दुर्गा भाभी – 02

अनगिनत वर्ज़नाओ की बंदिशो में, नारी जकङी हुई थी
क्रांति की अलख जगाने,धधकती विद्रोह में कुद पङीथी
मुखबिर, कभी भार्या बन, वतन का कर्ज चुका रही थी
नाउम्मीदी के तिमिर में, हर साँस जल रही थी—-
जीवट-भरी थी वो महिला, दुर्गा भाभी थी कहाती
जिनके बिना अधूरी, आजादी की दासताँ रह ज़ाती
भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव के पनाह दे रही थी
नाउम्मीदी के तिमिर में, हर साँस जल रही थी—-
वीरों की फाँसी के बदले, दम्पति सर्जेट पे गोली चला दी
इन दिलेर कारनामों ने फिरंगियों की निन्द उङा रखी थी
अंग्रेजों के आँखो में किरकिरी बन खटक रही थी
नाउम्मीदी के तिमिर में, हर साँस जल रही थी—-
अपना सर्वस्व लुटा के, कालकोठरी भी गयी वो
पर हम कृतघ्न ऐसे, उनके अहसान भूल बैठे
स्वतंत्रता दिला के, अंतिम क्षणों में, गुमनाम मर रही थी
उम्मीद की लौ, जल-जल के, बुझ रही थी
नाउम्मीदी के तिमिर में, हर साँस जल रही थी—-
” श्रद्धा सुमन है ज्ञापित, उन देव तुल्य आत्मा को
नि:स्वार्थ त्याग भावना से, जो मर मिटे थे ”

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