साथ तो सब हैं

साथ तो सब हैं, फिर भी तनहा सफ़र अपना,
हज़ारों मकाँ की बस्ती में, अकेला घर अपना।

तुम हो ख़ामोश, मैं भी गुमशुम-सा हूँ यहाँ,
तूफ़ाँ में झुकाए सर बैठा है शजर1 अपना।

दुनिया के ये करामात-ओ-करतब देखकर,
भूल गए हैं कलाकार भी अब हुनर अपना।

चीख भी नहीं सकते सुकून से अब हम यहाँ,
छुपाकर रखा है हमने, सन्दूक में डर अपना।

ऊँची-ऊँची इमारतों के ओछे मंसूबे देखकर,
लगता है बेहद अज़ीज़ अब खंडहर अपना।

कैद है दीवारों में कई सारे दरिया जमाने के,
खुला है अब भी आसमाँ सा समंदर अपना।

मरासिम2 के लिए आए हो तो लौट जाओ,
छेड़ो न इसे, दिल है अब भी ख़ुदसर3 अपना।

1. पेड़; 2. रिश्ते; 3. हठी।

 

यह ग़ज़ल मेरी पुस्तक ‘इंतज़ार’ से ली गई है। इस किताब की स्याही में दिल के और भी कई राज़, अनकहे ख़यालात दफ़्न हैं। अगर ये शब्द आपसे जुड़ पाए, तो पूरी किताब आपका इंतज़ार कर रही है। – पन्ना

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