खूब मनाओ तुम खुशी(कुंडलिया रूप)

December 31, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

खूब मनाओ तुम खुशी, इतना रख लो ध्यान,
चमड़ी जिनकी खा रहे, उनमें भी है जान।
उनमें भी है जान, मगर तुम खून पी रहे,
पीकर खून निरीह का, खुशियां क्यों ढूंढ रहे।
कहे ‘कलम’ यह बात, आज तो इन्हें न काटो,
नए साल की खुशियां, तुम इनमें भी बांटो।

जिनकी रुकी हैं शादियां

December 31, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मुबारक आपको
नव बरस में खूब खुशियों से
भरी हों वादियां,
जो जुटे मेहनत में हैं
हो जाएं उनकी चांदियाँ।
जल्दी से हों
जिनकी रुकी हैं शादियां।
झगड़ें नहीं
जिनकी हुई हैं शादियां
खूब खुशियों से
भरी हों वादियां।

नए वर्ष के स्वागत का जोश

December 31, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

नए वर्ष के स्वागत का जोश
पुराने के जाने की खुशी
ऐसे मनाई जा रही है
बोतलों बोतलें
गटकाई जा रही हैं।
बहाना अच्छा है पीने का
युवाओं में क्या
किशोरों में भी पीने का
जुनून दिख रहा है,
मानवता का भविष्य
उज्ज्वल लग रहा है।

वर्ष की आखिरी रात है

December 31, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

वर्ष की आखिरी रात है
थर्टी फर्स्ट मना रहे हैं लोग,
मुर्गियां, बकरियां काट कर
खुशियां मना रहे हैं लोग।
किसी का नया वर्ष आ रहा है
किसी प्राणी का सब कुछ
जा रहा है,
ठहाके लगा रहे हैं लोग
थर्टी फर्स्ट मना रहे हैं लोग।
जान लेकर नववर्ष की
खुशियां मना रहे हैं लोग।

मन में हिम्मत रख सदा (कुंडलिया छंद)

December 31, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मन में हिम्मत रख सदा, हिम्मत है हथियार,
हिम्मत वाला आदमी, हो जाता है पार।
हो जाता है पार, सफलता पा जाता है,
साहस से वह कठिन, विजय पाता जाता है।
कहे ‘कलम’ हमेशा, हौसला मन में रख ले,
हिम्मत रख बुलन्द, स्वाद जीत का चख ले।

दोस्तों से मिलो मुस्कुराते हुए

December 31, 2020 in मुक्तक

गीत गाते हुए
खिलखिलाते हुए
यह सफर काट लो
गुनगुनाते हुए।
दूर करते हुए
सारी नाराजगी
दोस्तों से मिलो
मुस्कुराते हुए।

चाँदनी है दिखी

December 31, 2020 in मुक्तक

आज दिन में हमें
चाँदनी है दिखी,
तार झंकार दे
रागिनी है दिखी।
बात करते नहीं तो
करें मत मगर
आंख में चाह की
कुछ नमी है दिखी।

आप बेकार में यूँ खफा हो गए

December 31, 2020 in मुक्तक

आप बेकार में यूँ खफा हो गए
दुश्मनों के हमारे सखा हो गए,
प्यार में जो संजोये थे पल आपके
नफ़रतों में सभी वे अदा हो गए।

मुस्कुराहट बिखेरो न यूँ ठंड में

December 31, 2020 in मुक्तक

मुस्कुराहट बिखेरो न यूँ ठंड में
विघ्न डालो नहीं आज आनन्द में,
मन है कोमल, जरा भोलेपन में भी है
आज डालो नहीं आप फिर द्वंद में।

न जाइये इस तरह

December 31, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

न जाइये इस तरह
छोड़कर राह में,
हम तो मर जायेंगे
आपकी चाह में।
बात मत कीजिये
और से इस तरह
हम तो हो जायेंगे
खाक फिर डाह में।
आइये बैठिए
नेह से देखिए,
अन्यथा बीत जायेंगे
पल आह में।
जिन्दगी है समुन्दर
कठिन राह है
काट लेंगे इसे
प्यार की नाव में।
रोकिए अपने कदमों को
मत जाइये,
साथ में हम रहें
प्रीति के गांव में।

बिना तुम्हारे

December 31, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

बिना तुम्हारे
इस ठंडक में
बिस्तर से उठने का
मन नहीं है,
आ जाओ ना,
चली आओ, उनके हाथ
उनके साथ,
ताजगी बनकर
नाराजगी तजकर,
अन्यथा उठने में
हैं असहाय,
आ जाओ ना चाय।

