जीवन से हम क्या लिए

November 28, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

जद्दोजहद में जीवन के अनमोल लम्हेरुठते चले गए,
और मैं बेखबर मोहरों के चाल में उलझी,
पढ़ाव दर पढ़ाव उलझती चली गयी,
जीत -हार से क्या मिले,
चाहे जितनी शीतल बयार चले,
एक झोंका गर रूह को न छुए,
तो जीवन से हम क्या लिए।

दाँव दर दाँव चले,
हार-जीत बीच जीवन से सिर्फ शिकवे-गिले किये,
जीवन के खेल में जब अंतिम पढ़ाव से जा मिले,
सब मोहरे गिरे पड़े,
जीवन से हम क्या लिए।

एकाकी मैं से तब मिले,
जब स्याह अँधेरी रात भयी,
अनन्त विस्तृत जगत में जीवन भी पसर चला
स्वतंत्र मैं शाश्वत अनंत में जा मिला,
निशब्द मैं,स्तब्द जब,
जीवन से हम क्या लिए।

तकनीकी की लय

June 28, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

तकनीकी की लय में रिश्ते अब ढल रहें हैं ,

पीर की नीर हो अधीर जल धारा बन बह रही है,

मन्तव्य क्या, गन्तव्य क्या,

भावनाओ की तरंगे सागर की लहरो सी, विक्षिप्त क्रंदन कर रही हैं।

तकनीकी की प्रवाह में संवेदनाएं ढल रहीं है,

मौन प्रकृति के मन को जो टटोल सकें वो मानस कहाँ बन रहें हैं,

आधुनिकता की होड़ में नव कल से मानव ढल रहे हैं,

शुष्क मन संवेदनहीन जन कल से यूँँ हीं चल रहें हैं,

तकनीकी के लय में कल से जीवन ढल रहें हैं।

ममता

May 8, 2018 in हिन्दी-उर्दू कविता

एक युवती जब माँ बनती है,
ममता के धागों से बच्चे का भविष्य बुनती है,
ज़ज्बात रंग -बिरंगे उसके,
बच्चे के रंग में ढलते हैं,
दिल के तारों से हो झंकृत,
लोरी की हीं गूंज निकलती,
माँ अल्फाज़ में जैसे हो,
दुनियां उसकी सिमटती चलती ,
फिर क्या, नयनों में झिलमील सपने,
आँचल में अमृत ले चलती ,
पग -पग कांटे चुनती रहती,
राहों की सारी बाधाएं,
दुआओं से हरती चलती,
हो ममता के वशीभूत बहुत,
वो जननी बन जीवन जनती है,
एक युवती जब माँ बनती है,
ममता के धागों से बच्चे का भविष्य बुनती है।।

भारत को स्वच्छ बनाना है

March 9, 2018 in हिन्दी-उर्दू कविता

चलो उठो ये प्रण कर लें हम
भारत को स्वच्छ बनाना है,
धरती माँ के आँचल को
हरियाले,फल-फूलों से सजाना है,
प्रदूषण की जहरीली हवा से
पर्यावरण को मुक्त बनाना है,
तन स्वच्छ तो करते सब हैं
मन को स्वच्छ बनाना है।

चलो उठो ये प्रण कर लें हम
भारत को स्वच्छ बनाना है,
इस धरा के कण -कण में
नव जीवन का संचार है,
व्यर्थ नहीं कुछ इस जगत में,
कचरे को भी नयी पहचान दें,
पुनः नया कर उसके भी
अस्तित्व को सम्मानदें।

चलो उठो ये प्रण कर लें हम
भारत को स्वच्छ बनाना है,
वासुदेव कुटुम्बकम के मन्त्र को
सच करके दिखाना है,
मन को दर्पण बना लें
जन -जन को खुद में निहारें,
द्वेष कलह को जड़ से उखाड़े।

चलो उठो ये प्रण कर लें हम
भारत को स्वच्छ बनाना है,
पर्वत नदियाँ झीलों को
निर्मल नैसर्गिक रहने दें,
वन जीवों को धरती माँ के
ममता तले पलने दें,
हम जीवों में श्रेष्ट बनें हैं
श्रेष्टता का परिचय कुछ तो रहनें दें।।

जीवन

February 3, 2018 in हिन्दी-उर्दू कविता

सागर लहरें आग पानी
जीवन की बस यही कहानी,
ये जो है झीनी चादर जिंदगानी
हमने- तुमने मिल बुनी है,
रेशे-रेशे में घुली है
तेरे-मेरे जज़्बातों की जवानी।

सागर लहरें आग पानी
जीवन की बस यही कहानी,
चांदनी रातों के परों पर
कितने अरमां की निशानी,
ले उड़ी उन फलों की
मीठी-मीठी सी कहानी।

सागर लहरें आग पानी
जीवन की बस यही कहानी,
चादर के हम छोरों को पकड़े
वक्त के मोड़ों में जकड़े,
सिलवटों से कितने सपने
ढों रहे हम अपने-अपने।

सागर लहरें आग पानी
जीवन की बस यही कहानी,
ये जो है झीनी चादर जिंदगानी
संजोए है युगों-युगों की कहानी,
छोरों को थामें है जिंदगानी
छुट गई तो खत्म कहानी।।

गणतंत्र दिवस

January 24, 2018 in हिन्दी-उर्दू कविता

गणतंत्र दिवस की अरुणिम उषा में,
राजपत की छवि निराली ,
हर रंगों की वेशभूषा में ,
भारत माता की छवि है प्यारी ,
उस पर तिरंगे का नील गगन में लहराना ,
जय हिन्द .जय भारती की,
स्वरलहरी से गुंजित दिशाएं ,
हर जन के मन में,
भारतवासी होने का अभिमान जगाए।

भारत माँ के हर अंगों की,
छटा बड़ी मनोहारी है,
रंग – बिरंगे फूलों के अलंकार ने,
अद्धभुत छटा बनाई है।

भारत की सुंदरता गणतंत्र की ,
प्रजातंत्र में समायी है ,
गणतंत्र के नियमों की ,
सजदे करते यहाँ सब भाई हैं ,
भाई-चारे , सौहार्द की सौगात ,
हमने धरोहर में पाई है।

ये धरोहर न लुटने पाए ,
गणतंत्र के नियमों तले ,
हर क्यारी फुले -फले,
इन्द्रधनुषी रंगों में ,
भारत माता यूँ हीं सजती रहें।.

