ख़्वाहिशें थीं कई

ख़्वाहिशें थीं कई, कब ख़त्म हुईं, ख़बर नहीं,
कब रूह जिस्म से रुख़्सत1 हुई, ख़बर नहीं।

उनसे दीदार2 की दरकार3 थी दिल को कभी,
कब ये तमन्ना टूटकर बिखर गई, ख़बर नहीं।

ज़ेहन में उनके ख़्याल आते रहते हैं अक्सर,
आँखें कब नम होकर बरस गईं, ख़बर नहीं।

बाँध के रखी थी पुड़िया में हमने उनकी यादें,
कब इसकी गिरह 4 खुल गई, ख़बर नहीं।

खेलती रहती है ज़िंदगी अजीब खेल हरदम,
जीत कब हमारी हार हो गई, ख़बर नहीं।

हो गई थी ज़िंदगी ख़ाक अरसे पहले ही,
ख़ाक में कब कली खिल गई, ख़बर नहीं।

1. विदा; 2. मुलाकात; 3. ज़रूरत; 4. गाँठ।

यह ग़ज़ल मेरी पुस्तक ‘इंतज़ार’ से ली गई है। इस किताब की स्याही में दिल के और भी कई राज़, अनकहे ख़यालात दफ़्न हैं। अगर ये शब्द आपसे जुड़ पाए, तो पूरी किताब आपका इंतज़ार कर रही है। – पन्ना

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