इन्सान हूँ इंसान समझो
इस तरह क्यों भेद का
तुम भाव रखते हो, बताओ,
मैं तुम्हारी ही तरह
इन्सान हूँ इंसान समझो।
मुफलिसी है श्राप मुझ पर
बस यही है एक खामी,
अन्यथा सब कुछ है तुम सा
एक सा पीते हैं पानी।
जाति मानव जाति है
धर्म मानव धर्म है
एक सा आना व जाना
फिर कहाँ पर फर्क है।
यह विषमता का जहर अब
फेंक दो इन्सान तुम
सब बराबर हैं, करो मत
भेदगत अपमान तुम।
बहुत सुंदर भाव है। अमीर गरीब का फर्क मिटाती हुई ज्ञान वर्धक रचना।
इस सुंदर समीक्षा हेतु आपकी प्रतिभाशाली लेखनी को सैल्यूट
Very nice
Thanks ji
Very nice
Thank you
अतिसुंदर
सादर धन्यवाद
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति
बहुत बहुत धन्यवाद