आओ हम सब मिलकर ,
भारत माँ के अलंकार बनें ,
तिरंगे की शान में ,
चाँद-सितारों के अरमान भरें ,
अपने गणतंत्र पर अभिमान करें।

नव

December 29, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता

नभ के अरुण कपोलों पर,

नव आशा की मुस्कान लिए,

आती उषाकाल नव जीवन की प्यास लिए,

दिनकर की अरुणिम किरणों का आलिंगन कर,

पुष्प दल मदमस्त हुए,डोल रहे भौंरे अपनी मस्ती में,

मकरन्द का आनंद लिए,

नदियों के सूने अधरों पर ,चंचल किरणें भर रहीं ,

नव आकांक्षाओं का कोलाहल,

जीव सहज हीं नित्य नवीन​ आशाओं के पंख लगाकर

भरते उन्मुक्त गगन में स्वपनों की उड़ाने,

नये-नये नजरिए से भरते जीवन में नव उन्माद सारे ,

चकित और कोरे नयनो में लिए सुख का संसार ,

डोल रहे हम सब धरा पर,

भरने को नव जीवन का संचार ।।

नया साल

December 24, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता

पल महीने दिन यूँ गुजरे,
कितने सुबह और साँझ के पहरे ,
कितनी रातें उन्नीदीं सी,
चाँदनी रात की ध्वलित किरणें,
कितने सपने बिखरे-बिखरे,
सिमटी-सिमटी धुँधली यादें,
कुछ कर जाती हैं आघाते ,
कभी सहला ,कर जातीं मीठी बातें,
हौले-हौले साल यूँ गुजरा,
जाते-जाते रूला गया,
नये साल की नयी सुबह से,
दामन अपना छुड़ा गया,
कितने सपने दिखा गया ।

नये साल की नयी सुबह के ,
दहलीज पर आ गए हम,
अनगिनत उम्मिदें बाँध खड़े हम,
कितने सपने इन आँखो के,
धुँधले कुछ है रंग भरे,
उम्मीदों की दरिया में ,
सब,बहने को आतुर बड़े ,
मन बाँवरा गोते खाता,
डूबता और फिर उतराता ।

चलो ठीक है बहने दो,
पल, महीने,दिन में डलने दो,
किस्मत किसकी कब खुल जाए,
मेहनत तो करने दो,
आशाओं की दरिया में ,
जीवन को बहने दो ।

चलो काल के गर्त में सीपियाँ ढूंढे,
कब कोई अनमोल मोती हाथ लग जाये ,
बहते-बहते क्या पता कोई नया तट मिल जाए,
चलो नये साल के पल, महीने,दिन में ढलते हैं,
सुबह-साँझ के पहरे से हम कब डरते हैं,
चलो आशाओं की दरिया में ,जीवन संग बहते हैं ।।

स्पर्श

December 6, 2017 in Other

जीवन की पथरीली राहों पर,
जब चलते-चलते थक जाऊँ,
पग भटके और घबराऊँ मैं,
तब करुणामयी माँ के आँचल सा स्पर्श देना,
ऐ ईश मेरे ।

जब निराश हो,
किसी मोड़ पर रूक जाऊँ,
हताश हो, कुण्ठाओं के जाल से,
न निकल पाऊँ मैं,
तब सूर्य की सतरंगी किरणों सा,
स्फूर्तिवान स्पर्श दे,
श्री उमंग जगा देना,
ऐ ईश मेरे।

जब चंचल मन के अधीन हो,
अनंत अभिलाषाओं के क्षितिज में,
भ्रमण कर भरमाऊँ मैं,
तब गुरु सम निश्छल ज्ञान का स्पर्श देना,
ऐ ईश मेरे ।

जब जीवन के रहस्यमय सागर में,
डूबूँ उतराऊँ और गोते लगा-लगा,
थक जाऊँ मैं,तब नाविक बन,
पूर्ण प्रेम का स्पर्श दे,
मेरी नईया तीर लगाना,
ऐ ईश मेरे ।।

my video on youtube

December 1, 2017 in Other

अब

May 16, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता

अब ममता की छांँव और आत्मीयता को छोड़,

व्यवसायिक मुकाम हासिल करने में जुटी जिंदगी ।

अब कुदरती हवा और चाँदनी रात के नज़ारों को भूल,

वातानुकूलित कमरे और दूरभाष में जुटी जिंदगी ।

अब आधुनिकता की जद्दोजहद में खुशी-ग़म

बाँटना भूल, अपने आप में सिमटती जिंदगी ।

अब भीतर से खोखली होती,

दिखावटी मुखौटों से सुसज्जित होती जिंदगी।

अब वात्सल्य, स्नेह, प्रेम बंधनों को तोड़,

खुदगर्ज होती जिंदगी ।

अब मानसिक असंतुलन के बाढ़ में बहती  जिंदगी।

अब भावनाओं के बिखराव में ,

मानसिक स्थायित्व ढूंढ़ती जिंदगी ।।

क्या-क्या छुपा रही थी

May 3, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता

न जाने क्या-क्या छुपा रही थी,
गर्मी की सुबह, वो शाल ओढ़े जा रही थी,
धूल से पाँव सने थे,चंचल नयन बोझिल हुए थे,
भूख से पेट धँसे थे,चकित हो मैं देख रही थी,
मन ही मन ये पूछ रही थी,
क्या यह ठंड से बचने की जुगत है या,
तन ढकने को वो विवश है,
कैसा अपना ये सभ्य समाज है,
कोई नित्य नये परिधान बदलते,
कुछ लोग वहीं टुकड़ो में ही पलते।

न जाने क्या-क्या छुपा रही थी,
तन पर कितने गर्द पड़े थे,
उसको इसकी कहांँ फिकर थी,
मन की पर्तों से हो आहत,
जीवन से नित्य जूझ रही थी,
कमसिन वह अधेड़ हुई थी,
खुद से खुद को ठग रही थी ।

न जाने क्या-क्या छुपा रही थी,
अंँधियारे रातों के साये में,
दामन अपना ढूंढ़ रही थी,
दिन के उजियारे में ,
टुकड़ो से तन ढक रही थी,
ठौर कहांँ है कहाँ ठिकाना,
उसको इसकी कहाँ फिकर थी,
वो तो यूँ हीं चल रही थी,
न जाने क्या-क्या छुपा रही थी ।।

क्या-क्या छुपा रही थी

May 3, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता

न जाने क्या-क्या छुपा रही थी,
गर्मी की सुबह, वो शाल ओढ़े जा रही थी,
धूल से पाँव सने थे,चंचल नयन बोझिल हुए थे,
भूख से पेट धँसे थे,चकित हो मैं देख रही थी,
मन ही मन ये पूछ रही थी,
क्या यह ठंड से बचने की जुगत है या,
तन ढकने को वो विवश है,
कैसा अपना ये सभ्य समाज है,
कोई नित्य नये परिधान बदलते,
कुछ लोग वहीं टुकड़ो में ही पलते।

न जाने क्या-क्या छुपा रही थी,
तन पर कितने गर्द पड़े थे,
उसको इसकी कहांँ फिकर थी,
मन की पर्तों से हो आहत,
जीवन से नित्य जूझ रही थी,
कमसिन वह अधेड़ हुई थी,
खुद से खुद को ठग रही थी ।

