला, दाई रंग दे बसंती चोला॥
ओमप्रकाश चंदेल “अवसर”
पाटन दुर्ग छत्तीसगढ़
7693919758

जंजीर और मज़दूर

May 5, 2016 in गीत

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वंदेमातरम् गाता हूँ

May 2, 2016 in Other

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वंदेमातरम् गाता हूँ

April 29, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

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मुद्दा हर रोज़ नया निकलता है चुनावी षड़यंत्रों से

April 22, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

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जय भारती!

April 16, 2016 in Other

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मैं अपनी मर्जी से नहीं आया था

April 14, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

बाबा साहेब की १२५ जंयती पर शुभकामनाएं

मैं अपनी मर्जी से नहीं आया था
न उनकी मर्जी से जाऊंगा।
युग-युग तक सांसे चलेंगी अब,
मैं विचारों में जिवित रह जाऊंगा।
गर आ जाए मृत्यु सम्मुख मेरे
मैं तनिक नहीं घबराऊंगा।
किताबों की गठरी खोल,
यमदुतों को पढ़ाऊंगा।
ओमप्रकाश चंदेल”अवसर”
रानीतराई पाटन दुर्ग छत्तीसगढ़
7693919758


 

जंजीर है मज़दूर के पास, खोने के लिए

April 12, 2016 in गीत

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मानव-मानव को नीच कहे, ऐसा अक़्सर होता है।

April 4, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

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मानव-मानव को नीच कहे, ऐसा अक़्सर होता है।

April 4, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

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नमो नमो नमो बुद्धाय

April 1, 2016 in गीत

नमो नमो  नमो  बुद्धाय।
मन हमारा शुद्ध हो जाए।
कठोर वाणी त्याग दें।
सत्य सबको बांट दे।
कमजोरों को हाथ दें।
निर्धन का हम साथ दें।
अपंग के गले लग जाएं।
नमो नमो नमो बुद्धाय।
विचार में प्रकाश हो।
करुणा पर विश्वास हो।
ज्यादा की नहीं आश हो।
ज्ञान हमारे पास हो।
दया धर्म हम अपनाएं।
नमो नमो नमो बुद्धाय।।
मद से हमारा नाता न हो।
झूठ हमको आता न हो।
पाप से हम सब दूर रहें।
कर्मों से हम सब सूर रहें।।
थोड़े में ही खुशी मनाएं।
नमो नमो नमो बुद्धाय।
निश्चय पर अटल रहें।
मैत्री से हम हरपल रहें।
पाखड़ों को तोड़ दे हम।
रुढ़ीवाद छोड़ दें हम।
जात पात को अब मिटाएं।
नमो नमो नमो बुद्धाय।।
अपने मन के अंदर झांको।
द्वेष नहीं कभी तुम बांटो।
क्रोध पर हम काबू रखें।
अंतस में हम साधु रखें।
शत्रु को भी गले से लगाएं।
नमो नमो नमो बुद्धाय।
संतोष को धन बना लें।
त्याग का मन बना लें।
प्रेम को हम हल बना लें।
साथ आओ कल बना लें।
उपदेश ये घर घर में जाए।
नमो नमो नमो बुद्धाय।
ओमप्रकाश चंदेल “अवसर”
पाटन दुर्ग छत्तीसगढ़

7693919758

नमो नमो नमो बुद्धाय

March 31, 2016 in गीत

नमो नमो नमो बुद्धाय


 

नारी बता दिया

March 31, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

मुझ जैसी भोली भाली को,
“काली” बता दिया ।
झाङु ,पोछा, छितका की तो,
घर वाली बता दिया ।
सज संवर के निकली तो
मतवाली बता दिया ।
रोती बिलखती गुङिया को
दिलवाली बता दिया ।
तिनका मांगने से,
नखरे वाली बता दिया ।
बैठ गई अगर चौराहे पर
गाली बता दिया ।
जिवित रहने दिया नहीं,
अवतारी बता दिया ।
हक देने के डर से ही मर्दों ने,
“ना” “री” बता दिया ।।…….

