महीने का अंत

ज़िन्दगी गरम तवे सी हो रखी है।
ऐसा-वैसा तवा नहीं।
महीने भर खर्चों की आग में
सुलगता तवा!!
गरम तवे को राहत देने
महीने भर कोई न आता है।
महीने के अंत में दफ्तर से
राहत के नाम पर “तनख्वाह”
पानी की छींट
जैसी कुछ आती है।
सन्न सन्न की आवाज़ कर
भाप बन उड़ जाती है।
ये तनख्वाह छींट भर ही क्यों आती है।
एक दिन में क्यों स्वाहा हो जाती है।
तवा धीरे धीरे धधक रहा है।
ताप के मारे पता चला किसी दिन
ये पिघल रहा है।
हे! तनख्वाह तुम बारिश सी कब बरसोगी?
कब तुम महीने का अंत देख
बरसने को तरसोगी।
bahut hi umda
लाजबाव
nice poem
bahut khoob