  1. न जाने क्या-क्या छुपा रही थी,
    अंँधियारे रातों के साये में,
    दामन अपना ढूंढ़ रही थी,
    दिन के उजियारे में ,
    टुकड़ो से तन ढक रही थी,
    ठौर कहांँ है कहाँ ठिकाना,
    उसको इसकी कहाँ फिकर थी,
    वो तो यूँ हीं चल रही थी,
    न जाने क्या-क्या छुपा रही थी ।।

ग्रीष्म ऋतु

April 26, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता

ग्रीष्म ऋतु की खड़ी दोपहरी,

सुबह से लेकर शाम की प्रहरी,

सूरज की प्रचंड किरणें,

धरती को तपा रहीं हैं,

फसलों को पका रहीं हैं ं,

गुलमोहर की शोभा निराली,

आम, लीची के बाग-बगीचे​,

खग-विहग हैं उनके पीछे,

माली काका गुलेल को ताने,

करते बागो की रखवाली,

कोयल की कूक सुहानी,

कानों में रस है घोलती,

गर्म हवाएंँ ,धूल और आँधी,

ग्रीष्म ऋतु की हैं  ं साथी,

ताल-तलैया सूख रहें हैं,

बारिश की बूंँदों की आस में,

जल वाष्प बनाकर आसमान को सौंप रहे हैं,

गोधुलि में जब सूरज काका,

अपनी ताप की गात ओढ़ कर,

घर को वापस चल देते,

चँदा मामा चाँदनी संग,

तारों से आकाश सजाते,

गर्म हवा ठंडी हो जाती,

शाम सुहानी ग्रीष्म ऋतु की,

सबके मन को है भाती,

हर मौसम का अपना रंग है,

अपने ढंग से सब हैं आते,

अपना-अपना मिजाज दिखाते,

जीवन में हर रंग है जरूरी,

हमें यह सीख दे जाते ।।

हँस लिया करो

April 7, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता

https://ritusoni70ritusoni70.wordpress.com/2017/04/06

कभी यूँ हीं हँस लिया करो,

उदासी का दामन छोड़,

खुशियों से मिल भी लिया करो,

बहुत छोटी है जिन्दगी,

जीने की तमन्ना बुन भी लिया करो।

कभी यूँ हीं हँस लिया करो,

गुम-सुम रहना,

पल-पल सहेजे,

जज्बातों में बहना,

ठीक नहीं है इन हालातों में रहना ।

कभी यूँ हीं हँस लिया करो,

ख्वाबों के पंख उतार,

हकीकत की जमीन पर चल लिया करो,

माना पथरीली है जमीन,

पर राहों की दुश्वारियां ,

कुछ सीखा जायेंगी,

जीने की कला बता जायेंगी,

ख्वाबों में रहना जीना नहीं है,

जीने का मकसद कुछ भुला देना,

कुछ सीखते रहना है,

जीवन का दामन थाम,

बस चलते रहना है,

कभी यूँ हीं हँस लिया करो।।

Martyr’s Day Contest: Reply to Saavan team’s request

March 23, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता

Dear All,

This is in reply to Saavan team’s request to share the ways I used for promotions of my poem for Martyr’s Day Contest.  It was a joint effort of me, my daughter and my younger brother. I run a personal blog by the name – Jeevan Dhara, which has an active viewership of 5k people and also, I am an active contributor to various fb poetry pages. For the contest, I tried to personally reach out to my friends from these communities.

My daughter is a Unesco India fellow and has been extensively writing for various online magazines – YouthKiAwaaz, Inc42, Nextbigwhat. Given to her active online work and following, she has been able to get a big percentage of the likes.

Also, my brother is a reputed doctor with over 7 years of experience and a strong network of patients and friends, who have been kind enough to like and appreciate the poem.

For more clarity, you may visit our respective facebook profiles and see the likes on the posts –

Santosh Gupta: https://www.facebook.com/santoshgupt/posts/1480607521981851

Yatti Soni: https://www.facebook.com/yattisoni11/posts/1681781675170315

Ritu Soni: https://www.facebook.com/nilu.soni.739/posts/656637384519445

Thanks 🙂

 

 

 

वो माटी के लाल

March 18, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता

वो माटी के लाल हमारे,

जिनके फौलादी सीने थे,

अडिग  इरादो ने जिनके,

आजादी के सपने बूने थे,

हाहाकार करती मानवता,

जूल्मो-सितम से आतंकित

थी जनता, भारत माता की

परतंत्रता ने उनको झकझोरा था,

हँसते-हँसते फाँसी के फँदे

को उन्होंने चूमा था,

वो माटी के लाल हमारे,

राजगुरू, सुखदेव,भगतसिंह ,

जैसे वीर निराले थे ,

धधक रही थी उनके,

रग-रग में स्वतंत्रता

बन कर लहू, वो दीवाने थे,

मतवाले थे, भारत माता के,

आजादी के परवाने थे,

बुलन्द इरादों ने जिनके,

स्वतंत्रता की मशाल जलायी थी ,

भारत माता की बेड़ियों को,

तोड़ने की बीड़ा उठायी थी,

अंग्रेजों के नापाक मनसूबों को,

खाक में मिलाने की कसम खायी थी,

वो  देश के सपूत हमारे,

माटी के लाल अनमोल थे,

देश हित में न्यौछावर,

करने को अपने प्राणों की

बाजी लगायी थी, वो माटी के लाल,

हमारे माँ के दूध का कर्ज,

उतार चले,उनके जज्बों को

शत-शत नमन, बुलंद इरादों

को सलाम है,हर एक भारतवासी को,

उनके कारनामों पर गुमान है ।

आज फैल रही भ्रष्टाचार,

नारियों की अस्मिता पर,

हो रहे प्रहार से पाने को निजाद,

माँ भारती पुकार रही,

फिर अपने दिवाने,आजादी के

परवाने ,उन माटी के लालों

का  पथ निहार रही ।।

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संसार के बाजार में दहेज

March 15, 2017 in Poetry on Picture Contest

इस जहांँ के हाट में ,

हर  चीज की बोली लगती है,

जीव, निर्जीव क्या काल्पनिक,

चीजें भी बिकती हैं,

जो मिल न सके वही ,

चीज लुभावनी लगती है,

पहुँच से हो बाहर तो,

चोर बाजारी चलती है,

हो जिस्म का व्यापार या,

दहेज लोभ में नारी पर अत्याचार,

धन पाने की चाहे में,

करता इन्सान संसार के बाजार में,

सभी हदों को पार,

दहेज प्रथा ने बनाया,

नारी जहांँ में मोल-भाव की चीज,

ढूँढ रही नारी सदियों से,

अपनी अस्तित्व की थाह,

सृष्टि के निर्माण में है,

उसका अमूल्य योगदान,

फिर भी देती आ रही,

अपनी अस्तित्व का प्रमाण,

सदियों से होती आ रही,

उसकी अस्मिता तार-तार,

फिर भी नहीं थकती,

न हारती, होती सशक्त हर बार,

ये संसार नहीं , चोरो  का है बाजार ,

लाख बनाए दुनिया दहेज को,

नारी को गिराने का हथियार,

नहीं मिटा ,न गिरा सकेगा,

नारी को कोई भी हथियार ।।

 


