पैदाइशी समझदार तो
पैदाइशी समझदार तो
हम भी न थे,
मगर परिस्थिति ने
समझने लायक बना दिया
पैदाइशी जिम्मेदार तो
हम भी न थे,
मगर छोटी सी उम्र में
आई जिम्मेदारी ने
जिम्मेदारी उठाने लायक बना दिया।
हमारी उम्र के बच्चे
गुड्डे-गुड़ियों से खेलते हैं
औऱ हम बचपन में ही
सयानी बन गई
अपनी किस्मत से खेलते हैं।
छाती से चिपका कर
छोटे से भैया बहनों को
फुटपाथ पर हम ठंड झेलते हैं।
सुना है बच्चे एक गिलास सुबह
एक शाम, दूध पीते हैं,
हम दूध कहाँ
आधा पेट रहकर जीते हैं।
लोग कहते हैं समाज बहुत आगे चला गया है।
लेकिन हमारा वक़्त वहीं का वहीं रह गया है।
अतीव सुन्दर
Nice poem
निर्धन बच्चों के कठिन जीवन पर प्रकाश डालती हुई कवि सतीश जी की यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करती हुई बहुत सुन्दर पंक्तियां
वाह वाह
बहुत खूब