दो पल में लगी आग
दो पल में लगी आग, ज़माने में बुझती है,
रिश्तों में पड़ी गाँठ, कब-कहाँ खुलती है।
जो दे गया दग़ा हमें, वादा-ए-वस्ल 1करके,
तुम्हारी शक्ल उस से हू-ब-हू मिलती है।
निगल कर तमाम तारों को आसमाँ के,
सूरज की सूरत तब रौशनी में घुलती है।
करते हो क्यों तर-बतर जिस्म हम्माम2 में,
ग़लाज़त3 में बसी रूह, ऐसे कहाँ धुलती है।
निकलती है नज़्म-ए-दर्द जिस गली से,
ख़ुशबू-ए-इश्क़ उधर हवाओं में घुलती है।
1. मिलन का वादा; 2. स्नानघर; 3. गंदगी।
यह ग़ज़ल मेरी पुस्तक ‘इंतज़ार’ से ली गई है। इस किताब की स्याही में दिल के और भी कई राज़, अनकहे ख़यालात दफ़्न हैं। अगर ये शब्द आपसे जुड़ पाए, तो पूरी किताब आपका इंतज़ार कर रही है। – पन्ना
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