ओमप्रकाश चन्देल ‘अवसर’
पाटन दुर्ग छत्तीसगढ़
076939 19758

नफ़रत की फसल उगी है

March 27, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

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आज अवध में होली है और , मैं अशोका बन में

March 24, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

आज अवध में होली है और, मैं अशोका बन में।
रंग दो मोहे राजा राम , मैं बसी हूँ कन कन में।।

आँखे रोकर पत्थर हो गयी, आँसू से भरे सागर।
तुम भी देख लेना साजन, हालत मेरी आकर।।
छोड़ आई हूँ सासें रसिया, तेरे निज चरणन में।
आज अवध में होली है और , मैं अशोका बन में॥

याद आती है मिथला की बोली, और अवध होली।
छोड़ के अपनी सखी, सहेली , मैं रह गयी अकेली॥
तेरे दम पर चली थी घर से, बिछड़ गयी कानन में।
आज अवध में होली है और, मैं अशोका बन में।।

चित्रकूट के पनघट पर तुम , रंगे थे मोहे रसिया।
मंदाकिनी की धार में, हम दोनो बहे थे रसिया।।
बीती बातें याद हैं क्या , अब भी तुम्हारे मन में।
आज अवध में होली है और , मैं अशोका बन में।।

पंचवटी में हंसों का जोड़ा, होली में रंग जाता था।
प्रेम अमर, अमर रहेगा, बसंत गीत गाता था।।
सुंगध तेरी लेकर आया, वही बसंत, पवन में।
आज अवध में होली है और, मैं अशोका बन में॥

जाने क्या सुध थी मेरी कि मैं जिद तुमसे कर बैठी।
हिरनिया के मोह में राजा, आज मैं इस कदर बैठी।।
सोचती हूँ मैं भी रसिया, क्यों भटके हम बन में।
आज अवध में होली है और, मैं अशोका बन में॥

कितनी होली बिताई है मैंने, तेरी यादों के सहारे।
सूखा आंचल देखो मेरा, आज तुम्हीं को पुकारे।
आओ लंका में प्रियतम, कब तक रहूँगी बंधन में।
आज अवध में होली है और, मैं अशोका बन में॥
ओमप्रकाश चंदेल “अवसर”
रानीतराई पाटन दुर्ग छत्तीसगढ़
7693919758

मैं बच्चा बन जाता हूँ

March 23, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

कविता … “मैं बच्चा बन जाता हूँ”

न बली किसी की चढ़ाता हूँ।
न कुर्बानी से हाथ रंगाता हूँ।
 रोने की जब दौड़ लगती है,
मैं गिद्धों पर आंसू बहाता हूँ।
न मैं मंदिर में जाता हूँ।
न मस्जिद से टकराता हूँ।
 ईश्वर मिलने की चाहत में,
 मैं विद्यालय पहुँच जाता हूँ।

छोटे-छोटे कृष्ण, सुदामा,
पैगम्बर, बुद्ध मिल जाते हैं।
हमसे तो बच्चे ही अच्छे,
जो एक ही थाली में खाते हैं।
जाति, धर्म का ज्ञान नहीं
बच्चे मन के सच्चे हैं।
सच्चा बनने की चाहत में,
मैं भी बच्चा बन जाता हूँ।
क्या आप बच्चा बनेंगे..?
ओमप्रकाश चन्देल ‘अवसर’
पाटन दुर्ग छत्तीसगढ़

