मानवता को बचाओ..
जरा कम ही शोर मचाया करो
क्योंकि मैंने अक्सर शोर मचाने वालों को
भीड़ का हिस्सा बनते देखा है
जिनका स्वयं का कोई
अस्तित्व नहीं होता है
सिर्फ दूसरों का अनुसरण करते हैं
खुद की होती नहीं कोई पहचान
दूसरों की परछाई बनते हैं
है तेज तुममें तो शोर मत मचाओ
जाओ घर से बाहर
मरती मानवता को बचाओ
जाकर देखो जरा
दुनियाँ की परेशानियों को
अपनी परेशानी छोटी नजर आएगी
जब लगेगी भूँख तो सूखी रोटी भी
स्वादिष्ट बन जाएगी
जैसा बनाकर देती हूँ
चुपचाप खा लो वरना
जाओ किसी हलवाई से ब्याह रचा लो…..
भविष्य में सर्वाधिक काम आने वाली कविता
अतिसुंदर भाव
Thanks
वाह बहुत खूबसूरत
क्या बात कही आपने👌
सराहनीय कविता
Thanks
कवि प्रज्ञा जी की बेहद खूबसूरत कविता, सरल और बोधगम्य भाषा व शिल्प। बहुत खूब
Thanks
अति सुंदर भाव और सुंदर प्रस्तुति
Thanks