बीतता गया समय
बदलती प्रकृति के
निराले खेल,
कितनी उमंग से उगी थी
बरसात में,
कद्दू, ककड़ी, लौकी की बेल।
मौसम बदलते ही
मुरझाने लगी, सूखने लगी
छोड़ गई अपने निशान,
बीतते रहे ऐसे ही दिन-वार
ताकता रह गया इंसान।
कभी हरा-भरा बना
कभी मुरझाया,
कभी हारा,
कभी महसूस की विजय
ऐसे ही बीतता गया समय।
अतीव सुन्दर, प्रकृति और जीवन की परिवर्तनशीलता पर बहुत अच्छी पंक्तियाँ
बहुत ही सुन्दर और सरल रचना ।कवि सतीश जी ने बदलते मौसम का ज़िक्र भी किया है । ऋतु बदलने से कभी कभी फल सब्जियों पर असर आ ही जाता है ,लेकिन ऋतु बदलने से इंसानी हृदय में परिवर्तन नहीं आता है ।हार, जीत तो ज़िन्दगी का हिस्सा है इनसे मनुज को नहीं घबराना चाहिए बल्कि हार से प्रेरणा और जीत का जश्न मनाते हुए ज़िन्दगी में खुश रहना चाहिए । यही इस कविता का सार है, जो बेहद ही शानदार है ।
बहुत खूब, अतिसुन्दर
Beautiful poem
अतिसुंदर रचना