नववर्ष की शुभकामना

December 31, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

शुभकामनायें, मित्रवर
नववर्ष की हैं आपको,
आपके होंठों में खिलती
नित नयी लाली मिले,
गीत में संगीत में
अंतस व बाहर भीत में,
धर्म में भी कर्म में भी
नीति में और रीति में
नित नया उल्लास पाओ,
जिंदगी खुशहाल हो। ………….
……………..आप सभी को नववर्ष की शुभकामनाएं

…… डा0 सतीश चन्द्र पाण्डेय, चम्पावत

समझना है तुम्हें

December 30, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

गरीब को भी
इंसान समझना है तुम्हें
क्या पता कब कहाँ
मिल जायें भगवान तुम्हें।
भूख क्या होती है यह भी
समझना है तुम्हें,
इंसान हो इंसानियत को भी
समझना है तुम्हें।
मिली है बुद्धि
अच्छा और बुरा सोचने की,
जानवर हो नहीं, मानव हो
समझना है तुम्हें।
न मसलो बेजुबानों को
न छीनो जिन्दगी का हक
दानव नहीं, मानव हो
समझना है तुम्हें।

तुम्हारे बिना

December 30, 2020 in मुक्तक

तुम्हारे बिना पाना पाना नहीं है
तुमसे अधिक कुछ खजाना नहीं है,
तुम तो हो ताकत, तुम तो हो हिम्मत,
तुम्हें पास रखना है गँवाना नहीं है।

खफा हो गए बस

December 30, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

खफा हो गए बस
कारण न पूछो,
पूछोगे भी तो
बता न सकेंगे
कुछ ही दिनों में
फिर बोल लेंगे
ज्यादा खफा भी
रह न सकेंगे।

दिल व साँसों से सटे रहते हैं

December 30, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

ठंड में लब फटे से रहते हैं
आजकल वे कटे से रहते हैं,
दूर कितना भी चले जायें पर
दिल व साँसों से सटे रहते हैं।
कभी करीब आते हैं फिर
कभी दूर हटे रहे रहते हैं,
नैन अपने भी हठीले से हैं
हर घड़ी उन में डटे रहते हैं।

वही दिल जुड़ाता है

December 30, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

वही दिल जुड़ाता है
करीब लाता है,
फिर वही इस तरह से
दूरियां बढ़ाता है।
वो रब हमें इस तरह
खेल ही खेल में
कभी मिलाता है
कभी गम बढ़ाता है।
हम तो बस चाहते ही रहते हैं
हाथ में हाथ रख
साथ ही साथ रह
नेह की चाह दिल मे रखते हैं।
मगर वो रब का
निराला न्याय है
या किसी प्रेमी दिल हाय है
चाह कर भी नहीं
करीब रहते हैं
बात तो करते हैं
दिल से अजीब रहते हैं।

लिख दे ना

December 30, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

जो हो रहा है घटित
अपने चारों तरफ
उसे बयान कर दे ना
मेरी कलम! लिख दे ना।
जी रहे घर बिना
लिबास बिना,
ठंड में ओढ़नी बिना सोते
ऐसे जीवन लिए
कुछ कर दे ना,
उस दर्द को उठाने को
मेरे मन! लिख दे ना।
भूख है और खड़ी बेकारी
उनकी आवाज को
उठा दे ना
वो कलम लिख दे ना।
जो है वो कह दे ना,
मेरी कलम! लिख दे ना।

थोड़ा काजल, बहुत ही रमता है

December 30, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

अपनी आँखों में लगाकर रखिये
थोड़ा काजल, बहुत ही रमता है,
हम भी पहचान लेंगे रस्ते में
मुँह में तो मास्क बंधा रहता है।
जो भी शॉपिंग करोगे सब की सब
एक थैले में भर के रख देना,
लादकर पीठ में पंहुचा देंगे
आप बस एक बार कह देना।

हर ख़ुशी तेरे नाम हो चुकी है

December 30, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

ठंडक बढ़ रही है लगातार
केवल तेरा अहसास
गला रहा है
जिंदगी में जमी बर्फ को,
सर्द हवाएं
नाजुक गालों से टकराकर
अपने पैरों के निशान छोड़ रही है
काले काले टिपके जैसे निशान,
मेरी पूरी खुली परत
श्याम हो चुकी है ,
तू पहचान नहीं पायेगा लेकिन
हर ख़ुशी तेरे नाम हो चुकी है,
मेरे चेहरे की झुर्रियों को
अब नजर नहीं लगेगी समय की
झुर्री झुर्री तेरे नाम पर
बदनाम हो चुकी है,
ठंडक ने ओढ़ने पर मजबूर कर दिया है
तन की कालिमा
छिप कर गुमनाम हो चुकी है,
………………… डा. सतीश चन्द्र पाण्डेय , चम्पावत

