धरती और दरख़्त

धरती और दरख़्त
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तेज आंधी से झुका
वह विशाल दरख़्त,

धरती को बांहों में
भरने को आतुर था।

धरती देख झुकाव मतवाली थी
प्रेम वर्षा को वो भी तो आतुर थी।

तपती देह पर पत्तो की छाया ज्यो की,
असीम सुख पाने धरती नवयौवना बनी ।

अभी तक सींचती थी धरती दरख़्त ,
आज दरख़्त बादलों से पत्तों में जल लाया था।

आज बरसने की बारी दरख्त की थी।
तृप्त होने आज धरा आई थी।

दरख़्त मोम के जैसे पिघलता रहा,
बरसता रहा बस बरसता रहा।

प्रेम रस में नहा कर
दीवानी बनी
आज धरती देखो सुहागिन बनी।

निमिषा सिंघल

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