पाप करता हूँ
भरी बरसात है
फिर भी कलम से
प्यास लिखता हूँ,
समर्पित हो मगर फिर क्यों
वहम को पास रखता हूँ।
नजर पर रख कोई पर्दा
हमेशा पाप करता हूँ,
यहीं पर हीन हूँ मैं
बस गलत का जाप करता हूँ।
सही दिखता नहीं पर्दे से
कमियां खोजता हूँ बस,
मूढ़ हूँ यदि स्वयं के प्रिय पर
करता हूँ कोई शक।
बहुत ही सुन्दर भाव, बहुत ही लाजवाब कथन, वाह सर वाह
बहुत बहुत धन्यवाद
कवि सतीश जी की इस श्रेष्ठ रचना का किरदार कुछ पशोपेश में है ,लेकिन फिर भी भावनाएं सुंदर होने के कारण अपनी कमियों को भी महसूस करता है । अति भाव पूर्ण एवम् उत्तम रचना .
कविता के भाव का विश्लेषण करती इस सुंदर टिप्पणी हेतु बहुत बहुत धन्यवाद गीता जी, बहुत बहुत आभार।
अतिसुंदर
सादर धन्यवाद जी