मीत तू रागिनी सुना दे ना

December 29, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

इस भरी रात में आये निंदिया
मीत तू रागिनी सुना दे ना
ये जो दिनभर की आपाधापी थी
तू मधुर बोल से भुला दे ना।
जिन्दगी में सुबह से रात हुई
रात से फिर सुबह का चक्र चला
बीतते जा रहे पलों में तू
रागिनी प्यार की सुना दे ना।

फड़फड़ा रहा था

December 29, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

वो लोट-पोट हो रहा था
जमीन पर,
जिस तरह केंचुआ
तिनके से छूने पर
फड़फड़ाने लगता है,
वैसे वह बेचैनी से
फड़फड़ा रहा था।
किसी का तो बेटा रहा ही होगा
अब इस तरह
नशे का आदि होकर
भरी सड़क में
लेटा उलट-पुलट कर रहा था।
चिल्ला रहा था
सिर पीट रहा था,
नशे से शुष्क हो चुका
उसका दिमाग
उसके नियंत्रण में नहीं आ रहा था।
शायद आज या तो
डोज कम हो गई थी,
या नशा नहीं मिल पाया था।
लेकिन जो भी था
नशे ने एक इंसान को
सड़क पर लिटा दिया था,
आज उसको पूछने वाला
कोई नहीं था,
बस वो अकेला
तड़पने में लगा था।

वो नशे का आदी

December 29, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

ठंड थी खूब
पहाड़ों की ठंड,
पानी मे कंकड़ जम जाते हैं
पानी के नल तक फट जाते हैं,
वो बाज़ार में भटकने वाला शराबी
बेचैन था, जुगाड़ में था
कुछ पीने को मिले तो
रात कटे, किसी दुकान के आगे सोकर,
था तो वो इंसान ही,
लेकिन शराब की लत से
घरबार सब छूट गया था,
वो अकेला रह गया था,
जानवरों की तरह बाज़ार का ही हो गया था।
हाथ फैलाकर
आने जाने वालों के आगे रोया
पेट की खातिर उसने मांगा,
पीने लायक मिल गया
पी ली, खाने को बचा नहीं।
पड़ा रहा खुले में
रात भर, कंकड़ सा जम गया,
सुबह तक पत्थर हो गया।
मनुष्य था, जानवर सा हो गया था,
लेकिन जानवरों सी न खाल थी
न शरीर में बाल थे,
ठंड कहाँ सहन कर पाता,
उसे कौन संभाल पाता,
बेचारा चल बसा था।

चल रही आंधियां हैं

December 29, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

चल रही आंधियां हैं
थपेड़े ठंड के हैं,
लिख रहा बेजुबानी
भाव कुछ मंद से हैं।
फिजाँ झकझोरने को
पास कुछ भी नहीं है
नैन सूखे हुए हैं
होंठ कुछ बन्द से हैं।
नहीं हो पाये अपने
रहे बेगाने वो भी
समझ लें भावना को
मित्र भी चंद से हैं।
चमकते सूर्य हैं वो
ठिठुरते इन दिनों के
और हम राह में उनकी
घिरे से धुंध से हैं।

मुहब्बत के नशे में

December 29, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मुहब्बत के नशे में
चूर रहना चाहता हूँ
ए जिन्दगी मैं
नफ़रतों से दूर रहना चाहता हूँ।
इंसान हूँ, कमियां भी हैं,
अच्छाइयाँ भी हैं,
मगर जैसा भी हूँ
इंसानियत को पास रखना चाहता हूं।
जा चुका दूर मैं जिनसे
उन्हें अहसास हो जाये
मैं लौट करके फिर उन्हीं के
पास आना चाहता हूँ।
घुटन है नफ़रतों में
प्यार में सौंधी महक है दोस्तों
उस सुरीली हवा में
सांस लेना चाहता हूँ।

समझ जाता है मन यह

December 29, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

आ मेरे मीत आ जा
बात मन की बता जा
उग रहे भाव हैं जो
मेरे मन को दिखा जा।
छिपाना छोड़ दे तू
कोपलें चाहतों की
समझ जाता है मन यह
दिशाएं आहटों की।
तेरे नयनों की भाषा
जान लेते नयन हैं,
क्योंकि लाखों में तू ही
एक इनका चयन है।
जरा सा पास में आ
बैठ जा दो घड़ी तू
चुराकर मन मुआ यह
दूर है क्यों खड़ी तू।

