अपने अश्क़ो को
अपने अश्क़ो को हम दफ़नाने आए हैं,
दर्द की नई फसल हम उगाने आए हैं।
चुनावी वादों को पूरा करेंगे आज वो,
अंधी भीड़ को जो आईने बंटवाने आए हैं।
इस बार खिलेंगे सूखी दरख़्तों 1 पर फूल,
मौसम गलियों में फिर से मुस्कुराने आए हैं।
इत्र की पेशकश करके जो गए थे हमसे,
आज फिर से तेज़ाब वो छिड़काने आए हैं।
छँट जाएगा ये अँधेरा चंद लम्हों में अब,
वो नज़्म-ए-रोशनी 2 जो लिखवाने आए हैं।
1. पेड़; 2. प्रकाश की कविता।
यह ग़ज़ल मेरी पुस्तक ‘इंतज़ार’ से ली गई है। इस किताब की स्याही में दिल के और भी कई राज़, अनकहे ख़यालात दफ़्न हैं। अगर ये शब्द आपसे जुड़ पाए, तो पूरी किताब आपका इंतज़ार कर रही है। – पन्ना
		
				
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