अपनों को दूर से

अपनों को दूर से रू-ब-रू 1 होते हुए देखा है,
हमने अपनी तमन्ना को लहू होते हुए देखा है।

इक कसक जो दिल में दफ़न थी कहीं पर,
दरारों से आज उसको झाँकते हुए देखा है।

इक वक़्त था कभी जब सारा जहाँ था अपना,
आज हमने अपनों को राहें बदलते हुए देखा है।

ज़िन्दगी ने हमारी ओढ़ ली ग़ुरबत 2 की चादर
हसरतों को अपनी नीलाम होते हुए देखा है।

रंग-ओ-रोशनी ने रुख़्सत3 ली ज़िंदगी से जब,
पन्ने पर सुर्ख़4 स्याही को तड़पते हुए देखा है।

 

1. आमने-सामने; 2. ग़रीबी; 3. विदाई; 4. लाल।

 

यह ग़ज़ल मेरी पुस्तक ‘इंतज़ार’ से ली गई है। इस किताब की स्याही में दिल के और भी कई राज़, अनकहे ख़यालात दफ़्न हैं। अगर ये शब्द आपसे जुड़ पाए, तो पूरी किताब आपका इंतज़ार कर रही है। – पन्ना

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