प्रेम वह है

December 29, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

प्रेम वह है
जो आंखों में, मन में
दूजे के प्रति उमड़
चाहत के बीज उगा देता है,
विरक्त और बुझे मन में,
तत्क्षण अनुराग जगा देता है।
प्रेम वह है
जो सिंचित कर,
मन के मुरझाये पौधों को
हरा-भरा कर देता है।
प्रेम वह है
जो नयनों में
नव दृष्टि,
नव ज्योति जगा देता है।
प्रेम वह है
जो अवचेतन भावों को
जाग्रत कर
नवचेतना जगा देता है।
प्रेम वह है
जो खुशी का संचार कर देता है,
जीने का नया
उत्साह भर देता है।
प्रेम वह है
जो नव सृजन को
प्रेरित कर देता है,
नवसृजन से खुद का होना
अंकित कर देता है।
——– डॉ0 सतीश चन्द्र पाण्डेय

मन मेरा गुनगुनाया

December 29, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

गीत भँवरे ने गाया
मैं वहां चुप खड़ा था
उसकी लय में बहक कर
मन मेरा गुनगुनाया।
सुगंधित सी हवा
फूल ने जब बिखेरी,
नासिका में समाई
मन मेरा मुस्कुराया।
देख तिरछी नजर से
त्वरित दी प्रतिक्रिया
कुछ नहीं कह सका तब
मन मेरा गुदगुदाया।
पड़े असहाय की जब
मदद वो कर रहे थे,
नैन से देखकर यह
तन-बदन खिलखिलाया।
निरी इंसानियत को
देख कर आज जिन्दा
खुशी से भर गया मैं
तन-बदन खिलखिलाया।

तू जगाना खुद की हिम्मत

December 28, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

हौसला रख, न घबरा
काम ले हिम्मत से तू
जिन्दगी आसान होगी
मंजिलें कदमों में होंगी।
हो निराशा जब कभी
दिल बैठ सा जाये अगर,
तू जगाना खुद की हिम्मत
मुश्किलें आसान होंगी।
आँख भर आयें किसी के
दर्द को महसूस कर,
या किसी से ठेस पाकर
मन व्यथित हो जाये तब,
काम लेना हौसले से,
शक्ति अंतस की जगाना,
मन में बल आयेगा तेरे
कुछ खुशी अनुभूत होगी।
जब खुशी अनुभूत होगी
तब ललक आयेगी मन में
मुश्किलों को यह ललक
ललकारने लग जायेगी।
हौसला, हिम्मत तेरी
मुश्किल करेंगे दूर सब,
तू जगा हिम्मत न घबरा
मंजिलें कदमों में होंगी।
—- डॉ0 सतीश चंद्र पाण्डेय

रख लो ना इसे काम पर

December 28, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

एक छोटे से ढाबे के बाहर
खड़ी होकर वो गुहार कर रही थी,
रख लो ना इसे काम पर,
ग्यारह बरस का हो गया है यह,
माँज लेगा चाय के गिलास,
धो देगा जूठे बर्तन
झाड़ू लगा देगा,
मेज पर कपड़ा मार देगा।
और भी छोटे -छोटे काम कर देगा,
जो कहोगे कर लेगा।
तीस रुपये रोज भी इसे
दे दोगे तो चलेगा,
एक किलो आटा आ जायेगा,
इस ठंड में
पूरे परिवार का पेट भर जायेगा।
रख लो ना इसे,
आपका भला होगा।
एक उसके गोद में
दूसरा ग्यारह बरस के बच्चे की
गोद में था।
ठंड में तन ढकने को
फटे वसन लटक रहे थे,
बोलते बोलते लफ्ज अटक रहे थे।
ढाबे का मालिक
बालश्रम कानून से डर रहा था,
एक गरीब परिवार
रोजगार की गुहार कर रहा था।

आप आ जाते तो

December 28, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

गुनगुनी धूप है
इस ठंड में थोड़ा सहारा,
अन्यथा हम बर्फ बनकर
ठोस हो जाते।
इस गली में गुजरते
आपने देखा हमारी झोपड़ी को
अन्यथा हम गम भरे
बेहोश हो जाते।
इन दिनों मन जरा ढीला
बना है दोस्तों
आप आ जाते तो
हम भी जोश पा जाते।
इस तरह आपका भी मन
न होता खूबसूरत तो
हमें कविता न कहनी थी
वरन खामोश हो जाते।
——- डॉ0 सतीश चंद्र पाण्डेय