7693919758

जब हम बच्चे थे

March 23, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

जब हम बच्चे थे ,
चाहत थी की बड़े हो जायें |
अब लगता है ,
कि बच्चे ही अच्छे थे ||
अब न तो हममें कोई सच्चाई है ,
न ही सराफ़त ,
पर बचपन मे हम कितने सच्चे थे |
जब हम बच्चे थे ||
अब न तो गर्मी कि छुट्टी है ,
न ही मामा के घर जाना ,
माँ का आँचल भी छूट चुका है ,
पापा से नाता टूट चुका है ,
पहले सारे रिस्ते कितने सच्चे थे |
जब हम बच्चे थे||
न तो कोई चिंता थी ,
बीबी बच्चे और पेट की,
न ही कोई कर्ज़,
बैंक ,एलआईसी या सेठ की ,
सिर्फ़ और सिर्फ़ ,
हर दिन अच्छे थे |
जब हम बच्चे थे ||

ओमप्रकाश चंदेल”अवसर”

पाटन दुर्ग छत्तीसगढ़

7693919758

मेरा रंग दे बसंती चोला

March 23, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

जिस चोले को पहन भगत सिंह खेले, अपनी जान पे
जिसे पहन कर राज गुरु मिट गए, अपनी आन पे
आज उसी को पहन के देश का बच्चा, बच्चा का बोला
मेरा रंग दे बसंती चोला, माई रंग दे बसंती चोला
ओमप्रकाश चंदेल “अवसर”

7693919758

खो गई मिट्टी की लाली

March 22, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

 
 

सोमवार, 17 अगस्त 2015

कविता …..खो ग ई मिट्टी की लाली………

 

खो गई है मिट्टी की लाली।
मुरझा गई है धान की बाली॥
सुख गई है बरगद की डाली
उजड़ी बगिया रोता माली॥

खो गई है गिद्धों की टोली।
गुमसुम  है कोयल की बोली।।
उठ गई गॊरिया की डोली ।
राजहंसनी को लगी है गोली॥

उठी गर्जना भूकंप वाली।
बादल फूटा बरसा पानी।।
बह गई बस्ती भुमि खाली।
कंजूस हो गया पर्वत दानी।।

लुट रही जंगल की झोली ।
सुनो वृक्षों की श्रापित बोली।।
कलपुर्जों ने खेली होली ।
दीवाली, धुओं से रंगी रंगोली ।।

घर आ गये जंगल के हाथी।
शेर हो गये अतीत के वासी॥
उड़ चले हैं पंछी प्रवासी ।
मिट रहे हैं कछुए अविनाषी ।।

अम्ल हो गई बरसा रानी।
अम्बर सुना छुपी चांदनी।।
भौरों की कब सुनी रागनी ।
तितली की भी यही कहानी ॥

मानव बना है भोग विलाषी।
भौतिकता का है अभिलाषी।।
प्राप्ति का है मात्र जिज्ञाषी ।
नहीं चलेगी अब अय्यासी ॥

प्रदूषित हवा की रवानी।
प्रदूषित नदीयों का पानी॥
सब इंसानों की मनमानी।
सिर धरे हैं अब विज्ञानी।।
  ओमप्रकाश चन्देल”अवसर”

पाटन दुर्ग छत्तीसगढ़
7693919758

अपने काम आप करो

March 22, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

……कविता…….

अपने काम, आप करो,
मजदूरों को माफ़ करो।
रहना है, अगर ठाठ से; 
तो साफ-सुथरा इंसाफ करो।
हमको तुम, माफ़ करो,
अपना, मन साफ़ करो।
अपनाना है, अगर हमें; 
तो पहले सीधे मुँह बात करो।
अपने दिल पर हाथ रखो,
फ़िर प्यार की बात रखो।
अब हमसे, मत कहना,
अच्छे दिन पर विश्वास रखो ।
अब और नहीं  सौगात रखो,
मेहनत का अहसास रखो ।
और नहीं, चमकाना मुझे,
कपड़े ,बर्तन अपने पास रखो।
वेतन की नहीं बात करो,
तारिखों पर हिसाब करो।  
अब मज़दूरी रहने दो
हिस्सेदारी की शुरुवात करो।
ओमप्रकाश चंदेल”अवसर”
पाटन दुर्ग छत्तीसगढ़ 
7693919758

