जल – धारा
कुंदन सी निखर गई,
टूटे मोती सी बिखर गई।
अंतर्मुखी सब कहने लगे,
सबका कहना सह गई मैं,
जल – धारा सी बह गई मैं ।
कुंदन सी निखर गई,
टूटे मोती सी बिखर गई।
अंतर्मुखी सब कहने लगे,
सबका कहना सह गई मैं,
जल – धारा सी बह गई मैं ।
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कमाल की पंक्तियाँ
धन्यवाद जी 🙏
बहुत खूब
धन्यवाद भाई जी 🙏 आपका स्नेह यूं ही बना रहे।
सबका कहना सह गई मैं,
जल – धारा सी बह गई मैं
लाजबाब कविता, सैल्यूट है।
बहुत अच्छी समीक्षा है । सादर आभार एवं धन्यवाद सर🙏
बहुत खूब
आभार सर🙏 बहुत बहुत धन्यवाद
Bahut Badhiya
Thanks for your lovely comment indu ma’am.
बहुत सुंदर
बहुत बहुत शुक्रिया जी
कुंदन का निखरना भी जरुरी था,
टुटे माला यह भी जरुरी था|
अंतर्मुख रहकर सिध्य किया,
सत्य झूठ सह सकता,
पर झूठ सत्य नहीं हो सकता|
आप अपनी लेखनी में✍
गागर मे सागर भरने का काम करतीं हैं 🙏
बहुत बहुत शुक्रिया आपका ऋषि जी🙏
बहुत खूब
Thank you very much 🙏
वाह वाह
बहुत बहुत शुक्रिया ईशा जी💐
सुन्दर अभिव्यक्ति