रोशनी तरफ की न खिंचते जा

December 27, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मन मेरे! कीट सा पतंगे सा
इस तरह से अंधेरी रातों में
रोशनी तरफ की न खिंचते जा
झूठ के हाथ यूँ न बिकते जा।
ओ कलम! हाथ मेरे आकर
अब न रुक वेदना को कहते जा
जो कुछ हो पीड़ इस जमाने की
उसको कागज में खूब लिखते जा।
ओ कदम! डर न तू डराने से
सत्य की राह पग बढ़ाने से
विघ्न बाधाएं खूब आएं भले
मुड़ न पीछे तू आगे बढ़ते जा।
मन मेरे! रूठ जाए दुनिया ये
सबके सब मुँह चुरा के चलते बनें
तब भी विचलित न होना राही तू
अपने कर्मों पथ में चलते जा।

तृष्णा तुम भी अद्भुत हो

December 27, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

तृष्णा तुम भी अद्भुत हो
मन में इतना रम जाती हो,
ये भी मेरा वो भी मेरा
सब कुछ मेरा हो कहती हो।
पूरी कभी नहीं होती हो
जीवन भर आधी रहती हो,
नश्वर जीवन में नाशवान
सुख को पाने को कहती हो।
क्षणिक सुखों की खातिर मैं
अनमोल समय इस जीवन का
सदा लुटाता फिरता हूँ
ऐसी प्रेरणा देती हो।
सुख से और अधिक सुख पाऊँ
दूजे का हक भी मैं खाऊँ,
सारी रौनक मैं ही पाऊँ
ऐसा स्वार्थ सिखाती हो।
बचपन, यौवन और बुढापा
वक्त निरंतर चलता जाता
पाया, खाया, खूब कमाया
फिर भी आधी रह जाती हो,
कभी नहीं पूरी होती हो।
अन्त समय तक पर्दा बनकर
नैनों को ढकती रहती हो,
सच को समझ नहीं पाता
इतना सम्मोहित करती हो।
तृष्णा तुम भी अद्भुत हो
मन को विस्मित कर देती हो
कभी नहीं पूरी होती हो
आधी ही रह जाती हो।
——– डॉ0 सतीश चंद्र पाण्डेय

ठंड हो जिस समय जिन्दगी में

December 27, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

कर सकूँ यदि भलाई नहीं,
तो बुराई करूँ क्यों भला
आपको दे सकूँ यदि नहीं कुछ
तो खुटाई करूँ क्यों भला।
हो अगर कोई मुश्किल समय
काम में कुछ नहीं आ सकूँ
तब मुझे हक नहीं है जरा भी
आपका मित्र खुद को कहूँ।
ठंड हो जिस समय जिन्दगी में
उस समय ओढ़ना बन सकूँ,
जब कभी बन्द हो जाये रसना
उस समय बोलना बन सकूँ।
भाव पहचान लूँ नैन के
जिस समय नैन आधे खुले हों,
रोक लूँ सांस उड़ती हुई,
जिस समय होंठ के पट खुले हों।
आपके कष्ट कम कर सकूँ
वक्त पर कुछ मदद कर सकूँ
तब कहूँ मित्र सचमुच का हूँ मैं
सिद्ध मैत्री को जब कर सकूँ।

अकेला अकेला रहने लगा है

December 27, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

आत्मीयता कहीं
खो गई है,
वह शहर की गलियों में
रो रही है।
किसी को किसी से
मतलब नहीं है,
समन्वय की बातें
खो गई हैं।
सहभागिता के
भाव ही नहीं हैं,
एक दूसरे की
चाह नहीं है।
प्रेम की कहीं अब
बातें नहीं हैं,
दर्द बांटने की
रीतें नहीं हैं।
करीब के पड़ौसी
करीब में ही रहकर
एक- दूसरे को
जानते नहीं हैं।
मानव का सामाजिक पन
आजकल अब
एकाकीपन में
बदलने लगा है।
चारहदीवारी में
कर बन्द खुद को,
अकेला अकेला
रहने लगा है।

कुछ हल जरूर होगा

December 26, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

भारी ठंड है
वे सिंधु बॉर्डर पर
धरने पर हैं,
कई बुजुर्ग किसान
धरने पर हैं।
दस वर्ष के बच्चे तक
धरने पर हैं।
ठिठुरन है
लेकिन वे अड़िग
धरने पर हैं।
देश की सत्ता
अपनी संवेदनशीलता
और कुशलता का
परिचय दे,
मामले को तत्परता से
सुलझा ले।
कुछ हल जरूर होगा,
हल निकाल कर
अपनी काबिलियत का
परिचय दे।
दुनिया हंस रही है
हँसेगी ही,
इन उलझनों से
अर्थव्यवस्था फँसेगी ही।
जितना लंबा खिंचेगा
आंदोलन,
उतना आर्थिक नुकसान होगा,
देश पीछे होगा।
हल तो निकलेगा ही
लेकिन समय पर
हल निकले तो
नुकसान भी कम रहेगा
धरने पर बैठे उन बुजुर्ग का
मान-सम्मान भी रहेगा।