छप्पर उड़ गई है मिट्टी की दीवारों से

March 22, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

कविता … “ प्रेम ही बांटो हरदम, आप अपने सूझ-बुझ से”

छप्पर उड़ गई है, मिट्टी की दीवारों से।
       तूफाँ भी मांग रही है मदद, कामगारों से।। 
                  कट्टरता की बू आती है, अब बयारों से। 
         मुर्दे फिर से जी उठे हैं, धार्मिकता नारों से।।
रोशनी की चाहत है, चिता के अंगारों से।
      मोह भंग हुआ क्यों? दीपक के उजियारों से।।
          संदेशा कह देना मैना, तैयार रहे कहारों से।
आग कहीं लग ना जाये, आज चुनावी नारों से।।
आप भी वाकिफ़ होंगे चाणक्य बेमिसाल से।
       राजनीति और अर्थशास्त्र दोनों के कमाल से।।
        पर अर्थशास्त्र तो हरहम बेबस है अकाल से।
        राजनीति ही लहलहाती है नित नये चाल से।।
कानों पर हाथ धरो, बचे रहो झूठे अफसानों से।
  दरवाजे अपने बंद रखो, दुर रहो तुम शैतानों से।
  इंसान गुजरते देखा है, मैंने अक़्सर मयखानों से।
   सदभावना यहीं पर बसती है, पूछलो सयानों से।।
जड़ जमीन लूट रही है, जाने कितने धन्धों से।
      हाथी भी न बच सका आज बिछाये फन्दों से।।
       हाल पुछो एक बार तुम कौओं और गिद्धों से।
        मुहब्ब़त क्यों नहीं रही? जंगल के बासिंदों से।।
हाथ लगाओ गले मिलो, स्नेह भरी जजबातों से।
   मिश्री घोलकर पिला दो, सबको अपनी बातों से।।
चलो, उठो इतिहास लिखो अपने अडिग इरादों से।
हरा भरा कर दो गुलशन मेहनत की सौगातों से।।

घड़ी कठिन मगर दामन छूटा नहीं है सुख से। 
        बहुत दफ़ा निकल आये हैं हम तो ऐसे दु:ख से।। 
    नफ़रत मत बोना प्यारे, कभी भी भूलचूक से।
      प्रेम ही बांटो हरदम, आप अपने सूझ-बुझ से।। 
                                                  ओमप्रकाश चन्देल ‘अवसर’
पाटन दुर्ग छत्तीसगढ़

सिर पर जूता पेट पर लात

March 22, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

सिर पे जूता, पेट पे लात।
दिल खट्टा और मीठी बात॥
नियम, कानून अमीरों का,
अपने तो बस खाली हाथ॥

पूछ परख लो भूखों से
क्या है तुम्हारी जात?
पेट भरो बातों से,
गोदाम तले रखो अनाज।

मजबूरी है मजदूरी
मेहनत का नहीं देना दात।
वादों से क्या भूख मिटे
या चूल्हों में जलती आग।।

वोट मांग लो हमसे
पर रहने दो यह सौगात।
नारों से क्या तन ढक लें?
समझ गये तुम्हारी बात।।

उठो, बैठो, सब करो
स्वांग रचा लो सारे आज।
फर्क नहीं पड़ता अब
बहुत कर लिये हैं विश्वास ।।

ओमप्रकाश चंदेल”अवसर”

पाटन दुर्ग छत्तीसगढ़

 

छत्तीसगढ़ी गीत “चल दिए तें कोन देश

March 21, 2016 in गीत

रविदास को गुरु बनाकर हम भी मीरा बन जाएं

March 21, 2016 in गीत

रविदास को गुरु बनाकर हम भी मीरा बन जाएं।
द्वेष -कपट सब त्याग कर आज फकीरा बन जाएं।