 

 

 

 

 

आओ तन मन रंग लें

March 6, 2017 in Poetry on Picture Contest

चली बसंती हवाएँ ,

अल्हड़ फागुन संग,

गुनगुनी धूप होने लगी अब गर्म,

टेसू ,पलाश फूले,

आम्र मंज्जरीयों से बाग हुए सजीले,

तितली भौंरे कर रहे ,

फूलो के अब फेरे ,

चहुंँ दिशाओं में फैल रही,

फागुन की तरूणाई,

आओ तन मन रंग लें,

हम मानवता के रंग ,

भेद-भाव सब भूल कर,

आओ खेलें रंगों का ये खेल ,

प्रेम , सौहार्द के भावों से,

हो जाए एक-दूजे का मेल,

होली पर्व नहीं बस रंगो का खेल,

प्रेम , सौहार्द के भावों का है ये मेल ।।

 

 

 

सूखी धरती सूना आसमान

February 28, 2017 in Poetry on Picture Contest

सूखी धरती सूना आसमान,

सूने-सूने किसानों के  अरमान,

सूख गयी है डाली-डाली ,

खेतों में नहीं  हरियाली,

खग-विहग या  हो माली,

कर रहे घरों  को खाली,

अन्नदाता किसान हमारा,

खेत-खलियान है उसका सहारा,

मूक खड़ा  ये  सोच रहा है,

काश  आँखों में हो  इतना पानी,

धरा को दे  देदूँ मैं हरियाली,

अपलक आसमान निहार,

बरखा की करे गुहार,

आ जा काले बादल आ,

बरखा रानी की पड़े फुहार,

धरती मांँ का हो ऋंगार,

हम मानव हैं बहुत नादान,

करते प्रकृति से छेड़छाड़,

माना  असंवेदनशील हैं हम मानव,

पर तुम तो हो पिता समान,

बदरा-बिजली लाओ आसमान,

बरखा बिन है कण-कण बेहाल,

ताल-तलैया सूख रहें हैं,

भँवरे, मेंढक, तितली, कोयल,

मोर, पपीहा सब कर रहे पुकार,

आओ बरखा रानी आओ,

जीवन में हरियाली लाओ,

सूखी धरती सूना आसमान,

सूने-सूने किसानों के अरमान ।।
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ढ़ूँढ रही मैं

February 23, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता

ढ़ूँढ रही मैं बावरी,
अपने हिस्से का,
स्वर्णिम आकाश,
टिम-टिम करते तारे,
हाय! सुख-दुख के,
बन गए पर्याय ,
तम घनेरा ऐसे ,
छाय जैसे चन्द्र में
ग्रहण लग जाए,
मौसम आए मौसम जाए,
कभी न सरसो फूली हाय!
हरियाली की एक नज़र को,
तमन्नाएँ तरसती रह जाएँ,
झूम कर बारिश की आशाएँ,
बादल गरजें और बूँद-बूँद,
गिर कर रह जाए,
एक बूँद भी अगर,
मिल जाए,समझो,
जीवन तृप्त हो जाए,
ख्यालों के विस्तृत ,
दायरे में ढ़ूँढू अपना ,
परिचय मिल न पाए,
दशकों से मैं  बावरी,
ढूँढ रही अपने हिस्से,
का स्वर्णिम आकाश,
जब भी पाऊँ, धूमिल,
हीं पाऊँ, ढूँढू और,
ढूँढती हीं जाऊँ ।।

