सहधर्मिणी तुम्हारी
आँखों में खटकती, फ़िर दिल में कैसे रहती
जद्दोजहद में गिर गिरकर मैं पग रखती
खुद ही खुद से हारी
कैसे कहूँ मैं हूँ सहधर्मिणी तुम्हारी ।
फ़िजाओ के रूख़ -सा मिज़ाज तेरा बदला
फिर भी धैर्य के संग ठहरा रह मन पगला
लेके उम्मीद सारी,
कैसे कहूँ मैं हूँ सहधर्मिणी तुम्हारी ।
अपेक्षाओं के मोतियों से,गुथी आशाओं की माला
तुम्हे भली जो लगे, उस रूप में खुद को ढाला
छोङी चाह प्यारी,
कैसे कहूँ मैं हूँ सहधर्मिणी तुम्हारी ।
तेरा-मेरा रिश्ता, रहे हमेशा सही- सलामत
हमसे जुङी है दो कुल, परिवार की चाहत
अपने अहम् को भी वारी,
कैसे कहूँ मैं हूँ सहधर्मिणी तुम्हारी ।
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
बहुत सुंदर शब्दों का चयन किया है आपने अपनी कविता में, हृदय को व्यथित करती हुई बेहद मार्मिक अभिव्यक्ति