पापा की लाडली

निकल ही गई ,जान मेरी!
जब नन्हीं-सी जान ,
पहली बार बीमार हुई।

औरों को भी थी गमी,
पर आंखों से मेरी,
बेमौसम बरसात हुई,

नहीं था होश,
मुझे ना जाने ,
कितनी बैचैनियो की बाढ़ हुई।

भागा मैं उसे लिए गोद में ,
पल पल मन में घबराहट हुई
फिर से वो मुस्कुराए,
जल्द फूल- सा वो खिल जाएं ,
मन से मेरे फ़रियाद हुई।

जब पहुंचा मैं अस्पताल में,
डॉक्टर !डॉक्टर! हाय!चित्कार हुई।
डरना तो बेकार है,
बस हल्का सा बुखार है!
डॉक्टर ने ये बतलाया।
दवा -दारू के दिए घोल से
बिटिया मेरी स्वस्थ-हाल हुई

जब गुंजाया घर ;
किलकारियों से उसने,
पापा- पापा शब्दों की
आवर्ती बारंबार हुई।

सुकून मिला ,बड़े चैन के साथ,
उस सुख की कोई सीमा न थी
आनंद ही आनंद घोर आनंद
संतुष्टि मन को इस बार हुई।

——–मोहन सिंह मानुष

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Responses

  1. पापा की परी, ऐसी ही होती हैं।
    बहुत सुन्दर काव्य रचना।
    आपने मन के उदगार काव्य में ढाल दिए लगते हैं….

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