मेरे ज़ख्मों का खाता
मेरे ज़ख्मों का खाता इक दिन नीलाम हो गया
दुश्मनों को मिला न हिसाब और इन्तेक़ाम हो गया
वाबस्ता थे जिन चेहरों से ,जो थे मेरे रात दिन
उनके चेहरों का रंग सारे शहर में सरे-आम हो गया
कब तलक छुपती है किसी चेहरे पे पड़ी नक़ाब
मेरे क़ातिल का खुद-ब-खुद क़त्ल -ऐ -आम हो गया
उसकी गैरत से कब भला मेरा वास्ता न था ,
उसकी निगाहों में मेरा और कोई इंतज़ाम हो गया
सुर्खिआं अखबार की बन जाओगे क़त्ल कर भी ‘अरमान’
तिरी नादानिओं का देख कैसा बद अन्जाम हो गया
राजेश ‘अरमान’
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