https://ritusoni70ritusoni70.wordpress.com/2016/05/18

बच्चे हम फूटपाथ के

February 20, 2017 in Poetry on Picture Contest

बच्चे हम फूटपाथ के,

दो रोटी के वास्ते,

ईटे -पत्थर  तलाशते,

तन उघरा मन  बिखरा है,

बचपन  अपना   उजड़ा है,

खेल-खिलौने हैं हमसे दूर,

भोला-भाला  बचपन अपना,

मेहनत-मजदूरी करने को है मजबूर

मिठई, आईसक्रीम और गुबबारे,

लगते बहुत लुभावने ,

पर बच्चे हम फूटपाथ के,

ये चीजें नहीं हमारे  वास्ते,

मन हमारा मानव का है,

पर पशुओं सा हम उसे पालते,

कूड़ा-करकट के बीच,

कोई मीठी गोली तलाशते,

सर्दी-गर्मी और बरसात,

करते हम पर हैं वर्जपात,

पग -पग काँटे हैं चुभते,

हम फिर भी हैं हँसते,

पेट जब भर जाए कभी,

उसी दिन त्योहार है समझते,

दो रोटी के वास्ते पल-पल जीते -मरते,

बच्चे हम फूटपाथ के ।।

जगह अपनी बनानी पड़ती हैं

February 16, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता

इस जीवन नाटक में,

जगह अपनी बनानी पड़ती है,

अस्तित्व अपनी मनवानी पड़ती है,

कितना हीं गुणवान हो कोई,

लोगों की नजर में हुनर अपनी,

आजमावानी पड़ती है,

गहने बनने को जैसे,

सोने को तपना पड़ता है,

तारे को अस्तित्व मनवाने को,

चमकना  पड़ता है,

कोरे सच्चे होने का,

दिल के अच्छे होने का मूल्य नहीं है,

नाटक में जगह पाने को,

अपनी कला दिखानी पड़ती है,

जीवन जीने की होड़ में,

खुद की बोली लगानी पड़ती है,

नाटक में अपनी जगह बनानी पड़ती है ।।

ritusoni70ritusoni70@wordpress.com

आँसू

January 3, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता

इस हृदय क्षितिज के,

शून्य तल पर काली घटाएं,

हैं जब-जब छातीं ,

हृदय पटल को विदीर्ण कर,

वेदना ऐसे अकुलाती,

जैसे काली घटाओं बीच,

दामिनी  है कड़कड़ाती,

अविरल बरसती  नयनो के,

बाँध तोड़  जाती ।

हृदय क्षितिज के शून्य,

पटल पर व्यथा कथा,

की भूली बिसरी यादें,

ऐसे फिर-फिर आती,

जैसे चट्टानों के बीच,

ध्वनि है खुद को दोहराती ।

सागर के अन्तर में जैसे,

है द्रवित पलों की ज्वार भाटा,

विह्वल  लहरों का है कोलाहल,

ऐसे ही इस हृदय में ,

है अभिलाषाओं की,

क्रंदन क्रीड़ा, विस्मृत,

पलों की पीड़ा ।

इन विस्मृत यादों को,

कौन है उकसाता,

यदा-कदा भ्रमित कर,

उनमें नव आस है जगाता,

वह है चैतन्य अबोध मन हमारा,

जो रह-रह कर भरमाता ।

विस्मृत व्यथित पलों का,

जगना है सुख का होना सपना,

मृगतृष्णा थी ,उन उमंगित,

मादकता भरे. क्षणों में बहना ।।

https://ritusoni70ritusoni70.wordpress.com/2016/12/29

माँ हूँ मैं

December 19, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

ममता की छाँव तले ,

समता का भाव लिए,

इंसानियत का सभी में,

संचार चाहती हूँ,

माँ हूँ मैं,हाँ भारत माँ,

एकता और सदभाव का,

प्रवाह चाहती हूँ ।

माँ हूँ मैं,हाँ प्रकृति माँ,

संरक्षण की चाह है,

जो भी है अपनी संपदा,

जल, वायु, धरा का,

सभी में समान रूप से,

सदुपयोग चाहती हूँ

जीवन संरक्षण करने में,

सभी का सहयोग चाहती हूँ ।

माँ हूँ मैं,हाँ देवी माँ,

सुख समृद्धी का आशीर्वाद,

लुटाती हूँ,करबद्ध प्रार्थना न,

फल-फूल अलंकार का,

प्रसाद चाहती हूँ,

प्रेम भाव से समर्पित ,

निश्चल मन चाहती हूँ,

माँ हूँ मैं,हाँ माँ,

सभी में एकरसता और,

प्रेम का समावेश चाहती हूँ ।।

https://ritusoni70ritusoni70.wordpress.com/2016/12/09

जीना इसे कहते हैं

December 19, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

जिसे हम जीना कहते हैं,
वो पल-पल मरना है जानो,
निज हित में रत रहना,
खाना, सोना , जगना ये,
जीना नहीं है मानो ।

सृष्टि की श्रेष्टतम रचना का,
मूल्य तो तुम अॉको,
जग हित में जो अपना,
तन-मन अर्पण कर दे,
प्राणियों के हित में,
जीवन समर्पण कर दे,
नई डगर मानव के ,
हित गढ़ दे,सूने जीवन में,
किसी के आशाएँ भर दे,
जीना इसे हीं कहते हैं।

जो न कुछ कर पाओ,
तो तुम सदभावना तो बाँटो,
अहिंसा के पथ पर चल कर,
लाचारो के दर्द छाँटो।

जीना उसे कहते हैं जो,
मानव होने का फर्ज,
पूरा कर दे,उस रचनाकार ,
का कर्ज पूरा कर दे ।।

https://ritusoni70ritusoni70.wordpress.com/2016/12/19

शाखों के पीले पत्ते

November 30, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

शाखों के हरियाले पत्ते,

जो हैं आज पीत हुए,

शीत-ग्रीष्म सहते -सहते,

बदरंग और अतीत हुए,

उन पतझड़ के नीरस ,

पत्तो में भी था आस कभी,

जिन शबनमी अश्को का,

नयनो में था आवास कभी,

बिखर चुके हैं सूख गए हैं,

हाँ उन पर भी था नाज़ कभी,

जिन स्मृतियो से हो जाते हैं,

सजल नयन अभी,उनमें भी,

सजते थे सपने,जगते थे प्यास कभी ,

जिन स्वरो की मादकता का,

होता नहीं आभास अभी,

देती थी वो व्याकुल मन को,

रसमय संगीत का आभास कभी,

वो प्रेम ज्ञान भ्रमित करती,

जो हँस कर देती हूँ टाल अभी,

हाँ, संजो लेती थी अनमोल जानकर,

उन बातों को मैं कभी,

पतझड़ में शाखों से पीले पत्ते,

जैसे गिरते झर-झर कर,

छॉट दिया मैंने अन्तर से,

पीले स्मृतियो के सब दल,

कितने सावन और बसंत,

आते-जाते जीवन में,

फिर एक तुम्हीं से क्यों,

मन विहवल छाते क्यों अनन्त घन,

बनना-मिटना तो है एक क्रम,

शाखों पर फिर पतझड़ का क्या ग़म ।।

सदा के हो चले

November 10, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

खुदी को मिटा कर,

रम जाऊँ जहाँ में,

खूशबू बन कर,

समा जाऊँ फिज़ा में,

कि सदा बन कर,

बस जाऊँ आहो में,

खुशी और गम़ का,

सहारा न रहा,

साहिल का साथ,

अब गवारा न रहा,

कि विशाल क्षितिज का,

किनारा न रहा,

आशा-निराशा  अब,

हमारे   न.  रहे ,

हम हैं सभी के,

सब हमारे हो रहे,

जन्म -जन्मान्तर के,

फलसफे फसाने हो चले,

हम सदा से रहे,

सदा के हो चले,

हम खुदी को मिटा कर,

खूशबू बन फिज़ा के हो चले ।।

परिहास बनी

November 10, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

परिहास बनी

पल दो पल के,

उन्मादित पलों को,

प्रेम समझ परिहास बनी,

कोमल एहसासों को अपने,

पाषाण में तराश  रही,

क्षणभंगुर जगत में,

अमरता मैं तलाश रही,

प्रेम -विरह की पीड़ा,

जीवन में अवसाद बनी,

कुसुमित एहसासों के पल,

है मुझ पर अब भार बनी,

सोते -जगते नयनो में,

सपने जो जगमग दिन-रात करें,

जुगनू बन भ्रमण करें,

अब उनका रस्ता मैं ताक रही,

छिन्न हुए हालातों को,

कब से हँस-हँस कर,

मैं  टाल  रही,

अवसादो से भरे पलों को,

जीवन में ढाल रही,

तन्मयता अमिट प्रेम की,

जीवन से मैं हार चली,

पल दो पल के,

उन्मादित पलों को,

प्रेम समझ परिहास बनी ।।

अपना क्या है

October 27, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

जीवन में अपना क्या है,

एहसासों का सपना जो है,

खट्टी-मीठी यादों की जाल,

और कुछ सुनहरे भविष्य की आस,

मन में संजोए जीने की प्यास,

बुनते हम नित्य नए अरमानों के जाल ,

जीवन में अपना क्या है,

सोते -जगते सपनो की खान,

नित्य कर्मों में भरते प्राण. ,

अरमानों की हवाई उड़ान,

बनी रहे ज़ज्बातों की शान,

जीवन में अपना क्या है,

चंद साँसो में उलझी जान,

बुझी-अनबुझी सी प्यास,

ख्यालों के भँवर में रमती,

बनती- बिगड़ती  आस,

जीवन में अपना क्या है,

एहसासों का सपना जो है ।।

विचारों को जब

October 16, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

विचारों को जब बाँध रही थी,

अरमानों के साँचे ढाल रही थी,

खिन्न हुई, उद्वगिन हुई  जब,

खुद को मैं आँक रही थी ।
विचारों को खोल  चली जब,

निरन्तर  प्रवाह से जोड़ चली जब,

आशा-निराशा  छोड़ चली जब,

जीवन संग आन्नदित हूँ।
कर्तव्यो की जो होली है,

रंग-बिरंगी  आँख मिचोली है,

संग मैं हूँ, जीवन की जो भी बोली है ।।

https://ritusoni70ritusoni70.wordpress.com/2016/10/15/


 

