मर्ज़ नहीं मालूम
मर्ज़ 1 नहीं मालूम गर तो दवा न दीजिए,
बुझा न सको आग तो, हवा न दीजिये।
छुपा लो जख्म-ओ-दर्द ज़ेहन 2 में कहीं,
यूँ ही पिघल कर, जू-ए-रवाँ3 न कीजिये।
कुचल देती है दुनिया हर ख्वाब को यहाँ,
यूँ ही अपनी आरज़ू को जवाँ न कीजिये।
बुज़दिल नहीं तुम चाहे लाख कहे ज़माना,
शेर हो तुम, खुद को यूँ अवा4 न कीजिये।
कौन समझेगा यहाँ दुख-दर्द को तुम्हारे,
यूँ ही ग़ैरों में इसे तुम बयाँ न कीजिये।
लबों पे प्यास और सर पर बादल रहेंगे,
दिल-ओ-दिमाग को, हमनवा5 न कीजिये।
1. रोग; 2. मन; 3. पानी की धारा; 4. गीदड़; 5. साथी।
यह ग़ज़ल मेरी पुस्तक ‘इंतज़ार’ से ली गई है। इस किताब की स्याही में दिल के और भी कई राज़, अनकहे ख़यालात दफ़्न हैं। अगर ये शब्द आपसे जुड़ पाए, तो पूरी किताब आपका इंतज़ार कर रही है। – पन्ना
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