माता-पिता को भूलकर

December 26, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

माता-पिता को भूलकर तू
चैन में खुद को समझ मत
आज तेरा वक्त है फिर
वक्त बदलेगा समझ ले ।
आज तू अपने में खुश है
दूर बैठा है शहर में
अपने बच्चे और पत्नी
बस रमा है खुद ही खुद में।
आस में बैठी हैं घर में
उन बुजुर्गों की निगाहें
टकटकी पथ पर लगाये
इंतजारी में हैं आहें।
पाल-पोषित कर तुझे
लायक बनाया था जिन्होंने
आज तूने वे भुलाये,
शर्म कर ले वो अभागे।
फर्ज अपना भूल कर तू
मौज में कब तक रहेगा,
यह समय जाता रहेगा
तू जवां कब तक रहेगा।
आंख अपनी खोल प्यारे
याद कर बचपन के दिन
किस तरह से प्यार करते थे
तुझे माँ-बाप तब
तूने यौवन के नशे में
सब भुलाई नेह-ममता
माँ-बाप की हालत से तेरा
क्यों नहीं हृदय पिघलता।
—— डॉ0 सतीश चन्द्र पाण्डेय

रखो न हीन भावना (दिगपाल छंद में)

December 26, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

रखो न हीन भावना बुलंद भाव से चलो,
सदैव सिर उठा रहे कभी नहीं कहीं झुको।
झुको उधर जिधर लगे कि सत्य की है भावना,
सिर उधर झुके न जिधर झूठ की संभावना।
तोलना किसी को है तो आचरण से तोल,
धन अधिक है कम है न कर आदमी का मोल।
बोलना है गर कभी तो बोल मीठे बोल,
नेह दे अगर कोई तो द्वार दिल के खोल।
आदमी सभी समान हैं नहीं ये भेद रख,
एकता की भावना से प्रेमरस का स्वाद चख।
सार्वभौम सत्य है कि प्रेम भावना रखो,
बुलंद मन बुलंद तन, बुलंद भावना रखो।
—— डॉ0 सतीश चंद्र पाण्डेय
काव्य दिशा- दिगपाल मात्रिक छंद की इस काव्य रचना में 12-12 मात्राएं समाविष्ट हैं। कुल 24 का पद प्रस्तुत करने का प्रयास है।

जंगल में आग लगाकर

December 25, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

क्या कोई हमें बतायेगा
वो कौन निर्दयी होगा
जंगल में आग लगाकर
घर में चैन से सोया होगा।
लपटों से जिंदा जलकर जो
खाक हो रहे थे प्राणी,
उन निरपराध जीवों की
ऐसे निकल रही थी वाणी।
अपने अपने बिलों घौंसलों में
बैठे बच्चों के साथ,
तभी अचानक आग आ गई
कई हो गए एकदम खाक।
कई अधजले जान बचाने
इधर उधर थे भाग रहे,
कई घिरे रहे लपटों में
बस ईश्वर को ताक रहे।
आग लगाने वाले ने
जीवों के घर बर्बाद किये,
उन जीवों के आँसू के
क्यों उसने खुद में दाग लिए।
आग लगाकर जंगल में
क्या पाया उसने खाक मिला
जब लाभ नहीं था तनिक उसे
क्यों जीव-जंतु बर्बाद किये।
शर्मनाक है मानवता को
यह तो बस दानवता है,
आग लगाना जंगल में,
केवल दानवता दानवता है।
——- डॉ0 सतीश चंद्र पाण्डेय, चंपावत, उत्तराखंड

(संदर्भ- जंगलों में आग लगने से जीवों व वनस्पतियों का भारी नुकसान होता है। जीव तड़प कर रह जाते हैं। आग लगाने वाले भूल जाते हैं कि उन्होंने कितने जीवों के परिवार नष्ट कर दिए। इसका किसी एक घटना या व्यक्ति से संबंध न होकर सार्वभौमिक है। किसी घटना से मिलान मात्र संयोग हो सकता है। लेकिन जंगल में आग लगाना मानवता की निशानी नहीं है।)

ठंड में मैं आग पीना चाहता हूँ

December 25, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैं कभी तो खूब रोना चाहता हूँ,
ठंड में मैं आग पीना चाहता हूँ,
रात भर अकड़ा हुआ बेजान मत समझो,
अभी तो और जीना चाहता हूँ।
पैदा हुआ कैसे कहाँ कब क्या
न जाने,
बस इसी फुटपाथ को पहचानता हूँ।
माँ-बाप क्या परिवार क्या है क्या पता,
मैं अकेली रात को ही जानता हूँ।
कौन कब मुझको यहां पर रख गया,
कौन हूँ खुद भी नहीं पहचानता हूँ।
मैं कभी तो खूब रोना चाहता हूँ,
ठंड में मैं आग पीना चाहता हूँ,