एक रस होने की आस

October 4, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

वो पूर्ण शक्ति जब बिखर गया,

कण-कण में  सिमट गया ,

तब हुआ इस जग का निर्माण,

वो परमपिता सृजनकर्ता जो,

नित्य सूर्य बन अपनी किरणो से,

नव स्फूर्ति का जीवो में करता संचार,

वो ममतामयी चाँद की चाँदनी बन,

स्नेहिल शीतलता का आँचल फैलाए,

हम जीवो को सहलाता,

टिम-टिम तारो के मंद प्रकाश में,

नयनो में निद्रा बन समाता,

खुली नयनो के अनदेखे सपने,

ले आगोश में हमें दिखाता,

पूर्ण प्रेम जो कण-कण में बिखरा,

एक रस होने की आस जगाता,

तनमयता. को प्रयासरत जीव,

घुलने को, मिटने को,

आपस में जुड़ने को,

पूर्ण प्रेम को पाने को,

व्यथित हुआ है जगत में,

जीव अपना अस्तित्व बनाने को,

इसी धुन में जन-जीवन चलता,

तन मिलता, मन नहीं जुड़ता,

कण-कण में जब बिखरा है,

वो कैसे मिले जमाने को ।।

उठो वीर जवानो

September 27, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

उठो वीर जवानो भारत माता,

तुम्हे पुकार रही,

अपने लालों के लहू का,

बदला माँग रही,

अपने अमर जवानो के पथ पर,

चलने को ललकार रही,

उठो वीर जवानो भारत माता,

तुम्हे पुकार रही,

आज फिर भारत माता ,

पर आघात हुआ,

देश के हुकूमरानो की,

विफलता का आभास हुआ,

आतंक और दंगा अब आम हुआ,

उठो वीर जवानो भारत माता,

तुम्हे पुकार रही,

चण्ड बनो,दबंग बनो,

साहस और उमंग भरो,

देश के गद्दारों का,आतंकियो का,

हत्यारों का दम्भ तुम भंग करो,

भारत माता के सपूत तुम,

आज़ाद,भगत सिंह, सुभाष बनो,

गाँधी का विश्वास बनो,

पटेल की आस बनो,

उठो वीर जवानो भारत माता,

तुम्हे पुकार रही,

जन-जन से अपने लालों के,

लहू का बदला माँग रही ।।

काल चक्र

September 27, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

काल चक्र में घूम रही,

मैं कोना-कोना छान रही,

हीरा पत्थर छाँट रही मैं,

तिनका-तिनका जोड़ रही,

उसमें भी कुछ हेर रही,

संजोऊँ क्या मैं भरमाऊँ,

कण-कण में फँसती जाऊँ,

इस  क्षण  में. डूबूँ या स्वपनिल,

चमन में  मैं  उड़  जाऊँ,

चरखा डोर पतंग हुआ मन,

इस क्षण बाँधूू चरखे से डोर,

सरपट दौड़े मन पतंग की ओर,

डोर से पतंग जोड़ने की होड़,

बिन डोर पतंग उड़े उन्मुक्त,

चमन की ओर,चरखे पतंग में,

डोल. रहा मन , डोर निरा,

वर्तमान  बना  है,भूत-भविष्य में,

दौड़  रहा मन,

बहुत कठिन है,

समय संग मन की दौड़,

काल चक्र तो चलता जाए,

क्या संजोऊँ,क्या मैं पाऊँ,

भूत -भविष्य में गोते खाऊँ,

बस यूँ हीं भ्रम में फँसती जाऊँ,

काल चक्र में घूमती जाऊँ ।।

अभेद में भेद

September 15, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

किसने  मानव  को  सिखाया,

करना  अभेद  में   भेद।

एक  निराकार  परमात्मा,

अनन्त, अविनाशी, अभेद,

हम  मानव  झगड़  रहे ,

कर  उसके  भेद।

एक  हीं  जमीं  एक  आसमां,

एक  हीं  सूरज- चाँद,

फिर  क्यूँ  मानव  झगड़  रहा,

खुद  को  सीमाओं  में  बाँध।

कैसा  देश  कैसा  विदेश,

एक  हीं  तो  है,

हमारा    परिवेश ।

क्या  मानव  रखेगा ,

अब   धूप- छाँव  का,

भी  बहिखाता  सहेज।

एक  सी  मानव  संरचना,

धमनियों  में  संचारित,

रक्त  का  रंग  भी एक।

फिर  क्यूँ   करता  मानव,

एक- दूजे  में  भेद।

किसने  मानव  को  सिखाया,

करना  अभेद  में भेद।।

https://ritusoni70ritusoni70.wordpress.com/2015/10/04/

चिर आनन्द की अभिलाषा

September 15, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

चिर आनन्द की अभिलाषा में,

चंचल मन व्याकुल रहता है,

अंधियारे-उजियारे में,

कुन्ज गली के बाड़े में,

देवालय में,जीव-निर्जिव सारे में,

ढूँढ़़-ढूँढ़ थक हारी मैं,

इस जग की सारी कृति,

कराहती  पुकारती आनन्द की,

चाह में धून अपनी सँवारती,

व्याकुल मन पल-पल गढ़े,

सपनो के ताने-बाने बुने,

नदिया भी व्याकुल कल-कल करे,

हवा भी सन-सन करे,

जीव सारे कर्मों में  लगे,

आनन्द  कैसे  कहाँ  मिले,

सोच-सोच कर हारी मैं,

सुना हरि नाम की प्याला में,

विष पीकर भी मीरा तृप्त हुई,

हरि नाम की माला ,

मैं पल-पल फेरू,

पग-पग  हेरू,

कान्हा -कान्हा पुकारू मैं,

कान्हा मन में विलीन पड़े हैं,

कैसे उन्हें पहचानू  मैं ।।

https://ritusoni70ritusoni70.wordpress.com/2016/09/09/

जाने किस कशमकश में

September 12, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

जाने किस कश्मकश में,

जिंदगी गुजरती जा रही है,

न जाने मैं अपना न पाई या,

जिंदगी मुझे आजमाती रही,

बहुत हीं कच्ची डोर में,

ये पतंग फँसी हुई है,

न जाने किस गुमाँ में,

उड़ती चली जा रही है,

नादान है जिन्दगी या,

मुझे कुछ समझा रही है ,

न जाने क्यूँ मुझ पर ,

इतना हक जता रही है,

जिंदगी तेरी पाठशाला मुझे,

उलझाती जा रही है,

बस यूँ हीं तुझे समझते,

कुछ कहते सुनते,

ये उम्र चली जा रही है,

यूँ तो तुझसे कोई शिकवा,

नहीं है जिन्दगी मुझे तो,

तेरे संग चलते-चलते,

एक अरसे हो गया है,

अब तो पग-पग बढ़ाने का,

तजुर्बा हो गया है,

फिर भी मोड़ कितने हैं,

आजमाना रह गया है,

जिंदगी मुझे तुझ में,

तुझे मुझ में समाना रह गया ।।

 