कोयला जैसा मन लेकर भटक रहा है मारा-मारा
ज्ञान अगर मिल जाए तो संवर जाएगा कल तुम्हारा।
रविदास के संग चलें और हम भी हीरा बन जाएं।
रविदास को गुरु बनाकर हम भी मीरा बन जाएं।।

क्रोध को तुम छोड़कर करम करो प्यारा-प्यारा।
एक दुजे के गले लगो तो जग प्रसन्न होगा सारा।
अंधकार को दुर भगा कर हम उजियारा बन जाएं।
रविदास को गुरू बना कर हम भी मीरा बन जाएं।

परमेश्वर आएंगे द्वार पर कर्म उत्तम हो तुम्हारा।
कठौती में गंगा होगी, निर्मल हो गर मन हमारा।
ज्यादा की चाह छोड़ कर आज कबीरा बन जाएं।
रविदास को गुरु बना कर हम भी मीरा बन जाएं॥

ओमप्रकाश चंदेल “अवसर”
पाटन दुर्ग छत्तीसगढ़ 7693919758

लौट आओ अपने खेतों पर

March 21, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

लौट आओ अपने खेतों पर अब हरित क्रान्ति लिख देंगे।
उजाड़ गौशाला को सजाकर अब श्वेत क्रान्ति लिख देंगे।

फिर से नाम किसानों का  लाल बहादुर शास्त्री लिख देंगे।
अपनी लहू सिंचित करके माटी को अन्नदात्री लिख देगे॥

कर्ज से तुम मत घबराना धान की बाली से वादी लिख देंगे।
गेहूँ मक्का गन्ना जौं  की फसलों को सोना चांदी लिख देंगे॥

बीती बात बिसार दो नई तकनीकों से अमिट कहानी लिख देंगे।
खेतों पर तपने वाली माँ, बहनों को झांसी की रानी लिख देंगे॥

सुखी हुई धरती पर हल चलाकर आज जवानी लिख देगें।
सुनाकर रहट की सरगम अब रुठे बादल में पानी लिख देंगे।

लाल काली  मिट्टी  से मजदूरों  को वीर शिवाजी लिख देंगे।
घाटे के सौदों को अपने बाहू बल से जीती बाजी लिख देंगे।।

जामुन अर्जुन के शाखों को, हम अपनी दादी नानी लिख देंगे।
बंजर हो चुके मेड़ों के  जर्रे-जर्रे को पुरखों निशानी लिख देंगे॥

हिम्मत हारना कायरता है मेहनत के बल पर गांधी लिख देंगे।
खेत के हर एक पत्थर पर हम अब दशरथ मांझी  लिख देंगे।

निरझर बहते हुये पसीनों से  हम ,नहरों को वैतरणी लिख देंगे।
भारत माता के वीर सपूत अब खलिहानों को जननी लिख देंगे।।

नेताओं के झुठे वादे बहुत हो चुके अब तो इनको बासी लिख देंगे।
कुछ तो सच बोलो अब, नहीं तो तुम्हें अतीत के वासी लिख देंगे।

कुछ योजना हमारे लिये बनाओ वर्ना तुम्हारी अय्यासी लिख देंगे।
काली करतूतें  बहुत हो चुकीं अब सारी जाल -साझी लिख देंगे॥

ओमप्रकाश चन्देल”अवसर”

पाटन दुर्ग छत्तीसगढ़

7693919758

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न्याय बीमार पड़ी है, कानून की आँख में पानी है

March 21, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

अत्याचार दिन ब दिन बढ़ रहे हैं भारत की बेटी पर।
रो-रो कर चढ़ रही बिचारी एक-एक करके वेदी पर ।।
भिलाई से लेकर दिल्ली तक प्रतिदिन नई कहानी है।
किसने पाप किया है ये, किसकी ये मनमानी है।।
गली-गली, बस्ती-बस्ती में निर्भया बलिदानी है।
न्याय बीमार पड़ी है अब, कानून की आँख में पानी है।।

