इंसान कहाँ मानते हो तुम
नहीं सोंचा था हमनें
इतना बैर मानते हो तुम
हम छिड़कते हैं जान तुम पर
और मुझे गैर मानते हो तुम
दूरियों से प्यार बढ़ता है
ये जमाने को कहते सुना करते थे
अब आया समझ में
मुझे क्या मानते हो तुम
बेकार ही है तुमसे दिल
लगाना मेरा
मेरे प्यार को प्यार
कहाँ मानते हो तुम
सबकी रखते हो खबर और
सबका खयाल
मुझको इंसान कहाँ मानते हो तुम…
कवि प्रज्ञा जी की बहुत भाव पूर्ण रचना और उसकी सुंदर प्रस्तुति
Thank u di
🙂👌✍
Tq
अतिसुंदर
Thanks
सुन्दर रचना
Thanks
बहुत खूब अतिसुन्दर
Thanks