आंतरिक जीत

जब लेटी समतल भू पर,
ऊपर रजनी का फैलाव और टिम टिमाते तारे,
भीतर एक एहसास अनुभव हुआ,
एक अजब शांति छा गई।

इतने सुन्दर आंखों को भा रहे थे कि,
पलक झपकाने का मन नहीं किया,
और जब चील के डर से अकस्मात उठ बैठी,
तो सब तरफ बिलबोर्ड और अपार्टमेंट का घेर देख,
झटके से फिर लेट गई ।

जैसे प्रकृति की कुशलता और विभूति ने
चुंबकी आकर्षण दिखाया |
नाकामियों के खोंखलेपन ने एकांत भेंट किया,
जो आदि में विष और क्रमश: अमृत लगने लगा,
आंतरिक तुष्टि देने लगा।

जितना पाया उतना चाहा,
बिन मांगे कुछ अमूल्य मिल गया।
क्या खोया, स्मरण ही नी!
निश्चित बहुत छोटी कीमत ही अदा की।

जो चाहा वो खोया,
पर खुद को पा लिया,
परिणाम स्वरूप पाया कि
शायद वो मेरी इच्छाएं थी भी नहीं,
समाज की सत्ता हावी थी मेरे अस्तित्व पर।
अब मुसीबत में
ये नेत्र अनुभवी को नही
बल्कि एक शांत कोना और खुला आसमान ढूंढते हैं।

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