Kavita
मैं धुंध शीत शीतलहरी भी ,
हूं ज्येष्ठ की तपती गरमी भी।
मैं आभा, मोहक प्रकृति की,
विश्वपटल, निज अंतिम भी।
हैं अतिशय परिवर्तन रुप मेरे,
मैं दैत्य भँवर विवर्तन भी ।
मैं शान्त शालिनी जोगन सी,
हूँ ज्वार!, सरिस विनाशन भी।
निज के अगण्य संतान हुए,
ले परिवर्तन अंतर्धान हुए।
हाँ! हैं,वे नित्य अवलंब मुझी से,
कभी जड़ तो कभी चेतन रहते।
बहुदा हैं देखें हर्ष हम्हीं नें ,
कहो वसंत या नवमंगल मेले।
हाँ!, विपदा भी भारी देखा है,
कब आँखों ने अश्रु ना उड़ेला है।
प्रतिपल मिलते नए रंग हमें,
तो प्रतिपल ही होते शोर घनेरे।
बहु विचित्र चित्र हैं, बनती मेरी,
क्या लिखोगे?, मेरी आत्मनिहारी!
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