इंसान हूं मगर ,काल्पनिक सा।
#इंसान हूं मगर ,काल्पनिक सा”
जैसे पशु और पक्षियों का
अपना वर्ण और रूप होता है ,
वैसे ही मैंने जन्म लिया ;
इंसान के रूप में।
पर ये क्या हुआ, मैं इंसान तो था ;
पर नाम का।
जैसे-जैसे मेरा स्वरूप बदला
वैसे-वैसे मेरा वर्ण भी बदला
मैं हिंदू बना ,मैं मुस्लिम बना
कहीं सिख बना तो कहीं ईसाई,
और कहीं अमीरी- गरीबी की हैं, खाई!
बात यहीं तक नहीं है, सीमित!
जातियां भी तो हमने बनाई!
यहां पहनावा और रंग – ढंग ,
लिबास बहुत भेदी हैं …
दाढ़ी के साथ मूंछ नहीं हैं ,
है सिर पर पगड़ी ,
या फिर जालीदार टोपी
माथे पर तिलक!
भगवा , हरा, सफेद ,सब बटे हुए हैं ,
एक दूसरे से।
अरे ! कर्म भी तो मुझको अलग करता है!
मैं शूद्र ! तु वैश्य! वो ब्राह्मण ! कोई क्षत्रिय !
कोई छोटा ,कोई बड़ा
इस दुविधा में मैं पड़ा!
अब तो काल्पनिक सा लगता है,
कि सही में , मैं इंसान हूं?
भगवान हूं या शैतान हूं,
ईर्ष्या और द्वेष से,
अहंम के प्रवेश से,
रहा कहां इंसान हूं,
रहा कहां इंसान हूं।
मोहन सिंह (मानुष)
सुंदर भावनाएं
धन्यवाद 🙏 जी
जमाने बदल जाते हैं पर प्रथा नहीं बदलती
जाने क्यों की थी जमाने ने यह भेदभाव की गलती
Nice poem 👏👏
धन्यवाद ,प्रिया जी!
आपकी पंक्तियां भी बहुत बेहतरीन!
Thankyou 🙏
Nice
थैंक यू नेहा जी
दो हाथ, दो पैर के एक समान इंसान को भेदभाव की विभिन्न श्रेणियों में बांट कर हम कल्पना लोक में ही तो जी रहे हैं, आपके द्वारा वर्णनात्मक शैली में समाज के यथार्थ को सामने लाया गया है, साधुवाद है।
व्यंग करते हुए रचना