देख रहा दर्पण मनुज
देख रहा दर्पण मनुज
करने निज पहचान,
बाहर तो सब दिख गया
भीतर से अंजान।
भीतर से अंजान,
खिली लालिमा देख कर
मुस्काया मन ही मन
देखा जब सुन्दर तन।
कहे सतीश बाहर
भीतर रह तू एक,
आंख बंद कर निज
अंतस के भीतर देख।
देख रहा दर्पण मनुज
करने निज पहचान,
बाहर तो सब दिख गया
भीतर से अंजान।
भीतर से अंजान,
खिली लालिमा देख कर
मुस्काया मन ही मन
देखा जब सुन्दर तन।
कहे सतीश बाहर
भीतर रह तू एक,
आंख बंद कर निज
अंतस के भीतर देख।
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Very very nice
देख रहा दर्पण मनुज
करने निज पहचान,
बाहर तो सब दिख गया
भीतर से अंजान।
भीतर से अंजान,
खिली लालिमा देख कर
मुस्काया मन ही मन
देखा जब सुन्दर तन।
मनुष्य को अंदर से बाहर तक पहचानने की बात बताती कभी सतीश जी की बहुत ही प्यारी रचना
पाण्डेय जी की बहुत सुन्दर रचना
कहे सतीश बाहर
भीतर रह तू एक,
आंख बंद कर निज
अंतस के भीतर देख।
_______ तन से अधिक मन की सुंदरता मायने रखती है, यही जीवन दर्शन समझाती हुई कवि सतीश जी बहुत ही श्रेष्ठ रचना.. कवि ने गागर में सागर भर दिया बहुत उम्दा लेखन
Wow beautiful thought
लाजवाब रचना