दुखी इंसान

दुखी है आज इंसान देखो उसका व्यवहार।
कर रहा है मनमानी आगे पीछे की उसने नहीं जानी, अपनी अभिलाषा का दामन चाेड़ा कर लिया उसने जो कभी नहीं होने वाली पूरी उसकी इच्छा, इसी के चक्कर में दुख में डूबकर हो रहा है वह भौचक्का दुख में रोना सुख में सोना यही है उसका कारोबार देखो कर रहा है इतना धन इकट्ठा तो इंसान आज पर देता नहीं कभी कुछ हिस्सा गरीबों में दान जब हाथ से जाता है धनुष के तो रोता और सुनाता है अपनी व्यथा गाथा इंसान को देखो यहां इंसान गांव है उसका घर है उसका उसका परिवार मगर चंद रुपयों के लालच में गवाता है अपना घर बार और अंत में होता दुखी फिरता मारा मारा हो जाती है ऐसे में उसकी जीवन लीला समाप्त।
“जावेद खां” 9589412341

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Responses

  1. उठाया गया भाव अच्छा है
    परन्तु काव्य कला की प्रतिकूलता झलक रही है।
    शुरुआत की पंक्तियां ठीक दिशा में है। आगे चलकर
    वाक्यांश भटकाऊ को जा रहा है। फिर भी अच्छा प्रयास।।

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