अनकही
दिल की दवात से
स्याही लहू का बहता रहा,
कभी वक्त ने मुझको लिखा,
कभी तारीख अपनी मैं लिखता रहा ।
कभी लिखा बेमुकद्दर दस्ताने-जीस्त अपनी,
कभी अस्क बहाती आरज़ूओं को कहता रहा ।
कभी लिखी खोई खनक ख्वाबों की,
कभी दर्द वसल का सहता रहा ।
पर लिख न पाया दूरियाँ उन फासलों की
जो दरमियाँ थी फलक और ज़मीं में,
और लिख न पाया दर्द उन पलों की
ख्वाईश जिसे जीने की, बदल न पाया यकीं में ।
लिख न पाया उस प्यास को
कागज़ों से रिसते लहू से जिसे भिगोता रहा ।
लिख न पाया उस अनजानी आस को
सीने के अन्तर में हरदम जो सोता रहा ।
कही हर बात जितनी वो चुप हैं, खामोश हैं ।
हर नज़्म मेरी, ज़िन्दगी के लगते अवशेष हैं ।
और कहने को थी जितनी बातें, जितने किस्से
वो आज भी अनकही, शेष हैं ।
behatreen!