https://ritusoni70ritusoni70.wordpress.com/2016/09/02

मदहोश हम

August 24, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

मदहोशी में जीवन कारवाँ,

चला जा रहा है,

लड़खड़ाते कदम,ठिठक जाते कदम,

दिशाहीन मन,बिना पंख,

उड़े जा रहे हैं,

ख्वाबो के अधीन हम,

हैरान हैं,  परेशान हैं ,

मन्तव्य क्या, मन्तव्य क्या,

बस यूँ हीं बढ़े जा रहे हैं,

कौन हैं, क्या हैं,

हम कौन,तुम क्या,

मदहोशी के आलम में,

समय में घुले जा रहे हैं,

रफ्ता-रफ्ता धुआँ बन,

उड़े जा रहे हैं,

खुश हैं कि हम तो,

जीए जा रहे हैं,

जिंदगी से हम ठगे जा रहे हैं,

बेहोश हैं क्या पता,

हम दलदल में फँसे जा रहे हैं,

बिखराव है, फैलाव है,

जीवन को समेटे कैसे,

जब तृण-तृण कर ,

फना हो रहें हैं,

प्रकृति में रवाँ हो रहें हैं,

बेखबर हैं जगे हैं या,

ख्वाबो में जीए जा रहे हैं,

मदहोशी में जीवन के ,

हर रंग पिए जा रहे हैं,

हम तो जीए जा रहे हैं ।।

https://ritusoni70ritusoni70.wordpress.com/2016/08/24

अभी बाकी है

August 12, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

https://ritusoni70ritusoni70.wordpress.com/2016/08/12

जीने की लय में,

अभी सरगम बाकी है,

बारिशो के बाद,

इन्द्रधनुषी छटा आती है,

चकाचौंध रोशनी न सही,

अभी झरोखों से किरण आती है,

जिंदगी कहीं न कहीं ,

अभी बाकी है ।

चरमराई सी चारपाई में,

अभी दम बाकी है,

दो पहर न सही,

रात में नींद तो आती है ,

जिंदगी कहीं न कहीं ,

अभी बाकी है ।

बसंती हवा न सही,

पतझड़ की बयार तो आती है,

नव जीवन की आस ,

अभी बाकी है ।

सरपट रास्ते न सही,

पगडंडी तो मुझ तक आती है,

सूख गयी दरिया तो क्या,

पर्वतो पर बर्फ ,

अभी बाकी है,

कपकपाती लौ सही,

चिराग में तेल,

अभी बाकी है,

जिंदगी कहीं न कहीं,

अभी बाकी है ।।

बनते बिखरते क्रम

August 4, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

जीवन चक्र के बनते बिखरते क्रम में,

कितने पल हम मिल-बाँट जीए,

कुछ छिछले बर्तन सम,

द्रवित पल न थाम सके,

कितने मोती सम पल,

समय की धार में फिसल गए,

कितनी रातें सहमी -सहमी,

नीरस दिन यूँ  निकल गए,

कितने पल छलते जीवन के,

समय के गर्त में समा गए

घनघोर काली बदली झम-झम बरसे ,

जैसे हो विहवल ऐसे ही ,

अवसाद के कुछ पल,

निर्झर बन रमते मन में ,

पल-पल जीने-मरने के क्रम से,

मन को मैंने अब आज़ाद किया,

किसने किसकी साँसो में,

कब बसना स्वीकार किया,

हृदय वीणा की धुन में,

किसने कब विश्राम किया,

जीवन चक्र के बनते बिखरते क्रम में ,

जीना हमने जान लिया ,

बनते बिखरते  क्रम  को ,

जीवन मैंने मान लिया ।।

https://ritusoni70ritusoni70.wordpress.com/2016/08

हाँ रहने दो

July 23, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

भ्रांति की अविरल धारा बहने दो,

जिजीविषा काया की रहने दो,

खंडित जीवन की अभिलाषा,

जो कुछ शेष है  सहने. दो,

हाँ, रहने दो,कुंठित मन की कामना,

हास-परिहास की भावना,

जीवन चक्र की सतत प्रताड़ना,

मृगतृषित  मन को सहने दो,

हाँ, रहने दो ,इस क्षण में,

जीने  की  लालसा,

विचलित मन की साधना,

आकांक्षाअो  की आराधना,

जो कुछ शेष है,रहने दो,

हाँ, रहने दो, भ्रांति की,

अविरल धारा बहने दो ।।

https://ritusoni70ritusoni70.wordpress.com/2016/07/18/

मन में

July 19, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

बिन मौसम बरसात  हो,

जब बिन मेघ वज्रपात,

होता है तब मन में ,

पत्र  विहिन  वृक्ष के ,

दुुखो. का  एहसास ।

जब निर्विकार मन में ,

बोता है कोई विकृत बीज,

आहत हो जाते हैं सपने,

निज अपनो से भयभीत ।

जब हर्षोल्लास की दुनिया से,

रहे  न  कोई  प्रीत,

पग की ठोकरो से ,

न हो मन भयभीत ,

तब कोई मीरा बन ,

कान्हा से करे प्रीत ।

जब कभी एकान्त में ,

अन्तर्द्वन्द से मन जाय जीत,

तब कहीं शांत मन में ,

बनता  अपना तस्वीर ।

बिन मौसम बरसात हो,

या बिन मेघ वज्रपात,

जो भी होता इस जीवन में,

दे  जाता  है  कोई  सीख ।।

https://ritusoni70ritusoni70.wordpress.com/2016/07/14

कच्ची मिट्टी के हम पुतले

July 19, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

कच्ची मिट्टी के हम पुतले,

तपे गर जीवन भट्टी में,

तो  जगतहार  बने,

जैसे  सोना तप भट्टी में ,

अलंकार.  बने ,

कच्ची मिट्टी के हम पुतले,

अपनी. किस्मत आप गढ़े,

जैसे बरखा की कोई बूँद,

सीप में गिर मोती बने,

कच्ची मिट्टी के हम पुतले,

तपे न गर जीवन में,

तो फिर बेकार जीए,

बनते-मिटते ये जीवन क्या,

कितने ही जन्मो का चक्र,

हमने  पार. किए, जैसे

गीली मिट्टी चाक पर,

फीर- फीर  हर बार,

बने, हर बार मिटे ।

https://ritusoni70ritusoni70.wordpress.com/2016/07/12

तुम्हे है दूर जाना

July 14, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

उठो पथिक तुम्हे है दूर जाना,

