ख़ाहिश
सज़ा सी बन गई है अब जहाँ में प्यार की ख़ाहिश,
समझ आती नहीं मुझको कभी संसार की ख़ाहिश।
न जाने याद कैसी है हमेशा ही रुलाती है,
छुपा कर हाथ से चहरा सनम इक़रार की ख़ाहिश।
बहुत ज़ालिम है मेरी जान मुझको मार डालेगी,
सजाकर हाथ में मँहदी खुले इनकार की ख़ाहिश।
कहाँ चाहत कुई ऐसी न पूरी कर सको जो तुम,
ज़ियादा से ज़ियादा है तिरे दीदार की ख़ाहिश।
भवर में आ फसा हूँ अब उबारो तुम सनम मुझको,
बहुत जादा नहीं है कुछ तिरे बीमार की ख़ाहिश।
मुक़म्मल हो मिरे जज़्बात कोई तो इशारा दो,
रही काफ़िर पे बाकी अब यही उपकार की ख़ाहिश।
nice thought 🙂
thnQ so much