तुम हो मेरा प्यार ओ साजन!
एक वर्ष होने को आया, फिर साजन का स्वप्न सताया
बुझता जलता बुझता दीपक, फिर हमने इक बार जलाया।
आज मिलन की अग्नि अलौकिक, धधक उठी एक बार।
तुम हो मेरा प्यार, ओ साजन, तुम ही मेरा प्यार।
मन में उठी तरंगें इतनी तहस नहस हो जाती हैं
पीड़ा सहकर भी ये प्रज्ञा निसदिन ही मुसकाती है
विवश कदाचित प्रीति मेरी रजधूल बनी तेरे पग की
मेरे भाग के कुमकुम से वो अपनी मांग सजाती है।
वो तेरी बांहों में होकर लाज से अपना बदन भिगोकर
मोह पाश में जकड़ लिया क्या, तीव्र वेग से बाण चला कर।
नहीं कभी भी आता क्या अब तुमको मेरा विचार।
मन अर्पण तन पावन कर हम गंगाजल हो जाते थे
जब आते थे तुम समक्ष हम कितना खुश हो जाते थे।
भाव भंगिमा से निश्चित ही प्रेम प्रकट हो जाता था
नैन दीप से मिलने में ये नैन मेरे कतराते थे।
हर क्षण का अभिवादन करके, चरणामृत का स्वादन करके।
मूल रूप से मान कन्हैया, भक्ति भाव प्रतिपादन करके।
भूल गए क्या साजन तुम मेरा आदर सत्कार।
प्रश्न चिह्न अंकित मस्तक पर क्या है काल गर्भ गृह में
विस्मय बोधक बना हुआ प्रारब्ध मेरा भी संशय में।
अब अतीत की विडंबना भी मुझको आंख दिखाती है
धूमिल होती जाती प्रतिमा आपकी क्यों अंतर्मन में।
कौन हमारा उत्तर देगा, कौन हृदय की व्यथा सुनेगा।
टूटे मनके मालाओं से सज्जित हो इतिहास लिखेगा।
कौन बनेगा मेरे जीवन का अंतिम आधार।।
प्रज्ञा शुक्ला, सीतापुर
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