मेरी मौतों पर सरकारें


मेरी कलम नहीं उलझी है माशूका के बालों में,

मेरे लफ्ज नहीं अटके हैं राजनीति की जालों में,

मैने अपने अंदर सौ-सौ जलते सूरज पाले हैं,

और सभी अंगारे अपने लफ्जों में भर डाले हैं,

मैने कांटे चुन डाले फूलों का रास्ता छोड़ दिया,

जकड़ रहा था जो मुझको उस नागपाश को तोड़ दिया,

अब मैं जख्मी भारत के अंगों को गले लगाता हूं,

कवि हूं लेकिन मैं शोलों की भाषा में चिल्लाता हूं l

 

 

एक शहीद सैनिक दिल्ली से क्या कहना चाहता होगा इसी विषय पर मेरी एक कल्पना देखें-

 

सुलग उठी है फ़िर से झेलम हर कतरा अंगारा है,

हिमगिरी के दामन में फ़िर से मेरे खून की धारा है,

चीख रही है फ़िर से घाटी गोद में मेरा सिर रखकर,

पूछ रही है सबसे आखिर कौन मेरा हत्यारा है,

मेरे घर में कैसे दुश्मन सीमा लांघ के आया था,

छोटी सी झोली में बाईस मौतें टांग के लाया था,

क्या मेरा सीना उसके दुस्साहस का आभूषण था,

या मेरे ही घर में रहने वाला कोई विभीषण था,

मैं जब ये प्रश्न उठाता हूं तो उत्तर से डर जाता हूं,

ये दिल्ली चुप रह जाती है मैं चीख-चीख मर जाता हूं ll

 

 

मेरी मौतों पर अक्सर ये ढोंग रचाया जाता है,

कि मक्कारी वाली आंखों से शोक मनाया जाता है,

दिल्ली की नामर्दी मुझको शर्मिंदा कर देती है,

मेरी मौतों पर सरकारें बस निंदा कर देती हैं,

मैं इस जिल्लत का बोझ उठाये ध्रुवतारा हो जाता हूं,

ये दिल्ली चुप रह जाती है मैं चीख-चीख मर जाता हूं l

 

 

दुश्मन से गर लड़ना है तो पहले घर स्वच्छंद करो,

आस्तीन में बैठे हैं जो उन सांपों से द्वंद करो,

सैनिक को भी शत्रु-मित्र का शंका होने लगता है,

जहां विभीषण होते हैं घर लंका होने लगता है,

मतलब कुछ पाना है गर इन लहु अभिसिंचित द्वंदों का,

तो ऐ दिल्ली हथियार उठाओ, वध कर दो जयचंदों का,

मैं दुश्मन की बारूद नहीं छल वारों से भर जाता हूं,

दिल्ली तू चुप ही रहती है इसिलिये मर जाता हूं l

 

 

मेरी मां की ममता मेरे साथ दफ़न हो जाती है,

बूढे बाप की धुंधली आंखें श्वेत कफन हो जाती हैं,

जल जाती हैं भाई-बहनों, बेटी की सारी खुशियां,

मेरी विधवा जीते जी ही मृतक बदन हो जाती है,

मेरा घर मर जाता है जब कंधों पर घर जाता हूं,

दिल्ली तू चुप ही रहती है इसिलिये मर जाता हूं l

 

 

दिल्ली वालों आंखें खोलो सेना का सम्मान करो,

चार गीदड़ों के हमले में बाईस सिंहों को मत कुर्बान करो,

मेरी गज़ल दिशा देती है, बहर बताती है तुमको,

कि विरह वेदना बंद करो अब युद्ध गीत का गान करो,

जब भारत माता की खातिर मरता हूं तो तर जाता हूं,

पर ऐ दिल्ली तू चुप रहती है इसिलिये मर जाता हूं l

 

 

ये क्यूं हर हमले पर तुमने बस बातचीत की ठानी है,

अरे लातों के भूतों ने आखिर कब बातों की मानी है,

लेकिन तुम भी कुत्ते की ही दुम हो, आदत छोड़ नहीं सकते,

यही वजह है की सीमा पर दुश्मन की मनमानी है,

मैं हाथों में हथियार लिये भी लाश बिछाकर जाता हूं,

दिल्ली तू चुप ही रहती है इसिलिये मर जाता हूं l

 

 

दिल्ली गर देना है तुझको मरहम मेरे दर्दों को,

तो सेना से कह दो कि मारो चुन-चुन दहशतगर्दों को,

प्रेमशास्त्र को पीछे रखकर सीमा लांघ चले जाओ,

और अभी औकात बता दो इन हिजड़े नामर्दों को ll

 

 

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      -Er Anand Sagar Pandey

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