नजर नेक रही है

December 25, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

खुद को नफा दिलाओ मगर
जान बूझकर
नुकसान दूसरे का करो
ठीक नहीं है।
चोरी छिपे गलत करो
व साफ बन फिरो
भगवान की नजर है
तुम्हें देख रही है।
कितनी ही निगाहें
गड़ाइयेगा और पर
पाता है वही
जिसकी नजर नेक रही है।
दूजे की बुराई व बात
कीजियेगा मत,
अपनी तो कलम आजकल
सच फेंक रही है।
रहने भी दीजिये
न शब्द वाण मारिये
तिरछी नजर किसी का
जिगर छेद रही है।
—— डॉ0 सतीश चन्द्र पाण्डेय

बेकार में निराश न हुआ कीजिये (बरवै छंद)

December 25, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

जो चलता है हरदम, सत्य पथ पर,
उसे किसकी परवाह, क्यों हो डर।
दूजे की उन्नति पर, प्रसन्न जो,
वही दिशा देता है, जमाने को।
बेकार में निराश न हुआ कीजिये,
तुम दुआ दीजिये बस, दुआ लीजिए।
दाल-रोटी तक खूब, काम कीजिए,
बाकी आप प्रेम का, जाम पीजिए।
अतिशय चमक पर नहीं, कशिश कीजिए,
बेकार की आप मत, खलिश कीजिए।
आज हार है तो कल, जय मिलेगी,
तेरे गीतों को भी, लय मिलेगी।
——- डॉ0 सतीश चन्द्र पाण्डेय
काव्य सौंदर्य- (खड़ी बोली हिन्दी में बरवै छंद का समावेश करने का प्रयास किया है। विषम मात्रिक 12-7, 12-7 का प्रयोग का प्रयास है)

गांव छूट गया

December 24, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

गांव छूट गया
मैं शहर में आ गया
याद छूटी ही नही
मन गांव में ही रह गया,
तन शहर में आ गया।
वो खेतों की हरियाली,
चिड़ियों की चहक,
झींगुरों का संगीत,
सावन के गीत।
जाड़ों की कंपकंपी रातों में
वो दादी माँ के किस्से,
मडुवे की रोटी के
छोटे-छोटे हिस्से।
गहत की दाल
गडेरी का साग,
वृत्ताकार बैठकर
तापते आग।
माँ का सा मातृभूमि का आँचल
शुद्ध पानी, शुद्ध हवा,
सामाजिक सद्भाव
परस्पर प्रेम था जीने की दवा।
वो सब छोड़कर
मैं शहर में आ गया
रोजी-रोटी की खातिर
मैं शहर में आ गया,
तन शहर में आ गया
मन गांव में रह गया।

मेरे मन की उमंगें

December 24, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

खिल रही है धूप
दिन में तो जरा राहत सी है,
रात काटूं किस तरह से
भीति की आहट सी है।
आपको मौसम सुहाना
लग रहा होगा भले ही
पर मेरे मन की उमंगें
आज कुछ आहत सी हैं।
वो गए लौटे नहीं फिर
जो विदा दिल से किये
आज उनके प्रति फिर से
उग रही चाहत सी है।
आप इस शक की इस नजर से
देखना मत इस तरफ
अब भी मेरे दिल परतें
श्वेत से कागद सी हैं।
राग से करके किनारा
प्रेम को कुछ भी समझा
आज क्यों लगने लगा
ये बात कुछ जायज सी है।
खिल रही है धूप
दिन में तो जरा राहत सी है,
रात काटूं किस तरह से
भीति की आहट सी है।
——– डॉ0 सतीश चन्द्र पाण्डेय।

तुम कदम को रोकना मत

December 23, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

परिश्रम पथ पर कष्ट हैं, उनसे नहीं डरना तुम्हें,
कंटकों को रौंधना है, लक्ष्य पाना है तुम्हें।
विघ्न-बाधाएं अनेकों राह में आती रहेंगी,
तोड़ने उत्साह को कुछ अड़चनें आती रहेंगी।
कर निरुत्साहित तुम्हें निज मार्ग से भटकायेंगे,
बोल मीठा पीठ पीछे काम को अटकायेंगे।
दर्द में देखकर जो बहायेंगे दिखाने अश्रुजल,
वो तुम्हारे उन्नयन पर कुछ अधिक होंगे विकल।
इन सभी के बीच अपने तुम कदम को रोकना मत,
बढ़ते रहना, चलते रहना, और कुछ सोचना मत।
———– डॉ0 सतीश चन्द्र पाण्डेय
(काव्यगत सौंदर्य में हरिगीतिका छन्दबद्ध पंक्तियों का समावेश किया गया है।)

