जाने कैसा शहर था

जाने कैसा शहर था, हर तरफ़ कहर था,
धूप ही धूप मिली, दोपहर का पहर था।

ख़ामोशी हर तरफ़, ख़ाक-सी फैली हुई,
कैसे हो गुफ़्तगू 1, हर जुबान पर जहर था।

घूम रहा हर शख़्स कटार को छुपाए हुए,
लाश के लाख ले लो, ऐलान मुश्तहर 2 था।

प्यासा था हर शख़्स शहर में फिरता हुआ,
सूख गए ताल सारे, आफ़ताब3अहर 4 था।

चिराग़ भी जलते नहीं रात भर इस शहर में,
तमाम रात मुकाबला तम5से ता-सहर6 था।

 

1. बातचीत; 2. सार्वजनिक; 3. सूरज; 4. बहुत गर्म; 5. अंधकार; 6. सुबह तक।

 

यह ग़ज़ल मेरी पुस्तक ‘इंतज़ार’ से ली गई है। इस किताब की स्याही में दिल के और भी कई राज़, अनकहे ख़यालात दफ़्न हैं। अगर ये शब्द आपसे जुड़ पाए, तो पूरी किताब आपका इंतज़ार कर रही है। – पन्ना

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