स्कुल-कालेज, आफिस, घर,  सभी जगह पर खतरा है।
मानवता तो अब मर रही है सड़को पर सन्नाटा पसरा है।।
कभी-कभी मर्दाना पुलिस औरतों पे कहर ढ़ाती है।
संविधान के नियम-कायदे पल-भर में भूल जाती है।।
हरेक गाँव, हरेक शहर में, हमने देखी यही कहानी है।
न्याय बीमार पड़ी है अब, कानून की आँख में पानी है।।

न्यायालय तक कैसे जाऐ, किससे अपनी बात कहे।
सरकारी नुमाइंदे जब खुद बलात्कारी के साथ रहे ।।
दो दिन मज़मा लगाने के लिए संगठन वाले आते हैं।
रात गई, बात गई, फ़िर घर में चादर तान सो जाते हैं।।
कुछ सज्जन तो कहते हैं, चुपचाप रहना बुद्धिमानी है।
न्याय बीमार पड़ी है अब, कानून की आँख में पानी है।।

राह चलती बेटिया पर कुछ लड़के ताने कसते हैं।
कुछ ऐसे गुण्डे भी हैं, जो घर तक पीछा करते हैं॥
बेटी के चाल-चलन पर माँ-बाप की निगाह पैनी है।
बेटे ने पेट भरे हैं शराब से, मुँह में गुटका, खैनी है।।
पकड़ रखो तुम बेटे पर, ये बात सभी को समझानी है।
न्याय बीमार पड़ी है अब, कानून की आँख में पानी है॥

बेटी लाचार गरीब की, अब मिट्टी का खिलौना है।
‘बोलो साहेब बोलो’ वस्त्रों पे क्या कुछ कहना है?
दो चार साल की गुड़िया भी क्या सही सलामत है?
बुढ़ी बच्ची और जवान किसी को यहाँ पर राहत है?
अपनी नज़रों पर काबू नहीं बनते-फिरते ज्ञानी हैं।
न्याय बीमार पड़ी है अब, कानून की आँख में पानी है।।

परीक्षा का खौफ़ दिखाकर, गुरुवर भी छलने वाले है।
किस पर बिचारी भरोसा रखे, साधु भी हरने वाले हैं।।
कहीं-कहीं पे भरी सभा में  नारी को दावं लगाते है।
मर्द कुकर्म करता है और औरत को सजा सुनाते हैं॥
सदियों तक वो ज़ुल्म सह चुकी, अब तो मुक्ति पानी है।
न्याय बीमार पड़ी है अब, कानून की आँख में पानी है॥

जीवन से गर जीत गयी, फ़िर कानून से लड़ती है।
देखो फांसी पर झूल गयी, दुनियाँ जब हसती है।।
कानूनी लड़ाई लड़ते-लड़ते जीवन जीना भूल गयी।
क्या करती बेचारी थक हार कर फांसी पर झूल गयी।।
मेरे शहर भिलाई की भी ऐसी ही दुख भरी कहानी है।
न्याय बीमार पड़ी है अब कानून की आँखों में पानी है।।

इलाज़ पीलिया का करने के लिए अस्पताल बुलाया था।
दो आरक्षक एक डाक्टर ने मिलकर कहर बरपाया था।।
सरकारी वकील की सांठगाठ भी बेचारी बोल रही है।
निर्भया तो अब नहीं रही, ख़त सारे पर्दे खोल रही है।।
इन सबकी मिली भगत देखकर बेचारी ने हार मानी है।
न्याय बीमार पड़ी है अब, कानून की आँख में पानी है॥

