द्रौपदी

यज्ञ से जन्मी,यज्ञसेनी हूं में,
अरे मुझे तू क्या छूएगा,

एक ही श्राप से यह सभा भस्म करदूं,
ऐसा परिणामम सह पाएगा?
मौन खड़े हैँ महाज्ञानी यहाँ,
धर्म शीश झुकाए खड़ा है,
अरे पापी दुर्योधन,
अभी कहाँ तेरा पाप का घड़ा भरा है?
एक वस्त्र से लिपटी मैं,
एक ही श्राप दूँगी,
क़ोई एक ना बच पाओगे तुम,
सम्पूर्ण कुरु वंश डूबा दूँगी ||
रण हूंकार नहीं,
अपशब्द नहीं,
नाही क़ोई भर्छना,
पीड़ित ह्रदय का एक हाय काफी होगा,
इस पापी कुरु वंश को जलना होगा ||
हे पितामह,
भारी हुई आंखें नहीं, रक्षण दीजिये,
कुलवधु हूं मैं आपके वंश का,
मेरा लज्या निवारण कीजिये ||
गुरु द्रोण,
बेटी कहते थे ना आप मुझे,
फिर मेरे साथ ऐसा भेद क्यों,
जब बात मेरे सम्मान की आयी,
तो यह असहायता क्यों ||
दृपद-कन्या ,द्रोपदी
पांच पाण्डवों की पत्नी, पांचाली,
कुरु वंश की कुलवधु, इंद्रप्रस्थ की सम्राज्ञी,
खड़ी हूं मैं इस सभा में,
निर्वस्त्र,
निसाहय,
क्या यही न्याय है आर्यवर्त्त के वीरों का?

आर्य?
हा!!आर्य नहीं है क़ोई यहाँ!!
जिसमें पौरुष नहीं,
मर्यादा का ज्ञान नहीं,
स्त्री के लिए सम्मान नहीं,
वह आर्य नहीं!

और वीर?
कहाँ हैँ वीर?
कपटी कायरों की सभा है यह,
जो निशस्त्र नहीं कर पाए,
तो निर्वस्त्र किया,
युद्ध करने का सामर्थ्य नहीं,
तो छल से द्युत किया,
अरे जहाँ शौर्य नहीं, संस्कार नहीं,
वहां वीर नहीं ||

नहीं स्वीकार मुझे इस पाप का परिणाम,
पिता, पति, वंश से परित्यक्ता मैं,
मेरे लिए हैँ मेरे श्याम||

हे गोविन्द,
सम्भालो अपनी सखी की आन,
दासी द्रोपदी की अब तुम्ही हो भगवान् ||

-कृष्णा मोहन्ति

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