उलझी-सुलझी कविता – जगा आग
अंधेरे में घिरा आकाश
ठीक वैसा
जैसा खुद पर न हो विश्वास।
तारामंडल का टिमटिमाना
ठोस निर्णय ले न पाना,
ठीक एक जैसा है,
अपनी बात पर
स्थिर न रह पाने जैसा है।
कदम उठाना
तब उठाना
जब विश्वास हो खुद पर।
अंधेरा चीरने का
संकल्प हो जब
तब कदम उठाना
अन्यथा पड़े रहना
दिवास्वप्न देखना,
नहीं नहीं
आ अंधेरा तो
मिटाना ही होगा,
रात स्वप्न देखकर
सुबह उसे
सच बनाना होगा।
जाग, खुद पर
कर विश्वास,
मन स्थिर रख,
आगे बढ़ने की जगा आग।
वाह वाह, बहुत खूबसूरत कविता, मनोवृत्तियों की कविता
बहुत बहुत धन्यवाद
बहुत सुंदर कविता, अलग सी आधुनिक कविता
सादर धन्यवाद
वाह बहुत खूब
धन्यवाद जी
आत्म विश्वास के उपर बहुत ही सुन्दर रचना । आत्म विश्वास ही ना होगा तो मनुष्य कुछ नहीं कर पाएगा ।
लाजवाब✍ 🤔🤔✍✍✍👍👌
अतिसुंदर भाव
Beautiful poem
बहुत खूब बहुत शानदार
समीक्षा स्वरूप इतने सुन्दर शब्द पाकर मन में अतीव प्रसन्नता हुई। वाह बहुत सुंदर व्याख्या। गहरी जीवनानुभूतियों से जुड़ी उलझे मनोभावों की उलझी हुई इस कविता का इतना सटीक विश्लेषण करने हेतु आपको बहुत बहुत धन्यवाद।