नदिया, सागर, पर्वत के पार जाना,

ऊँची-नीची  डगर से मत घबराना ।

कितने ही चट्टान हो पथ में,

लहरो ने है कब हार माना,

बढ़ाते जाना और बढ़ते ही जाना,

जीवन जीना उसी ने जाना ।

अँधियारे पथ में है दीपक जलाना,

बंजर भूमि में है फूल उगाना ,

तूफानो का है सागर में आना-जाना,

नाविक ने कब है हार माना ।

जब ठान लिया कुछ करना है,

सोना से कुन्दन बनना है,

फिर तपने से क्या डरना,

गन्तव्य पथ की बाधाओं को,

हँसते-हँसते पार करना ।

उठो पथिक तुम्हे है दूर जाना ।।

https://ritusoni70ritusoni70.wordpress.com/2016/07/08

मन में

July 14, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

बिन मौसम बरसात  हो,

जब बिन मेघ वज्रपात,

होता है तब मन में ,

पत्र  विहिन  वृक्ष के ,

दुुखो. का  एहसास ।

जब निर्विकार मन में ,

बोता है कोई विकृत बीज,

आहत हो जाते हैं सपने,

निज अपनो से भयभीत ।

जब हर्षोल्लास की दुनिया से,

रहे  न  कोई  प्रीत,

पग की ठोकरो से ,

न हो मन भयभीत ,

तब कोई मीरा बन ,

कान्हा से करे प्रीत ।

जब कभी एकान्त में ,

अन्तर्द्वन्द से मन जाय जीत,

तब कहीं शांत मन में ,

बनता  अपना तस्वीर ।

बिन मौसम बरसात हो,

या बिन मेघ वज्रपात,

जो भी होता इस जीवन में,

दे  जाता  है  कोई  सीख ।।

https://ritusoni70ritusoni70.wordpress.com/2016/07/14

अनछुए पल

July 4, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

https://ritusoni70ritusoni70.wordpress.com/2016/07/04

वो   अनछुए   पल,

जिनको मैंने जिया नहीं,

उन्मुक्त जीवन की छटा थी,

या  कि  नव  सृजन. की

कपोल. कल्पित परिकल्पना ।

जो  भी  थी  मुमक्षा,

विलय  होने  की ,

उनमें समा जीने की,

सुगंध   का  फूलों में,

होना  बयाँ. करती थी ।

उन पलो में जीने की,

ललक  इतनी  थी कि,

ऊँची-नीची डगर की,

समझ  कितनी. थी ।

उनमें  परियों की कथा थी,

कि सतरंगी जीवन जीने की,

अदा  थी जो भी थी ।

उन अनछुए पल की,

खता  इतनी  थी ,

कि समय  की  नाजुकता ,

उनमें बसा करती थी ।।

जो तुम मेरे होते

June 29, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

https://ritusoni70ritusoni70.wordpress.com/2016/06/28

जो तुम मेरे होते ,
निरिह विरह में व्याकुल मन से,
मेरे  चित की सुन्दरता जान लेते,
मन्त्र-मुग्ध मन में मेरे ,
अपनी धुन पहचान लेते,
जो तुम मेरे होते,
लोलुप मन विचलित न होता,
तुम नीर बिन मीन की,
पीड़ा जान लेते , पूर्ण चन्द्र का,
चाँदनी को समेट लेने की तन्मयता,
स्पंदित हृदय का धड़कनो में समन्व्यता,
जान लेते तुम,जान लेते,
लय का सरगम बनने की आतुरता,
जो तुम मेरे होते,
जान लेते अपने साये में,
मेरे पदचाप की धुन पहचान लेते ।।

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अश्को की शबनमी लड़ी

June 27, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

दृग कोमल ढूँढ़ रहे,
अश्को की शबनमी लड़ी,
भावनाओं में जो बसती,
सुख -दुख में बूँद-बूँद बरसती।

सागर में जा मिली या,
कि सीप में मोती बनी,
आह! मैं तो नहीं पी रही,
घूँट- घूँट  घुटन भरी ।

भावनाओं की उथल- पुथल,
कहाँ गयी सुख-दुख की कोलाहल,
बोझिल पलकें हो चली,
नज़रे फिर भी शुष्क पड़ी ।

दिल का दरिया सूख चला,
सुख -दुख अब कैसे पलें,
करूण क्रंदन गरजते बादल,
सम हुए,बरसते-बरसते रूक पड़े ।
दृग कोमल ढूँढ़ रहे ,
अश्को की शबनमी लड़ी ।।

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आ जाओ

June 20, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

मलय पवन बन,
आ जाओ मन उपवन में,
सजल नयन है,झील कमल है,
लोक-परलोक का कौतूहल,
है निज चितवन में ।
प्रखर  सूर्य  बन ,
आ जाओ मन दर्पण में,
धूमिल छवि है, स्तब्ध पड़ी है,
नव किरणो का संभल दे कर,
तन मन अलंकृत कर दो ।
पूर्ण  चन्द्र  बन,
आ जाओ गुनगुनी निद्रा में,
दिवा स्वप्न के द्वारे,झिलमिल तारे,
चाँदनी का रूप निखारें,
ऐसे ही शीतलता दे कर,
सपनो को मेरे सँवारो ।
निर्झर की निर्मल धारा बन,

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 जाओ समय के इस क्षण  में,

अविरल बहना,नदिया में रहना,

ऐसे ही जीवन डगर पर संग रहना ।।

प्रेम पीपासा

June 19, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

प्रेम पीपासा तृ्प्ती की आस,

भटक रहा जीव अनायास,

प्रेम व्याप्त है अपने अन्दर,

ढूँढ रहा घट-घट के अन्दर,

प्रेम ऐसा अनमोल खज़ाना,

देने से हीं मिल पाता,

माँग रहे सब प्रेम यहाँ

देने को न कोई तैयार,

ढूँढ रहे सब गठबंधन में,

रस्मों के दायरे में बाँध,

ये कहाँ है बँधने वाला,

अविरल ये तो बहने वाला,

प्रेम उन्हीं को मिल पाता,

जो ढूँढे अपने में आप,

प्रेम खज़ाना असीम अपार

बंधन में न इसको बाँध,

प्रेम जीवन की है  प्यास,

ढूँढो इसको अपने पास,

प्रेम पीपासा तृप्ती की आस,

भटक रहा जीव अनायास

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