चाँद
चाँद तुम रात भर
चले, चमके,
न जाने कब से
सिलसिला ये चला ।
अब तक चल रहा है,
चलते ही जा रहा है।
कोई जा रहा है,
कोई आ रहा है,
लेकिन तुम्हारा सिलसिला
चलता ही जा रहा है।
पूरब से पश्चिम
बिखराते रहे चाँदनी
उगते और अस्त होते रहे
आकार बढ़ता रहा
कम होता रहा,
सिलसिला चलता रहा,
मैं देखता रहा।
पूर्णिमा बना संसार को
प्रकाशित किया,
अमावस में छिप गए,
मिटने और उगने की
कथा लिख गए।
कमाल की उच्चतम स्तर की
बहुत बहुत धन्यवाद
अतिसुंदर भाव
सादर धन्यवाद
Very nice poem
Thank you
बहुत ही सुन्दर।
बहुत बहुत धन्यवाद जी