पापा की लाडली
निकल ही गई ,जान मेरी!
जब नन्हीं-सी जान ,
पहली बार बीमार हुई।
औरों को भी थी गमी,
पर आंखों से मेरी,
बेमौसम बरसात हुई,
नहीं था होश,
मुझे ना जाने ,
कितनी बैचैनियो की बाढ़ हुई।
भागा मैं उसे लिए गोद में ,
पल पल मन में घबराहट हुई
फिर से वो मुस्कुराए,
जल्द फूल- सा वो खिल जाएं ,
मन से मेरे फ़रियाद हुई।
जब पहुंचा मैं अस्पताल में,
डॉक्टर !डॉक्टर! हाय!चित्कार हुई।
डरना तो बेकार है,
बस हल्का सा बुखार है!
डॉक्टर ने ये बतलाया।
दवा -दारू के दिए घोल से
बिटिया मेरी स्वस्थ-हाल हुई
जब गुंजाया घर ;
किलकारियों से उसने,
पापा- पापा शब्दों की
आवर्ती बारंबार हुई।
सुकून मिला ,बड़े चैन के साथ,
उस सुख की कोई सीमा न थी
आनंद ही आनंद घोर आनंद
संतुष्टि मन को इस बार हुई।
——–मोहन सिंह मानुष
संवेदनशील रचना
बहुत-बहुत धन्यवाद,🙏
👌✍🙏🙏🙏🙏🙏
बहुत बहुत धन्यवाद
बहुत ही सुंदर लिखा है, सर, वाह
बहुत बहुत धन्यवाद
सुंदर
बहुत बहुत आभार
पापा की परी, ऐसी ही होती हैं।
बहुत सुन्दर काव्य रचना।
आपने मन के उदगार काव्य में ढाल दिए लगते हैं….
बहुत बहुत आभार मैडम जी 🙏
बहुत सुंदर पंक्तियां