बेटी ने सुसाईड नोट में लिखा है, न्याय की उम्मीद नहीं।
अपराधियों का बोलबाला है, सच्चाई की जीत नहीं।।
बलात्कारी अब तो घर आकर मुझको ही धमकाते है।
कुछ ऐसै निर्लज्ज है जो शादी का प्रस्ताव भी लाते है।।
न्याय मिलेगा सोच रही थी,शायद ये मेरी नादानी है।
न्याय बीमार पड़ी है, अब कानून के आँख में पानी है॥

बेटी फांसी पर झूल गयी, क्या अपराधी फांसी चढ़ पायेगें?
घर आकर धमकाने वाले भी अब, क्या सक्त सजा पायेंगे ?
निर्भया को जेल से हररोज़ अपराधी के फोन आते थे।
खत्म कर देगें माँ, बाप, भाई को कहकर वो डराते थे।।
कोई कहने आता था,अब बरबाद तेरी ज़िन्दगानी है।
न्याय बीमार पड़ी है अब, कानून की आँख में पानी है।।

बाप रो रहा है आंगन में, माँ की हालत दयनीय है।
टूटी-फूटी घर के भीतर, पीड़ा ये असहनीय है॥
माँ की ममता फूट-फूटकर अब तो दिन-रात रो रही है।
उसकी राजदुलारी बिटिया आज अर्थी पर सो रही है।।
छोटी बहन की आँखों को अब ताउम्र आंसू बहानी है।न्याय बीमार पड़ी है अब, कानून की आँख में पानी है॥

आंसू को स्याही बनाकर, मैं ये कविता लिख रहा हूँ।
निर्भया को न्याय मिले, मैं भरे गला से चीख रहा हूँ।।
मन भिगोकर पढ़ लेना, दर्द से कागज़ सीच रहा हूँ।
निर्भया  की पीड़ा पर मैं  तिल-तिल कर मिट रहा हूँ।।
घर से निकलो बाहर तुम, ये जन आंदोलन की वाणी है।
न्याय बीमार पड़ी है अब, कानून की आँख में पानी है।।

ओमप्रकाश चंदेल “अवसर”
पाटन दुर्ग छत्तीसगढ़
7693919758

अच्छे दिन आ गए -2

March 21, 2016 in Other

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अच्छे दिन आ गए -1

March 21, 2016 in Other

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रोईं आँखें दबी जुबानी,मजदूरों ने कही कहानी

March 21, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

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मैं तो जनगायक हूँ किसानों की पीड़ा गाता हूँ

March 20, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

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होली, रुत पर छा गयी है

March 19, 2016 in गीत

होली, रुत पर छा गयी।
मस्तों की टोली आ गयी।।

लाज़ शरम तुम छोड़ो।
आज मुख मत मोड़ो।।
दिल को दिल से जोड़ो।
झूम कर अब बोलो॥
होली, रुत पर छा गयी है।
मस्तों की टोली आ गयी है।।

यार को गले लगा लो।
रंग गुलाल उड़ा लो।।
मनमीत को बुला लो।
प्रीत से तुम नहा लो।।
फागुन में मस्ती छा गयी है।
होली, रुत पर छा गयी है।

बैठ के फाग गा लो ।
आज नंगाड़ा बजा लो।।
गोरी को भी बुला लो।
गालों पे रंग लगा लो।
उसकी बोली भा गयी है।
होली, रुत पर छा गयी है।

हंसनी को हमें रंगने दो।
उनके मन में बसने दो।।
आज दलदल मचने दो।
प्रेम अब तो बरसने दो॥
हमें चुनरी भीगी भा गयी है।
होली, रुत पर छा गयी है॥

बादल तुम इधर देखो।
धरती से कुछ तो सीखो।।
अंतस में तुम रंग भरो।
आज गुलाबी वर्षा करो।।
देख हमजोली आ गयी है।
होली, रुत पर छा गयी है।।
ओमप्रकाश चंदेल “अवसर”
रानीतराई पाटन दुर्ग
छत्तीसगढ़
7693919758

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