मिठास बढ़ने दे
रागिनी गा दे
या गाए बिना सुना दे
भीतर है जो उबाल
उसे बाहर निकलने दे।
मन की जुल्फों को उलझने दे
दिल की लगी को चारों ओर
बिखरने दे।
उसकी तपिश से बर्फ पिघलने दे।
हिलोरे उठने दे,
फलों की मिठास बढ़ने दे,
अपनेपन का अहसास होने दे
खुशी के आंसू रोने दे,
अधखिले फूल खिलने दे।
त्रिपुट में लगाने को
जरा चन्दन घिसने दे,
ठण्ड में अधिक ठंड का
अहसाह करने दे,
यूँ जकड़े न रह
जरा हिलने-डुलने दे।
प्रकृति से मानव मन की बहुत ख़ूबसूरती से तुलना की है कवि सतीश जी ने । बहुत सुन्दर कविता
बहुत बहुत धन्यवाद
बहुत खूब, very nice
Thank you
अति सुंदर
बहुत बहुत धन्यवाद
त्रिपुट में लगाने को
जरा चन्दन घिसने दे,
ठण्ड में अधिक ठंड का
अहसाह करने दे,
यूँ जकड़े न रह
जरा हिलने-डुलने दे।
यह पंक्तियां कवि के मन की
असीमित अतृप्तियों के संयोग का संगम है
प्रकृति के माध्यम से अपने हृदय के
सुंदर भावों से अवगत कराती कवि सतीश जी की रचना
बहुत बहुत आभार
अतिसुंदर
सादर धन्यवाद