अन्नदाता की व्यथा

“अन्नदाता की व्यथा ”
टुकड़े-टुकड़े हुई मेदिनी , कैसी ये लाचारी है ।
ऐसे उजड़े खेत कि जैसे , कोई विधवा नारी है ।

शीश पकड़ बैठा किसान है , प्रश्न हजारों साल रहे ।
कैसे अन्न उगाऊँ मैं यदि , सूखे जैसे हाल रहे ।
बिन बरसे ही मेघ सिधारे , प्यासी धरा हमारी है ।।
ऐसे उजड़े खेत कि जैसे , कोई विधवा नारी है ।

कर्जदार था पहले से ही , धरती माता रूठ गई ।
कैसे मैं परिवार चलाऊँ , आस अन्न की टूट गई ।
व्यथा वंश की शूल चुभाए , भार हृदय पर भारी है ।।
ऐसे उजड़े खेत कि जैसे , कोई विधवा नारी है ।

जल बिन जीवन हुआ असंभव , चमत्कार विधिना कर दे ।
कहीं पेड़ से लटक न जाऊँ , खेतों में पानी भर दे ।
पानी लेकर अन्न दान दूँ , उतरे सभी उधारी है ।।
ऐसे उजड़े खेत कि जैसे , कोई विधवा नारी है ।

करुण पुकार न पहुँची उस तक , जो जग का पालनहारा ।
समाधान जब नहीं हुआ तो , तरुवर पर फंदा डारा ।
झूल गया यूँ कृषक निशा में , गृह में सुता कुंवारी है ।।
ऐसे उजड़े खेत कि जैसे , कोई विधवा नारी है ।
✍ माया अग्रवाल
👉 विशाखापट्टनम

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