गीत, गज़लें लिख रही हूँ..
गीत, गज़लें लिख रही हूँ
कुछ अलग ही दिख रही हूँ
होंठों पर हैं लफ्ज अटके
मन ही मन में पिस रही हूँ
आ गई अब शाम, दिन की
दोपहर ही लग रही हूँ
गुनगुनी-सी देह है और
ठण्डी-ठण्डी रात है
नींद है भटकी हुई सी
सिमटी-सिमटी लग रही हूँ
कुछ अलग ही दिख रही हूँ..
वाह, प्रज्ञा जी….. कमाल का लेखन है आपका हृदय की वेदना का बहुत ही खूबसूरती से वर्णन किया है।…… कलम को सलाम
आभार दी मैं भी सोंचा करती हूँ सबकी जी भर के तारीफ करूं पर कुछ समझ ही नहीं आता
ऊपर से समयाभाव भी रहता है
बस… यही तुम्हारी तारीफ़ मान ली मैने तो….Be happy dear pragya rani.
अतिसुंदर भाव
धन्यवाद
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति है मैम।
इस रचना के माध्यम से खुद की प्रस्तुति , क़ाबिले तारीफ़ है ।
गीत, गज़लें लिख रही हूँ
कुछ अलग ही दिख रही हूँ
बहुत ही सुन्दर पंक्तियों का सृजन किया है प्रज्ञा जी, भाषा की लय और सरलता काबिलेतारीफ है, आंतरिक रस व् संगीत की सृष्टि करती हुई सुन्दर कविता है, इस प्रतिभा को सैल्यूट है।
आप बड़े हैं आपको मेरा नमस्कार भाई
लाजवाब
Thanks
अतिसुन्दर
Thanks
बहुत सुंदर पंक्तियां
Thanks
Bahut umda
Thanks
धन्यवाद