जिंदगी की चली दौड़ है

December 23, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

जिंदगी की चली दौड़ है
भागने में लगे आप-हम
प्यार करने की फुर्सत नहीं है
रोटियां खोजनी हैं जरूरी।
पालना जिसको परिवार है
उसको कैसे भी करके स्वयं को
काम में है खपाना, कमाना
रात-दिन जूझना है जरूरी।
रात बीती सुबह जब हुई
चल पड़े काम पर हम दीवाने
बोझ ढ़ोया मजूरी कमाई
शाम लौटे फटेहाल बनकर।
आप भी कुछ नहीं कह सके
हम भला बोलते भी तो क्या
सो गए उस थकी नींद में
सो गया प्यार भी ऐसे थककर।
फिर सुबह में वही चक्र घूमा
जिन्दगी घूमती सी रही
फर्ज अपना निभाते निभाते
जिन्दगी बीतती ही रही।
प्यार की बात नेपथ्य में जा
खो गई फिर न जाने कहाँ
रह गए आप हम ताकते ही
वो गई बात जाने कहाँ ।
——- डॉ0 सतीश चन्द्र पाण्डेय

मौन साँसों का धुँआ

December 22, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मौन का मतलब
समझते हो पथिक?
यह दवा है दर्द की जो
दर्द को ज्यादा चढ़ाकर
कम किया करती है मन का।
आप तो बस खो गए
मन खोजता ही रह गया
आपका चेहरा नयन में
बोझ बनकर रह गया,
यह जरूरी बोझ था,
आवश्यक था जिंदगी को
जिंदगी में ओ मुसाफिर
बोझ ढोना है जरुरी,
बोझ से दाबा हुआ मन
उड़ता नहीं झौंकों से हलके।
मौन उसको ढकता जाता
ताकि दिल या दिल्लगी के
इस शहर को,
प्रदूषित न कर दे
मन के वाहन का धुँआ
बैठता जाता सतह पर
आपके होंठों को छूता
मन की लगी का धुँआ
मौन साँसों का धुँआ।
—- डॉ0 सतीश चंद्र पाण्डेय
(मनोवृतिजन्य काव्य) टाइपिंग मिस्टेक सुधार के उपरांत पुनः प्रस्तुत

यह नजर पाप करती रही

December 22, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

साँस से भाप उड़ती रही,
आपको भी दुराशय से देखा
यह नजर पाप करती रही।
मन किसी और पथ पर रमा था
जीभ कर करके दिखावा निरन्तर
नाम का जाप करती रही।
पुष्प सुन्दर खिला जो भी देखा
हो विमोहित उसी की तरफ
तोड़ लेने को आतुर रही।
फिर पतंगा बनी औऱ झुलसी
अपने जालों में अपना ही उलझी
भ्रम में चूक करती रही।
बाहरी आवरण पर खिंची
पर तसल्ली नहीं मिल सकी
इस तरह भूख बढ़ती रही।
यह नजर चूक करती रही।
———– डॉ0 सतीश चंद्र पाण्डेय
(मनोवृतियों पर आधारित प्रयोगात्मक कविता, प्रथम व अंतिम एकपद, और मध्यस्थ त्रिपद काव्य)

सड़कों के गड्ढे भर दो ना

December 21, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

सड़कों के गड्ढे भर दो ना
सचमुच विकास कर दो ना,
जो किये वायदे हमेशा से
उनमें दो-चार पूरे कर दो ना।

थोड़ी इंसानियत कमानी है

December 21, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

जिन्दगी में कमाते रहते हैं
खूब रूतबा, व खूब पैसे हम
जमा पूँजी को गिनते रहते हैं
जमा में और जमा करते हैं।
जोड़ने का नहीं है अन्त कोई,
लालसा का नहीं है अन्त कोई,
बस मिले, मिलता रहे, खूब मिले
पेट ठुंस ठुंस के भरे, भरता रहे।
भूल जाते हैं हम जमीं पर हैं
एक दिन ये भी छोड़ जानी है,
थोड़ा ईमान भी कमाना है
थोड़ी इंसानियत कमानी है।
ये जो संग्रह किया है दौलत का
अंत में काम नहीं आना है,
मान-रुतबा यहीं रहेगा सब,
साथ सद्कर्म को ही जाना है।
—- सतीश चन्द्र पाण्डेय

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