महत्वाकांक्षा की क्षुधा
41: महत्वाकांक्षा की क्षुधा
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अपनी जिद की बलि वेदी पर,
नौनिहालो को कुर्वान मत होने दो ।
अपनी महत्वाकांक्षा की क्षुधा को ,
बस शान्त रहने दो ।।
अधूरे स्वप्न अपने वंश के ,
विरासत में मत छोडो ,
उन्हें खुद से स्वप्न गढके ,
फिर उस क्षितिज की ओर बढ़ने दो ।
अपनी महत्वाकांक्षा की क्षुधा को
बस शान्त रहने दो ।।
टोका-टोकी का संबल मत दो ,
ना ही सहानुभूति की बैसाखी ,
खुद से ठोकर खाकर,
उन्हें खुद से संभलने दो ।
अपनी महत्वाकांक्षा की क्षुधा को
बस शान्त रहने दो ।।
ठोकरों से जो जख्म मिलेंगे
उनके आत्मविश्वास को पंख देगे
खुद के बनाये पंखों से,
उन्हें खुद से उङान भरने दो ।
अपनी महत्वाकांक्षा की क्षुधा को
बस शान्त रहने दो ।।
उङने के क्रम में गिरेगे,गिरकर फिर संभलगे
खुद के बनाये पथ से,खुद का जयगान करने दो ।
अपनी—–‘
अतिसुंदर रचना
बहुत बहुत धन्यवाद
बेहतरीन प्रस्तुति
बहुत बहुत धन्यवाद
बहुत खूब
बहुत बहुत धन्यवाद
वाह! माता ,पिता को निज महत्वाकांक्षा बच्चों पर ना लादने की सीख देती हुई बहुत सुंदर रचना 👌
बहुत बहुत धन्यवाद
सुंदर कविता